‘अतुल्य भारत, अमूल्य भारत, अनमोल, अनुपम भारत!
उत्कट, उन्नत
भारत! विधाता का अनन्य स्वप्न भारत! अहिंसा, सत्य, शान्ति, विश्वबंधुत्व को मानने वाला भारत. संस्कार, संस्कृति, प्राकृतिक
सौन्दर्य से परिपूर्ण भारत! भारत, एकसंघ भारत! उत्तर से दक्षिण तक, पूर्व से
पश्चिम तक समृद्ध भारत! आर्यावर्त!’
कालिदास नितन्तर भारत के बारे में
लिख रहे थे. पोरस-सिकंदर से आरंभ हुआ इतिहास, उससे पूर्व वैदिक काल के सुवर्ण पृष्ठ, वास्तव में
उन्हें लिखनी थी सम्राट समुद्रगुप्त की राज्यव्यवस्था. परन्तु वे भूल गए थे.
वराहमिहिर ने कहा था, “एक
बार सम्राट समुद्रगुप्त की न्यायनीति, सामाजिक, राजकीय दृष्टिकोण के बारे में लिखना चाहिए. जब
फाह्यान आया था तो उसने खूब अध्ययन करके लिखा. वह लिखता ही रहा था. हमारे मन में
आया, कि हम
ही अपने महाराज के पिता के विषय में क्यों न लिखें. परन्तु ‘बृहत्संहिता’ आरंभ
करने के बाद हम चाहकर भी नहीं लिख पा रहे हैं...संक्षिप्त जानकारी हमारे पास
उपलब्ध है.”
कालिदास वे हस्तलिखित ले आये थे. और
लिखना आरम्भ करते ही उनके नेत्रों के सामने नीलाकाश, भव्य हिमालय, अथाह सागर, जलाशय, सर-सरिता
दिखाई देने लगे. काश्मीर से वापस आते समय हरिद्वार से आगे, केदारनाथ तक
अतिरम्य,
शब्दातीत प्रवास! आर्यावर्त में हुआ लोकदर्शन! लोकभाषा, लोकनृत्य, लोकपरिवेश, लोकसंस्कृति
का दर्शन. इनकी विविधता देखकर वे मंत्रमुग्ध हो गए थे. और केदारनाथ के दर्शन से तो
अपने अस्तित्व तक को भूल गए थे. वे स्वयँ ही हो गए थे शिव-पार्वती और उन्हें
प्रीति हो गई शिवशंकर से और फिर मौन अनुनय-प्रणय और फिर पूर्णत्व. उस प्रणय के
अनेक रंग! उस हिमालय पर केवल वे ही दोनों – शिव और पार्वती, शिव और उमा.
मुक्त श्रृंगार का अलौकिक-अनुपम-उत्कट स्थान.
वे उस वातावरण में प्रविष्ट हो गए थे, इतने में सेवक
ने उनके समीप जलपात्र लाकर रखा और वे वास्तविकता में आये. हमें यह सब लिखना होगा, अन्यथा मन
मुक्त नहीं होगा. परन्तु अभी वराहमिहिर द्वारा दी गए हस्तलिखित. संक्षेप में ही
सही, मगर
उन्हें लिखना चाहिए. वर्त्तमान का भान रखते हुए उन्होंने लिखना आरम्भ किया.
विस्तार से बाद में लिख सकते हैं, यह विचार उनके मन में था.
श्रीगुप्त ने कुषाण वंश के पतनकाल
में अपना साम्राज्य स्थापित किया. उनके बाद घटोत्कच ने प्रशासन अपने हाथ में लिया,
राज्यव्यवस्था उत्तम प्रकार से संभाली. ‘श्री घटोत्कच गुप्तस्य’ नाम से अपनी
राजमुद्रा तैयार की. उनके पश्चात ‘महाराजाधिराज’ उपाधि ग्रहण कर चन्द्रगुप्त शासन
करने लगे. मगध,
पाटलिपुत्र और उत्तर भारत के अनेक राज्यों को अपने राज्य से संबंधित करते हुए
राज्य विस्तार किया. राजनगरी पाटलिपुत्र का निर्माण किया. अपनी विजय के उपलक्ष्य
में ‘गुप्त संवत’ कालगणना का आरम्भ किया.
मगध राज्य के उत्तर में स्थित प्रबल
लिच्छवी राजवंश को पराजित करना कदापि संभव नहीं, यह जानकर उनकी कन्या कुमारदेवी से
विवाह किया. चन्द्रगुप्त की अनेक रानियों में से कुमारदेवी के पुत्र समुद्रगुप्त
ने इतिहास में स्वर्ण पृष्ठ लिखा है. उनके ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त ने शासन की
बागडोर संभाली. रामगुप्त अत्यंत निष्क्रिय थे, इस कारण समुद्रगुप्त द्वारा स्थापित प्रशासन
व्यवस्था डगमगा गई, राज्य
पर अनेक आक्रमण भी हुए. समुद्रगुप्त द्वारा स्थापित उत्तम नियोजन का पतन हो गया.
विकास के स्वप्न देखने वाला साम्राज्य आक्रमणों की छाया में आ गया. शकों ने बारबार
आक्रमण किये. उस समय चन्द्रगुप्त द्वितीय अयोध्या के प्रान्तपाल थे. शकों को अपनी
पत्नी देनेवाले रामगुप्त का चन्द्रगुप्त ने वध किया और वे राज्याधिकारी हो गए.
शकों पर आक्रमण करने के लिए सम्राट
चन्द्रगुप्त मालवा प्रांत से अपने परराष्ट्र्मंत्री और युद्धमंत्री वीरसेन के साथ
गए थे. उदयगिरी सनकानिक वंश का गुप्त सरदार सम्राट चन्द्रगुप्त की शरण में आ गया
और सम्राट चन्द्रगुप्त ने समुद्रगुप्त द्वारा जीते हुए सभी प्रांत जीतकर उन पर
अपनी राजमुद्रा अंकित की. अपने पिता के ही समान ‘उन्मुक्त राज्य’ की स्वतन्त्र
नीति अपनाई.
‘आटविक राज्य’ अरण्य क्षेत्र
के राज्य थे. उन्हें सेवक बनाया. दक्षिण की ओर के राज्यों को जीत लिया, संपत्ति रख ली
और उन्हें उनके राज्य वापस कर दिए. ‘प्रत्यंत राज्य’ – अर्थात् सीमा प्रांत के राज्यों
को अपने अधिकार में रखा. जो ‘गणराज्य’ थे, उनका पराभव करके उन्हें मांडलिकत्व दिया. ‘सीमा
प्रांत के विदेशी राज्यों’ को मांडलिकत्व प्रदान किया.
उत्तर भारत के पश्चात दक्षिण भारत का
अभियान आरम्भ किया. ‘आटविक’ राजाओं के सहकार्य से युद्ध में विजय प्राप्त होती है, यह जानकर अपने
दक्षिण के अभियान में उन्होंने आटविक राजाओं का सहकार्य प्राप्त किया.
सम्राट समुद्रगुप्त ने रुद्रदेव, मातिल, नागदत्त, चंद्रवर्मन, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत, नंदी, बलवर्मा – ये
सारे नागराज्य अपने साम्राज्य से जोड़ लिए थे. बीच में, रामगुप्त के
काल में वे स्वतन्त्र हो गए थे. सम्राट चन्द्रगुप्त ने उन्हें फिर से अपने आधिपत्य
में कर लिया. कोसल के महेन्द्र, महाकान्तार के व्याघ्रराज, कौराल के
मंत्रराज,
पिष्टपुर के महेंद्रगिरी,
कोत्तूर के स्वामिदत्त,
एरंडपल्ल के दमन, कांची
के विष्णुगोप,
अवयुक्त के नीलराज, वेंगी
के हस्तिवर्मन, पल्लक के उग्रसेन, देवराष्ट्र के कुबेर, कोस्थलपुर के
धनञ्जय पर सम्राट चन्द्रगुप्त ने नियंत्रण स्थापित किया.
गंगा, ब्रह्मपुत्र नदियों का बंग का समुद्र किनारा,
उसकी राजधानी ‘कर्मान्त’, समतट
और कामरूप के बीच ‘दवाक’, राजा
जयदेव का नेपाल,
कुमायूं, गढ़वाल, रोहिलाखंड का
प्रदेश ‘कर्तृपुर’, और गणराज्य, ‘मालव’, ‘आर्जुनायन’, ‘यौधेय’, ‘मद्रक’, ‘आभीर’, ‘प्रार्जुन’, ‘सनकानिक’, ‘काक’, ‘खर्पारिक’ पर
पुनः अधिकार प्रस्थापित करके गुप्त संवत भी आरम्भ किया.
कालिदास संक्षेप में लिख रहे थे.
वास्तव में तो यह अभ्यासक-लेखनिक का कार्य था. इस तरह के काम उन्हें अच्छे नहीं
लगते थे,
परन्तु वराहमिहिर को मना करना संभव नहीं था और लिखना प्रिय नहीं था.
उन्होंने सेवक द्वारा लिये गए जल का
प्राशन किया. सेवक ने सूचित किया कि महाराज ने आमंत्रित किया है. शरीर में
प्रसन्नता की लहर दौड़ गई.
मंत्रीमंडल ले कुछ विशिष्ठ मंत्रियों
की सभा आयोजित की गई थी. वे समझ नहीं पाए कि उस सभा में उनकी क्या भूमिका हो सकती
है. उस दालान में प्रवेश करते ही सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा,
“ पधारिये, कालिदास.”
“विशेष सभा का आयोजन किसलिए, महाराज?”
“हम ‘अश्वमेध यज्ञ’ करने वाले
हैं. अब तक अनेक यज्ञ,
महायज्ञ किये हैं,
परन्तु अश्वमेध यज्ञ नहीं किया है.”
“हमें कौनसा कार्य करना होगा, महाराज?”
“अश्वमेध यज्ञ के निमंत्रण आप स्वयं
जाकर दें. कुछ विशेष राज्यों में आप स्वयँ जाएँ. विशेषत: विदर्भ में स्थित वाकाटक
राज्य में जाकर प्रत्यक्ष रुद्रसेन महाराज को आप स्वयँ, हमारी ओर से निमंत्रण दें.
उसी तरह कुछ और भी गणराज्य हैं, जहाँ आप जाएँ.
हम अपना ‘कुंतक अश्व’ अश्वमेध यज्ञ
के लिए ससैन्य भेजेंगे. इस अश्व का प्रतिरोध करने वालों के सामने युद्ध ही एक
पर्याय होगा.”
“मान्य है, महाराज.
वर्त्तमान में आर्यावर्त पर आपका इतना प्रभाव है कि कोई भी अश्वमेध यज्ञ के अश्व
का प्रतिरोध नहीं करेगा.”
“दक्षिण में स्थित वाकाटक वंश, अत्यंत प्रबल
साम्राज्य का अधिकारी है. अनेक बार शकों के विरुद्ध युद्ध करते हुए उनका अमूल्य
सहयोग हमें प्राप्त हुआ है. उनके अनेक मांडलिक राजा हैं. कालिदास, हम कुछ
मंत्रियों को आपके साथ भेजेंगे. आप उन्हें अश्वमेध यज्ञ के लिए आमंत्रित करें. हम
अपने हस्ताक्षर में उन्हें निमंत्रण पत्र भेज रहे हैं. हमारा उद्देश्य आप समझ गए
ना, कालिदास? महाराज
रुद्रसेन को यहाँ आना चाहिए.”
अश्वमेध यज्ञ का उद्देश्य
स्वसाम्राज्य पर अपनी मुद्रा लगाना था, तो महाराज रुद्रसेन को आमंत्रित करने का
उद्देश्य यह था कि प्रभावती-रुद्रसेन के विवाह से दो प्रभावशाली वंश एक होकर
हिन्दू साम्राज्य को एकसंघ बनाएं.
“अवश्य, महाराज,” कालिदास ने
कहा.
“हमारे पिताश्री ने अनेक युद्ध किये.
सप्तसिन्धु के प्रदेश में विजय प्राप्त करने के बाद दक्षिण के बारह राज्य उन्होंने
जीते. जिनमें कोसल के महेन्द्र, महाकान्तार के व्याघ्रराज, कौराल के
मंत्रराज,
पिष्टपुर के महेंद्रगिरी,
कोत्तूर के स्वामिदत्त,
एरंडपल्ल के दमन, कांची
के विष्णुगोप,
अवयुक्त के नीलराज, वेंगी
के हस्तिवर्मन, पल्लक के उग्रसेन, देवराष्ट्र के कुबेर, कोस्थलपुर के
धनञ्जय – इन छोटे राज्यों को जीतकर उन्हें मांडलिकत्व और स्वायत्तता देकर पिताश्री
ने एकसंघ हिन्दू साम्राज्य का निर्माण किया. कई बार हम भी उनके साथ युद्ध पर गए
थे.
पिताश्री सम्राट समुद्रगुप्त हमारा
आदर्श हैं. इतिहास के अनेक स्वर्ण पृष्ठ लिखने वाले वे हमारे पिताश्री हैं, इसका हमें
अभिमान है. साम्राज्य जोड़ने के लिए उन्होंने अनेक विवाह किये. उन्होंने अनेक यज्ञ
करके संस्कृति के मेरूदंड को मज़बूत बनाए रखा. दो बार अश्वमेध यज्ञ करके
स्वसामर्थ्य का परिचय दिया.
दक्षिण में विजय प्राप्त करते समय
‘धर्मविजयी’ इस
सिद्धांत का पालन किया. पिताश्री सम्राट समुद्रगुप्त उदारमतवादी थे.
‘ग्रहणमोक्षानुग्रह’ इस
सिद्धांत के प्रणेता थे. अर्थात् राज्य जीतने के बाद, उस राज्य पर
अनुग्रह करके उसे वापस लौटाकर राजा को मांडलिकत्व प्रदान करते. हमारे पिताश्री के
काल में ये युद्ध करना कहीं अधिक सरल था. परन्तु सब जगह शासन करना अधिक कठिन था.
इसलिए इस कूटनीति का प्रयोग उन्होंने किया.
सम्राट चन्द्रगुप्त को अपने पिता के
बारे में बहुत कुछ बताना था. उनकी भावनाएँ हिलोरें ले रही थीं, अंत में तो वे
इतने उत्तेजित हो गए कि उनका गला भर आया था. उन्होंने आगे कहा,
“हम पिताश्री की नीति का अनुसरण करते
हुए अपना हर उद्देश्य निश्चित करते हैं. उन्हें सर्वाधिक प्राप्त करते हुए बहुत
संघर्ष करना पडा था. हमें उतना संघर्ष नहीं करना पडा.
उनका एक सिद्धांत था, यज्ञप्रयोजन.
इस निमित्त से सभी मांडलिक राजाओं को आमंत्रित करके एकसंघ करने की यह धर्मनीति थी.
हमने भी वही किया. अनेक यज्ञो के बाद महायज्ञ और उसके पश्चात विजयध्वज फहराने वाला
अश्वमेध यज्ञ हम करने वाले हैं. पिताश्री ने उस काल में शिलालेखों का भी निर्माण
किया था. उनमें हरिषेण ने अनेक उत्तम उपाधियों का, सम्मानवाचक शब्दों का,
गुणविशेषणों का प्रयोग किया है, जिनके वे अधिकारी थे.”
“महाराज, आप अपने
पिताश्री से दो पग आगे ही हैं. आप सकलगुणमंडित हैं. यज्ञ के समय आपने अनेकों को जो
दान दिया है, वह तो
अवर्णनीय ही है. अनाथ स्त्रियों की आपने इतनी सहायता की है कि यदि उसका वर्णन करने
लगो...”
“रहने दें, वराहमिहिर...”
सम्राट चन्द्रगुप्त हँसते हुए बोले, “हमने अपने पिताश्री की चरण रज का आदर करके उसे
चन्दन की भाँति माथे पर लगाया है. आपको शायद कल्पना भी न हो, परन्तु सत्य
कहता हूँ, कि आज
भी वह चरण रज हमारे पूजा मंदिर में है.” उनके नेत्र भर आये. सभी भावना विभोर हो गए
थे.
संध्या के पदकमल आज राजसभा में आ
पहुंचे थे.
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