राजसभा का मध्याह्न का कार्य समाप्त होने ही वाला था कि पाँच वेदांती ब्राह्मण चन्द्रगुप्त की राजसभा में आये. वेदांती ब्राह्मण आने वाले हैं इसकी पूर्व सूचना उन्हें प्राप्त हो ही गई थी. सम्राट चन्द्रगुप्त उठाकर खड़े हो गए, सारी सभा उनका स्वागत करने के किये खडी हो गई. उनके स्थानापन्न होने से पहले उनमें से एक वृद्ध वेदांती ब्राह्मण बोले,
“संपूर्ण आर्यावर्त का भ्रमण करते
हुए धर्मंसंस्कार,
संस्कृति और धर्मज्ञान की वर्त्तमान अवस्था पर साम्प्रत हम अध्ययन कर रहे हैं.
काशी नरेश अमरसिंह ने हमें यह विशेष कार्य दिया है. हम हैं गंगेश्वर भट्ट.”
“उत्तम,” सम्राट
चन्द्रगुप्त ने कहा और वे आगे बोले, “गुप्त साम्राज्य आर्यावर्त में काश्मीर से
दक्षिण तक फैला हुआ है. तब आपका अध्ययन इस बारे में क्या कहता है?”
“स्पष्ट कहें तो क्षत्रिय ब्राह्मणों
का आदर करते हैं,
क्योंकि वे यज्ञ-याग इत्यादि के लिए आवश्यक हैं.”
“अर्थात. वर्णव्यवस्था ने ये चार
आश्रम निर्मित किये हैं, इसमें
अनुचित क्या है? हम
वास्तव में वैश्य होकर भी क्षत्रिय वृत्ति से कार्य कर रहे हैं.”
गंगेश्वर भट्ट इसका उत्तर देते, इससे पूर्व ही
एक स्त्री राजसभा में आई.
“तुम्हारी क्या समस्या है, माता?” महाराज ने
पूछा.
“महाराज, हमने अपनी
इच्छा से नगर से बाहर अपनी प्रसन्नता के लिए बस्ती बनाई. हमारा वहाँ परम्परागत
वास्तव्य है, तो आपके सेवकों ने वह स्थल नकार कर नगर में स्थान दिया. हमें यह मान्य
नहीं. हमें अपना स्वतंत्र स्थान चाहिए.”
“इस पर आप क्या कहेंगे, गंगेश्वर
भट्ट?” महाराज ने अचानक स्थानापन्न हुए गंगाभट्ट से पूछा.
“यह आपका प्रश्न है, महाराज, आप ही निर्णय
लें.”
“आप वेदांती ब्राह्मण हैं,
धर्मं-संस्कृति पर विशेष अध्ययन हेतु आर्यावर्त भ्रमण के लिए निकले हैं. तो इस
क्षुद्र स्त्री को कौनसा न्याय देंगे, यह पूछा था हमने.”
वे मौन हो गए.
सम्राट चन्द्रगुप्त हँसे और उन्होंने
कहा,
“हमारे कवि कालिदास भी इसका उत्तर दे
सकेंगे. कालिदास, आपका
क्या विचार है?”
“स्वातंत्र्य उन्हें चाहिए निवास
स्थान के लिए, और उपजीविका करना है नगर में आकर. खुद महाराज को ऐसा लगता है कि
चारों वर्ण एक साथ आयें, तो
माते, क्या यह योग्य नहीं है? कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में, और हमारे
ज्येष्ठ बंधू वराह मिहिर द्वारा सांप्रत लिखी जा रही ‘बृहद्संहित’ में यह उल्लेख
किया है कि चार वर्णों के लिए चार निवास स्थान होना चाहिए.
माते, यदि एक ही माता के चार पुत्र, चार पृथक-पृथक
निवास स्थान बनाकर रहने लगें, तो क्या उस माता का परिवार संयुक्त होगा? तुम्हारे चार
पुत्र यदि विभक्त हो जाएँ, तो
क्या तुम्हें अच्छा लगेगा? समान
अधिकार, कष्ट
से अर्जित की गई संपत्ति, समान
न्याय – महाराज के राज्य में सब कुछ समान होते हुए, क्या नगर से बाहर स्वतन्त्र रहना
उचित है? तुम
शूद्रों का प्रतिनिधित्व करने आई हो, इसका अर्थ है कि शूद्र वर्ण का तुम पर विश्वास
है, तो फिर सभी
वर्णों को एक समान मानकर एकसंघत्व निर्माण करने वाले महाराज पर तुम्हारा विश्वास
नहीं?
कर्मानुसार वर्ण परिवर्तित करना संभव है, शायद कोई शूद्र वणिक होकर व्यापार करना चाहे, तो क्या उसे
एक ही वर्ण से बांधे रखने की तुम्हारी इच्छा है?
माते, शायद तुम्हें ज्ञात न हो, ब्राह्मण
क्षत्रिय वृत्ति स्वीकार करके राज्य शासक हो गए. वाकाटक वंश, कदम्ब वंश
इसके उदाहरण हैं. कुछ शूद्र वर्ण के शासक भी हुए हैं. सौराष्ट्र, अवन्ती, मालवा के शासकों
के शूद्र होने का उल्लेख है.
ऐसी स्थिति में महाराज की इच्छा से
विद्यमान सर्ववर्ण समानता को छोड़कर, क्या नगर से बाहर स्वतंत्रता तुम्हें स्वीकार
है? अब तुम्हीं
अपने वर्ण को न्याय दो.”
वह स्त्री संभ्रमित हो गई. वह समझ गई
थी कि उसके विचार स्वार्थी हैं.
“हे माते, तुम्हें इस
बात की कल्पना भी नहीं है कि सम्राट चन्द्रगुप्त ने सभी शास्त्रग्रंथों का अध्ययन
करके ही आचार संहिता बनाई है. आपाद्कालीन स्थिति में ब्राह्मण शूद्र के हाथ का
अन्न ग्रहण कर सकते हैं, इतना
सामाजिक स्वातंत्र्य इस संहिता में होने पर भी अपने लिए स्वतंत्रता की जिद किसलिए? फिर क्या यह
स्वतंत्रता इतनी सक्षम है कि जीवन निर्वाह हो सके?”
वह स्त्री मौन हो गई.
“माते, कुछ शूद्रों ने कृषिकार्य भी किया
है. प्राचीन काल में शूद्रों को रामायण, महाभारत तथा अन्य धर्म ग्रंथों का अध्ययन करना
तो क्या, उनका
श्रवण करना भी प्रतिबंधित था. धर्म
संकुचित हो गया था. धर्मग्रंथ संकुचित हो गए थे. महाराज ने वे सारे अधिकार अपने
राज्य में सभी को प्रदान किये हैं. ऐसा राजा इतिहास में आज तक हुआ नहीं है. इतना ही नहीं, बल्कि
याज्ञवल्क्य के अनुसार शूद्र वर्ण “नम:” शब्द का उच्चारण करके महायज्ञ करने का
अधिकारी भी हो गया है. महाराज ने याज्ञवल्क्य का ही आदर्श प्रस्तुत किया है.”
वह स्त्री क्षमा मांगकर चली गए. तब
गंगेश्वर भट्ट बोले,
“जाति व्यवस्था का इतना एकसंघ स्वरूप
हमने किसी भी शासक के पास नहीं देखा. महाराज, आप जैसे राजा आर्यावर्त का भूषण हैं.”
मध्याह्न भोजन का समय कब का निकल
चुका था. फिर भी महाराज उन पाँचों वेदांती ब्राह्मणों सहित भोजन कक्ष की ओर निकले.
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