Thursday, 19 January 2023

Shubhangi - 46

 

 

 

शरद ऋतू की रम्य, सुखद शाम. प्रभावती के विवाह की सारी तैयारियाँ पूरी हो गई थीं. उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम सभी दिशाओं के राजाओं को निमंत्रण भेजे गए थे. और छः महीने तक इन तैयारियों के बीच कालिदास अपना प्रथम नाटक लिखने में व्यस्त थे. सम्राट चन्द्रगुप्त चाहते थे कि वह प्रीति कथा हो, और इससे प्रभावती और रुद्रसेन के जीवन में प्रसन्नता की बहार आये. किस पर नाटक लिखा जाए, इस पर कालिदास विचार कर रहे थे.

‘ऋतुसंहार लिखने के बाद कैलासनाथ के बारे में लिखा जाए, जिनका अनुभव उन्हें हुआ था. मन में अनेक विचार प्रस्फुटित हो रहे थे, मानो सूर्य को देखकर अनगिनत कमलिनी के फूल खिल रहे हों. परन्तु उसके पश्चात्  मालिनी के तट पर स्थित  कण्व मुनि के आश्रम में जाने के बाद उनके सामने शकुन्तला ही साकार हो गई थी. परन्तु उज्जयिनी वापस आने पर प्रभावती के निमित्त से विदर्भ के वाकाटक वंश की राजनीति, समाज व्यवस्था, अन्य राजनीतिक संबंध, जनमानस, संस्कार, संस्कृति, अर्थव्यवस्था, वंशावली – यह सब जानने के लिए मंत्री वीरसेन और भद्रसेन के साथ कालिदास गए थे. काश्मीर से लौटने के बाद मन मचल रहा था. मन में शब्द प्रस्फुटित हो रहे थे. उनके खिलने से पहले ही उनकी सुगंध तन मन में फ़ैल रही थी. नूपुरों की छमछम करते हुए कविता कामिनी आने को तैयार थी.

मगर वैसा हो नहीं रहा था. प्रभावती के विवाह से सन्दर्भ में सम्राट चन्द्रगुप्त ने व्यक्तिगत विशेष सभा का आयोजन किया था, जिसमें उन्होंने धन्वंतरी को विवाह निमित्त आने वाले अतिथियों की आरोग्य व्यवस्था सौंपी. अनेक राजा-महाराजा आने वाले थे, उनमें कुछ दुष्ट प्रवृत्ति वाले, गुप्त साम्राज्य के हितशत्रु भी हो सकते हैं. इस निमित्त से कुछ गुप्तचर भी आ सकते हैं, इसलिए सभा में उपस्थित गुप्त साम्राज्य के गुप्तचर प्रमुख क्षपणक को उन्होंने गुप्तचरों की व्यवस्था करने को कहा.

राजसभा के नवरत्नों का ऐसा भी सहयोग प्राप्त होगा, ऐसा कभी सम्राट चन्द्रगुप्त ने सोचा भी नहीं था. परन्तु विवाह के निमित्त से यह सब सहजता से हो रहा था. ‘शंकू सम्राट चन्द्रगुप्त को कालिदास के ही समान प्रिय था.

शंकू, आप उत्तम भविष्यनिदान करते हैं. आये हुए अतिथियों की हस्तरेखा, मस्तिष्करेखा देखकर उनका भविष्य बताएं, तो आपकी कीर्ति दसों दिशाओं में पहुंचेगी, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को अपना भविष्य जानने की उत्सुकता होती ही है.”

“महाराज, आपकी कीर्ति दसों दिशाओं में फ़ैली हुई है. आप उपहास तो नहीं कर रहे हैं?

सब लोग प्रसन्नतापूर्वक हंस पड़े. वेतालभट्ट से सम्राट ने कहा,

“हमें भूत-प्रेतों की, अघोरी कथाएँ सुनाने के लिए आप बारबार स्मशान ले जाते हैं. परन्तु अतिथियों को ऐसा कुछ न बताइये. आपकी बातों में इसका उल्लेख भी न हो. और घटखर्पर, आप यमक रचना वाला काव्य प्रस्तुत करें. और कालिदास, आपका ‘ऋतुसंहार हमने सुना था, अब नाट्य स्वरूप में प्रीति कथा सादर करें. लोकमनोरंजन सर्वाधिक आनंदमय होता है.

अमरसिंह, वररुचि और वराहमिहिर शास्त्रार्थ का आयोजन करें.”

इसके पश्चात सम्राट ने मंत्रीमंडल की सभा भी आयोजित की. दंडपाशिक विरूपाक्ष, करभकसेन, महादंडनायक अश्वघोष, अश्वपति रामगोपाल, रणभांडारिक रोहित शर्मा, महाबलाधिकृत इन्द्रसेन, महासंधिविग्रहिक सोमेश्वर शास्त्री, विनयस्थिति स्थापक सोमदत्त. महाभांडाराधिकृत उग्रसेन, महापक्षपटलिक, सर्वेश्वर, सर्वाध्यक्ष और राजस्व अधिकारी विष्णुगुप्त, कोषाध्यक्ष महेश्वर शास्त्री इन सबको आय, व्यय, व्यवस्था, सुरक्षा, व्यंजन और वस्त्रालंकार व्यवस्था सौंपी गई और सम्राट निश्चिन्त हो गए.

युवराज्ञी प्रभावती का विवाह एक महत्त्वपूर्ण घटना तो थी ही, परन्तु उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह विवाह एक ऐसे सम्राट की कन्या का था जिसने आसेतु हिमालय एकसंघ भारत, एक छत्र के नीचे हो, इस संकल्पना को यथार्थ किया था,  स्वपराक्रम के बल पर अपने कालखंड में अपनी नाममुद्रा स्वर्णाक्षरों में मुद्रित की थी. प्रतिष्ठा देते हुए प्रतिष्ठित होने वाले सम्राट चन्द्रगुप्त की कन्या का विवाह था. भारत के अनेक राजाओं को निमंत्रण भेजे गए थे. छः महीने सभाएं हो रही थीं. नित्य नया विचार प्रस्तुत किया जाता था.

मगर कालिदास अस्वस्थ थे. किसकी प्रीती कथा लिखें? राधा-श्रीकृष्ण की, अपनी और मधुवंती की, या सम्राट चन्द्रगुप्त और महारानी ध्रुवस्वामिनी की, या दुष्यंत-शकुन्तला की? परन्तु मन में शब्द तैयार नहीं हो रहे थे. शब्दों को नायक-नायिका नहीं मिल रहे थे. दिन बीतते जा रहे थे. वे अब अधिक ही बेचैन हो गए.

और रात्रि के अंतिम प्रहर में अस्वस्थ निद्रा में मन को चैन देने वाली कथा मिल गई – मालविका और अग्निमित्र की! और उसी समय उन्होंने हाथ में लेखनी ली और भोजपत्र पर लिखना आरंभ किया:

एकेश्वर्ये स्थितोSपि प्रणतबहुफले य: स्वयंकृतिवासा: ।

कान्हासंमिश्रदेहोSप्यविषय मनसां य: परस्ताधतीनाम् ॥

अपनी अर्धांगी पार्वती को वामांग पर धारण करके भी जो विषय निवृत्त हैं, ऐसे स्वामी महादेव को नमन करके उन्होंने प्रीति कथा आरम्भ की राजा अग्निमित्र की.

कालिदास के नेत्रों के सामने रंगमंच साकार हो उठा. उस पर स्तवन के पश्चात् सूत्रधार का निवेदन हुआ,

 ‘ ‘ऋतुसंहार’ के रचयिता और सम्राट चन्द्रगुप्त की राजसभा के प्रतिष्ठित कविवर्य श्रीमान कालिदास अब विदिशा के राजा अग्निमित्र और विदर्भकन्या मालविका की विवाह कथा सादर करने जा रहे हैं.’    

कालिदास लिख रहे थे और मन में रंगमंच का अनुभव भी कर रहे थे.

अग्निमित्र की ज्येष्ट रानी धारिणी की सर्पमुद्रांकित अंगूठी बन गई है या नहीं, यह देखने के लिए उसकी दासी गई थी. उसी समय वह दालान में एक अवगुन्ठित चित्रफलक देखती है. वह अवगुंठन दूर करती है, और महाराज अग्निमित्र के दालान में एक लावण्यवती का चित्र देखकर वह अत्यंत क्रोधित हो जाती है. उसी समय महाराज अग्निमित्र भी उसके पीछे आकर खड़े हो जाते हैं. वे यूँ ही उससे पूछते हैं, ‘यह लावण्यवती कौन है?’ क्रोधित धारिणी अनेक बार पूछने पर भी कोई  उत्तर नहीं देती, मगर उसी समय वहाँ आई महाराज की कन्या वसुलक्ष्मी कहती है, ‘यह मालविका है.’ महाराज वहाँ से चले जाते हैं, परन्तु मन में मालविका की छवि अंकित हो गई है.

गौतम – महाराज का परम मित्र है. वह विदूषक है. महाराज को प्रसन्न करने के लिए वह कुछ भी करने को तत्पर है. गौतम महाराज की सहायता के लिए आगे आता है. महाराज कहते हैं, ‘गौतम ऐसा कुछ करो कि उस मालविका के दर्शन हो सकें.’

उसी समय यह समाचार प्राप्त होता है कि महाराज की भगिनी के पति माधवसेन  को विदर्भ नरेश ने कैद कर लिया है. महाराज अग्निमित्र अत्यंत क्रोधित हो जाते हैं.   

मौर्यसचिव विमुञ्चति यदि पूज्यः संयतं मम श्यालम् ।

भोक्तामाधवसेनं ततोऽहमपि बन्धनात्सद्यः ॥

 

परन्तु विदर्भ नरेश भी हठी है. तब अमात्य महाराज से कहता है,

“नि:संदेह, यह कार्य व्यवहार शास्त्र में भी मान्य नहीं है. हम आपकी आज्ञानुसार विदर्भ नरेश को सन्देश नहीं भेजते, अपितु युद्ध का आह्वान देते हैं, आपकी सम्मति के अनुसार.

एक ओर महाराज अपने शालक की मुक्ति के लिए प्रयत्नशील हैं, तो दूसरी ओर एक वाद उत्पन्न हो गया है, जो उनके सामने लाया जाता है.

कालिदास लिख रहे थे भोजपत्र पर और अनुभव कर रहे थे उसे रंगमच पर अवतरित होते हुए. बिलकुल भरतमुनी के अनुसार : कौन सा अभिनेता कहाँ खडा होगा, कौन कहाँ से आयेगा, मंच का दृश्य उस प्रसंग के अनुसार होगा और महावस्त्र, अलंकार, मुख पर नाट्य भाव सहज ही प्रकट हों, ऐसा प्रयत्न वे कर रहे थे.

जैसा भरत मुनी ने नाट्यशास्त्र में कहा है, और भास् के ‘स्वप्न वासवदत्ता पढ़कर कालिदास के मन में यह स्पष्ट हो गया था कि अलंकार, वस्त्र और भाषा पद के अनुसार होना चाहिए. दासी यदि महावस्त्र धारण करे और स्वयँ के लिए आदरार्थी शब्दों का प्रयोग करे तो वह अशोभनीय होगा. भरत मुनि का एक-एक शब्द उनके मन में गहरे पैंठ गया था. अब उनके लिए महाराज अग्निमित्र की मालविका से भेंट करवाना आसान नहीं था. कालिदास लिखने लगे.

गणदास और हरदत्त दो नृत्य शिक्षक है. गणदास मालविका के नृत्य शिक्षक हैं, और हरदत्त महाराज की अनेक रानियों में से नवविवाहित रानी इरावती के नृत्यशिक्षक हैं. धारिणी – महाराज की ज्येष्ट पत्नी है, तो इरावती कनिष्ट पत्नी है. इरावती को अपने सौन्दर्य का, पांडित्य का अभिमान है. जब नृत्य स्पर्धा आयोजित करने का समय आता है, तो दोनों की सखियाँ बहस करती हैं, कि उनकी ही सखी नृत्य में अधिक पारंगत है. ऐसे में विदूषक गौतम महाराज से कहता है, ‘आप ही बनें परीक्षक और न्याय दें मालविका को!”           

इस सन्दर्भ में गौतम से महाराज कहते हैं,

‘तुम्हारे प्रयत्न यशस्वी हो रहे हैं, तुम्हारे प्रयत्नों के वृक्ष पर फूल खिलने लगे हैं.’

हरदत्त की शिष्या रानी इरावती श्रेष्ठ है, या गणदास की शिष्या मालविका? इसका निर्णय कौन करेगा? हरदत्त और गणदास, दोनों महाराज से परीक्षक बनने की विनती करते हैं. तब वे विदूषक गौतम से कहते हैं, ‘हम नृत्य अवश्य देखेंगे, परन्तु परीक्षक होने के लिए हमसे न कहें. क्योंकि एक तरफ है हमारी रानी इरावती और दूसरी तरफ हमारे हृदयपटल पर अंकित हो चुकी सौन्दर्यवती कामिनी मालविका, जिसकी हम कामना कर रहे हैं. ऐसी स्थिति में हमारे जैसा पक्षपाती परीक्षक नहीं होना चाहिए. कला को कला के स्वरूप में प्रस्तुत करना चाहिए, और परीक्षक को भी सूक्ष्म जानकार होना चाहिए.’

गणदास और हरदत्त के बीच भी नृत्यांगनाओं के श्रेष्ठत्व के बारे में विवाद हो रहा है. इस परिस्थिति में महारानी धारिणी को आमंत्रित किया जाता है. पहले तो वह इनकार करती है, परन्तु बाद में स्वीकार कर लेती है. पंडिता कौशिकी मालविका का श्रृंगार करने वाली है, वह भी परीक्षक होने से इनकार करती है.

और धारिणी परीक्षक होना मान्य कर लेती है.

कालिदास को अब नाटक की दिशा मिल गई थी, एक लय, एक नया आयाम लेकर वह शब्दों से अवतरित हो रही थी. प्रथम अंक समाप्त हो गया था. वे प्रसन्न मन से आगे लिखने लगे. रात्रि के पग भी गतिमान हो गए थे.

  दूसरा अंक आरम्भ हो गया था. कालिदास के नेत्रों के सामने थे महाराज अग्निमित्र, महारानी धारिणी, हरदत्त और गणदास, सिवाय कुछ अंतर छोड़कर बैठी हुई कौशिकी. अब नृत्य आरम्भ होने वाला था. पहले कौन नृत्य करेगा – इरावती अथवा मालविका, इस पर विचार हुआ. ऐसे समय पंडिता कौशिकी कहती हैं कि गणदास आयु में ज्येष्ठ हैं, अत: उनका सन्मान पहले. गणदास मालविका को आमंत्रित करते हैं. मालविका लावण्यवती तो है ही, परन्तु नृत्य कला के कारण उसकी देह भी कमनीय है. महाराज अग्निमित्र के समीप जाकर विदूषक गौतम कहता है, ‘इतनी अधीरता से उस मालविका देवी की ओर न देखिये, क्योंकि आपके पास ततैया बैठी है. आपकी महारानी, ये ध्यान में रखें.’

महाराज को उसकी तुलना पर हंसी आ रही थी. मालविका के बारे में महाराज मन में कहते हैं, ‘चित्र में जिस मालविका को देखा था, उससे सौ गुना अधिक लावण्यवती है. अब उससे मिलने का मार्ग कैसे निकले.’

अत्यंत झिरझिरे वस्त्रों में मालविका ने रंगमंच पर पदार्पण किया. शायद महाराज के मन की प्रेम भावना को वह समझ गई थी, इसलिए पदन्यास करते हुए वह गीत गाती हैं वह भी महाराज के ही लिए,

 

दुर्लभ: प्रियो मे तस्मिन्भव हृदय निराशमहो अपांगो में परिस्फुरती किमपि वाम:।  

एष स चिरदृष्ट: कथं पुनरुपनेतव्यो, नाथ मां पराधीनां त्वयि परिगणय सतृष्णाम्॥

 

इस गीत के माध्यम से वह स्वयँ से ही कहती है कि ‘हे हृदय, महाराज तुझसे कभी मिलेंगे, यह आशा ही छोड़ दे. पुनरपि देखने की आशा भी नहीं, परन्तु प्राणप्रिय, यह जान लो कि मेरा मन तुम्हारे ही हृदय से उलझ गया है.’ 

नृत्य समाप्त होते ही वह जाने लगती है. महाराज अग्निमित्र उसकी देह को जी भर के देखते हैं, परन्तु उनका मन तृप्त नहीं है यह बात विदूषक गौतम को ज्ञात है, और वह कहता है, ‘हे नृत्यांगना, आपके हाथों से एक भूल हो गई है.’

‘कौनसी?’ वह नृत्य मुद्रा में ही पूछती है, पतले वस्त्रों में उसकी कमनीय देहयष्टि को महाराज निहार रहे हैं. विदूषक गौतम कहता है, ‘ भूल नृत्य कला में नहीं हुई, परन्तु नृत्य आरम्भ करने से पूर्व तुमने ब्राह्मणों को नमस्कार नहीं किया.’

वह हंसती है. यह देखकर सभी हँसते है. महाराज को उसके जाने का आनंद नेत्रसुख दे जाता है.

महाराज अग्निमित्र अत्यंत प्रसन्न हैं. हरदास पूछते हैं, ‘अब आपकी नवविवाहिता पत्नी इरावती को, जो हमारी शिष्या हैं, आमंत्रित करूँ? परन्तु उसी समय माध्याह्न भोजन की सूचना मिलती है और दूसरा अंक समाप्त होता है.

कालिदास तीसरा अंक लिखने लगे और उन्हें अनुभव हुआ कि उन्होंने आज शाम को भोजन तो किया ही नहीं, और पानी भी नहीं पिया. वे भोजपत्र रखकर उठे, चौकी को एक ओर हटाया और घड़े से पानी लिया. पानी पीने के बाद मन प्रसन्न हो गया. चारों ओर निपट शांति थी. आकाश नक्षत्रों से परिपूर्ण था, मगर उनका ध्यान भोजपत्रों की ओर था. वे फिर से बैठ गए, हाथ में लेखनी उठाई और लिखने लगे.

तीसरा अंक आरम्भ हुआ. दोनों नृत्यांगनाओं -  मालविका और रानी इरावती में – विजय किसकी हुई?  अर्थात् मालविका की. परन्तु निर्णय करते समय, यह कहा गया कि दोनों नृत्यांगनाएँ एक जैसी सामर्थ्यवान हैं, परन्तु मालविका को विजयी घोषित किया गया ज्येष्ठ नर्तक गणदास के कारण – ऐसा दासियों के वार्तालाप से ज्ञात हुआ.

मालविका और महाराज अग्निमित्र के केवल नेत्रों से प्रेक्षक समझ गए कि दोनों के बीच एक दूसरे के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है. संवादों से यह स्पष्ट होते हुए...

कालिदास मन ही मन हँसे. अब तो वास्तविक संघर्ष आरम्भ होने वाला है. मालविका और उससे मिलने के लिए अत्यंत आतुर महाराज, और मालविका उनके दृष्टिपथ में भी न आये ऐसा प्रयत्न करने वाली महारानी धारिणी.

वसन्त मास का आगमन हो गया है. चारों ओर नवपल्लकमालिकाएं हैं. पुष्पों का श्रृंगार करके लतिकाएँ वृक्षों के स्कंधों पर प्रसन्न हैं. परन्तु धारिणी के ध्यान में आता है कि सुवर्ण अशोक पर अद्याप एक भी फूल दृष्टिगत नहीं हुआ है. दासी ने भी स्वयँ जाकर देखा है. यदि कोई युवती अपने मुख से उसे मधु प्रदान करे और उस पर लत्ता प्रहार करे तभी सुवर्ण अशोक पर फूल खिलेंगे.

धारिणी ने इरावती से कहा, ‘महाराज प्रमद वन की ओर गए हैं.’ तब इरावती महाराज को सन्देश भेजती है कि ‘वह स्वयं ही आ रही है, प्रमदवन में हिंडोले पर  बैठने के लिए. महाराज वहीं रुकें.’  

महाराज परेशान हो जाते है, प्रमद वन में मालविका के पहुँचने की योजना विदूषक ने बनाई है. महाराज अग्निमित्र हिंडोले पर बैठे हैं. परन्तु मन में मालविका है.  योजना के अनुसार मालविका मुख में मधु भरे आती हुई दिखाई देती है, वह सुवर्ण अशोक वृक्ष पर अपने मुख का मधु डालती है, और अपने कोमल पग से उस पर प्रहार करती है. उसकी सखी बकुलवलिका महाराज की अवस्था का वर्णन करती है.

इरावती सखी के साथ प्रमद वन में प्रवेश करते हुए उससे पूछती है, ‘मधु लेने के बाद स्त्री अधिक सुन्दर दिखाई देती है ना?’ सखी ने कहा, ;यह तो मुझे ज्ञात नहीं, परन्तु आप अत्यंत सुन्दर हैं.’ तभी उसकी दृष्टी दूर शिलाखंड पर बैठी हुई मालविका पर जाती है, और हिंडोले पर कोई भी नहीं दिखाई देता. उसके मन में संशय निर्माण होता है और वह भी सखी का आधार लेते हुए मालविका के निकट के वृक्ष के पास पहुँचती है.

सखी बकुलवलिका मालविका के चरणों का श्रृंगार कर देती है. मालविका वृक्ष पर लत्ता प्रहार करके मधु भी उस पर डालती है. यह सब महाराज देखते हैं, और इरावती भी देखती है. अब महाराज वृक्ष के पीछे से निकलकर मालविका के समीप पहुँचते हैं.

कालिदास स्वयँ ही महाराज अग्निमित्र की भावनाओं का उत्कटता से अनुभव करते हैं, मानो वे स्वयँ ही अग्निमित्र हों. वे स्वयँ ही अपनी नायिका से कहते हैं.

किसलयमृढोर्विलासिनी कठिने विहतास्य पादपस्कन्धे।

चरणस्य न ते बाधा सम्प्रति वामोरू वामस्य॥

 

‘नूतन पल्लव के समान अत्यंत मृदु ऐसे तुम्हारे वाम चरण को लत्ताप्रहार से चोट तो नहीं आई?’

कालिदास के नेत्रों के सामने उस अरण्य के बसंत ऋतू में खिले हुए उस प्रमद वन में उस लावण्यवती से बोलते हुए अत्यंत आनंद हो रहा है. अब तुरंत अपनी मनोदशा कथन करते हुए  महाराज कहते हैं,

‘हमारी अवस्था ऐसी है कि अशोक वृक्ष के समान हम भी अपना धीरज खो चुके हैं. अशोक वृक्ष पुष्प से वंचित है, और हम धैर्य से. अतः स्पर्श करके हमें धैर्य प्रदान करें.”

और तभी इरावती उनके समीप जाकर कहती है,

‘अशोक वृक्ष तो अभी फूला नहीं, मगर यहाँ प्रणय पुष्प दृष्टिगोचर होने लगे हैं.’

महाराज उसके क्रोध से तमतमाए मुख की ओर देखते हैं. अनावर क्रोध से वह वहाँ से जाने लगती है. उसकी करधनी खुल जाती है. महाराज उससे कहते हैं, याचना करते हैं, क्षमा मागते हैं. परन्तु वह उनका पूरी तरह तिरस्कार करते हुए जाने लगती है. तब महाराज स्वयँ उसके चरणों पर झुकते हैं, तब वह क्रोध से कहती है,

‘ये मालविका के चरण नहीं हैं, जो आपकी अभिलाषा पूर्ण करेंगे. वह निकल जाती है. महाराज कहते हैं, ‘यह स्वाभाविक है.’

यहाँ तीसरा अंक समाप्त होता है. तब प्रभात अवतरित होने वाली है. कालिदास भोजपत्र समेटते हैं, और नियमानुसार क्षिप्रा तट की ओर जाने लगते हैं.

मध्याह्न के उपरांत जब वे राजसभा से निकले, तो घटखर्पर ने उनसे पूछा,

“कालिदास, आपका नाट्य प्रयोग कहाँ तक पहुँचा?
“आज तक हमने कभी नाट्य प्रकार पर विचार नहीं किया था
, इसलिए विलम्ब हो रहा है. कल ही आरम्भ किया है. आज लेखन पूरा हो जाएगा. फिर नाट्य-प्रयोग के लिए प्रयत्न. आपने क्या लिखा है?

“यमक में काव्य रचना आसान नहीं है. कभी दो शब्द, कभी चार, तो कभी पूर्ण पंक्ति को यमक में लिखना पड़ता है, और उसके अर्थ प्रवाह विविध होने चाहिए. इसलिए यह कार्य सरल नहीं है. अभी तक कुछ हो नहीं पाया है.”

कालिदास अधिक कुछ न कहते हुए प्रासाद के निकट अपने ‘गृह’ की ओर मुड़े. और मन ही मन हँसे. ‘गृह तो है, मगर ‘गृहिणी-रहित’. अग्निमित्र को अनेक रानियों सहित मालविका मिल सकती है, परन्तु नियति हमें एक भी पत्नी न दे, इसका उन्हें दु;ख हुआ. परन्तु इस विचार को उन्होंने मन से निकाल दिया और हाथों में भोजपत्र लेकर आगे लिखने लगे – चौथा अंक.

चौथा अंक आरम्भ करते ही उनके दिमाग में आया कि स्त्रीस्वभावानुसार अब इरावती महारानी धारिणी से यह सब कहेगी, और हुआ भी वैसा ही. गिरने के कारण महारानी धारिणी उठने में असमर्थ थीं, उसने मालविका और उसकी सखी बकुलवलिका को कारागृह में डाल दिया और सेवकों को आज्ञा दी, ‘हमारी सर्पमुद्रित अंगूठी दिखाए बिना कोई भी उनसे मिलने न पाए.’

महाराज इस वार्ता से अत्यंत अस्वस्थ हो गए. विदूषक गौतम ने उन्हें इतना अस्वस्थ कभी नहीं देखा था. महाराज का प्रिय मित्र होने के कारण उससे महाराज की अवस्था देखी नहीं जा रही थी. उसने कहा, ‘महाराज, महारानी अस्वस्थ हैं. इस समय योग्य यह होगा कि आप उनके पास जाएँ. मैं बाद में कोइ भेंट वस्तु लेकर आता हूँ, क्योंकि रिक्त हस्त से जाना उचित नहीं है.’          

इधर मालविका और बकुलवलिका कारागार में हैं, जहाँ सूर्य की किरणें भी प्रवेश नहीं कर पाती हैं. महाराज इस बात से अत्यंत दुखी हो जाते हैं. परन्तु महारानी धारिणी से मिलना उनका कर्तव्य था. वे उसके शयनकक्ष में जाते हैं. धारिणी उठने का प्रयत्न करती है, तब महाराज कहते हैं,

‘हे मधुरभाषिणी, उठने का कष्ट न करो. नूपुरविरहित तुम्हारे चरणों को देखकर हमें दुःख हो रहा है. इस वार्तालाप के बीच ही उंगली पर यज्ञोपवीत लपेटे गौतम प्रवेश करता है. उसके मुख से प्रतीत हो रहा है कि वह अत्यंत कष्ट झेल रहा है.

धारिणी के पूछने पर वह बताता है कि आपसे मिलने के लिए आते हुए कम से कम पुष्प तो लेता जाऊँ, यह सोचकर प्रमद वन की बेल को हाथ लगाया ही था, कि सर्पदंश हो गया. सर्पदंश होने के कारण धारिणी जयसेना से गौतम को वैद्य ध्रुवसिद्धि के पास ले जाने के लिए कहती है, मगर गौतम तुरंत नाटक करते हुए महाराज से कहता है, ‘मेरी मृत्यु के बाद मेरी माँ का ध्यान रखें.’ तभी जयसेना यह कहते हुए आती है कि सर्प का विष उतारने के लिए वैद्य ध्रुवसिद्धि को सर्पमुद्रा वाली कोइ वस्तु या मुद्रिका चाहिए, जिसे वह उदक कुम्भ में डालेगा. धारिणी उसकी बात पूरी होने से पहले ही कहती है, ‘यह लो मेरी सर्पमुद्रा वाली  मुद्रिका. बाद में मुझे वापस लौटा देना.’

अर्थात्, यह सब गौतम ही महाराज के लिए कर रहा है. मालविका और बकुलवलिका को मुक्त करके गुप्त मार्ग से समुद्रगृह में भेजता है और महाराज अग्निमित्र से यह सब कहता है. महाराज अधीर-उत्सुक हैं, परन्तु मालविका भयभीत है. सत्य को वह मान्य नहीं कर पाती. विवाह के बिना संपर्क-स्पर्श-समागम की कल्पना से वह भयभीत है. प्रमद वन में अब मालविका अकेली है, भयभीत है. तब महाराज कहते हैं,

दाक्षिण्यं नाम बिम्बोहि नायकानाम् कुलवृत्तम् ।

तन्मे दीर्घाक्षी ये प्राणास्ते त्वदाशानिबंधना: ॥

           

  मालविका और महाराज एकांत में हैं. अद्याप महाराज की इच्छा पूरी नहीं हुई है. उसी समय गौतम को ढूँढते हुए इरावती अपनी सखी के साथ वहाँ आती है. और स्वप्न में खोया हुआ विदूषक एकदम चिल्लाता हैं, ‘सांप...सांप!’

महाराज अग्निमित्र यह संकेत समझ जाते हैं. वे मालविका के साथ समुद्रगृह से बाहर आते हैं. इरावती यह देखती है.

और बकुलवलिका को दिखाई देता है, कि उस सुवर्ण  अशोक पर पुष्प आ गए हैं. महारानी धारिणी ने मालविका को वचन दिया था, ‘यदि तुम्हारे लत्ताप्रहार से सुवर्ण अशोक पर फूल आ गए तो तुम्हारी इच्छा पूरी करूंगी.’

रानी इरावती  सब कुछ जान गई है, स्पष्ट था कि अब वह महारानी धारिणी के पास जायेंगी, परन्तु अब मालविका और महाराज की आशाएं पल्लवित हो गई है, क्योंकि सुवर्ण अशोक पर फूल आ गए हैं.

चतुर्थ अंक समाप्त करने के बाद कालिदास के ध्यान में आया कि अग्निमित्र की छवि केवल एक प्रणयी पुरुष की नहीं है, जो अनेक रानियों के सहवास के लिए आतुर है, अपितु वह पुरुषश्रेष्ठ, धैर्यवान, वीर्यवान, एक सुजागृत राज्यप्रशासक है. उसका एक साम्राज्य है, जिसका वह अधिकारी है. अब पांचवां अंक लिखते समय प्रेक्षकों के बीच उसकी केवल प्रणयी प्रतिमा ही प्रभावी न प्रतीत हो.

वे उठे. सायंकालीन भोजन के लिए भोजन कक्ष में न जाकर उन्होंने सेवक से कुछ गोरस और फलाहार लाने के लिए कहा. और उन्होंने पांचवें अंक का लेखन आरम्भ किया.   

दो दासियाँ परस्पर संवाद कर रही है, जिससे ज्ञात होता है कि अग्निमित्र के पिता पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य राजवंश के अंतिम राजा सम्राट बृहद्रथ मौर्य का वध किया और मौर्य वंश समाप्त हो गया. उसी सिंहासन पर पुष्यमित्र शुंग राज्याधिपति हो गया, अर्थात् मगधपति हो गया. राज्य ग्रहण करने के बाद उन्होंने प्रथम अश्वमेध यज्ञ की घोषणा की. और अग्निमित्र का पुत्र वसुमित्र उस यज्ञीय अश्व के साथ जाने वाला है. धारिणी अपने पुत्र के यश के लिए प्रतिदिन शत सहस्त्र मुद्राओं का दान कर रही है.

कालिदास पलभर को रुके. मालविका विदर्भ की राजकन्या है, यह बताने के लिए घटना-प्रसंग आवश्यक था. और उन्हें याद आ गया. अब नाटक के सुखान्त होने की संभावना समझ में आने पर वे मन ही मन प्रसन्नता से हँसे.

एक और वार्ता प्राप्त होती है. विदर्भ के राजपुत्र यज्ञसेन और माधवसेन में तीव्र वाद-विवाद होता है. अंत में अग्निमित्र से विनती की जाती है कि वे इस में बीच-बचाव करके न्याय करें. अग्निमित्र ने अपने शालक वीरसेन को ससैन्य भेजकर आवश्यक कार्य किया. उसी समय यह भी ज्ञात होता है कि कुछ दास-दासियों को पकड़कर धारिणी के पास भेजा गया है. उनमें मालविका है. और अब धारिणी, इरावती और महाराज को ज्ञात होता है कि वह विदर्भ की राजकन्या है. और पंडिता कौशिकी भी विदर्भ की ही है.

महारानी स्वभाव से क्रोधी होते हुए भी उसे कर्तव्य का ज्ञान है. महाराज अग्निमित्र से वह बहुत प्रेम करती है. उसे ज्ञात है कि राजपुरुषों को बहुपत्नीत्व क्षम्य है. इतना ही नहीं अपितु यह पुरुषार्थ और राज्यों को जोड़ने का एक व्यवहार भी है.   

यह सब सोचकर वह जयसेना को दुशाला लाने के लिए कहती है. महाराज अग्निमित्र और मालविका के स्कंधों पर डालकर कहती है. ‘आर्यपुत्र, अब इसे स्वीकार करें. महाराज भी अत्यंत प्रसन्नता से मालविका को स्वीकार करते हैं.

अपेक्षा के अनुसार सब कुछ मंगलमय होता है. और अश्वमेध यज्ञ के अश्व के सकुशल मगध पंहुचने पर वे सब अश्वमेध यज्ञ के लिए मगध को प्रस्थान करते हैं.

कालिदास लेखनी नीचे रखकर दीर्घ नि:श्वास लेते हैं. यह हमारी पहली ही नाट्य कृति है, इसमें त्रुटियाँ भी हो सकती हैं. परन्तु सम्राट के आदेश देने के कारण लिखी तो गई है. हममें लेखनकला है, यह आविष्कार हुआ था. परन्तु नाट्य निर्मिती भी हम कर सकते हैं, यह पता चलने से और नाटक पूरा होने के कारण कालिदास भोजपत्रों को इकट्ठा करके, उन्हें वस्त्र में लपेट कर उठे और सम्राट को यह आनंद वार्ता देने के लिए निकले.

दालान से बाहर पाँव रखते ही समय का अनुभव हुआ, जिसकी ओर उन्होंने अब तक ध्यान ही नहीं दिया था. आधी रात हो गई थी. वे फिर से दालान में आये. सर्वांग में आनंद हिलोरें ले रहा था.

 

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