कालिदास का अश्व मधुवंती के प्रासाद से निकला तो किरणों के अश्व आकाश मार्ग में गतिशील हो गए थे. वास्तव में वे कभी भी प्रकाश मार्ग से होकर मधुवंती के प्रासाद से नहीं निकले थे और अद्याप कभी भी एक रात से ज़्यादा उसके यहाँ रुके भी नहीं थे. परन्तु इस बार मधुवंती ने न जाने की प्रतिज्ञा ही दी. उन्होंने कहा भी था,
“हे शुभदे, चारुगात्री
मधुवंती, हमें
व्यथा होती है, वह
तुम्हें दिखाई नहीं देगी और न ही कभी तुम समझ पाओगी. विवाह के पश्चात कन्या पतिगृह
में आती है. पत्नी बनकर उसके संपूर्ण आयुष्य पर छा जाती है. विवाह बंधन के कारण
उसे सामाजिक अधिकार प्राप्त होता है.
हे सुनेत्री, सुमंगली, तुम्हें हम
क्या कथन करें? तुम तो सज्ञान हो. हम पुरुष हैं, तुम एक स्त्री हो. गणिका के रूप में
तुम्हें स्वायत्तता और सर्व सौख्य का अधिकार होते हुए भी तुम हमारी पत्नी नहीं बन
सकतीं. अभी तक गुप्त साम्राज्य में ऐसा किसी ने किया हो, ऐसा इतिहास
में नहीं है. और यदाकदाचित किसी ने किया भी हो तो राजा-महाराजाओं ने किया होगा.”
“आर्य, आपके अतिरिक्त मैं किसी से भी...”
“हम कब अमान्य करते हैं, सुकन्ये?
परन्तु, यदि हमने ऐसा निर्णय लिया भी होता, तो वह हमारे लिए भी संभव नहीं है.”
केदारनाथ से लौटने के बाद वे एक रात
को गए तो थे, परन्तु कुछ ही देर में महाराज का सन्देश लेकर सेवक आया था, और वे वापस
चले गए थे.
उसके बाद सप्ताह भर वे विविध कार्यों
में व्यस्त थे. वह अधीरता से उनकी प्रतीक्षा कर रही थी. वैसे भी उसका परिवार तो था
ही नहीं. वही राजा और वही रानी, अन्य दासदासियाँ थीं. वह सबके लिए थी, मगर उसने अपना
हृदय अर्पण किया था सिर्फ कालिदास को. उनके प्रति वह एकनिष्ठ थी. इसीलिये वह आतुर
थी उनसे मिलने के लिए. उनके बीच पति-पत्नी के बीच का सामंजस्य स्थापित हो गया था.
जब कालिदास दुबारा आये, तो उसने कहा
था,
“आर्य, यदि एक वचन माँगू, तो देंगे? मुझे नहीं
जीना है अखिल विश्व के सौन्दर्य में अपने आप को भूलकर, मुझे नहीं
चाहिए सन्मान, सामाजिक प्रतिष्ठा और उच्चशिक्षित होने का बहुमान. नहीं करना है
हमें राजसभा में नृत्य, नहीं
करना है हमें सिंगार और नहीं चाहिए लावण्यवती का बहुमान. आर्य, हमें संगीत
सभाओं में प्रशस्ति भी प्राप्त नहीं करना है. विगत दस वर्षों से आप हमारे स्वामी
हैं. ‘आर्य’ कहकर
ही हम आपको संबोधित करते हैं.
अब आप एक माह हमारे साथ रहें.
पारिवारिक जीवन का आनंद हमें प्राप्त हो. आर्य, इतने वर्षों के बाद की गई इस विनती को आप
ठुकरायेंगे नहीं, इसका
हमें विश्वास है.”
“हे लावण्यलतिके, ऐसी जिद क्यों? हम तो आते ही
हैं ना? अन्यत्र कहीं भी हम नहीं जाते, ये तो तुम जानती ही हो.”
उन्होंने उसे हृदय से लगा लिया. उसकी
व्यथा,
व्याकुलता, इच्छा
वे समझ गए थे. वह उनके साथ सप्तपाताल तक भी आयेगी ऐसा उन्हें पूरा विश्वास था.
उसके नेत्र भर आये थे, अश्रु
सावन-भादों की धाराओं के सामान उनके वक्ष पर बह रहे थे. उन्होंने उसका मुख कमल
हाथों में लिया. बरसती धाराओं के बीच अचानक चन्द्रबिम्ब दिखाई दे, वैसा आभास
हुआ. उसके बंद नेत्रों में कमलिनी की व्यथा थी. उसका मन चकोर हो गया था. उसके
अगतिक, असहाय, निर्बल, निस्तेज रूप
को देखकर कालिदास के नेत्र भर आये.
स्त्री के सहवास की सामर्थ्य पर आकाश
में छलांग लगाने वाले पुरुष शायद इस तरह से सोचते ही नहीं होंगे. स्नेह, ऊर्जा, और मांगल्य
में स्त्री के दर्शन होते हैं. और ऐसा विलोभनीय दर्शन उन्हें प्राप्त हुआ था.
सुदूर केदारनाथ के दर्शनों के लिए हिमालय चढ़ते हुए कभी वे शिव हो गए थे, और पार्वती हो
गई थी मधुवंती. शिव-पार्वती के विवाह पश्चात के उस काल का उन्होंने नितांत रमणीय, एकाकी और
उत्कट ऐसे हिमालय के परिसर में अनुभव किया था. निसर्ग के अगम्य रूप का अनुभव
उन्होंने यहीं किया था.
अपनी कल्पना में कालिदास मधुवंती के
साथ चल रहे थे. प्रणय के रंग, और प्रकृति का अनुभव करते हुए वे भी मगन हो गए
थे. मानो शिव-पार्वती और कालिदास-मधुवंती एकरूप हो गए थे. उन्हें मानो साक्षात्कार
हुआ कि मधुवंती ने उनके पूरे जीवन को व्याप्त कर लिया है.
“आर्य, हमारी बात नहीं मानेंगे?”
“हमें विचार करने दो.”
“नहीं, आर्य, एक माह आप यहीं रहें.”
“ये कैसे संभव है, मधुवंती?”
“क्यों नहीं? उसमें असंभव क्या है?”
उसके सीधे-सादे प्रश्नों का उत्तर
देना लगभग असंभव था. परन्तु तूफ़ान में उन्मूलित लता को कैसे संवारें और इस दुविधा
से मार्ग कैसे निकलें यह प्रश्न उनके सामने था.
“हे कामिनी, आज की रात तो
सुख से बीतने दें ...”
“आर्य, सारी रातें आपकी ही हैं और दिन
पति-पत्नी के बीच सामंजस्य के. मैं बनूंगी गृहिणी और आप – गृह स्वामी. हमारे साथ
भोजन की सिद्धता करें,”
वे उसकी विविध कल्पनाएँ सुन रहे थे, उन्हें भी वे
सहज-सुन्दर पारिवारिक कल्पनाएँ प्रिय थीं. पूजा मंदिर के सामने रंगोली, मंदिर में
पूजा, भोजन
की सिद्धता, उपवन
का हिंडोला, निरभ्र
आकाश के नीचे नर्म-मुलायम दूब पर मधुवंती को अपने साथ लपेटे पड़े रहना. कितना सहज
सुन्दर!
परन्तु कालिदास इस सबसे योजनों दूर
थे. वस्तुतः विद्वत्वती के लिए किया गया प्रण किसी को भी ज्ञात नहीं था. केवल
सम्राट चन्द्रगुप्त इस बारे में जानते थे.
वे स्वतन्त्र थे, मुक्त थे, पुरुष थे, बहुपत्नीत्व
की रीत भी विद्यमान थी. कहीं भी कोई प्रतिबन्ध न था.
उस रात अत्यंत आनंदित मधुवंती के
निद्राधीन हो जाने पर भी कालिदास जाग रहे थे.
‘हम ही प्रतिज्ञा के बंधन में क्यों
बंधे रहें? अपने
ही शब्दों से मुक्त क्यों न हो जाएँ? वे भी शब्द हमारे ही थे. किसी को भी ज्ञात नहीं
हैं. फिर मन का यह दुराग्रह किसलिए? परन्तु उनका मन मुक्त होना ही नहीं चाहता था. मन
ही जिद्दी था.
आयु के पन्ने उलट रहे थे. अभी भी
‘अस्ति कश्चिद् वाग्विशेष:’ का उत्तर नहीं दे सके. हम ज्ञानवंत हो गए, शास्त्र
संपन्न हो गए. सम्राट चन्द्रगुप्त के वटवृक्ष की छाया जीवन का आधार हो गई. हम
क्यों नहीं जाते भोज राजा की राजसभा में और क्यों नहीं उत्तर देते विद्वत्वती के
प्रश्न का? हम
क्यों नहीं आयोजन करते शास्त्रसभा का? क्यों नहीं उसे आमंत्रित करते? पीछे क्यों हट
जाते हैं?
हमारा मन विकृत है. हम सामर्थ्यहीन
हैं. अपने अपमान का प्रतिशोध नहीं ले सकते. उसका विचार आते ही ऐसा क्यों हो जाता
है?’ वे अस्वस्थ
हो गए थे.
जितना अधिक वे विद्वत्वती का विचार
करते रहे, उतने
ही अत्यंत दुराग्रही होते गए. हम ब्राह्मण ही हैं. हमें शब्दों से ही उत्तर देना
है. शास्त्रार्थ करके उसे पराजित करने की हमारी क्षमता है. परन्तु उसके ‘अस्ति
कश्चिद् वाग्विशेष:’ का उत्तर देना है – ‘हाँ, हम साहित्य के विषय में जानते हैं.
इतना ही नहीं, बल्कि
हमारा साहित्य लिखित रूप में होकर अजर-अमर है. यही सिद्ध करने के लिए मन आतुर है.
परन्तु अभी तक ‘ऋतुसंहार’ के
पश्चात स्फुट काव्य के अतिरिक्त कुछ और नहीं लिख सके हैं. हमें कुछ ऐसा लिखना
चाहिए कि वह हमसे क्षमा मांगे.’
रात ढलते-ढलते वे निद्रावश हो गए, और
सूर्य के अश्व दसों दिशाओं में भ्रमण करने लगे, फिर भी उनकी आंख नहीं खुली. मधुवंती महाकालेश्वर
के मंदिर में जाकर आ गई थी. पूजा सामग्री यथास्थान रखकर वह मंचक के पास गई. उनके
मस्तक पर हाथ रखा, और
जैसा सोचा था, वैसा
ही हुआ. उन्हें ज्वर हो गया था.
दो दिनों तक वे ज्वर में बडबड़ाते
रहे. विद्या,
विद्वत्वती के नाम लेते रहे.
‘कौन हो सकती हैं ये दोनों? आर्य इतने मौन
क्यों हैं?
उन्होंने कभी इनका उल्लेख क्यों नहीं किया?’ ऐसे अनेक प्रश्न उसके मन में थे. वह संयम से, हौले से उनसे
सब कुछ पूछने वाली थी.
दो दिन और दो रातें वे ज्वर में तपते
रहे. मन का तनाव असहनीय था, फिर
भी कालिदास मौन थे. मधुवंती ने कुछ भी नहीं पूछा.
तीसरे दिन सूर्योदय के उपरांत जब वे
निकले तब प्रासाद की सीढियां उतरते हुए बोले,
“मधुवंती...क्या कहें, कुछ समझ में
नहीं आ रहा है. हम चलते हैं.”
वे सीढियां उतरकर चले गए. अश्व पर
सवार हो गए, दोनों के ही नेत्र असमय वर्षा करने वाले मेघों के समान भर आये थे.
***
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