कालिदास झेलम के किनारे पर खड़े थे. अप्रतिम, अनन्य, उत्कट,
अनुपमेय – ये सारे शब्द मौन हो जाएँ, ऐसी लावण्यवती, विविधता से सजी सृष्टि. विधाता की
सर्वोत्तम कलाकृति! स्वर्गीय नंदनवन का प्रत्यक्ष दृश्य. यह विचार करते हुए वे खड़े
थे.
हिमालय की असंख्य मालिकाएं, हरे-भरे
वन, निरभ्र नीला
आसमान, और
जलाशय में अपने ही रूप पर मोहित प्रकृति. मानो किसी लावण्यवती को ही वे देख रहे
थे. और विधाता?
अदृश्य. उस लावण्यवती प्रकृति का...पुरुष! प्रकृति-पुरुष से उत्पन्न भावकाव्य
अर्थात् सृष्टि. असीमित लावण्य. शब्दातीत. केवल अनुभूति. अन्तरंग में प्रभाव छोड़ने
वाली. एक शिलाखंड पर वे बड़ी देर से बैठे थे.
सुधन्वा, सुश्रवा
उन्हें ढूँढ़ते हुए आये.
“बंधु!...” कालिदास के लिए यह संबोधन
नया था. वह उन्हें अच्छा लगा. इस तरह से कोई पुकारे, इसके लिए मन आतुर था. पल भर में
उन्हें गोपालक परिवार में अपने बंधु और भगिनी की याद आई. कितना समय बीत गया था!
“सुधन्वा, सुश्रवा कितने
सारे वर्षों के बाद ‘बंधु’ ये नाम और स्नेहभरी पुकार सुनी!”
“कैसे पुकारें, यह समझ में
नहीं आ रहा था. अच्छा लगा?”
कालिदास ने गर्दन हिलाकर ‘हाँ’ कहा. वे दूसरे
शिलाखंड पर बैठे. अब उनका मन सृष्टि लावण्य से वर्त्तमान पर आ गया था.
“काश्मीर नाम की व्युत्पत्ति क्या
होगी? कुछ
नाम घटनाओं पर या किसी के नाम पर आधारित होते हैं. यह नाम कैसे पडा होगा, किसके दिमाग
में आया होगा?”
“सुधन्वा, तू कभी भी
शास्त्र,
इतिहास अथवा विद्या ग्रहण करने के चक्कर में पड़ता नहीं है, इसलिए तुझे
कुछ भी मालूम नहीं है.”
कालिदास के सामने सुश्रवा ने उससे
ऐसा कहा, यह
सुधन्वा को अच्छा नहीं लगा. यह बात कालिदास के ध्यान में आ गई. उन्होंने सहजता से
कहा,
“इसी झेलम के तीर पर विश्व को जीतने
निकले सिकंदर और पौरव राष्ट्र के स्वामी पुरू का युद्ध हुआ था. भारत असंघटित था, इसलिए पुरू
अकेला ही लड़ा. उसके अतुलनीय शौर्य को देखकर जगज्जेता ने कहा, “तुम पराजित
हो चुके हो, हम
तुम्हें कैद कर सकते हैं, तो
बताओ, हम
तुम्हारे साथ कैसा बर्ताव करें?” उस परिस्थिति में भी पुरू ने उत्तर दिया, “वैसा ही जैसा
एक राजा को दूसरे राजा के साथ करना चाहिए.” उस उत्तर का सिकंदर ने भी सम्मान किया.
गंधार से आये हुए सिकंदर ने आते-आते अनेक राज्यों पर विजय प्राप्त की थी. मगर उस
समय तक्षशिला का ज्ञानपीठ बच गया था. क्योकि तक्षशिला नरेश आंभी ने उसे बचाया था.”
“परन्तु काश्मीर यह नाम कैसे पडा?”
“सुधन्वा, कुछ नाम राजा
के नाम पर, कुछ
घटित घटनाओं के आधार पर पड़ जाते हैं. यहाँ ‘कशिरा’ जाति की सत्ता थी. और कुछ नाम
नदियों के नामों पर भी पड़े हैं. भारतीय संस्कृति का उद्गम और विकास झेलम और
सप्तसिंधु के प्रदेश में हुआ. झेलम का नाम आर्यों के काल में वितस्ता था. ऋग्वेद
के नदीसूक्त मंडल में आर्य प्रदेश में
प्रवाहित होने वाली कुम्भा, कृगु, कुर्रम, गोमती, सिन्धु, परूण्णी,
शतुद्री,
वितस्ता,
सरस्वती, गंगा, यमुना इन
नदियों का उल्लेख है.”
“बंधु, कालिदास, ये उत्तर
प्रदेश की सरिताएं थीं, वैसी
ही अनेक सरिताओं का भारत में अस्तित्व है. नर्मदा, ब्रह्मपुत्र, कावेरी, गोदावरी आदि,”
सुश्रवा ने कहा.
“आप दोनों मेरे साथ द्वैतवन से यहाँ
तक आये,
केदारनाथ भी आने के बारे में कह रहे हैं. मगर क्या आपका विवाह हो चुका है? कोई प्रतीक्षा
करने वाला है क्या?”
“हैं न, मातापिता.
परन्तु उन्होंने ही कहा कि उत्तम संगति में देशाटन करके आओ. विवाह करने की अद्याप
हमारी इच्छा नहीं है. माता-पिता ने हमें सम्राट चन्द्रगुप्त की सेना में जाने की
भी अनुमति दी है.”
“हमारे पिता भी सेना में थे, परन्तु उनके
बाएँ कंधे पर चोट लगने के कारण वे अब कार्य नहीं कर सकते. परन्तु वे संदेशवाहक का
कार्य करते हैं, और माता ग्राम-भगिनियों को आत्मरक्षण के पाठ पढ़ाती हैं.”
“अति सुन्दर! ऐसे राष्ट्र को समर्पित
परिवारों को देखकर मन भर आता है. जिस जगह पर अभी हम हैं, उस जगह का नाम
अभी कुछ देर पहले क्या बताया था?”
विषय परिवर्तित हो गया था. हिमलहर भी
तीक्ष्ण हो चली थी.
“ये श्रीनगर है. इसकी स्थापना
प्रवरसेन द्वितीय ने की थी. हिन्दू राजाओं द्वारा स्थापना की जाती, विकास किया
जाता और शकों द्वारा उनका विनाश किया जाता...ऐसा ही होता आया है आज तक. पहले एक
सिकंदर सैनिकों के साथ आया. अब शकों की, हूणों की, यवनों की टोलियाँ आने लगीं हैं. अभी
कुछ ही वर्ष पूर्व आर्यावर्त के इस काश्मीर पर शक राजा खारवेल का ही साम्राज्य था.
महाराज चन्द्रगुप्त ने उज्जयिनी से यहाँ तक अपने राज्य का विस्तार किया. हिन्दू
धर्म संस्कृति रक्षक महाराज को शत बार वंदन करना चाहिए.” बोलते-बोलते कालिदास का
गला भर आया.
“सत्य है. आदर्श, प्रजापिता,
कर्तव्यनिष्ठ के रूप में उनकी प्रतिमा जनमानस में है.”
“कालिदास महाशय...आपमें से कौन हैं?”
“हम हैं.”
“आपको प्रान्तपाल शिवदयाल ने महल में
आमंत्रित किया है.” उन्हें ढूँढ़ते हुए चार सेवक आये थे.
“प्रान्तपाल मतलब कौन?”
“सम्राट चन्द्रगुप्त ने काश्मीर को
अपने साम्राज्य में जोड़ने के बाद यहाँ का प्रशासन एक व्यक्ति को दिया है. उस
प्रांत का वह प्रशासक होता है, परन्तु सारे निर्णय सम्राट चन्द्रगुप्त के आधीन
रहते हैं,” कालिदास ने कहा.
सेवक चले गए थे. सुधन्वा, सुश्रवा और
कालिदास वापस लौट रहे थे. दोपहर में ही सायंकाल का आभास हो रहा था. सूर्योदय हुआ
ही देर से था. दोपहर होते-होते ही शाम हो जाती थी.
“अभी तुमने ‘काश्मीर’ शब्द का अर्थ
पूछा था ना...यहाँ इस शब्द का अर्थ ‘पानी’ होता है.
यहाँ पहले सम्राट अशोक का राज्य था,
और उसने यहाँ बौद्ध धर्म का प्रसार भी किया. फिर भी हिन्दू संस्कृति अस्तित्व में
थी. सम्राट अशोक की मृत्यु के बाद यहाँ पुन: हिन्दू संस्कृति वृद्धिंगत हुई. बाद
में सम्राट समुद्रगुप्त ने यह सारा प्रदेश जीत कर अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया.
फिर भी शकों के बढ़ते हुए आक्रमणों का नि:पात सम्राट चन्द्रगुप्त ने किया और
प्रान्तपाल शिवदयाल की नियुक्ति करके राज्यव्यवस्था को सुदृढ़ बनाया.”
“सम्राट चन्द्रगुप्त ने यह कैसे किया
होगा?”
सुश्रवा ने पूछा.
“कोई एक ही उत्तम राजा, एक ही
चक्रवर्ती यह कर सकता है. इसीलिये इतिहास उसका उल्लेख करता है.”
जब तीनों प्रान्तपाल शिवदयाल के महल
में पहुंचे तो शीत के कारण उनके देह काँप रहे थे. उन्हें देखते ही सेनापति देवदत्त
बोले,
“आइये, कालिदास! आपकी देह थरथर काँप रही
है. काश्मीर देखना था ना? यहाँ
की प्रकृति देखने के लिए उस ऋतू विशेष में आना होता है. मन के ऋतू यहाँ प्रत्यक्ष
अवतरित नहीं होते.”
कालिदास दिल खोलकर हँसे.
“सेनापति देवदत्त, हर प्रसंग
युद्ध का नहीं होता, फिर
भी आप हमेशा तलवार अपने साथ रखते हैं. प्रकृति की हर ऋतू हमारे लिए आनंददायी हो, इसके लिए वैसी
दृष्टि हमारे पास है. कंपित काया, शीत लहर, भरी दुपहरी को संध्या का आभास, हिमशिखर, वितस्ता नदी, सब कुछ कितना
रमणीय था. सब कुछ कितना सुन्दर है, इसके लिए दृष्टि होनी चाहिए, सेनापति
महाराज, और अन्तरंग में स्वर, शब्द, ताल, लय, गति की स्वरमाला होनी आवश्यक है. अनुभव लेकर
देखें,
महाशय.”
“और आप एक बार हाथ में तलवार लेकर
युद्धभूमि को प्रस्थान करते हुए शत्रु सैनिकों को कैसे यमसदन भेजना है, इसका विचार
करके देखें. देह में सनसनाता हुआ खून, मन में युद्ध और सिर्फ युद्द्ध. सब कुछ मातृभूमि
को समर्पित. कभी इस तरह विचार करके देखिये, कवि महाशय...” सेनापति देवदत्त ने कहा.
सभा में उपस्थित सभी प्रसन्न थे.
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