सम्राट चन्द्रगुप्त राजप्रासाद के
गवाक्ष से बाहर देख रहे थे. ऐसे खाली क्षण उन्हें मुश्किल से प्राप्त हुए थे. उपवन
की ओर जाने वाले मार्ग पर सेनापति देवदत्त, महामंत्री देववर्मा और वीरसेन उन्हें दिखाई दिए.
वे पीछे मुड़कर सेवक को उन्हें आमन्त्रित करने के लिए कहने ही वाले थे कि महारानी
ध्रुवस्वामिनी भीतर आईं. वह मंदिर जा रही थीं, उन्हें देखकर बोलीं,
“आर्य, इतने निश्चिन्त, स्वस्थ्य और गवाक्ष
से दूर देखते हुए हमने आपको कभी देखा हो, ऐसा याद नहीं है. आप और कालिदास, आप और
महामंत्री. आप और सेनापति...ये जो भावनात्मक युति है, और उनका ऐसा
साहचर्य आपको प्राप्त हुआ है, कि आप उनके, और केवल वे ही आपके, ऐसी भावना निर्माण हो गई
है. रानी कुबेरनागा भी यही कह रही थीं. ”
“हम क्षमाप्रार्थी हैं, महारानी.
प्रत्येक सम्राट के जीवन की राह में प्रेम का संक्षेप होता है. महारानी, जीवन एक गणित
है, उसमें भी
छोटी-बड़ी संख्याओं को ढूँढने में भूल हो ही जाती है. कुछ विशेष घटनाएं घटित होते
हुए या उसके बाद यह ध्यान में आता है कि हमारी संख्या में व्यय हुआ है पत्नी के सहवास
का.”
“हमने इसलिए नहीं कहा था, आर्य, कि आप क्षमा
मांगें. राजप्रासाद में पैर रखते ही मर्यादाओं का बोध होता है, संस्कृति का बोध
होता है. साथ ही इस बात का भी ज्ञान होता है कि वीर पुरुष से विवाह किया है तो
युद्ध की स्थिति उत्पन्न होगी ही. आप युद्ध में जाकर अवश्य ही वापस आयेंगे, ऐसा विश्वास
ही हमारे मन में होता है. दिन का हर क्षण महामृत्युंजय का जाप करने में बीतता है.
चाहे हम मन से कितने ही दृढ़ क्यों न हों...”
“महारानी, इस विषय को
छोडिये. हम आ गए हैं ना? अब हम प्रसन्नतापूर्वक जियें. आइये, महारानी.
हमारे निकट मंचक पर बैठें.”
उन्होंने महारानी ध्रुवस्वामिनी का
हाथ पकड़कर उन्हें अपने समीप बिठाया. उनकी ओर देखते हुए बोले,
“आज भी वैसी ही सुन्दर हो,
ध्रुवस्वामिनी.”
“आर्य, संध्या आरती का समय हो रहा है. चलिए, हम मंदिर में
चलें. प्रभावती और युवराज कुमार भी आयेंगे. आपकी प्रिय रानी कुबेरनागा, सौदामिनी
और...”
“क्या आप हमारा उपहास कर रही हैं, महारानी?”
“कदापि नहीं, सत्य स्थिति
का दर्शन करवा रही हूँ.”
“अब आप उपवर कन्या की माता हैं, फिर भी पहले
के ही शब्द? अभी तक आप में कोई परिवर्तन नहीं आया है...”
“कैसे आयेगा, महाराज? आप भी
वही हैं, हम भी
वही. फिर, युद्ध
में व्यतीत हुआ समय व्यय करें, तो वे ही दिन होंगे ना? और, एकांत में
बहुमानार्थी शब्दों का प्रयोग न करें.”
“हम सब कुछ मान्य करते हैं, क्योंकि कोई
पर्याय ही नहीं है. हमारी अनुपस्थिति आप सबको खलती होगी, परन्तु...”
“आर्य, यह व्यंग्य नहीं, उपहास भी नहीं
है, बल्कि आपकी
अनुपस्थिति आपकी सुनहरी यादों को जगाती है. हमारा राष्ट्र एकसंघ हो, हिन्दू
संस्कृति का संवर्धन हो,
धर्मपूर्वक सुशासन हो,
दारिद्र्य का उन्मूलन हो, और
विदेशी भारत पर आक्रमण न कर पायें, इसलिए सेना सदा कटिबद्ध रखें – ऐसे उदात्त हेतु
से आप प्रतिक्षण राष्ट्र को समर्पित हैं, इसका हमें गर्व है.”
सम्राट चन्द्रगुप्त का मन भर आया.
उन्होंने कहा,
“परिवार के पुरुष को परिवार से अपेक्षित
होता है विश्वास और स्नेह, और राजपुरुषों को अपने परिवार से ऊर्जा, विश्वास, स्नेह, कर्तव्य और
राजनिष्ठा,
परस्पर सामंजस्य की अपेक्षा होती है. जब हम युद्ध पर जाते हैं, तो परिवार
संगठित रहे इसके लिए कोई स्नेह से प्रयत्न कर रहा होता है. और वो तुम कर रही हो, ध्रुवस्वामिनी, केवल तुम...”
उन्होंने उसके कंधे पर अपना मस्तक
रखा. उसके भी नेत्र भर आये, और
समय का ध्यान रखते हुए वह बोली,
“सांझ गहरा रही है,
आर्य...देवमंदिर चलें.”
“तुम आगे चलो, हम आते हैं.”
महारानी ध्रुवस्वामिनी हाथों में
पुष्पमाला लेकर मंदिर की ओर चलीं. महारानी को अनेक कलाएँ अवगत थीं. वे उत्तम गायन
करती थी,
पुष्परचना करना,
पुष्पमाला बनाने में भी उनकी रूचि थी. यद्यपि सभी इच्छाएँ सहजता से पूरी हो जाएँ, ऐसा सुखमय
जीवन होते हुए भी रंगोली हो या भोजन व्यवस्था, दालान के चित्रों का विचार हो या दीपमालाओं का
विचार हो, हर
स्थान पर सहजता से विचरण करने वाली ध्रुवस्वामिनी सबको प्रिय थीं. इस समय भी उसके
बारे में सोचते हुए विचार आया – बीस वर्ष से ऊपर हो गए थे.
उन्हें याद आया.
मालवा के उत्तरी भाग से हमने
उज्जयिनी पर आक्रमण किया था. गुजरात और सौराष्ट्र के शक-क्षत्रप विजय तथा यशदेव, मालवा के राजा
रुद्रसिंह उज्जयिनी को बचाने का पूरा-पूरा प्रयत्न कर रहे थे. मगध की सेना
चन्द्रगुप्त के आधिपत्य में थी. उस समय चन्द्रगुप्त मालवा में प्रान्तपाल थे.
मगध नरेश समुद्रगुप्त अब जराजर्जर हो
गए थे,
पाटलिपुत्र में चन्द्रगुप्त के ज्येष्ठ बन्धु रामगुप्त को सम्राट घोषित कर दिया
गया था और उनके शासन काल में प्रशासन व्यवस्था लड़खड़ा गई थी. शक-क्षत्रप प्रबल हो
गए थे. मगध और पाटलिपुत्र पर आक्रमण करके शक उस प्रदेश को हथियाना चाहते थे. इन
तीनों की सेना बलाढ्य और संख्या में अधिक थी.
ऐसी परिस्थिति में चन्द्रगुप्त ने
अपनी सेना के तीन भाग किये थे. उज्जयिनी पर चन्द्रगुप्त, गुजरात की
राजधानी चन्द्रावती पर वीरसेन और सौराष्ट्र की राजधानी पाटन पर देववर्मा थे. चम्बल
के बीहड़ में युद्ध का आरम्भ किया है, ऐसी भ्रामक वार्ता प्राप्त होने पर शकों की सेना
प्रथम वहाँ पहुँची. शकों की दिशाभूल करने की कल्पना हमारी ही थी.
सम्राट चन्द्रगुप्त को अपने आप पर ही
हंसी आ गई. युद्ध के प्रसंग में कहाँ से और कैसे कल्पनाएँ मन में आ जाती है, यह तो मन ही
जाने. उस अगम्य मन में पुरू और सिकंदर और चाणक्य दृढ़ता से विराजमान थे.
सिकंदर जब संपूर्ण विश्व को जीतते
हुए गंधार के ‘पुष्कलावली’ तक
पहुँचा, तो
राजा हस्ती ने पराजय के स्थान पर मृत्यु का वरण किया. प्रत्यक्ष पुरू की माता के, जो उसकी भगिनी
थी, होते हुए भी
काशी नरेश आंभी देशद्रोह करके सिकंदर की शरण में चला गया, परन्तु पुरू
युद्ध करता रहा. अत्यंत वीरता से युद्ध करता रहा. भीषण संघर्ष के बाद ही पुरू
पराजित हुआ. परन्तु उसकी पराजय में भी विजय थी. उस पराजय के कारणों का चन्द्रगुप्त
ने अध्ययन किया था. इसीलिये तीन तरफ से आक्रमण करने की योजना वह बना सके. सिकंदर-पोरस
के युद्ध का जैसा समय था, वैसा
ही वह अभी भी था. उस समय वितस्ता-झेलम भयानक बाढ़ के कारण तीव्र प्रवाह से बह रही
थी, वैसी ही अभी
चम्बल भी प्रवाहित हो रही थी.
पुरू को पराजित करने के लिए एक तरफ
से आंभी राजा की सेना, सामने
से सिकंदर की सेना, और कई
सेनाओं के अनेक पथक बनाकर उसने उन्हें एक के बाद एक भेजा. इसलिए सेना बिना थके
उत्साह से युद्ध करती रही. पुरू ने अपनी सेना को केवल सामने से ही युद्ध भूमि में
उतारा. वास्तव में चतुर और कल्पनाशील पुरू यहीं पर चातुर्यहीन हो गया. प्रचंड जल
धाराओं में हाथी पर बैठकर युद्ध करने लगा. उसके हाथी के पैर मिट्टी में धंस गए, और
राजा आंभी उस पर वार करता इससे पूर्व ही सिकंदर ने उसे रोक दिया और पुरू की वीरता
का सत्कार किया. इतना ही नहीं, उसकी वीरता, चातुर्य, कल्पनाशीलता
देखकर अनेक बार पराजित हुए सिकंदर ने उसे चिनाव नदी के पश्चिम का क्षेत्र तथा
दस-दस हज़ार आबादी वाले सैंतीस नगर पुरू को भेंट देते हुए उन्हें अपने राज्य में
सम्मिलित करने को कहा.
उनकी परिस्थिति में संघर्ष अटल था.
चन्द्रगुप्त यह बात समझते थे. अतः युद्ध नीति का पालन करते हुए उन्होंने श्रीकृष्ण
की रणनीति और पुरू की पराजय के कारणों का अध्ययन किया था. इसीलिये सेना को तीन पथकों
में विभाजित किया था.
जब प्रत्यक्ष रुद्रसिंह चन्द्रगुप्त
के सामने आया तो उसने कहा,
“ पराजित कौन होगा, यह तो काल ही
निश्चित करेगा. परन्तु चन्द्रगुप्त, हम आपकी वीरता से प्रसन्न हैं. आप शत्रु है, फिर भी आपके
हाथों मृत्यु पाकर हम धन्य हो जायेंगे.”
और फिर घनघोर युद्ध हुआ था.
‘मगध सम्राट चन्द्रगुप्त की विजय हो’, ‘शकारि सम्राट चन्द्रगुप्त की विजय हो’, के नारों से
आकाश गूँज उठा था.
चन्द्रगुप्त वापस लौटे थे, परन्तु उसी
समय महाराज समुद्रगुप्त अत्यस्वस्थ होने की, महाराज बन गए रामगुप्त द्वारा अपनी पत्नी
ध्रुवस्वामिनी को शकों को सौंपने का वचन देकर स्वयँ को युद्ध से मुक्त करने की
घोषणा, राजधानी उज्जयिनी ले जाने की घोषणा - सब कुछ इतनी शीघ्रता से हो रहा था कि
चन्द्रगुप्त के पास विचार करने के लिए पल भर का भी समय नहीं था. सम्राट
समुद्रगुप्त की मृत्यु, शकों
से ध्रुवस्वामिनी को वापस लाने के बाद महाराज रामगुप्त, प्रत्यक्ष
ज्येष्ठ बंधु का वध और ध्रुवस्वामिनी से विवाह, ये सारी घटनाएं वेगवान चक्र की भाँती उनके जीवन
में घटित हुई थीं.
चन्द्रगुप्त ने सम्राट की उपाधि धारण
की, उसी तरह
‘विक्रमादित्य’ की
उपाधि भी धारण की. विवाह के बाद ही हुआ यह युद्ध, और ‘शकारि विक्रमादित्य’ , ‘सम्राट
चन्द्रगुप्त’
उपाधियाँ प्राप्त करके वे लौटे थे.
कुछ ही समय बीता होगा कि एक सुबह
गुप्त सन्देशवाहक वार्ता लाये. भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा पर युद्ध के कृष्णमेघ
जमा हो गए हैं. सिन्धु नदी की सप्तधाराओं के प्रदेश में बाल्हिक गणराज्य ने
काश्मीर और पंजाब पर आक्रमण कर दिया है.
सम्राट को इस क्षण भी उस घटना का
स्मरण हो आया, मानो
वह कल ही घटित हुई हो. उसी समय अत्यंत स्वरूपसुन्दर कालिदास ने उनकी राजसभा में
प्रवेश किया था, और सम्राट के मन में उनके प्रति अत्यंत स्नेह भाव निर्माण हो गया
था. और निर्माण हो गया था विश्वास. छः-सात वर्षों के कुमार और उससे छोटी प्रभावती
को कालिदास अत्यंत प्रिय हो गए थे. कालिदास थे ही ऐसे कि प्रिय हो जाएँ. सहजता से
वे मंत्रीमंडल में नवरत्नों में से एक रत्न के रूप में परिचित हो गए. उनका प्रसन्न
हास्य, उनके
समयसूचक वक्तव्य,
हास्य-विनोद,
व्यंग्य और हरेक का उत्तर मुक्त छंद में देने की आदत के कारण वे सभी को प्रिय हो
गए. अजातशत्रु कवि कालिदास सम्राट चन्द्रगुप्त के अन्तरंग मित्र कब हुए ये उन्हें
पता ही नहीं चला.
महारानी ध्रुवस्वामिनी मंदिर से वापस
आ गई थीं. माथे पर हाथ रखे सम्राट चन्द्रगुप्त लेटे थे. कुछ भी न कहते हुए वह
पाकशाला की ओर गई. अनेक दिनों के बाद सम्राट चन्द्रगुप्त वास्तव्य के लिए थे.
सम्राट चन्द्रगुप्त को उनके आने और
जाने का पता तो चला, मगर
वे उठे नहीं. उन्हें पंजाब और काश्मीर...सागर जैसी विशाल सिन्धु नदी का स्मरण हो
आया.
वार्ता पहुँचते ही वे हँसते हुए
महारानी से बोले थे,
“महारानी, हमें युद्ध और
निरंतर युद्ध ही करते रहना है. बेकार ही में हमने आपसे विवाह किया.”
महारानी ध्रुवस्वामिनी ने उनके मुख
पर हाथ रखकर कहा, “ऐसा
न कहें आर्य. अखिल भारत एकछत्र के नीचे आये, हिन्दू धर्मं-संस्कृति से देश अखंड हो, शकों का नाश
हो, भारत में
विद्यमान जैन और बौद्ध इन विचारधाराओं को सहयोग प्राप्त हो, मनुष्य का
जीवन सुन्दर हो, ऐसी
आपकी संकल्पना पूरी हो. हम भी आपके साथ युद्ध भूमि पर जाना चाहते हैं, यह हमारी
तीव्र इच्छा है. इसीलिये, आर्य, हम आपसे विवाह
पूर्व ही मन ही मन प्रेम करते थे.”
“और अब?”
“हैं ना दो प्रतीक हमारे प्रेम के –
कुमार और प्रभावती.”
“स्त्रियाँ कितने संयम और सामंजस्य
से जीवन को परिपूर्ण करती हैं, इसका एक प्रतीक आप हैं,
ध्रुवस्वामिनी.”
और कितनी ही देर वे उनसे बातें करते
रहे.
उस समय सप्तसिन्धु के प्रदेश में
बाल्हिक गणराज्य तथा आसाम के नागराज के मगध पर आक्रमण करने की वार्ता आई थी. कितने
ही युद्ध होने के बाद भी शकों का प्रभाव कम नहीं हो रहा था.
सम्राट चन्द्रगुप्त की वीरता और
युद्ध प्रवीणता, प्रशिक्षित
सेना देखकर वाकाटकों ने,
रुद्रसेन महाराज ने अपनी सेना को प्रशिक्षित करना आरम्भ कर दिया था.
“महारानी, विशाल
साम्राज्य का स्वप्न सत्य करने के लिए हम निकले हैं, परन्तु आपको हम न्याय नहीं दे पा
रहे हैं.”
“आर्य, विशाल साम्राज्य के स्वप्न देखने
वाले, वीरता से ओतप्रोत सम्राट चन्द्रगुप्त की पत्नी का हृदय भी विशाल है. आप
निःसंकोच होकर प्रयाण करें, हम
हैं...”
“युद्धस्थिति के कृष्णमेघों के बीच
हमारी स्थिति ऐसी है, मानो
सुप्त ज्वालामुखी के मुख पर बैठे हों. युद्ध की वार्ता कब आयेगी यह कहा नहीं जा
सकता.”
“क्योंकि निरंतर विस्तारित होता हुआ, बलाढ्य होता
हुआ आपका साम्राज्य किसी भी राजा के हृदय में शूल की तरह चुभता होगा. परन्तु
उन्हें यह समझ में नहीं आता कि सम्राट चन्द्रगुप्त की सेना प्रशिक्षित, नियोजनबद्ध
है. अस्त्र-शस्त्र संपन्न है. पैदल सेना, अश्वदल, हाथीदल – सभी कुछ समृद्ध और राष्ट्र भावना को
समर्पित है.”
और उसी समय वार्ता लेकर दूत आया था.
नागवंश की सेना ने बंगाल पर आक्रमण कर दिया है, यह वार्ता लेकर. सम्राट चन्द्रगुप्त ने
महामंत्री देववर्मा और सेनापति वीरसेन को आमंत्रित करके अगली सुबह बंगाल की ओर
प्रस्थान करने का निश्चय किया.
मंचक पर पड़े-पड़े सम्राट चन्द्रगुप्त
को उस समय का स्मरण हुआ,
उन्होंने कहा,
“महामंत्री देववर्मा, हम अकेले ही
युद्ध पर जाते हैं, ऐसी
बात नहीं. हमारे साथ अनेक सैनिक, जो अपने-अपने परिवार के साथ मुश्किल से कुछ दिन
बिता पाते हैं, हमारी
पुकार पर परिवार छोड़कर अपनी एकनिष्ठ सेवा प्रदान करने के लिए आ जाते हैं. कभी कभी
ऐसा लगता है कि हम अपनी सेना को कितनी व्यथा, कितनी विरह-वेदना देते हैं. हमें
एकसंघ राज्य चाहिए. वह हमारा स्वप्न है. उन पैदल सैनिकों का नहीं. अपनी स्वप्न
पूर्ती के लिए हम कितने लोगों का बलिदान देने वाले हैं?”
चक्रवर्ती सम्राट के रूप में शायद
इतिहास में हमारे लिए कुछ पृष्ठ लिखे जायेंगे, परन्तु आयु के पन्द्रहवें वर्ष से आज तक देखते आ
रहे हैं युद्ध और केवल युद्ध.
कभी कभी ऐसा लगता है कि हम पापी हैं.
परिवार के विरह का पाप,
सैनिकों की मृत्यु का पाप. यह सब किसलिए? शायद सम्राट समुद्रगुप्त की एकत्व की कल्पना
हमारे ज्येष्ठ बंधु रामगुप्त ने नष्ट कर दी. युवराज कुमार ऐसा नहीं करेंगे. परन्तु
हमारे पश्चात विस्तारित साम्राज्य को सुरक्षित रखने की योग्यता उनमें होना चाहिए.”
भावनाओं के आवेग में केवल वे ही बोल
रहे थे, यह
बात ध्यान में आई.
“महाराज, आपके मन के ये
विचार स्वार्थी नहीं हैं. यदि स्वार्थी होते तो साम्राज्य में कलह की स्थिति
उत्पन्न हो गई होती. आपकी भावना को सब समझते हैं. सबकी आपके प्रति निष्ठा और स्नेह
है. प्रात:काल हमें प्रस्थान करना है,”
सेनापति वीरसेन ने कहा, “महाराज, रास्ते में
आते-आते कालिदास मिले. बोले, हम भी शास्त्र विद्या में पारंगत हैं, हम भी
आयेंगे.”
सम्राट चन्द्रगुप्त खुलकर हँसते हुए
बोले,
“उन्हें हमारा सन्देश दें.
निसर्गरम्य स्थलों पर हम आपको अवश्य ले जायेंगे. यहाँ मृत्यु देखकर आप
मृत्यु-काव्य ही लिखेंगे. ज़्यादा अच्छा ये होगा कि आप यहाँ रहकर प्रसन्न, श्रृंगारिक
काव्य लिखें. वापस लौटने पर मृत्यु के भयावह दर्शन से व्यथित तन-मन को नई ऊर्जा
मिलेगी.”
प्रात:काल सारी सेना उज्जयिनी की
सीमा पर उपस्थित थी. परन्तु आज आदेश देते हुए सम्राट चन्द्रगुप्त का गला भर आया.
परन्तु भावना विवश होने से विजय प्राप्त होने वाली नहीं, यह भी वे
जानते थे. उन्होंने वीरश्रीयुक्त भाषण करते हुए इस बात की भी जानकारी दी कि युवराज
कुमार भी उनके साथ ही हैं.
युवराज कुमार ने सेना को संबोधित
करते हुए कहा,
“हमारे पितामह सम्राट समुद्रगुप्त और
पिता सम्राट चन्द्रगुप्त का आदर्श सामने रखकर हम मार्गक्रमण करने वाले हैं. अब वह
दिन दूर नहीं है, जब
हमारे गरुडध्वज के नीचे सम्पूर्ण भारत एकसंघ होने वाला है.
‘जयतु भारत’...!”
समूची सेना से प्रतिसाद आया:
‘जयतु भारत’, ‘जयतु भारत’.
अब सम्राट चन्द्रगुप्त मंचक पर उठ कर
बैठ गए. महारानी ध्रुवस्वामिनी और कुबेरनागा शायद भोजन की सिद्धता कर रही होंगी.
भोजन के पश्चात आधी रात तक वे युद्ध
का वर्णन करते रहे.
“हम सुबह निकले. हमारे साथ इस बार
पहली बार दूर की यात्रा करने वाले युवराज कुमार थे. अब तक वे इतनी दूर नहीं आये
थे. वे अपनी इच्छा से ही आये थे. अब वे तरुणाई की सीमा पर थे. सम्पूर्ण जीवन ही
युद्ध और राज्यशासन के लिए था. परन्तु युवराज कुमार ने खुद ही कहा था,
“पिताश्री, हम आये हैं आपकी विजय
देखने,
युद्धस्थिति का अनुभव करने, अहोरात्र एकसंध साम्राज्य की चिंता करने वाले हमारे
पिताश्री के साथ सहकार्य करने के लिए.”
अगर कोई और समय होता तो सम्राट
चन्द्रगुप्त इस बात से भावविह्वल हो जाते, परन्तु आज उनके वाक्य की ओर ध्यान दिए बिना
उन्होंने कहा,
“वीरसेन, युवराज कुमार, आप हमारे साथ
बंगाल की पूर्व सेना की ओर चलें. अग्निमित्र और भद्रसेन पूर्व की ओर जायेंगे, और
जब तक हम वहाँ नहीं पहुँचते वे सेना सहित हमारी प्रतीक्षा करेंगे.
और महामंत्री देववर्मा दक्षिण में महाराज
वाकाटक की ओर जायेंगे. यह युद्ध समाप्त होने पर हम रुद्रसेन महाराज पर आक्रमण
करेंगे. परन्तु यदि उन्होंने मांडलिकत्व स्वीकार कर लिया और हमारे साथ सहकार्य
किया, तो
हमें प्रसन्नता होगी. वाकाटकों के ब्राह्मण वंश को हम नष्ट नहीं करना चाहते.”
तीन दिशाओं में तीन सेनाएं गई थीं.
मगध की सेना भी अब उसमें सम्मिलित हो गई थी. दोनों सेनाएं आमने सामने थीं. आसाम के
नागराज ने अपनी पराजय स्वीकार करते हुए मांडलिकत्व स्वीकार कर लिया और बड़ी
प्रसन्नता से अपनी कन्या कुबेरनागा का विवाह भी सम्राट चन्द्रगुप्त के साथ कर
दिया.
सेना अब पंजाब में सतलज नदी के
किनारे पर युद्ध का संकेत प्राप्त करने की प्रतीक्षा कर रही थी. गणराज्य के प्रथम
सेनापति सौमित्र ने सम्राट चन्द्रगुप्त की विशाल सेना देखी और पहले आक्रमण न करने
का निश्चय किया. वस्तुत: अग्निमित्र ने सेना की व्यूह रचना करते समय दूर-दूर तक
शिबिर तैयार किये थे. उसकी व्यूह रचना से प्रसन्न होकर सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा,
“अब हमें प्रसन्नता है कि यदि हम न
हों, तो भी
आप युवराज कुमार को हर प्रकार का सहयोग देंगे.”
“महाराज, ऐसा क्यों कह
रहे हैं. युद्धनीति के पाठ आपने आर्य चाणक्य और कृष्ण नीति से उदाहरण देकर करवा
लिए. आप हैं ही. और युवराज कुमार भी आपके ही मार्गदर्शन में तैयार हुए हैं.
बाल्हिक ही क्या, सेना
प्रबल होने पर भी मातृभूमि के प्रति निष्ठा का भाव विदेशियों के आक्रमण में कैसे
होगा,
महाराज?”
सतलज का बहाव बहुत तेज़ था. सतलज पार
करके पीछे से आक्रमण किया जाए तो बाल्हिकों को पराजित करना संभव होगा, इस दृष्टी
से वीरसेन ने सम्राट चन्द्रगुप्त से कहा,
“महाराज इस स्थान पर सतलज का विस्तार
और प्रवाह बहुत तीव्र है. कहीं कहीं जल की स्तब्धता सतलज की गहराई को प्रकट करती
है. ऐसी स्थिति में दो पर्वतों के बीच के स्थान पर, जहाँ सतलज कम चौड़ी है, उस पर पुल
बनाकर रात में ही बाल्हिकों पर आक्रमण किया जा सकता है. प्रात:काल से पूर्व ही पुल
के ऊपर से सतलज पार करना संभव है. हम युवराज कुमार को लेकर जाते हैं.:
“नदी का प्रवाह संकरा है, यदि कुछ
नौकाएं प्राप्त हो जाएँ तो...!”
“हम देखते हैं,” सेनापति
वीरसेन युवराज कुमार के साथ चले गए.
सम्राट चन्द्रगुप्त को याद आया कि
महारानी ध्रुवस्वामिनी को शकों के जाल से मुक्त करने के लिए उन्होंने यही नीति
अपनाई थी.
रात के घने अँधेरे में लिपटे अरण्य
में चन्द्रमा के धूसर प्काश में पूरा पुल तैयार हो गया था. बाल्हिकों की सेना सतलज
के तीर पर थी,
परन्तु सतलज के पार सेना ही नहीं थी. सम्राट चन्द्रगुप्त की सेना कहाँ अदृश्य हो
गई, इस बात पर
बाल्हिक राज अचरज कर रहे थे. और पीछे मुड़ते ही उन्हें युद्धस्थिति में खडी सम्राट
चन्द्रगुप्त की सेना दिखाई दी. पीछे थी सतलज और सामने सम्राट चन्द्रगुप्त की सेना.
बाल्हिकराज वसुमित्र ने अपने सेनापति
से कहा,
“सम्राट चन्द्रगुप्त के साम्राज्य का
विस्तार हो रहा है, उसमें
वृद्धि हो रही हैं वह उनकी युद्धनीति की बदौलत. हमने तो कल्पना भी नहीं की थी कि
हमारे पीछे उनकी सेना होगी और हमने ज़रा भी नहीं सोचा कि वे सतलज पार कर सकेंगे और
वह भी रात भर में ही!”
सेनापति सौमित्र मौन हो गए. पराभव की
गहरी छाया उनके मुख पर थी. सम्पूर्ण सेना के ही नष्ट होने के संकेत थे. अंत में
कोई उपाय न देखकर बाल्हिकराज वसुमित्र ने युद्ध का संकेत देने के लिए शंख फूंका.
सम्राट चन्द्रगुप्त की सेना की रचना
बाण के समान थी. इसलिए बाण की नोक, और पीछे की सेना संकुचित दिखाई दे रही थी. अनेक
युद्ध पथक दिखाई नहीं दे रहे थे. बाण का सिर्फ सिरा नज़र आये, ऐसा दृश्य
देखकर सौमित्र ने कहा,
“कल सेना प्रचंड दिखाई दे रही थी, परन्तु वास्तव
में वह उतनी है नहीं, आसानी
से विजय प्राप्त हो जायेगी.”
परन्तु बाल्हिकराज वसुमित्र और
सौमित्र कुछ ही देर में समझ गए कि वे गलत थे. उत्तर-दक्षिण दिशा से भी सैन्य पथक
आये और बाल्हिक सेना सम्राट चन्द्रगुप्त के चक्रव्यूह में फंस गई. तीन तरफ से सेना
और पीछे सतलज. क्या किया जाए, यह प्रश्न बाल्हिकराज के सम्मुख था. उन्होंने
शंख ध्वनि करके युद्ध का आरम्भ तो कर दिया था, परन्तु मृत्यु अटल थी.
युद्धस्थिति अत्यंत भीषण हो गई थी.
वसुमित्र के सामने प्रत्यक्ष सम्राट चन्द्रगुप्त थे. उन्हें अपनी पराजय स्पष्ट
दिखाई दे रही थी. उस शाम को सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा, “आज हमें
सिकंदर-पोरस के युद्ध का स्मरण हो आया. हम सिकंदर के समान आपको राज्य वापस कर
देंगे.”
“सम्राट चन्द्रगुप्त, आप हमें राज्य
तो वापस करेंगे. परन्तु हम राज्य शासन किस पर करेंगे. सारी सेना मृत्यु के मुख जा
चुकी है.”
सम्राट चन्द्रगुप्त के नेत्रों के
सामने इस समय बाल्हिकराज वसुमित्र का विदीर्ण मुखमंडल तैर गया. परन्तु साम्राज्य
का विस्तार करने निकले प्रत्येक राजा को यह व्यथा झेलनी ही पड़ती है. सम्राट अशोक ने
कलिंग के युद्ध में इतने अधिक मृतकों को देखा, कि उसने गौतम बुद्ध का अहिंसा धर्म स्वीकार कर
लिया. इतना ही नहीं अहिंसा धर्म का देश-विदेश में प्रचार-प्रसार भी किया.
हम प्रत्येक राजा को, राज्यशासक को
मांडलिकत्व की संधि देते हैं, वह भी एकसंध हिंदूधर्म-संस्कृति संवर्धक राष्ट्र
के लिए.
वाकाटकों ने अनेक बार सहयोग दिया, मांडलिकत्व
स्वीकार किया. उन्होंने उसे स्वीकार किया. हम चाहते थे कि वे राज्य करते रहें, परन्तु
हिंदूधर्म के एकछत्र के नीचे, बस इतनी ही विनती थी, और है. दक्षिण के राज्यों को भी
हमने ऐसा ही सन्देश भेजा है.
अब वे निश्चिन्त थे. इस समय कहीं से
कोइ युद्ध-वार्ता नहीं आयेगी, इतना प्रचंड प्रभाव तथा वर्चस्व है हमारा
काश्मीर से दक्षिण तक. महारानी ध्रुवस्वामिनी उनके निकट खडी थीं.
“आर्य, इतना किस बात का विचार कर रहे हैं?”
“विचार किसी बात का नहीं, देवी. हमें
पिताश्री से प्राप्त साम्राज्य का विस्तार करना था. उनके ऋण से अंशत: मुक्त होना
है. पितृऋण कभी समाप्त नहीं होता. परन्तु उसका अनुभव करना पड़ता है. हमें यह अनुभव
तीव्रता से कब हुआ बताएँ,
देवी...?”
“कब हुआ?”
“आइये, देवी, यहाँ मंचक पर, हमारे सामने. हमने जो
देखा ना, उसीसे
हमारे मन में पितृऋण का विचार आया.”
“कारण क्या हुआ? आप तो अपने
पिता के प्रत्येक आचार-विचार का पग-पग पर अनुसरण करते हैं. उस ऋण को तो सदैव मानते
आ रहे हैं.
“महारानी, काश्मीर और
पंजाब पर पुन: अधिकार प्राप्त करने के बाद हम सेना सहित उज्जयिनी की ओर निकले थे,
और हस्तिनापुर मार्ग पर थे. उससे पूर्व ही महामंत्री देववर्मा ने इन्द्रप्रस्थ में
शिविर की व्यवस्था कर दी थी.”
“इन्द्रप्रस्थ? पांडवों
द्वारा श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन में निर्मित और मयासुर द्वारा मायावी बनाई गई नगरी
इन्द्रप्रस्थ? कैसी
है वो?”
“वह अत्यंत उद्ध्वस्त स्थिति में थी.
यवनों, शकों
और हूणों के आक्रमणों और प्रकृति के प्रकोप के फलस्वरूप प्राचीन स्थान खण्डहर बन
गए है. हम एक पहाड़ पर चढ़े. उसे ‘विष्णुपद पर्वत’ कहते हैं. संभव हे कि श्रीकृष्ण ने
वहाँ खड़े होकर नगर के निर्माण की कल्पना की हो.”
“क्या अब भी वहाँ नगर है?”
“इन्द्रपस्थ की उद्ध्वस्त स्थिति
देखकर मन को वेदना हुई. अब तो वहाँ केवल अवशेष थे. हो सकता है, उस समय पाँचों
पांडव,
द्रौपदी और श्रीकृष्ण इस विष्णु पर्वत पर खड़े होकर नगर रचना का विचार करते
हों...एक ओर यमुना....श्रीकृष्ण की प्रिय नदी, गो वर्धन के लिए हरित और उतार वाला विष्णु पर्वत
का प्रदेश, और
विस्तीर्ण भूप्रदेश. पीछे अरण्य.”
कथन करते हुए सम्राट चन्द्रगुप्त उस
काल में पहुंच गए थे. घने अरण्य वाला वह खांडव वन देखते-देखते इन्द्रप्रस्थ नगरी
हो गया था. युधिष्ठिर अब उस नगरी के राजा, प्रशासक थे. अनेक राज्य स्वेच्छा से उनसे मिल गए
थे. पांडव कभी-कभी वनवास की सुखद स्मृतियों को याद करते. उस प्रासाद में वे
प्रसन्न थे. परिवार समृद्ध था. धर्म के
अनुसार चल रहे उस नगर में किसी भी प्रकार की न्यूनता न थी. कभी-कभी श्रीकृष्ण के
आगमन पर सारा परिवार उस भव्य दालान में एकत्रित होकर आनंदोत्सव मनाता.
युधिष्ठिर अनेक राज्यों के स्वामी हो
गए. अब बचा था क्षेत्र विजय के साथ धर्म विजय – अर्थात अश्वमेध यज्ञ. कौरवों के
अतिरिक्त अनेक आप्तेष्ट उपस्थित थे. और मयासुर द्वारा निर्मित आश्चर्यचकित करने
वाले दालान – जिनमें प्रत्यक्ष आभासी प्रतीत होता था, और अप्रत्यक्ष
से प्रत्यक्ष सत्य का अनुभव होता था. फिर दुर्योधन की जो स्थिति हुई. उस स्थिति पर
हंसने वाली द्रौपदी.
फिर मन में द्वेष, क्रोध, अपमान का अनुभव, द्रौपदी का शल्य
के समान चुभने वाला हास्य, यह सब
हस्तिनापुर जाते हुए दुर्योधन अपने साथ ले गया था. और फिर महाभारत की एक-एक घटना
सम्राट चन्द्रगुप्त के नेत्रों के सामने साकार होती रही, अचानक महारानी
ने उनके स्कंध पर हाथ रख कर पूछा,
“आर्य, क्या आप इन्द्रप्रस्थ नगरी में
वास्तव्य के लिए गए हैं?”
सम्राट चन्द्रगुप्त ने प्रसन्नता से
हँसते हुए कहा,
“आपने सत्य ही कहा. महाभारत, कौरव-पाण्डव, लोकनेता
श्रीकृष्ण हर भारतीय के मन में इतनी दृढ़ता से स्थापित है कि इनमें से किसी का भी
पल भर को ही स्मरण हो जाए, तो एक
श्रृंखला ही तैयार हो जाती है और हम उस काल को फिर से जीने लगते हैं. अस्तु!”
“अब इन्द्रप्रस्थ के बारे में कथन
करता हूँ. हमारे शिविर इन्द्रप्रस्थ नगरी में, अर्थात वर्त्तमान में उद्ध्वस्त नगरी के विशाल
परिसर में स्थापित किये थे.
उनकी आंखों के सामने इन्द्रप्रस्थ की
वर्त्तमान स्थिति तैर गई. वे विष्णु पर्वत पर खड़े थे.
“देववर्मा, वर्त्तमान
स्थिति को देखिये. काल के प्रवाह में नहीं, अपितु आक्रमणों के कारण नष्ट हो चली है
इन्द्रप्रस्थ नगरी. किसी समय यह कितनी विशाल और सुन्दर थी. सुदूर गंधार और फारस से
लेकर सुदूर पूर्व में प्राग् ज्योतिषपुर तक फैले हुए विराट
साम्राज्य की राजधानी, इन्द्रप्रस्थ. अब देखिये, किस स्थिति में है.”
“प्राग्
ज्योतिषपुर अर्थात् कामरूप राज्य की राजधानी ना?”
“हाँ. श्रीकृष्ण के प्रपौत्र
अनिरुद्ध का यहाँ उषा नामक युवती ने अपहरण करके उसे विवाह के लिए बाध्य किया था, इसलिए इसे ‘कुमार
हरण’ भी
कहते हैं.”
“महाराज, परिवर्तन की छाप पड़ती जाती
है, और सब कुछ
विलय होता जाता है.”
“सत्य है, देववर्मा.
बाल्यावस्था,
युवावस्था, प्रौढत्व, वार्धक्य – ये
अवस्थाएं जैसे प्रकृति में हैं, वैसे ही वे मनुष्य में भी हैं. उदय होता हुआ
सूर्य जैसे अस्त होगा ही, उसी प्रकार हमारा परिश्रम, हमारी राष्ट्रभक्ति, हमारे विचार
कदाचित इतिहास के कुछ पृष्ठों पर अंकित रहेंगे. शायद हमारी कथा को वन्दना, दंतकथा का
स्वरूप प्राप्त होकर कालान्तर में वह नष्ट हो जायेगी. क्या सम्राट समुद्रगुप्त, क्या सम्राट
चन्द्रगुप्त – गुप्त वंश ही काल के प्रवाह में विलीन हो जाएगा.”
“ऐसा क्यों कह रहे हैं, महाराज?”
“स्वर्ग की अलकापुरी जैसी यह
इन्द्रप्रस्थ नगरी,
श्रीकृष्ण के पदस्पर्श से पुन: पुनः पवित्र होने वाली, उसकी अवस्था देख रहे हैं ना? उज्जयिनी की
अवस्था भी ऐसी नहीं होगी, यह
विश्वास कैसे हो?
प्राणों की बाज़ी लगाकर संभाला हुआ गुप्त वंश और साम्राज्य स्मृति से ओझल हो
जाए...मन को महान क्लेश हो रहा है यह इन्द्रप्रस्थ नगरी देखकर.”
और फिर अकस्मात् उन्होंने कहा,
“नहीं, महामंत्री. ऐसा नहीं होना चाहिए.
हमारे मन में एक कल्पना ने जन्म लिया है, बताएँ, आपको योग्य प्रतीत होती है, अथवा नहीं.
युधिष्ठिर ने यहाँ अश्वमेध यज्ञ किया था. साम्राज्य विस्तार के पश्चात किया जाने
वाला यज्ञ, इन्द्रप्रस्थ नगरी के समृद्ध होने का अश्वमेध, और उस अश्वमेध का अश्व
उनके लिए दिग्विजय लाया. तीन मास तक इस यज्ञ के लिए आमंत्रित राजपरिवार, मंत्रीगण, और जनसामान्य
आते रहे. श्रीकृष्ण स्वयँ भोजनोपरांत पत्तल उठा रहे थे, ऐसा विराट
यज्ञ.”
देववर्मा परेशान हो गए. उन्होंनें
कहा,
“भद्रसेन,
सेनापति वीरसेन,
अग्निमित्र को भी आमंत्रित करता हूँ.”
सम्राट मौन थे, परन्तु स्पष्ट
था कि वे अपने मन में कोई दृढ़ निश्चय कर रहे हैं.
“चलिए, शिविर में चलते हैं.”
शिविर में आने पर सम्राट चन्द्रगुप्त
ने चारों के सामने कहा,
“हमारा ऐसा विचार है कि उस
विष्णुपर्वत पर हम एक ऐसा स्मारक बनाए, जो प्राकृतिक वातावरण में और अनेक मानवी
आक्रमणों में भी स्थिर रहे. एक विशालकाय स्तम्भ बनाया जाए, जो काल के
प्रवाह में भी युगों-युगों तक गुप्त वंश और सम्राट चन्द्रगुप्त को विस्मृत नहीं
होने देगा.
अश्वमेध यज्ञ के बाद युधिष्ठिर ने
राजसूय यज्ञ भी यहीं किया था. हम अश्वमेध यज्ञ इसी इन्द्रप्रस्थ नगरी में करेंगे,
जिससे इन्द्रप्रस्थ की पूर्व प्रतिष्ठा प्रकाशमान होगी और गुप्त वंश की प्रतिमा
नवप्रकाश से चमकने लगेगी.”
अर्थात्, सभी को यह कल्पना अच्छी
लगी. सम्राट चन्द्रगुप्त सेना सहित उज्जयिनी पहुँच गए थे. मन में अनगिनत कल्पनाएँ
थीं.
“आर्य, आप मौन क्यों हो गए? आप थक गए हैं.
आप विश्राम करें. रात गहराने लगी है.”
“महारानी, आज हम सब कुछ
कहकर ही रुकेंगे.”
आधी रात बीतने को थी. सम्राट
चन्द्रगुप्त ने सब कुछ विस्तार पूर्वक बताते हुए कहा,
“महारानी, इस बार हम
अपने पिताश्री की भाँति दस प्रकार की सुवर्ण मुद्राएँ बनवाने वाले हैं. उसमें
धनुर्धर शैली,
पर्यंक शैली,
छत्रधारी शैली, सिंह निहन्ता
शैली,
अश्वारोही प्रकार,
चन्द्र विक्रम शैली और....” उन्होंने महारानी की ओर देखा, वे गहरी नींद
में थीं.
‘अर्थात् हम अपने से ही बातें कर रहे
थे.’ वे मन ही हँसे.
इस युद्ध में कितने ही माह बीत गए
थे. महारानी के सहवास में रात बिताने के उद्देश्य से वे आये थे, परन्तु वे
निद्रावश हो गई थीं.
वे मंचक पर बैठे. उन्होंने महारानी
के मुक्त केशों पर हाथ फेरा. उनके मस्तक पर अपना हाथ रखा और आत्यंतिक स्नेहपूर्वक
उनके मुख की ओर देखते रहे.
रात समाप्त होने को थी. वे गवाक्ष के
पास अस्त हो रहे चन्द्रमा और उदय होने वाले सूर्य के ‘अस्त और उदय’, ‘उदय और अस्त’ इन विचारों में
खड़े थे. अरण्य जाग रहा था. शीत लहरें वातावरण में हौले से प्रवेश कर रही थीं. पूरी
रात जागने के बाद भी वे अत्यधिक प्रसन्न थे.
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