" वन्दनीय पितृतुल्य महाराज,
अनेकानेक दंडवत करता हूँ.
वस्तुत: संदेशपत्र का ऐसा आरंभ इसलिए, कि आप हमारे
अति निकट हैं, इसका
अनुभव इस संबोधन से हो. अन्यथा तो, ‘राजाधिराज सम्राट चन्द्रगुप्त की सेवा में’, इस संबोधन से
आरंभ किया होता.
महाराज, उज्जयिनी से
निकलने के पश्चात अब हम काश्मीर तक पहुँच गए है. सेनापति देवदत्त अत्यंत
निष्ठापूर्वक आपके आदेशानुसार प्रत्येक प्रांत के कार्य की जानकारी ले रहे हैं और
उन्हें आपके द्वारा दी गई आज्ञाएं दे रहे हैं.
ऐसा नहीं है कि हम राजनीति में, राजकारण में
रस नहीं लेते,
परन्तु पर्याप्त गंभीरता से समझ नहीं पाते. फिर पता है कि ‘सेनापति देवदत्त तो हैं
ही’ और हम,
निश्चिंत, सुरक्षित अनुभव करते हैं. फिर भी हमने हर प्रांत की संस्कृति, भाषा, बोलचाल की
भाषा, संगीत,
नृत्य पर ध्यान दिया है. यदि हम चित्रकार होते तो इस अनुपम निसर्ग-रचना की
प्रतिलिपि ही भेज देते.
काश्मीर के प्रकृति-पुरुष की प्रीत
की रीत ही निराली है. प्रभातकालीन सूर्य ने मानो रत्नकिरणों की बौछार ही हिमालय पर
कर दी हो, इसलिए हिमालय किसी साज-श्रुंगार किये हुए युवराज के समान प्रतीत होता
है. और जैसे ही हरित सृष्टि लज्जानत होकर उसके चरणों पर झुकती है, वह उसे उठाता
हुआ प्रतीत होता है.
और दोपहर में ही संध्या की पदचाप
आकाश में सुनाई देने लगती है. आश्चर्य की बात यह है कि कई बार सूर्य अभी अस्त नहीं
हुआ होता है, और
चन्द्रमा उदित हो जाता है.
काश्मीर में पर्याप्त समय बिताने के
बाद हम वहाँ से निकले. द्वैतवन की ओर न जाकर हम सुश्रवा, सुधन्वा और
कुछ सैनिक-संरक्षकों के साथ हरिद्वार की ओर आये और सेनापति देवदत्त उज्जयिनी की ओर
गए.
इस समय हम केदारनाथ के गौरीकुंड के
समीप स्थित आश्रम में आश्रय के लिए रुके हैं.’
उन्होंने सन्देश पूर्ण किया और सेवक
को दे दिया.
उन्हें स्मरण हुआ हरिद्वार के आश्रम
का.
“कालिदास महोदय, आप हरिद्वार
पधारे, सात
जन्मों का पुण्य आपने संपादित कर लिया है. भारत के सात पवित्र स्थानों में से एक
हरिद्वार है. साथ ही चार-धाम मार्ग का यह पवित्र द्वार है. यह भगवान शिव और विष्णु
की तपस्याभूमि है. इस नगरी का प्राचीन नाम गंगाद्वार भी था.
बद्रीनारायण, केदारनाथ को
इसी मार्ग से जा सकते हैं,
परन्तु महोदय, यह
मार्ग विकट है, कठिन
है और...”
उनके कथन का अर्थ समझकर कालिदास हँसे,
“पंडित पुरुषोत्तम, हम नगरवासी, राजभवन में
रहने वाले, क्या
इस मार्ग पर चढ़कर जा सकेंगे...यही प्रश्न है ना?”
“अर्थात् ...”
“रहने दें. जीवन का अंत कहाँ होगा, यह ज्ञात नहीं
है ना? और
हरि तथा हर के चरणों से पुनीत हुई इस भूमि पर अंत अर्थात् मोक्ष ही हुआ ना? आप चिंतित न
हों. अभी हमें काफी काम करना है, तो हम अवश्य सकुशल वापस लौटेंगे.”
उनके मुख पर समाधान दिखाई दिया, वे फिर से
गंगा और हरिद्वार के वर्णन पर लौट गए. सुश्रवा और सुधन्वा वहाँ से उठ गए, उन्हें इसमें
रस नहीं था.
“आप सत्य कह रहे हैं, कालिदास
महाशय. सप्तमोक्षदायी स्थलों में हरिद्वार और आगे का क्षेत्र है. इसा स्थान को
‘मायापुरी’ भी
कहते हैं. ऐसा कहते हैं कि जब देव-दानवों ने समुद्र मंथन किया था, तब उसमें से
निकले हुए अमृत को ले जाते हुए उसकी कुछ बूँदें यहाँ गिरी थीं. सागर वंश की आठवीं
पीढी के भागीरथ ने साठ हज़ार मृत प्रजाजनों की अस्थियाँ गंगावतरण होने के बाद यहाँ
विसर्जित की थीं.
महोदय, हरिद्वार की अनेक कथाएँ
जनमानस में प्रचलित हैं. भगवान श्रीकृष्ण भी कुरुक्षेत्र युद्ध में जाने से पूर्व यहाँ
पर कुम्भ पर्व में स्नान के लिए आये थे. शिवालिक पर्वत से निकली गंगा का महत्त्व
यहाँ अधिक है, क्योंकि यहाँ के वास्तव्य में मोक्ष की कल्पना की जाती है. कुछ भी
हो, कालिदास महोदय, हरिद्वार
पुण्य क्षेत्र है.
हरिद्वारे
कुशावर्ते नीलके बिल्वपर्वते।
स्नात्वा कनखले
तीर्थे पुनर्जन्म न विद्यते।।
मान्यता यह भी है कि शिव-पार्वती का
विवाह यहीं कनखल में हुआ था.”
दोनों बातें करते हुए आश्रम की ओर
निकले, वैसे जल का पूर्ण कुंभ कटि पर लिए विद्या हंसी. तब उसका परिचय देते हुए
पंडित गौरी नंदन बोले,
“महोदय, यह मेरी कन्या
विद्या है. शास्त्र संपन्न है. आश्रम में विद्यादान करती है. अनेक कलाओं में निपुण
है. उसके लिए वर-संशोधन चल रहा है.”
वस्तुत: यहाँ आकर एक सप्ताह हो गया
था. वह नित्य ही दिखाई देती थी, भोजन परोसती थी, विद्यादान करते हुए दिखाई देती थी, गंगा की आरती
करती दिखाई देती थी. प्रत्यक्ष परिचय आज हुआ था, बस इतना ही.
कालिदास ने कुछ नहीं कहा. उन्हें लगा
कि प्रथम दर्शन में ही वह उनके ह्रदय में अधिकारपूर्वक स्थानापन्न हो गई है. उस
दिन उसे देखा और भोली, मुक्त, सुहास्यवदना
विद्या ने उनके ह्रदय में घर कर लिया. और उन्हें विद्वत्वती का स्मरण हुआ.
अश्वत्थामा को चिरंजीवित्व प्राप्त
हुआ – दु:ख भोगने के लिए. वैसा ही शाप हमें भी मिला है. नियति की शायद यही इच्छा
होगी कि किसी भी प्रकार का आनंद प्राप्त न हो. रातें ऐसी ही बीत जाती थीं. ज़रा
कहीं मधुवंती सामने आती,
विद्या ही हँसते हुए दिखाई देती.
आश्रम में वापस आकर दो पत्र लिखना है
– एक मधुवंती को, और दूसरा महाराज को. मन की सारी बातें लिखकर कुछ मुक्ति का अनुभव
करना है, ऐसा उन्होंने सोचा. परन्तु यहाँ आते ही सेवक के हाथ पत्र भेज दिया था. मन
अस्वस्थ हो गया था. विद्या का नैसर्गिक लावण्य मन को मोह रहा था.
उनकी आंखों के सामने पिछले कई दिनों
से भोली युवती, पंडित
पुरुषोत्तम की कन्या ही आ रही थी. कोई भी अलंकार नहीं, कोई अहंभाव
नहीं, वस्त्र
भी साधारण. परन्तु उसकी संपदा थी उसकी विनयशीलता में, उसके निष्पाप
हास्य में, उसके
शास्त्राभ्यास में और अध्यापन में. गंगा के तीर पर वह अनेकों को विद्यादान करती
दिखाई देती. सायंकाल में गंगा की आरती करती दिखाई देती.
उससे बातें करने का, उसके पिता से
उसके बारे में पूछने का मन होता था. वह विवाहयोग्य कन्या है, क्या उसके लिए
कोई ‘वर’ देखा
है, ऐसा पूछने की
तीव्र इच्छा होती थी.
पहले उन्हें लगा कि उनके मन में यह
विचार सहजता से आया है,
परन्तु पत्र लिखना आरंभ किया और नेत्रों के सामने उसी का रूप साकार हो गया. उस दिन
प्रात: वे गंगा तट पर गए थे. शीत लहरों ने वातावरण को रोमांचित कर दिया था. गंगा
तट पर किसी के आने की संभावना नहीं थी.
अस्ताचल को जा रहा चन्द्रमा रजनी से
बिदा ले रहा था. पूरी रात रजनी के सहवास में बिताने के कारण वह निस्तेज हो गया था.
और ऐसा लगा कि रजनी मन ही मन प्रसन्न है. उनके मन में आया, ‘हमेशा ही
क्यों हमें प्रकृति में प्रणय रंग दिखाई देते हैं. कहीं ऐसा तो नहीं, कि जीवन में
उनका अनुभव होने के बाद भी अपूर्णता का अनुभव होता हो? संभव है.’
अपने ही प्रश्न, अपने ही
उत्तर.
वास्तव में इस समय भी उन्हें
प्रसन्नता से हंसने वाली विद्या की ही याद आई. सपनों की बची-खुची मालिका समाप्त
करके वह उठने की तैयारी में होगी. कमर तक आते हुए केशसंभार को संभालने में उसे
निश्चित ही बहुत समय लगता होगा. और देह को कसकर बांधता हुआ उसका वस्त्र...
हम यहाँ तक क्यों आये हैं? आज प्रात:काल
से पहले ही क्यों नींद खुल गई? प्रात:काल होने से पहले कभी भी शैया से नहीं उठे
थे. आज ही क्या हो गया? किसने
हृदयपूर्वक पुकारा?
रजनीनाथ ने? गंगा
ने? स्वप्न से
जागृत हो रही सृष्टि ने? यह
पुकार अंतर्मन की है. खूब खूब गहराई से आई है. वे अस्वस्थ हो गए. आश्रम की ओर जैसे
ही मुड़ने लगे,
उन्हें गंगा के प्रवाह से बाहर आती हुई राजलक्ष्मी के समान, नखशिखांत भीगी हुई
विद्या जल से भरा हुआ घट लिये आश्रम की ओर जाती हुई दिखाई दी.
और उनके सारे अलंकार, उपमा, उदाहरण और
विचार भी शून्य हो गए. भोर के पदचिह्न हौले से पूर्व क्षितिज पर प्रकट हो रहे थे.
अरण्य से आती शीत लहरें गंगा की लहरों से मिल रही थीं. नि:स्तब्ध भोर में इस भीगी
हुई युवती को कालिदास देख रहे थे. जैसे स्वप्न की उर्वशी, मेनका, रंभा या कोई
स्वर्गांगना?
जब वह दृष्टी से ओझल हो गई तो
कालिदास आश्रम की दिशा की ओर चलने लगे. उसके बाद निरंतर पंद्रह-बीस दिन वह मुक्तता
से घूम रही थी,
परन्तु कालिदास मुक्त नहीं हो सकते थे. उसने दो बार उनसे कुछ पूछा भी था, परन्तु वे
संक्षिप्त उत्तर देकर मौन हो गए. ऐसा हो रहा था, मन में निश्चय करने के बाद भी उससे
बात नहीं कर सकते थे.
दो ही दिन पहले पंडित पुरुषोत्तम ने
आरती के बाद कहा था,
“ कालिदास महाशय, सब प्रकार की
सम्पन्नता है,
परन्तु एकमात्र कन्या के विवाह योग्य होने पर भी अद्याप उचित वर दृष्टिपथ में नहीं
है.”
“हमारी और से हम प्रयत्न करेंगे.”
“आप यदि विचार करें...”
“अवश्य करेंगे ना!”
वस्तुत: पुरुषोत्तम पंडित का क्या
अभिप्राय था यह उन्हें अगले दिन समझ में आया, जब विद्या भोजन परोस रही थी. फिर रातभर विचार
किया, तो पाया कि पिछले पंद्रह दिनों की उसकी मुलाकातों का प्रत्येक क्षण मन पर
गहरी छाप छोड़ गया था. वे बड़ी आसानी से पुरुषोत्तम पंडित से कह सकते थे, ‘आप जैसा
चाहते हैं, वैसा
योग्य ‘वर’ यदि हम हैं तो हमें स्वीकार करें’, परन्तु वे कुछ नहीं कह सके थे.
अरण्य की पुष्पलता जैसी यह
निसर्गकन्या नागरी जीवन में मुरझा जायेगी. शायद आज प्रिय प्रतीत होती हुई यह कन्या
कल अरण्य की बेल होने से हमें अथवा औरों को अच्छी भी नहीं लगेगी. शायद हमारे
संदिग्ध मन को स्थिर होकर ही विचार करना चाहिए.
उन्होंने कुछ नहीं कहा. कुछ समय के
लिए उस विचार को मन से भी दूर कर दिया. ‘प्रत्येक भ्रमण करने वाले को यह समझना
चाहिए कि प्रत्येक स्थान पर हर कन्या, जिससे परिचय हुआ हो, वह उसकी अपनी
नहीं होती. वह भगिनी हो सकती है, माता हो सकती है. यह उपवर कन्या है. पिता उसे
देना चाहते हैं...किसी भी उत्तम वर को...ऐसी परिस्थिति में...’
जब तक हमारे तन-मन का कोई निर्णय
नहीं हो जाता, तब तक
मौन रहना ही उत्तम है
ऐसा कहते हुए उन्होंने मधुवंती को
पत्र लिखना आरंभ किया. प्रणय के सारे रंगों को मुक्त हस्त से लुटाने वाली मधुवंती
इस समय उन्हें अपरिचित सी प्रतीत हुई. कुछ दिनों से मन को अत्यंत प्रिय ऐसी मधुवंती...
नागरी सौन्दर्य और मुक्त प्रकृति का लावण्य लिए यह निसर्गकन्या विद्या – इनके बीच
के अंतर को वे अनुभव कर रहे थे. परन्तु मन क्यों स्वीकार नहीं कर रहा है, यह वे समझ
नहीं पा रहे थे. मन में विद्या थी, हाथ में लेखनी लेकर लिखने लगे वे मधुवंती को...
पत्र पूरा करके उन्होंने उसे पढ़ा.
ऐसा प्रतीत हो रहा था कि कोई अपनी यात्रा का वर्णन तटस्थ रूप से दे रहा हो. विद्या
आसपास नहीं थी, फिर
भी उन्हें उसके भोले-भाले अस्तित्व और निरागस हास्य का अनुभव हो रहा था. उस
अप्रतिम और निरागस सौन्दर्य पर कोई आँच न आये, ऐसी वे मन ही मन प्रार्थना कर रहे थे.
उन्होंने लिखे हुए पत्र को गोल-गोल
लपेट कर सेवक को दे दिया और वे गंगा तट की ओर निकले. संध्या आरती हो गई थी. कल
प्रात:काल प्रस्थान करना है, ऐसा सन्देश भेजा था.
और किन्हीं कारणों से उज्जयिनी से
काश्मीर न आ सकने वाले पंडित इन्द्रदेव अगले दिन उन्हें मार्ग में मिलने वाले थे, ऐसी वार्ता भी
आई थी. सुश्रवा और सुधन्वा बंधू प्रसन्न थे.
परन्तु कालिदास अस्वस्थ थे. एक बार
विद्या मिल जाती, ऐसी
इच्छा मन में होते हुए भी वह मिले ही नहीं, उसकी प्रतिमा ही मन में रहे, इसी विचार में
वे मग्न थे कि विद्या गंगा तीर की ओर आती हुई दिखाई दी. ऐसी धूसर संध्या को उसका
क्या काम हो सकता है? परन्तु वह उनके निकट आई.
“महोदय कालिदास, आप कल
प्रस्थान करने वाले हैं, यह
ज्ञात हुआ. आप यहां वास्तव्य के लिए आए, मुझे बहुत प्रसन्नता हुई. ऐसा लगा जैसे शीत ऋतू
में मध्याह्न में प्रगल्भ सूर्य के दर्शन हुए हों. आप बहुत सुन्दर हैं. रती का मदन
कैसा होगा, इसकी
अनुमान हुआ. आपका बोलना कितना मधुर, कितना सुस्पष्ट, मानो घंटियाँ बज रही हों. महोदय, आप साक्षात
विष्णुदेव हैं, सर्व शास्त्र संपन्न. आप मुझे आशीर्वाद दें.” उसने तत्काल उनके
चरणों पर शीश नवाया.
कालिदास अवाक् रह गए. उन्हें पता भी
नहीं चला कि कब उन्होंने उसके दोनों कन्धों को पकड़कर उठाया, उसके मस्तक पर हाथ
रखकर वे अंतर्मन से बोले, “हे
शुभांगी,
तुम्हारा कल्याण हो.” वे निर्विकार थे.
वह प्रसन्नता से वापस चली गई.
कालिदास हतबुद्ध होकर उसकी वापस जाती हुई आकृति को निहारते रहे. संध्या के पदचिह्न
भी...गंगा के तीर पर गीले हो गए थे.
“महाराज कैसे हैं, पंडित
इन्द्रदेव?”
ऋषिकेश के आश्रम में पंडित इन्द्रदेव से भेंट होने पर कालिदास ने पहला प्रश्न
किया.
“महाराज, उज्जयिनी, प्रभावती देवी, युवराज कुमार
और महारानी के बारे में विस्तृत निवेदन करूंगा. अभी आप विश्राम करें,” पंडित
इम्द्रदेव ने कहा, इसलिए
कालिदास को अपने आश्रम जाना पडा. सैनिकों के शिबिर तैयार हो रहे थे. हर स्थान पर
दो-दो दिनों के लिए ऐसी ही व्यवस्था करनी पड़ती थी. अश्व यहाँ से वापस जाने वाले
थे. आगे का मार्ग पैदल की चलना था, परन्तु इन्द्रदेव ने कहा कि गौरीकुंड तक अश्व ले
जाना संभव है. अतः अश्वों के लिए भी व्यवस्था की जा रही थी.
दो दिन बाद ऋषिकेश छोड़ना था. पंडित
इन्द्रदेव और कालिदास पंडित गौरीनंदन के आश्रम में गए तो गंगा के किनारे स्थित उस
आश्रम में चारों वेदों का अध्ययन करने के लिए सम्पूर्ण भारत से विद्यार्थी आये हुए
थे. कालिदास को आश्चर्य हुआ.
उन विद्यार्थियों ने अतिथियों के लिए
आसनों की व्यवस्था की. मृत्तिका पात्र में जल भी लाये. गौरीनंदन आये, उन्हें देखकर
कालिदास को ऋषियों का स्मरण हुआ.
“इतनी दूर विद्यार्थी आते हैं?” कालिदास का
पहला प्रश्न.
“दक्षिण के रामेश्वरम् तथा
त्रिवेंद्रम और कर्नाटक से भी विद्यार्थी आते हैं सिर्फ वेदाध्ययन करने के लिए. आप
बद्रीनारायण जायेंगे ना, वहाँ व्यास गुफा है. वहाँ वेदव्यास ने श्रीगणेश को लेखनिक
बनाकर महाभारत लिखवाया था. पूरे आर्यावर्त में वह गुफा प्रसिद्ध है. उसी तरह
ऋषिकेश से ही आगे रूद्रप्रयाग, देवप्रयाग तक मार्ग है. यही विचार करके यहाँ आश्रम
की स्थापना की है. क्योंकि हिमालय चढ़कर बद्रीनारायण अथवा केदारनाथ में आश्रम
स्थापित करना असंभव ही था.”
“हरिद्वार भी आश्रम के लिए योग्य ही
तो था ना?”
“निःसंदेह! परन्तु वहाँ तक लोगों की
बस्ती थी. इस परिसर में बुद्ध धर्म का प्रभाव अधिक है. हिंदु धर्म धीरे-धीरे लुप्त
होने लगा था. ऐसी स्थिति में हमने सम्राट
समुद्रगुप्त के सामने वस्तुस्थिति का वर्णन किया. और यहाँ दस आश्रमों की स्थापना
हुई. गुरुकुलों का निर्माण हुआ और वातावरण में मन्त्र घोष और शंखध्वनि सुनाई देने
लगी. मन्त्रपठन से हिन्दू धर्म का पुनः जागरण आरंभ हुआ. अभी भी हमें राजाश्रय
प्राप्त है और हमें नियमित दान प्राप्त होता है. महाशय...” क्या बताएँ और कितना
बताएँ ऐसी उनकी मन:स्थिति थी.
“आप विश्राम करें, पंडित
गौरीनंदन.”
“मेरा पुत्र आश्रम की व्यवस्था देखता
है. अब चिरविश्राम के दिन आ गए हैं.”
“क्या सम्राट समुद्रगुप्त कभी यहाँ
आये थे?”
“नहीं, युद्ध और युद्ध. अखंड भारत का
स्वप्न सत्य करने के उद्देश्य को स्वसमर्पित उस सम्राट ने विराट साम्राज्य की
स्थापना करते हुए प्रथम काश्मीर के शकों से युद्ध किया. जो जो प्रांत शकों की, बौद्ध धर्म की
छाया में थे,
उन्हें हिन्दू धर्म के सूर्य के दर्शन करवाए सम्राट समुद्रगुप्त ने और उसी मार्ग
का अवलंबन किया सम्राट चन्द्रगुप्त ने. आप आये. हमें इतना आनंद हुआ, मानो
प्रत्यक्ष महाराज आये हों.”
आश्रम के सामने बहती गंगा की लहरों
पर लहरें आयें, उसी
प्रकार शब्दों की लहरें भी आ रही थीं.
“यहाँ गंगा अधिक सुन्दर प्रतीत होती
है.”
“यहां उसने संपूर्ण आकाश को ही अपने
भीतर समेट लिया है. यहाँ है युवती-गंगा. अन्तरंग में ऊर्जा, प्रसन्नता, भोलापन लिए
अविरत भागने वाली. और,
कालिदास,
केदारनाथ तक जाते-जाते अनेक बालरूपों में और अधिक चंचल गंगा के दर्शन आपको होंगे.”
“ऋषिकेश श्री विष्णु का स्थान है.
उन्होंने यहाँ तपस्या की थी ना?” पंडित इन्द्रदेव ने पहली बार मुँह खोला. वे आगे
बोले, “क्या
प्रत्यक्ष देवताओं को भी तपस्या करनी पड़ती है? ये अजीब बात है. शिवशंकर भी तपस्या करते हैं.”
“सत्य है, महोदय.”
“मै पंडित इन्द्रदेव. सम्राट
चन्द्रगुप्त के पूजाघर में देवतार्चन करता हूँ.”
“महोदय, देवताओं को भी
विकार होते हैं,
भावनाएँ होती हैं. श्रीविष्णु ने यहाँ स्वसामर्थ्य के लिए तप किया था. ऋषिकेश का
अर्थ है प्रगल्भ, उदार
वृत्ती का, सर्जनशील, सक्षम, प्रसन्न, स्वैच्छिक और
कालानुसार नियत परिवर्तित होते हुए स्वयं को न भूलने वाला. विष्णुदेव को यह सब
प्राप्त करना था.”
कालिदास उठे और गंगा तीर पर
आये.
कुछ देर पूर्व पंडित गौरीनंदन ने
गंगा को युवती की उपमा दी थी. वे देख रहे थे. वास्तव में वह विद्या जैसी थी.
कुतूहलपूर्वक सब कुछ अपने भीतर समेटने वाली. प्रसन्न, भोली और चंचल
भी. वृक्ष, लता, आकाश, हिमालय...सभी
कुछ उसके भीतर था. वे मन ही मन हँसे.
यदि किसी युवती के सामने सभी सुन्दर, गुणी युवक खड़े
हो जाएँ तो? क्या
वह प्रकृति से पूछेगी या सृष्टि से? या अपनी इच्छा से निर्णय करेगी? अब तो
मध्याह्न समाप्त होते-होते ही सृष्टि पर रंगों की बौछार हो गई थी, और सारे रंग
गंगा में समा गए थे. रंगों के, सुगंध के, भावनाओं के पीछे पागल – यह विद्या ही तो है.
और विचारों में फिर से उसका नाम आते
ही वे खुलकर हँसे.
पंडित इन्द्रदेव उन्हें ढूँढते हुए
आये थे.
“प्रातःकाल हम रूद्रप्रयाग की और
प्रस्थान करेंगे! यहीं से हिमालय का प्रवास आरंभ होता है. अलकनंदा और मंदाकिनी के
संगम पर स्थित रूद्रप्रयाग दो बहनों का स्नेह मिलन है. आगे वे दोनों एकत्रित होकर
गंगा का रूप धारण करती हैं. देवर्षि नारद ने यहाँ शिवशंकर को प्रसन्न करने के लिए
तपस्या की और वे रौद्र रूप में प्रकट हुए. यहीं से कुछ ही दूर पर अगस्ति मुनि ने
भी तपस्या की थी.”
“अर्थात् हिमालय का परिसर तपोभूमि
है.”
“देवप्रयाग में अलकनंदा और भागीरथी
नदियों का संगम है. यहाँ से आगे वह गंगा हो जाती है. और एक बात, कालिदास,”
पंडित गौरीनंदन बता रहे थे, “जब भागीरथ गंगा को पृथ्वी पर लाये, तो सभी
देवी-देवता इस संगम पर उपस्थित थे. भागीरथ का अभिनन्दन करने. अत: यह देवप्रयाग
है.”
वास्तव में इन्द्रदेव से भेंट होने
पर कालिदास उज्जयिनी के बारे में पूछना चाहते थे. सम्राट चन्द्रगुप्त के बारे में
सुनना चाहते थे. परन्तु स्थान-महात्म्य सुनने में ही मगन थे. आखिर कालिदास से रहा
न गया, वापस
आते हुए उन्होंने पूछ ही लिया,
“हरिद्वार से अब ऋषिकेश तक हम पहुँच
गए हैं. आप उज्जयिनी से आये हैं. वहाँ की कुछ वार्ता सुनने के लिए हम उत्सुक हैं.
बताइये,
महाराज कैसे हैं?
युवराज कुमार कैसे हैं?” और
मन ही मन बोले,
‘मधुवंती कैसी है, यह
हमें कैसे मालूम होगा?’
पंडित इन्द्रदेव बोले, “विस्मरण हो
गया, क्षमा
करें. परन्तु महाराज ने आपके लिए एक पत्र दिया है, आपको देता हूँ.”
आश्रम से शिबिर वापस लौटने पर
उन्होंने इन्द्रदेव द्वारा दिया गया पत्र पढ़ना आरम्भ किया.
“प्रिय कालिदास,
आप हमें कितने प्रिय हैं, इसका अनुभव
आपके जाने के बाद हुआ. युद्धजन्य परिस्थिति एवँ राजकीय कारणों से अन्य प्रान्तों
के प्रवास के काल को छोड़कर बाकी समय हम हमेशा साथ-साथ थे. विशेष रूप से रात को
विचार विनिमय करते समय,
राजकीय भूमिका को जांचते हुए, शत्रु का हाल कैसे जानना है इस संबंध में परिस्थिति
का अवलोकन करते हुए,
अन्याय के विरुद्ध कार्य करते हुए, दान-धर्म, याग-यज्ञ के विषय में और कभी-कभी व्यक्तिगत
परामर्श भी हम आपके साथ करते रहे हैं, इसका अनुभव आपके जाने के बाद हुआ. शायद दिन
प्रतिदिन के वार्तालाप के कारण हमें आपकी आदत हो गई होगी.”
“चाहे जो भी हो, राजसभा में जब
आप अपने आसन पर दिखाई नहीं देते तो स्मरण तीव्र हो जाता है. कैसे हैं? यह प्रश्न
विसंगत है. जहाँ प्रसन्नता का सुगंध और ऊर्जा की निरंतर लहरें लेकर आप जाते हैं, वहाँ आप स्वयँ
को भी भूल जाते हैं. क्षिप्रा का अनुभव तो है ही. वहाँ तो सौन्दर्य का कोष ही है.
जैसे लावण्यवती के बाहुपाश में बंधे हों, वैसे ही वहाँ आप सृष्टि के लावण्य में स्वयँ को
खो बैठे होंगे!
कालिदास, आप हमारे
घनिष्ठ मित्र हैं, इसलिए
आपकी प्रसन्नता को निरंतर संभालने का प्रयत्न हम करते हैं. कुछ दिन पूर्व रथ से
गुज़रते हुए मधुवंती के पास वैद्य को जाते देखा. जब हमने पूछा तो ज्ञात हुआ कि वह
ज्वर से ग्रस्त है. हमने विशेष वैद्य को उसके पास भेजा.
अब वह बिलकुल ठीक है. अभी परसों ही महाकालेश्वर
के मंदिर में दिखी थी. हमें देखते ही वह ठिठक गई. हम उसके मन की भावना जानकर स्वयँ
ही बोले, ‘अपनी
चिंता करें. प्रसन्न रहें. कालिदास आनंद से हैं, केदारनाथ से वापसी के मार्ग पर
अग्रसर होंगे.’
और वह प्रसन्नता से मुस्कुराई, कालिदास, क्योंकि उसे
यही अपेक्षित था. वह प्रसन्न मन से देव-दर्शन किये बिना चली गई. तब मन में विचार
आया, ‘हमने
उसे देवता के दर्शन करवाए.’
आजकल हम प्रमुखता से प्रभावती के
विवाह के बारे में विचार कर रहे हैं, और विचार करते हुए याद आता है ‘मनुस्मृति’ का
वचन – ‘पिता रक्षति कौमारे....’ हमने कौमार्य की रक्षा की, परन्तु उससे
पूछे बिना हम उसके विवाह का विचार साम्राज्य-विस्तार की दृष्टि से कर रहे हैं. मन
में अत्यंत क्लेश का अनुभव हो रहा है, इसलिए कि मद्र देश की सावित्री स्वयंवर हेतु
रथ से गई थी. अनेक राजकन्याओं ने ‘शर्त’ रखकर विवाह किये, पार्वती ने इच्छित वर की
प्राप्ति के लिए तप किया,
रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण को पत्र लिखकर बुलाया...
और हमने अपनी कन्या से पूछा भी नहीं.
गुप्त काल में सम्राट समुद्रगुप्त के समय से समाज में स्त्रियों के सन्दर्भ में
परिवर्तन हुए. याज्ञवल्क्य ने स्त्री को पुनर्विवाह की अनुमति दी. हमने गणिकाओं का
सम्मान किया. अंगवस्त्र की तरह उन्हें न रखते हुए उस विवाह को मान्यता दी.
याज्ञवल्क्य ने विवाह के सन्दर्भ मे वर्ण-विचार को प्रधानता दी. गुप्तवंश के शासन
में सब वर्ण समान हो गए.
याज्ञवल्क्य के काल में
ब्राह्मण-शूद्र विवाह तो थे, परन्तु उनके विचारों का प्रगट स्वरूप हमारे
राज्य में प्रस्थापित हुआ.
क्योंकि, कालिदास, हम स्वयं
वैश्य थे. एक वैश्य क्षत्रियत्व धारण करके इतनी बड़ी विजय संपादित करे, यह इतिहास की
महत्वपूर्ण घटना है. परशुराम ने पृथ्वी नि:क्षत्रिय करने का प्रण किया था. हमने
क्षत्रियवृत्ति धारण की और समाज को मूलभूत सुविधाएं और सम्मानपूर्ण जीवन दिया.
विशेषता: स्त्रियों को. वर्त्तमान समय में, हमारे समाज में क्षत्रिय-ब्राह्मण संबंध दृढ़
हैं. क्षत्रियों में भी उपनयन संस्कार होने लगा है. ‘कायस्थ’ शब्द को हमने
प्रायोजित करके उसे श्रेष्ठत्व दिया है.
याज्ञवल्क्य द्वारा शूद्र वर्ण को
क्षुद्र घोषित करने के कारण उन्हें सामाजिक परिसर के बाहर स्थान देकर हीन कर दिया
गया. परन्तु हमने उन्हें समाज में स्थान दिया. किसी की भी अस्मिता को, अस्तित्व को, मान्यता को, श्रेष्ठत्व को
हमने नकारा नहीं,
परन्तु आज...
आज हम संभ्रमित हैं. अपनी प्रिय
कन्या के विवाह के बारे में सोचते हुए बारबार विचलित हो रहे हैं. क्योंकि
साम्राज्य की सभी स्त्रियों को हर प्रकार का स्वातंत्र्य देने वाले हम, अपनी कन्या से
कुछ भी पूछे बिना, राजकीय एकसंघता और साम्राज्य विस्तार के लिए उसका विवाह वाकाटक
वंश के महाराज रुद्रसेन के साथ निश्चित करके अपनी कन्या देने का राजकीय व्यवहार
करने का निश्चय कर रहे हैं.
याज्ञवल्क्य ऋषि ने वेश्याओं के तीन
प्रकार बताए हैं : एक – केवल मनोरंजन के लिए, दो – किसी एक व्यक्ति की अंगवस्त्र और तीन –
गणिका. हमने तो देह व्यवहार करने वाली सभी स्त्रियों को गणिका’ के रूप में श्रेष्ठत्व
और स्वातंत्र्य दिया. परन्तु हम अपनी कन्या को इच्छित वर चुनने का स्वातंत्र्य
नहीं दे सकते. हमने याज्ञवल्क्य ऋषि का हर क्षेत्र में सम्मान किया, परन्तु एक
घटना को हमने स्वीकार नहीं किया. विधवा स्त्री को परिवार के किसी एक सदस्य से
पुत्र प्राप्त करने की संधि दी गई थी. वह हमें मान्य नहीं थी. परन्तु स्वातंत्र्य
के बारे में उनके सारे विचारों को हमने मानदंड के रूप में मान लिया. इतना ही नहीं, देवदासी
कन्याओं को भी हमने मान्यता दी. परन्तु...कालिदास, अपनी यह व्यथा हम पत्नी से भी नहीं
कह सकते. जो किसीसे भी नहीं कह सकते, उसे आपके सामने रखा है. सम्राट, चक्रवर्ती
सम्राट को अपनी व्यथा मन में ही दबाये रखने का शाप ही होता है. युद्धभूमि पर
बारबार होने वाले मृत्यु के दर्शन से वह व्यथित अथवा भयभीत नहीं होता, परन्तु
हृदयस्थ व्यथाओं से वह पराजित हो जाता है. अब तक हमने महारानी से भी इस विषय पर
वार्तालाप नहीं किया है.
अस्तु! आप केदारनाथ, बद्रीनारायण
के दर्शन लेकर आयें. हम ही नहीं, बल्कि आपकी प्रिय सखी भी आपकी प्रतीक्षा में है.
कालिदास, आपके वापस आने
पर आपके विवाह के प्रश्न को भी हम सुलझाने वाले है.
आएं. प्रतीक्षा रहेगी.”
सम्राट चन्द्रगुप्त ने पत्र समाप्त
किया था. दो बार पढ़ने के बाद कालिदास को ऐसा लगा कि उसे बीच ही में समाप्त कर दिया
गया है. वे उठने ही वाले थे कि पंडित इन्द्रदेव आये. सेनापति देवदत्त के साथ.
“यहाँ कुछ आश्रम हैं, जिनमें से एक
बहुश्रुत आश्रम है – ‘मोक्ष मंदिर’. वहाँ हमें आमंत्रित करने के लिए कुछ शिष्य आये
थे. हमने आपकी तरफ से उनका निमंत्रण स्वीकार कर लिया है...तो,” पंडित इन्द्रदेव
रुक गए,
कालिदास दिल खोलकर हँसे, “क्या हम वक्ता हैं?”
“आप क्या हैं, यह हमें
निश्चित करने दें ना...” तीनों फिर देर तक बातें करते रहे.
दूसरे दिन तीन शिष्य उन्हें लेने के
लिए आए. कालिदास के दिमाग में एक ही शब्द घूम रहा था – ‘मोक्ष मंदिर’
उन्होंने अपनी बात भी ‘मोक्ष मंदिर’ शब्द से ही
आरंभ की.
“आपने हमें आमंत्रित किया – ‘मोक्ष
मंदिर’ में.
आश्रम के इस नाम की हमने कल्पना भी नहीं की थी. इस मंदिर में ‘मोक्ष’ मिलता है, यह नामकरण
जिसने किया है, उसका
हमें विशेष रूप से सम्मान करना है. आश्रम, अर्थात विद्या मंदिर, ये हम जानते
ही हैं, परन्तु इस विद्या मंदिर में मोक्ष मिलता है, ऐसी कल्पना भी कोइ नहीं कर सकता.
मोक्ष का अर्थ है मृत्योपरांत
मुक्ति. पुन: नए जीवन की आसक्ति की समाप्ति. ऐसी हम लोगों की धारणा है. और मोक्ष
प्राप्ति के लिए प्रयत्न – हमारी कर्मनिष्ठा है.
परन्तु ‘मोक्ष मंदिर’ इस नाम में
जीवन की अर्थ पूर्णता है. ‘मोक्ष’ का अर्थ है- आनंद. अपने कार्य में अंतिम यश
प्राप्त करना है – ‘मोक्ष’. सैनिक
की युद्ध में मृत्यु,
अर्थात मोक्ष. राजा को युद्ध में यश, अर्थात मोक्ष. विद्यार्थी के लिए ज्ञान का
परमोच्च सत्कार,
अर्थात मोक्ष. तो, किसी
के लिए दूसरे के मुख पर आनद की भावना को देखने के लिए स्वयँ समर्पित हो जाना मोक्ष
है. ‘मोक्ष’
मृत्यु के उपरांत प्राप्त होने वाली अनुभूति, उसे पुनर्जन्म लेकर कोई बता नहीं
सकता. परन्तु प्रत्यक्ष में जीवन को जीते हुए पराकोटी का आनंद मोक्ष ही है – यह
बताने वाला, कर्मयोग,
ज्ञानयोग,
भक्तियोग और ज्ञान-विज्ञान योग की शिक्षा देने वाला आश्रम नाम से ही हमें प्रिय हो
गया है.
हरिद्वार से ही देवलोक आरम्भ हो जाता
है. मोक्षद्वार तो रुद्रप्रयाग में दिखाई देने लगता है. सर्वोच्च आनंद भी मोक्ष ही
होता है. केदारनाथ का अत्यंत दुर्गम मार्ग चलने वाला सर्वोच्च आनंद की प्राप्ति के
लिए ही हिमालय चढ़ता है. अनेक बार उसे मृत्यु के दर्शन भी होते हैं. परन्तु आनंद
प्राप्ति के परमोच्च क्षण में उसे ऐसा प्रतीत होता है कि उसका मोक्ष यही है.
बद्रीनारायण की व्यास गुफा देखने की
हमारी तीव्र इच्छा है. भारत- ज्ञान-विज्ञान की भूमि है, संशोधन और
कर्मयोग को मानने वाली भूमि है. तपस्या भूमि है. द्वैत से परे अद्वैत का विचार
करने वाली और बार-बार अवतार लेने को जी चाहे, ऐसी
लावण्यमयी भूमि है. उसका वर्णन करने के लिए हमारे पास पर्याप्त शब्द नहीं हैं.
प्रकृति का केवल विराट और विविध दर्शन ही हम ले सकते हैं. और इस देवभूमि में
देववाणी और देवताओं की लिपि का प्रयोग होता है, इसका हमें आनंद है.
‘महाभारत कथा’ लिखने के लिए
महर्षि व्यास ने श्रीगणेश को आमंत्रित किया. व्यास अस्खलित, तीव्र गति से, अनुभूति से
कहने वाले परिपूर्ण पुरुष थे. उनके आमंत्रण को स्वीकार करते हुए श्रीगणेश ने उनकी
बोलने की गति का और स्वलेखन का शास्त्रशुद्ध अध्ययन किया. जिस गति से वे बोलेंगे, वही गति लेखन
की होना चाहिए ऐसा उनका प्रयत्न था. उनके पास अथांग, अपरंपार ज्ञान था, इसलिए बोलने
की गति तीव्र ही होने वाली थी. उच्चारों का अध्ययन करते हुए उन्होंने मेरुदंड, दन्त, ओष्ठ, जिह्वा, ग्रीवा का भी
अध्ययन किया.
और फिर उनके ध्यान में आया कि व्यास
की बोलने की गति अविरत बहने वाली सरिता के समान है. और फिर उन्होंने दो अक्षर, तीन अक्षर, पाँच अक्षर
मिलाकर संयुक्ताक्षर बनाए.”
“क्या तुम्हें इस बात की कल्पना है, शिष्यों?” उन्होंने बीच
ही में शिष्यों से पूछा.
कोई भी इस बारे में बता न सका.
कालिदास आगे बोले, “ व्यास की
गति के अनुरूप बने हुए ये संयुक्ताक्षर देवलिपि में केवल श्रीगणेश के कारण आये.
तैंतीस व्यंजन, मेरुदंड
के मुख पर स्थित ग्रंथि से उत्पन्न होने वाले सोलह अक्षर चिह्नों और बावन चिह्नों
का प्रयोग श्रीगणेश ने किया. ७४९४६६ ये तीन अक्षरों वाले संयुक्ताक्षर, २६८७३८५६ – ये
चार अक्षरों वाले संयुक्ताक्षर, ९६७४५८८१६ – ये पाँच अक्षरों वाले संयुक्ताक्षर
बनाये और इसलिए व्यास के बोलने की गति के अनुरूप श्रीगणेश लिख सके.”
इसके पश्चात कालिदास विद्यावैभव, संस्कृत का भाषावैभव, और
शास्त्रज्ञान वैभव तथा निसर्ग वैभव के बारे में बताते रहे.
जब भोजनकक्ष से माध्याह्न भोजन की
सूचना आई तब वे रुके.
सभी प्रसन्न थे.
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