“कालिदास, हमने सबको समान अधिकार देने का प्रयत्न किया, परन्तु मन आज खिन्न है.” संध्या आरती के बाद क्षिप्रा के मंदिर की सीढियां उतरते हुए सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा.
सेनापति वीरसेन और महारानी
ध्रुवस्वामिनी अद्याप मंदिर में ही थे. युवराज्ञी प्रभावती शीघ्रता से सीढियां
उतरकर चली गई थी. महाकालेश्वर की महाआरती होने से संपूर्ण राज परिवार मंदिर में
उपस्थित था. परन्तु कबसे मन को पीड़ा देने वाली बात कहने के लिए सम्राट चन्द्रगुप्त
निकले. उन्हें मालूम था कि कालिदास उनके पीछे आयेंगे.
“ऐसा क्या हो गया है, महाराज?”
“रानी सौदामिनी ने प्रभावती का विवाह
उनके बंधू से करने का आग्रह किया है. संयत ध्रुवस्वामिनी कुछ नहीं कहतीं. रानी
नेत्रवती अपनी ही धुन में मगन रहती हैं. आप सुखी हैं, कालिदास. पारिवारिक समस्याओं
से मुक्त हैं. अभी तक हमने किसी को यह नहीं बताया है कि प्रभावती का विवाह वाकाटक
वंश में करना पडेगा. केवल सेनापति देवदत्त जानते हैं.”
“उन्हें इस बारे में क्या समस्या हो सकती
है, महाराज? महाराज
चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवी वंश की राजकुमारी कुमारदेवी का वरण किया. आप
ध्रुवस्वामिनी महारानी को लाये. ऐसे संबंध राजवंशों के लिए नए नहीं हैं. फिर आप
चिंतित क्यों हैं?”
“बात यह है, कालिदास कि
गुजरात,
काठियावाड़ के शक-महाक्षत्रपों ने जब वहाँ अपना राज्य स्थापित कर लिया तो हमारे
सामने समस्या खड़ी हो गई – व्यापार के सन्दर्भ में. पिताश्री ने जो राज्यव्यवस्था
की थी, वह
बधू रामगुप्त के समय में पूरी तरह नष्ट हो गई. जिन नदियों से परदेस में व्यापार
होता है, वे नदियाँ
ही शकों के आधिपत्य में थी. पाटलीपुत्र से हमने शकों से उज्जयिनी प्राप्त की. यह
सब करते हुए दक्षिण के वाकाटक रुद्रसेन का सहकार्य प्राप्त हुआ.”
कालिदास अभी भी सम्राट चन्द्रगुप्त
की समस्या को समझ नहीं पाए थे. वे केवल सुन रहे थे. काफी समय के बाद उन्होंने पूछा,
“युवराज्ञी प्रभावती देवी के बारे
में...”
उनका प्रश्न समझकर सम्राट
चन्द्रगुप्त बोले,
“ऐसा प्रतीत होता है कि उनके वंश के
पुरुषों को अल्पायु होने का शाप है. क्या हम जानबूझकर ऐसा करें? यह प्रश्न
है.”
“ऐसा कुछ भी नहीं होता, महाराज. यह
केवल योगायोग होता है. हमारा विचार है, कि पिछले तीन मास से आप चिंतित हैं, तो प्रभावती
देवी से सब कुछ स्पष्ट कह दें, जिससे प्रश्न का समाधान हो जाएगा.”
वे बातें कर ही रहे थे कि प्रभावती
शीघ्रता से मंदिर की सीढियां उतरकर उनके समीप आईं. गौरवर्णीय, सुन्दर,
शस्त्र-शास्त्र निपुण वह इस समय किसी सुन्दर काव्य जैसी प्रतीत हो रही थी.
“हमारा नाम सुना. हमारे बारे में
बातें हो रही थीं?”
सम्राट चन्द्रगुप्त मौन हो गए.
कालिदास बोले,
“प्रभावती देवी, आप जब बालिका
ही थीं, तब हम
उज्जयिनी आये थे. अनेक बार आप हमारे साथ भी थीं, देखते-देखते आप विवाह योग्य हो गई
हैं.”
“हमने माताश्री से सुना. पिताश्री
हमारे विवाह के बारे में विचार कर रहे हैं.”
“प्रभावती, ब्राह्मण कुल के
वाकाटक वंश के महाराज रुद्रसेन से आपका विवाह करने की हमारी इच्छा है,” सम्राट
चन्द्रगुप्त एक सांस में कह गए और उन्होंने दीर्घ नि;श्वास लिया.
“पिताश्री, वाकाटक वंश का हम पर ऋण
ही है. उन्होंने अनेक बार हमें सहकार्य दिया है. अत: हम प्रसन्नता से उनसे विवाह
करेंगे. वैश्य-ब्राह्मण संबंध राजकीय सहकार्य को दृढ़ता प्रदान करेगा. पिताश्री, आप कभी भी अयोग्य
निर्णय नहीं लेंगे. इसके अतिरिक्त, राजवंश में किसी को भी अपने राजधर्म का, कर्तव्य का विस्मरण
नहीं होना चाहिए.”
वह बोल रही थी. कालिदास उसके प्रगल्भ
विचारों से प्रभावित हो गए थे, तो सम्राट चन्द्रगुप्त, सार्वभौम
साम्राज्य के अधिपति. अपनी कलिका जैसी पुत्री के सामने नतमस्तक हो गए थे. उनके
नेत्रों से समाधान के अश्रु बह रहे थे. मन को चिंतित करने वाला प्रश्न सहज ही हल
हो गया था.
सम्राट चन्द्रगुप्त ने उसके मस्तक पर
हाथ रखा. आगे कुछ कहने के लिए शब्द ही नहीं बचे थे.
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