“आज विशेष रूप से सभा का आयोजन किया गया है. मंत्रीगण तो उपस्थित हैं , राज्य के सेवाभावी कार्याधिकारी को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया है. प्रत्यक्ष महाराज चन्द्रगुप्त इस विषय में विस्तृत जानकारी देंगे. इससे पूर्व...” राजपुरोहित अपना वाक्य पूरा कर ही रहे थे, तभी गुप्तचर क्षपणक और कालिदास ने प्रवेश किया. इन दोनों को थोड़ा सा विलम्ब हुआ था. कालिदास ने कहा,
“विलम्ब के सम्बन्ध में इस समय
स्पष्टीकरण नहीं देंगे, हम
क्षमा प्रार्थी हैं.”
“कालिदास, आप जैसे
अनुशासन प्रिय व्यक्तियों के विलम्ब से आने के पीछे निश्चित ही कोई कारण होगा.
अस्तु!”
“आज इस सभा में मंत्रीमंडल के सभासद, नवरत्न के रूप
में प्रसिद्ध मंत्री,
शल्यतंत्र के अभ्यासक,
प्रवर्तक, सेना
के उपचारों के लिए नियुक्त धन्वन्तरी, जैन धर्म के अनुयायी, गुप्तचर के
रूप में प्रसिद्ध क्षपणक,
ज्योतिष के विद्वान – शंकू,
भूतप्रेत अघोर साधना तंत्रज्ञ वेतालभट्ट, काव्यात्मक यमक के लिए महाप्रसिद्ध
घटखर्पर, लेखक
वररूचि,
काव्यकार अमरसिंह,
ज्योतिषज्ञाता वराहमिहिर, और अपनी मधुर वाणी के लिए सर्वप्रिय, सभी कलाओं में
प्रवीण कालिदास उपस्थित हैं. आज हमारी विशेष सभा के लिए हमारे प्रशासन के विविध
कार्यभार निष्कलंक रहकर करने वाले दंडपाशिक विरूपाक्ष, दण्डपाशाधिकारी
रुद्रदमन,
महासेनापति करभकसेन,
जो सीमावर्ती प्रदेशों के सेनाप्रमुख हैं, महादंडनायक
अश्वघोष,
अश्वदल, पैदल, हाथीदल, ऊंटदल के नायक
अश्वपति,
रणभांडारिक रोहित शर्मा,
महाबलाधिकृत,
सुरक्षा अधिकारी,
महासंधिविग्रहिक,
परराष्ट्रमंत्री सोमेश्वर,
विनयस्थितिस्थापक सोमदत्त,
महाभांडाराधिकृत, महापक्षपटलिक सर्वोध्यक्ष, और राजस्व अधिकारी स्वयँ हम.
इसके अतिरिक्त प्रत्येक प्रांत के
प्रान्तपाल यहाँ उपस्थित हैं. इस विशाल सभा के आयोजन की कल्पना प्रत्यक्ष महाराज
बताएँगे.
इससे पूर्व तीन युद्धों में पंजाब, काश्मीर, कामरूप, महाकान्तार ये
प्रदेश गुप्त साम्राज्य में जोड़ दिए गए हैं. एकसंघ राष्ट्र की संकल्पना अब
पूर्णत्व को प्राप्त कर चुकी है. शकों का पराजय करने वाले हमारे महाराज सम्राट चन्द्रगुप्त
‘शकारि’ के
रूप में विख्यात हो गए हैं. ‘संपूर्ण आर्यावर्त एक हो’, इस दृढ़ भावना
को समर्पित सम्राट चन्द्रगुप्त अपने साथ एक एक विक्रम अर्जित कर रहे हैं, ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि से
अलंकृत हुए हैं,
और...”
“राजपुरोहित विष्णुगुप्त...अब हमारा
स्तुतिस्तवन रहने दें.” सम्राट चन्द्रगुप्त ने आगे कहा,
“इसका श्रेय हमें नहीं, बल्कि आपको जाता
है. हम आदेश देते हैं, आप उनका पालन करते हैं, हम कल्पना करते हैं, आप उसे पूरा
करते हैं, हम
हाथ में तलवार लेते हैं,
अनगिनत तलवारें हमारी ढाल बन जाती हैं. हमें कम वार झेलना पड़ते हैं, आप अधिक वार
सहन करते हैं. मृत्यु का सामना आप करते हैं, साम्राज्य के अधिकारी हम होते हैं. युद्ध में हम
सुरक्षित सेना से घेरे जाते हैं, परन्तु प्रत्येक सैनिक स्वयँ को मृत्यु की दिशा
में ले जाता है. अत: काश्मीर से कामरूप तक, मध्य और उत्तरांचल तक प्राप्त किये गए
विजय हमारे पिताश्री समुद्रगुप्त ने और हमने केवल आपके ही सहयोग से प्राप्त किये
हैं.”
“महाराज, क्या हम बीच
में कुछ कह सकते हैं?”
कालिदास ने पूछा. “आपकी विनयशीलता से हम परिचित हैं. सब कुछ एकत्रित हो जाए तो भी
सुनियोजन,
सुशासन,
सुयंत्रणा,
सुहृदयता, सहयोजना, सहकार्य
की दिशा और ‘राष्ट्र’ की
कल्पना आप ही ने प्रस्तुत की ना? नए मार्ग पर चलने की दिशा आपने ही निर्धारित की
ना?”
“कालिदास महोदय...” सम्राट
चन्द्रगुप्त हँसे,
राजसभा में भी हास्य की लहर प्रवाहित हो गई. और वातावरण सहज हो गया. कालिदास की यह
हमेशा की रीत थी. उन्होंने कभी किसी पर व्यंग्य नहीं किया, और उन्होंने कभी
ओछी बात भी नहीं की. कठिन होते हुए विषय को अत्यंत सहजता और मधुरता से सरल करने
वाली उनकी शैली सम्राट चन्द्रगुप्त को अत्यंत प्रिय थी.
“हम मूल विषय की ओर आयें, इसलिए कालिदास
द्वारा सूचक शैली में दिया गया इशारा हमें हमेशा ही मान्य होता है. अस्तु!
इस विशेष सभा के आयोजन का अभिप्राय
है...”
उन्होंने इन्द्रप्रस्थ की उद्ध्वस्त
स्थिति देखकर मन में आई हुई कल्पना के बारे में बताना आरम्भ किया.
“उस इन्द्रप्रस्थ में विष्णु पर्वत
पर हम विशाल लोहस्तम्भ का निर्माण करने वाले हैं. हमारे पिताश्री के बारे में
निर्मित शिलालेख ‘प्रयाग प्रशस्ति’ में कवि हरिषेण ने उनका अत्यंत प्रामाणिक वर्णन
किया है. उन्होंने सम्राट समुद्रगुप्त को पृथ्वी पर राज्य करने वाला प्रतिनिधि
माना है. इतना ही नहीं, बल्कि
कुबेर, वरुण, इंद्र, यमराज
से भी उनकी तुलना की है. आज हम भी पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण भारत पर शासन कर रहे
हैं,
अत:...”
“महाराज, आप मन में कोई
भी संदेह लाये बिना अपनी यह कल्पना मूर्तरूप में लायें. वास्तव में यह विचार हमारे
ही मन में आना चाहिए था. अनेक बार, महाराज, हम अपने निकटतम व्यक्ति के बारे में कोई विचार
नहीं करते, जो
करना चाहिए था...
परन्तु अब पंजाब और सौराष्ट्र, कामरूप और
बंगदेश पर विजय प्राप्त करने के बाद आप दिग्विजयी हो गए हैं, अत: लोहस्तम्भ
अर्थात् विजयस्तम्भ आपको अवश्य...” मंत्रीमंडल के अध्यक्ष शिखरस्वामी बोल ही रहे
थे कि महामंत्री देववर्मा ने राजसभा में आते हुए कहा,
“महाराज, आपका हार्दिक
अभिनन्दन! हम आपके आदेशानुसार वाकाटकों के विदर्भ में गए थे, तब हमारा
स्वागत करते हुए उन्होंने कहा, ‘हमें सम्राट चन्द्रगुप्त की और मैत्री का हाथ
बढ़ाना निश्चित ही अच्छा लगेगा.”
“उत्तम वार्ता लाये, महामंत्री...”
“आप सबके परिश्रम से प्राप्त
विजयश्री को हम अश्वमेध यज्ञ से संपन्न करना चाहते हैं. इन्द्रप्रस्थ में पांडवों
ने जिस स्थान पर राजसूय यज्ञ किया था, वहाँ हम अश्वमेध यज्ञ करना चाहते हैं. इस अवसर
पर आपके भरपूर सहयोग की हम अपेक्षा करते हैं. भारत के अपने साम्राज्य के सभी
राजाओं को निमंत्रण देना होगा, वह भी प्रत्यक्ष जाकर.
और योजना, कार्यपद्धति, कार्यविभाजन, कार्य का
वर्गीकरण और व्यवस्थापन मंत्रीमंडल के पास रहेगा, और राजा-महाराजाओं को निमंत्रण देने
के लिए नवरत्नों की नियुक्ति की गई है.”
“महाराज, यदि आपको एक
सुझाव दें तो...” कालिदास ने कहा.
“तो हम आपको किसी भी प्रकार का दंड न
देकर पुरस्कार देंगे.”
“इसलिए नहीं, महाराज, परन्तु
इस समय आप अपनी प्रतिमा वाली सुवर्ण मुद्राएँ प्रयोग में लायें. इससे अधिक कालावधि
तक ये मुद्राएँ क्रयविक्रय में और चलन में रहेंगी और विशेषत: राजकोष में रहेंगी.
इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात – यदि इन मुद्राओं को शिलालेख पर अंकित किया जाए तो
युगोंयुगों तक वे इतिहास की साक्षी देती रहेंगी. इन मुद्राओं पर आपकी विविध रूपों
में प्रतिमाएं हों, ऐसा हमारा
और वराहमिहिर का विचार है. यह कालजयी उपक्रम होगा.
इसके अतिरिक्त आप आसेतु हिमालय तक
राष्ट्रधर्म, राष्ट्र संघटन, एकात्मता, विश्वशान्ति, विक्रम के प्रतीक के रूप में यह
अश्वमेध यज्ञ करने वाले हैं, इसलिए हमारे सभी राज्यों के देवालय, धर्मशाला, जैनालय, बौद्ध विहार, स्तूप, औषधालय आदि का
विचार करके उन्हें सुसज्जित किया जाए.”
“उत्तम सुझाव है, हमें यह सब
कुछ लिखित रूप में दें.”
“महाराज,” महामंत्री
देववर्मा उठकर बोले, “यदि
हम राजस्व विभाग,
सुरक्षा विभाग, न्याय
विभाग, सेना
विभाग,
प्रांतीय प्रशासन, नगर तथा ग्राम प्रशासन, न्याय पद्धति – इनमें कुछ और परिवर्तन कर
सकें तो इतिहास में हमारे काल का उल्लेख ‘भारत की सर्वांगीण उत्तम कालस्थिति’ के
रूप में होगा.
सम्राट चन्द्रगुप्त दिल खोलकर हँसे.
अपने हाथ का राजदंड एक तरफ रखते हुए
वे बोले, “इतिहास
के पन्नों में हमें दर्ज किया जाए, इस हेतु से हम सब कुछ करें यह आपकी कल्पना अच्छी
है. हम वर्त्तमान काल में यह सब अपने कार्य के प्रतीक के रूप में, और पिता के,
मातृभूमि के और आप सबके सहकार्य के ऋण से मुक्त होने के लिए करने वाले हैं.
हमारे स्वप्न आकाशव्यापी हैं. हमें
उड़ना था आकाश तक, आप
सबने हमारे सपनों को साकार करने के लिए अविरत और अथक परिश्रम किया. अपने ध्येय के
कारण हमें चैन नहीं था. इसमें अनेकों ने वीरगति प्राप्त की. वह भी हमारे ही सपनों
को साकार करने के लिए.
अब केवल उत्तम प्रशासन. अश्वमेध यज्ञ
के बाद हम निश्चिन्त होंगे, और युवराज्ञी प्रभावती के विवाह के बाद युवराज कुमार
को राजनीति की शिक्षा देकर हमारे कार्य का उत्तरार्ध आरम्भ हो जाएगा. आयु का एक-एक
पत्ता कब-कब गिरता गया, यह युद्ध और केवल
युद्ध करते हुए पता ही नहीं चला...और...”
“महाराज,” उनकी भावनिक
व्याकुलता देखकर सेनापति वीरसेन ने कहा,
“महाराज, इस यज्ञ के
बाद श्रम-परिहार कार्यक्रम में आप वीणा वादन करें, और प्रभावती देवी गीत-गायन का
कार्यक्रम करेंगी.”
विषय सहजता से बदल गया था.
फिर भी सम्राट चन्द्रगुप्त को अपने
विचार प्रकट करने की अनिवार इच्छा थी. उन्होंने कहा,
“सैन्यदल, अश्वदल के लिए मार्ग उत्तम
हैं. परन्तु हर राज्य को जोड़ने वाले मार्गों का निर्माण करना होगा. जो मार्ग
विद्यमान हैं, उनमें
सुधार करना होगा. जलमार्ग और जलस्थानकों के बारे में बात करें, तो हम देखते
हैं कि पिछले वर्ष अनेक स्थानों पर नौकाएं धंस गई थीं. इन जलस्थानकों का और
सर-सरिताओं के जल का प्रवाह सुचारू रूप से होता रहे इस दिशा में प्रयत्न करना
होगा.
हमें स्मरण होता है सम्राट भरत का;
हमें स्मरण होता है प्रजाहितदक्ष और सत्यप्रिय श्रीराम का; हमें स्मरण होता है
राजा सगर के पुत्र – भागीरथ का; हमें स्मरण होता है राजा दिलीप का. हमें नित्य
स्मरण दिलाने वाले हैं निर्मोही – श्रीकृष्ण.”
“निर्मोही और श्रीकृष्ण?” महामंत्री
देववर्मा ने पूछा.
“अर्थात्,” कालिदास ने
कहा,
“महाराज सत्य ही कह रहे हैं. कंस के बुलाने पर उसने प्रथम अपने गोकुल का और
माता-पिता-राधा का त्याग किया. मथुरा का राज्य प्राप्त होने पर उसे उग्रसेन को
दिया. जरासंध ने मथुरा पर सत्रह बार आक्रमण किया. प्रजा को अब और अधिक सहना न पड़े
इसलिये मथुरा का त्याग किया और परशुराम की सलाह पर द्वारका द्वीप में अपना राज्य
स्थापित किया. गोकुल से यादव कुलों को वहाँ ले गए. अनेक राज्य उन्होंने जीते और समृद्ध
हुआ साम्राज्य बलराम को दे दिया. राजा थे बलराम, और जीवन भर युद्ध और संघर्ष करने वाले श्रीकृष्ण
ने कुछ ही काल अपने परिवार के साथ बिताया होगा. ‘भगवद्गीता’ उनका स्वानुभूति
पर आधारित अखिल विश्व को दिया गया उपदेश है. उनके जीवन का सारांश है.”
कालिदास रुक गए, मगर कुछ देर
राजसभा में स्तब्धता छाई रही.
आखिर विष्णुगुप्त ने कहा, “ कालिदास ने
जैसा बताया, वैसा
ही महाराज चन्द्रगुप्त का जीवन है. हम प्रत्यक्ष इसे देख रहे हैं. अस्तु! अगर किसी
को अपने विचार प्रकट करना हो तो...”
“महाराज, कबसे एक
प्रश्न मन में है. वात्स्यायन ने बचपन में वैधव्य प्राप्त हुई कन्या को पुनर्विवाह
की अनुमति नहीं दी है. परन्तु पुरुषों को अनुमति है, ऐसा क्यों? इस पर इस
सर्वश्रेष्ठ,
सर्वव्यापक राजसभा में विचार हो, ऐसा हम सोचते हैं, पिताश्री महाराज,” युवराज कुमार
ने कहा.
“यह सभा सर्वव्यापक और सर्वसमावेशक
होने के कारण हम भी अपने मन का प्रश्न पूछना चाहते हैं...” कालिदास ने कहा.
“अवश्य पूछें. युवराज कुमार का
प्रश्न अत्यंत योग्य है. और हमें विशेष रूप से इस बात का आनंद है कि उनकी सामाजिक
अनुभूति के जागृत होने का यह शुभ संकेत है. हम निश्चित रूप से इस पर सबकी राय
लेंगे. कालिदास, अब आप पूछें.”
“महाराज, आपने गणिकाओं
को चौंसठ कलाओं का ज्ञान देने के लिए अपने राज्य में गन्धर्व कन्या आश्रम का
निर्माण किया है. यह आपने अत्यंत अभिनंदनीय कार्य किया है, परन्तु उन
गणिकाओं के बच्चों के लिए स्वतन्त्र आश्रम का निर्माण क्यों? उसमें
उच्चभ्रू और कुलीन वंशों के बच्चे प्रवेश नहीं लेते. उसी प्रकार कुलीन वंश के
बच्चों के लिए जो आश्रम पाठशाला है, उसमें गणिकाओं के बच्चों को प्रवेश लेने की
अनुमति नहीं है. ऐसा क्यों? आप
स्वयँ सर्वधर्मसमभाव और सर्ववर्णसमभाव को मानते हैं, परन्तु यहाँ...”
कालिदास की मधुर वाणी में कहे गए
सौम्य परन्तु स्पष्ट शब्दों के पीछे का सत्य जानकर सभी स्तब्ध रह गए. सम्राट
चन्द्रगुप्त कुछ देर के लिए मौन हो गए, फिर उन्होंने कहा,
“आपका प्रश्न सत्य है. ऐसा प्रतीत
होता है कि गुप्तकाल में स्त्रियों की मानसिक अवस्था के बारे में यथोचित विचार
नहीं किया गया है. ऐसा कोई विरोधाभास जब भी हमारे दृष्टिपथ में आया, हमने उसमें
परिवर्तन किया. परन्तु आज भी स्त्री पति को परमात्मा समझकर उसे पूजनीय मानती है.
इस मानसिकता के कारण स्त्री एक मर्यादा के भीतर रहती है. इस मानसिकता को शायद
युवराज कुमार दूर कर सकेंगे. मगर गन्धर्व आश्रम पाठशाला निश्चित ही विचारणीय
प्रश्न है.
हम उस पर भी सर्वमत से निर्णय लेंगे.
परन्तु आज युवराज कुमार और कालिदास की सामाजिक जागरूकता और उनके निरीक्षण का हम
आदर करते हैं.”
“महाराज, क्या हम भी
कुछ कह सकते हैं?” रणभांडारिक ने पूछा.
“अवश्य, पूछें. यह सभा
सम्पूर्ण साम्राज्य की निर्मिती के
पश्चात् की विशाल सभा है, जिसमें हम साम्राज्य के प्रत्येक अंग का विचार करने वाले
हैं. अत: नि:संकोच पूछें. इस अश्वमेध यज्ञ के निमित्त से हुए साम्राज्य-विस्तार के
कार्य और साम्राज्य के अंतर्गत विकास के बारे में ही हम विचार करने वाले हैं.”
“महाराज, छः सौ वर्ष पूर्व शालिवाहन
पत्नी नागनिका ने बाह्य सुरक्षा का प्रथम विचार किया. और आतंरिक विकास का भी
लक्ष्य अपने सामने रखा था. हमारा भी ऐसा ही विचार है. आज जो साम्राज्य प्राप्त
किया है, वह
दीर्घकाल रहे,
सुरक्षित रहे. उसी तरह एक और भी विचार है, राष्ट्रहित के लिए युद्ध करने वाले प्रत्येक
सैनिक के परिवार को हम सहायता देते ही हैं, परन्तु हमें उन शूरवीरों का सत्कार करना चाहिए.
उनकी वीरमृत्यु का एक प्रतीक भी होना चाहिए.” सेनापति वीरसेन ने कहा.
प्रश्न अनेक थे. सभी प्रान्तों के,
सभी क्षेत्रों के कार्यरत अधिपति उपस्थित होने के कारण प्रश्नों की संख्या बढ़ती ही
जा रही थी.
“हम इसी सभा में सारे प्रश्नों पर
संक्षेप में विचार न करते हुए एक-एक प्रश्न पर चिंतन करते हुए उनका समाधान
ढूंढेंगे. दोपहर समाप्त होने को आई. अभी तक शायद किसी को क्षुधा का अनुभव न हुआ हो, परन्तु हमें
हो रहा है, अत:
...” “महाराज, आप एक
प्रश्न सुनकर सभा समाप्त करें, यह विनती है,” क्षपणक ने कहा.
“अवश्य, जैनमुनी
क्षपणक. आप हमारी नवरत्न सभा के सम्माननीय रत्न है. आप जो भी कहेंगे, वह लोकहित के
लिए ही होगा. आप बताएं...”
“महाराज, आपके पिता, सम्राट
समुद्रगुप्त के प्रपितामह श्रीगुप्त ने नालंदा विद्यापीठ का विकास किया और नालंदा
से पूर्व की और चालीस योजन दूर मृगशिखा अरण्य के समीप बौद्ध यात्रियों के लिए एक
विहार का निर्माण किया था. वर्त्तमान में वह विहार अत्यंत दुरावस्था में है. आप,,,”
“जैनमुनी क्षपणक, उस विहार के विकास
के लिए चौबीस ग्रामों की आय का प्रयोग करने की अनुमति थी, अब समस्या
क्या है?”
“महाराज, आय में वृद्धि
हुई नहीं, और
कालप्रवाह में दुरावस्था अधिक बढ़ गई है, यही कहना था.”
“बस इतना ही ना? राजस्व
अधिकारी विष्णुगुप्त आपकी अवश्य सहायता करेंगे. और उस मार्ग पर कापालिक पंथ द्वारा
किये जा रहे अपवित्र कृत्यों को हमने पूरी तरह समाप्त कर दिया है. इतना ही नहीं, बौद्ध विहार
की आय में अधिक गाँव दान देकर वृद्धि की है.”
“महाराज,” सम्राट चन्द्रगुप्त ने
सिंहासन की सीढियां उतरने के लिए पाँव आगे बढाया ही था कि उनके प्रिय सेवक
रामगोपाल ने कहा,
“आज सभी लोग कुछ न कुछ कह रहे हैं, मैं भी कुछ
कहूं क्या?”
“क्यों नहीं? तुम भी जो
चाहो मांगो.”
“मुझे कुछ नहीं चाहिए, महाराज. मेरा
जीवन सोना हो गया. आपके चरणों की सेवा मैंने ईश्वर की पूजा समझ कर की. आप
प्रत्यक्ष ईश्वर हैं. परन्तु मन में एक विचार आया. हम जिन्हें ऋण देते हैं, उसे यदि वे
चुका नहीं पाए, तो
दंड के रूप में उन्हें हम दास बनाते हैं. इस दास प्रथा को समाप्त करें, महाराज. आप
उन्हें कर्मचारी कहकर अतिरिक्त काम पर लगाएँ. ‘दास’ शब्द का प्रयोग न हो.”
“वा...रामगोपाल...” कालिदास ने आगे
कहा,
“महाराज,
रामगोपाल का कथन उचित ही है. युद्ध कैदियों को भी तो दास ही समझा जाता है.”
“रामगोपाल, आज से हम दासप्रथा समाप्त
करने की उद्घोषणा करके,
उन्हें अतिरिक्त कर्मचारी के रूप में कार्य का आवंटन करेंगे.”
“सम्राट चन्द्रगुप्त की विजय हो....”
की घोषणाओं से, कल की भव्य योजना, संकल्पना और सत्य की परिक्षा देने का निश्चय
करके सभा विसर्जित हुई.
***
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