“आर्यावर्त के सम्राट चन्द्रगुप्त की
जय हो,”
विदर्भ के वाकाटक राजवंश के राजा पृथ्वीषेण सम्राट चन्द्रगुप्त को संबोधित करते
हुए बोले,
“अश्वमेध यज्ञ सफलता से संपन्न हुआ. हम
भी यह विशाल आयोजन और व्यवस्थापन, आदरातिथ्य देखकर अत्यंत विस्मित हो गए है. हम
समझते थे कि हम ही सर्वश्रेष्ठ है, आतिथ्यशीलता में, दान-धर्म करने मे. महाराज, आपका यह अतिभव्य
समारोह देखकर मन को बहुत प्रसन्नता हुई. अब, एक माह के उपरांत, सभी राजा-महाराजा
अपने-अपने राज्यों को लौट जायेंगे...उससे पहले...”
सम्राट चन्द्रगुप्त यज्ञवेदी के
सम्मुख आसन पर स्थानापन्न थे. उनके साथ महारानी ध्रुवस्वामिनी और रानी कुबेरनागा
उपस्थित थीं. यज्ञ की पूर्णता हो चुकी थी, ब्राह्मणों का दानविधि भी समाप्त हो गया था. वे
उठने ही वाले थे, कि
वाकाटक महाराज पृथ्वीषेण ने कहा,
“यदि हम एक दान मांगें तो?”
“अवश्य मांगें. यदि आप हमारा राज्य
भी मांगें, तो हम
प्रसन्न मन से देंगे. आज जीवन की सार्थकता का अनुभव करते हुए मन अतीव प्रसन्नता से
भर आया है. एक ओर पूर्णत्व की भावना, तो दूसरी ओर ऋण मुक्त होने की भावना. सम्राट
समुद्रगुप्त का पुत्र उनके समान ही हो, प्रत्येक पिता की यह इच्छा पूर्ण होने का आनंद
है. आप अपना इच्छित दान मांगें.”
“आपकी कन्या...”
“क्या? हमारी कन्या?” सम्राट
चन्द्रगुप्त अत्यंत विस्मित हो गए. जिस बात की मन में कल्पना की थी, वह प्रत्यक्ष
में होने वाली थी.
“आप आर्यावर्त के सम्राट हैं. आपसे अधिक
श्रेष्ठ इस आर्यावर्त में कोई नहीं है. हम विदर्भ के स्वामी हैं, इस राजा के
पुत्र,
युवराज रुद्रसेन के लिए हम कन्या का दान चाहते हैं, यह अपराध तो नहीं है ना?”
सम्राट चन्द्रगुप्त आसन से उठे. उनके
दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर बोले,
“हम अपनी कन्या युवराज्ञी प्रभावती
का आपके पुत्र युवराज रुद्रसेन की गृहस्वामिनी के रूप में कन्यादान अवश्य करेंगे.
युवराज्ञी प्रभावती शस्त्र-शास्त्र निपुण हैं, वीर हैं, धैर्य और संयम, विनम्रता और सौजन्य, सौन्दर्य और
शालीनता – इन गुणों का वर्णन हम ही करें ऐसी बात नहीं है, परन्तु पिता
होने के कारण...”
“महाराज, युवराज
रुद्रसेन ने स्वयँ युवराज्ञी प्रभावती देवी को देखा है.”
“क्या प्रभावती ने उन्हें देखा है?”
“नहीं. एक वर्ष पूर्व युवराज किसी
कार्य से मध्यदेश गए थे, तब
संयोगवश उनकी इच्छा हुई के ओंकारेश्वर के दर्शन करें. जब वे दर्शन करके वापस आ रहे
थे तो अपनी सखियों के साथ प्रभावती अश्वारूढ होकर अरण्य के मार्ग से जा रही थीं.
युवराज ने उन्हें देखा. सखियों के साथ उनका संवाद, उनका अश्वारूढ़ होना, उनका सौन्दर्य
और निर्भयता देखकर युवराज रुद्रसेन प्रभावित हो गए.”
“क्या उन्होंने वापस लौटने पर आपको
ऐसा बताया?”
“नहीं महाराज, युवराज्ञी
प्रभावती के बारे में उन्होंने कुछ नहीं कहा, परन्तु जब हमने उनके विवाह का विषय छेड़ा, तो
अपने अंतर्मन में उन्हें अनुभव हुआ और उन्होंने हमें बताया. अर्थात्, राजकीय
दृष्टि से हम इस संबंध के बारे में नहीं सोच रहे हैं, परन्तु अपने
पुत्र की इच्छा हमारे लिए महत्वपूर्ण है. इस यज्ञ के अवसर पर हमने, हमारे परिवार
ने उन्हें देखा, और
आपके श्रेष्ठ कुलवंश की, आर्यावर्त के विराट साम्राज्य के अधिपति की कन्या हमें मन:पूर्वक
अच्छी लगी. हमने कन्या तो मांगी है, परन्तु उसे हमारे परिवार में देना, न देना आपकी
इच्छा पर निर्भर है.”
“अवश्य! आप जैसे संस्कृतिवर्धक और
ब्राह्मण कुलवंश में कन्या देना हमारे लिए गौरवास्पद है. यदि आप जन्मकुंडली देखना
चाहें तो...”
“अपनी राजसभा में ही ज्योतिष के
महापंडित हैं. आपके विष्णुगुप्त हैं. परन्तु महाराज, ज्योतिष से भी ऊपर है अज्ञात नियति.
वही सब कुछ नियंत्रित करती है. फिर भी यदि कन्या के पिता को युवराज की पत्रिका
देखनी हो तो हमें कोई आपत्ति नहीं.”
“आपके कुलवंश की, आपके राज्य की, आपकी विदर्भ भूमि
की, आपकी शौर्य कथाओं की हमें पूरी जानकारी है. ऐसा नहीं, कि
गृह-नक्षत्रों पर हमारा विश्वास नहीं है. परन्तु यदि मुहूर्त देखकर भी युद्ध में
जाएँ, तो भी
जय-पराजय अपने ही कर्तृत्व पर, आयोजन पर, व्यूह रचना पर, आक्रामकता पर निर्भर करता है. हमें
यह प्रस्ताव मान्य है. हमारी सर्वगुणी कन्या आपके कुलवंश का नाम उज्ज्वल करेगी
इसका हमें विश्वास है.”
सम्राट चन्द्रगुप्त के आमंत्रण पर
कालिदास और देववर्मा वहाँ उपस्थित हुए.
“ये हैं कवि कालिदास, हमारे अन्तरंग
मित्र भी हैं, और ये
– महामंत्री देववर्मा, हमारे
लिए ज्येष्ठ बंधू के समान हैं.”
जैसे ही सम्राट चन्द्रगुप्त ने
उन्हें वाकाटक राजा के अपने युवराज रुद्रसेन के लिए युवराज्ञी प्रभावती के साथ
विवाह प्रस्ताव के बारे में और अपनी मान्यता के बारे में बताया, वे बोले,
“महाराज, यथार्थ निर्णय
है. ये हम इसलिए नहीं कह रहे हैं, कि विदर्भराज यहाँ उपस्थित हैं. हमने स्वयँ
युवराज रुद्रसेन को क्षिप्रा के तट पर देखा था. हमें कल्पना भी नहीं थी कि वे कौन
हैं, कहाँ
से आये हैं. अत्यंत सादी पोशाक में थे वे. उनके साथ कुछ लोग थे. हम क्षिप्रा में
स्नान करके बाहर आये तो युवराज एक अंध व्यक्ति को अपने कंधे का आधार देकर दूसरी ओर
ले जा रहे थे.
शाम को महाकालेश्वर की आरती में मग्न
हमने उन्हें देखा. मन में अनायास ही विचार आया कि यह युवक कौन हो सकता है? परन्तु वे
निकल गए थे. दूसरे दिन अश्व के पैरों पर वे ही पट्टिकाएं बाँध रहे थे. हमने सहज ही
पूछा तो वे बोले,
“विशाल साम्राज्य की राजधानी
उज्जयिनी के प्रति हमारे मन में आकर्षण था, इसलिए आये हैं, हम पथिक हैं. विषय, अर्थात् ही, समाप्त हो गया
था. महाराज, उनके
तीन गुणों की ओर ध्यान गया : विनम्र वृत्ति, सेवाभाव, निर्भयता और धार्मिकता. वीरत्व और सौजन्य उन्हें
पिता से प्राप्त हुआ ही होगा.”
सेवक के निमन्त्रित करने पर रानी
कुबेरनागा, कुमार, प्रभावती और
महारानी ध्रुवस्वामिनी वहाँ आये थे. महाराज ने सर्वसाक्षी से सभामंड़प में प्रभावती
के विवाह की उद्घोषणा करने के बाद सब से विनती की,
“अश्वमेध यज्ञ के निमित्त से पिछले
कुछ दिनों से आप यहाँ थे. आज एक अति आनंद का दिन है.” उन्होंने उत्सुकता से सम्राट
चन्द्रगुप्त की ओर देखा, वे
बोले,
“दक्षिण की तरफ के सामर्थ्यशाली
साम्राज्य के स्वामी, वाकाटक वंश के महाराज पृथ्वीषेण ने अपनी कन्या प्रभावती का
हाथ माँगा है,
युवराज रुद्रसेन के लिए.”
इस समय सम्राट चन्द्रगुप्त अत्यंत
आनंदित थे. इस निमित्त से दक्षिणपथ का साम्राज्य गुप्तवंश से संबंधित होने वाला
था. अर्थात् काश्मीर से सिंहद्वीप तक अखंड हिन्दू राज्य का निर्माण होगा. राजकीय
दृष्टी से यह अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी. परन्तु रानी कुबेरनागा को इस सन्दर्भ में
यह कार्य अनुचित प्रतीत हो रहा था. इस समय सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा,
“महाराज, आपको कन्या
देने में हमें अत्यंत आनंद हो रहा है, फिर भी हमारी कन्या प्रभावती स्वतन्त्र विचारों
की होने के कारण उससे विचार विमर्श करना होगा. हम आपको सूचित करते हैं, कुछ ही देर
में.”
“अवश्य, सम्राट
चन्द्रगुप्त. अब हम विदर्भ की ओर प्रयाण करते हैं. उससे पहले आप एक बार दूत भेजकर
हमारे बारे में...”
“कृपया ऐसा न कहें. दक्षिण पथ के सर्वश्रेष्ठ
वाकाटक वंश के बारे में हम जानते हैं. आपको ज्ञात नहीं, महाराज
पृथ्वीषेण, जब हम दक्षिणपथ की ओर गए थे, तो आपके विदर्भ की सीमा तक आये थे, परन्तु...”
“अब आइये.”
उसी समय महामंत्री और कालिदास वहाँ
आये. उन्हें भी सम्राट ने यह वार्ता सुनाई. तब महामंत्री सुशान्तदेव ने कहा,
“पूछना तो नहीं चाहिए, परन्तु क्या
एक प्रश्न पूछें?”
“अवश्य पूछें. आप महामंत्री हैं.
महामंत्री विष्णुगुप्त से हमारा परिचय था.”
“हाँ. वे हमारे पिता हैं. आजकल वे
अस्वस्थ्य है, इसलिए
कुछ समय के लिए हम...”
“आप प्रश्न पूछें...क्योंकि विवाह
करते समय दोनों ओर की भूमिकाएं स्पष्ट होनी चाहिए, ऐसा हमारा विचार है.”
आसनों पर स्थानापन्न इन दिग्गज लोगों
के सामने हाल ही में आये हुए महामंत्री सुशांतदेव क्या कहने वाले हैं, इसकी कालिदास
को चिंता थी. परन्तु पिता के ही समान सहस्त्रगुणी सुशान्तदेव पर सम्राट
चन्द्रगुप्त को विश्वास था. वे उत्सुकता से उसकी ओर देख रहे थे. दो ही वर्षों में
उसने उत्तम व्यवस्थापन किया था. प्रौढत्व की और झुकते हुए सुशांतदेव से सम्राट ने
कहा,
“महामंत्री, क्या आप
गुप्तवंश की नामावली बताने वाले हैं या युद्ध और उनमें बीते हुए हमारे दिनों के
बारे में बताएँगे?”
सभी प्रसन्नता से हँसे. शिशिर अभी
अभी समाप्त हुआ था और वसन्त के आगमन की सूचना देने वाला आम्रवन का गंध यहाँ तक
पहुँच रहा था. रानी कुबेरनागा कुछ चिंतित प्रतीत हो रही थीं, बाकी सब लोग
प्रसन्न थे.
“महाराज, आपका ब्राह्मण
कुल और महाराज...”
“महामंत्री, साम्राज्य से
साम्राज्य को जोड़ते हुए वर्ण का विचार नहीं किया जाता. और एक वीर योद्धा विचार
करता है केवल वीर वंश का. आज सम्राट चन्द्रगुप्त जैसा वीर योद्धा अन्यत्र कहीं
नहीं है. दूसरा विचार होता है अपने पुत्र प्रेम का. हमारे युवराज रुद्रसेन को आपके
वीरवंश की प्रभावती देवी प्रिय हुईं. तब, एक पिता पुत्र को ही अधिक महत्त्व देगा, है ना?”
महाराज पृथ्वीषेण की बात सुनते हुए
सम्राट चन्द्रगुप्त अस्वस्थ्य हो गए. हमने प्रभावती देवी की इच्छा का विचार तो
किया ही नहीं, इस बात
पर ध्यान जाते ही वे उठे. उनके साथ सभी उठ गए. कालिदास महाराज की मन:स्थिति समझ
गए. वे हँसते हुए बोले,
“सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपने मन की
बात तो बता दी है. वे अति प्रसन्न हैं. परन्तु इस समय उनका जाना अनिवार्य है, यह याद दिलाने
के लिए हम आये थे. आप निश्चिन्त रहे. एक वृद्ध स्त्री महाराज से मिलना चाहती है.
आप यहीं ठहरिये. कुछ ही देर में महाराज आ जायेंगे.”
कालिदास ने सम्राट चन्द्रगुप्त को
संकेत किया. कालिदास उन्हें लेकर बाहर गए और प्रसन्न वातावरण में विषय और विषयांतर
होते हुए हंसी गूँज रही थी.
कालिदास परशान थे कि इतने प्रसन्न
महाराज अचानक इतने अस्वस्थ्य क्यों हो गए. सम्राट चल रहे थे. कल ही संपन्न हुए यज्ञ
की वेदी के पास वे आये. कालिदास मौन थे.
“महाराज...”
“कालिदास, हमने अत्यंत
आनंद से वाकाटक वंश के महाराज पृथ्वीषेण को अपनी कन्या दान देने का संकल्प कर लिया, परन्तु
प्रभावती को किंचित मात्र भी कल्पना नहीं दी. वस्तुतः उसका स्वयंवर हो, महारानी की इस
इच्छा को हमने अमान्य कर दिया. परन्तु वैश्य होते हुए भी क्षात्र तेज से दमकती
अपनी कन्या से हमें पूछना चाहिए था. हम वचन दे बैठे. साम्राज्य को साम्राज्य से जोड़ना है – इस विचार से.
परन्तु...”बोलते-बोलते सम्राट रुक गए. सामने से प्रभावती अपनी सखियों के साथ आ रही थी. सम्राट को देखते ही वह आगे
बढकर उनके समीप आई.
“तात, आप? आज बिदाई समारोह था ना, और सिर्फ आप
दोनों?”
“प्रभावती, हम कुछ पूछना
चाहते हैं. सत्य और केवल सत्य उत्तर ही अपेक्षित है. आप ज्ञानवती, शास्त्रवती
हैं,
अस्त्र-शस्त्र संचालन में निपुण हैं. उपवर हो चुकी हैं.”
वह सलज्ज खडी थी.
“इस तरह सलज्ज होकर, भूमि की ओर
देखते हुए नहीं, अपितु
विचारपूर्वक, सहज
उत्तर दें.”
प्रभावती ने उनकी ओर देखा.
“आज वाकाटक वंश के महाराज पृथ्वीषेण
ने अपने पुत्र अर्थात् युवराज रुद्रसेन के लिए आपका हाथ मांगा है.”
“उत्तम, तात, उत्तम! हम
विचार ही कर रहे थे. दक्षिण पथ में विदर्भ को छोड़कर बाकी सारे साम्राज्य अपने
गुप्त साम्राज्य से संबंधित हो गए हैं. वाकाटक वंश के बारे में भी विचार करना चाहिए, ऐसा आपने अभी
तक क्यों नहीं सोचा, इसी बारे में हम विचार कर रहे थे.
तात, यह संधि साम्राज्य विस्तार के लिए, और स्वयँ हमारे
लिए भी उत्तम है. माना, कि
वाकाटक साम्राज्य हमारे साम्राज्य की तुलना में छोटा है, परन्तु एक
ब्राह्मणकुल वैश्यकुल की कन्या का दान मांगे, इससे बढकर सौभाग्य हमारे लिए और क्या हो सकता है? और जब पिता
सर्वश्रेष्ठ नृपति हों तो कन्या को किस बात की कमी होगी?
फिर, नियति भी तो है ना, तात!
शक्तिशाली साम्राज्य में विवाह होने से हम प्रसन्न ही रहेंगे, विश्वास के
साथ यह भला कौन कह सकता है? उचित होगा कि आप मान्यता दें. दो साम्राज्य एक होने से
संगठित हिन्दू राज्य की संकल्पना पूर्ण होने में सहायता मिलेगी.”
सम्राट के नेत्र भर आये. उमलती हुई
कली अपने बारे में,
राष्ट्र के बारे में, पिता
के बारे में इतना सोचती है, यह
देखकर वे आश्चर्यचकित और भावविभोर हो गए. कालिदास भी उसके वक्तव्य से अवाक् रह गए.
सम्राट ने उसके मस्तक पर हाथ रखकर मन ही मन कहा, ‘शुभदे, तुम्हारा
कल्याण हो!’ और उसे लेकर सभापंड़प की ओर चले. अब वे प्रसन्न थे, निश्चिन्त थे.
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