Saturday, 21 January 2023

Shubhangi - 47

 

कालिदास आज अपने कक्ष में निश्चिंत थे. राजकुमारी प्रभावती का विवाह समारोह अति भव्यता से संपन्न हुआ. परम्परा के अनुसार सम्राट चन्द्रगुप्त महारानी के साथ उन्हें बिदा करने आये थे. वे उसे विदर्भ के नगरधन तक पहुंचाना चाहते थे, परन्तु उन्होंने शंकू और कालिदास से कहा,

“ससैन्य वीरसेन और वीरभद्र के साथ आप भी जाएँ, इससे हमें ऐसा प्रतीत होगा कि हम स्वयं ही गए हैं.”

पिछले छह महीनों से अति व्यस्तता के कारण कालिदास नगर के पश्चिम में स्थित मधुवंती के प्रासाद में भी नहीं जा पाए थे. और फिर विवाह के पश्चात्  राजकुमारी प्रभावती को विदर्भ तक पहुँचाने का सम्राट का आदेश. अंत में उन्होंने एक पत्र लिखा :

‘प्रिय सखी, तुमसे मिलने के लिए अधीर-उत्सुक होते हुए भी हम नहीं आ सकते. यदि गृहपति होते तो आसानी से स्वगृह आ जाते. समाजमान्य गणिका होते हुए भी, हमें अभी भी संध्या समय ही उचित लगता है. मधुवंती, दिन में भी तुम्हारे नाम से हमें चन्द्रमा की शीतलता का अनुभव होता है, और सुगन्धित रात का स्मरण हो आता है. दिन भी प्रसन्न होता है, केवल तुम्हारे कारण.

विवाह की तैयारियां, नाट्यलेखन, उसके सादरीकरण में छह महीने बीत गए. फिर भी एक बार जब हम अति अस्वस्थ थे तो तुम्हारे पास आये ही थे, और नवचेतना लेकर लौटे थे.

आज विवाह संपन्न हुआ. कल प्रातःकाल महाराज रुद्रसेन अपनी सेना के साथ प्रस्थान करेंगे, हम भी शंकु के साथ और सेनाधिकारियों वीरसेन और भद्रसेन के साथ सेना सहित राजकुमारी प्रभावती को विदर्भ के नगरधन तक छोड़ने जायेंगे. हम शीघ्र वापस लौटने का प्रयत्न करेंगे, तब तक कोई उपाय नहीं है. ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हमें बार-बार जाना होगा. अब राजकुमारी प्रभावती सम्राट की प्रिय कन्या हैं, और हम उनके प्रियजन – अत: इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.

अस्तु! मधुवंती, तुम अनेक कलाओं में प्रवीण हो, वे ही कलाएँ अब तुम्हारी सखियाँ हैं, और सखा है हम पर तुम्हारा विश्वास. अधिक व्रत-अनुष्ठान न करना. कृशकामिनी हमें आनंद नहीं देगी. अर्थात्, हम स्वार्थी हैं! आते हैं हम – अविलम्ब!’ 

परन्तु स्वागत-सत्कार में तीन माह बीत गए थे. महाराज रुद्रसेन इतने अधिक स्वागतशील और उत्साही होंगे, ऐसी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. सम्राट चन्द्रगुप्त की ही भाँति उन्हें बोलने और सुनने में रस था. उन्हें मृगया प्रिय थी, वायु गति से अश्व दौड़ाना भी प्रिय था. उन्हें शास्त्रार्थ और संगीत भी प्रिय था. जब जब कालिदास कहते, “अब हम स्वदेश जायेंगे,” वे कहते, “कवि कालिदास, कन्या दी है ना विदर्भ में? अब विदर्भ भी आपका ही है. इतनी जल्दी किसलिए?

एक दिन उन्होंने विद्वानों को आमंत्रित करके शास्त्रार्थ के स्थान पर एक विचारधारा प्रस्तुत की‘भारत – एक समृद्ध ज्ञानकोश’. और दो दिनों के लिए आयोजित की गई यह ज्ञान सभा दस दिनों तक चलती रही. वैदिक, आदिवैदिक काल से सभी शास्त्रों के बारे में एक-एक वक्ता विचार प्रस्तुत कर रहा था. कालिदास ने आभार प्रदर्शन करते हुए कहा था,

“आदिवैदिक काल के शास्त्र-अभ्यास, ऋचा और वेद लिखने वाले ऋषि, और अनेक संशोधक ऋषियों के बारे में, सिन्धु संस्कृति के बारे में, नालंदा के बारे में, तक्षशिला के बारे में बोलने के लिए अनेक विद्वान यहाँ उत्साहपूर्वक आये और अभ्यासपूर्वक उन्होंने अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया . हम पुन: उसी काल में चले गए. सरस्वती आश्रम में यह सारा ज्ञान हमने आत्मसात किया था, परन्तु दर्पण को भी स्वच्छ करना पड़ता है, वैसे ही आपने यह ज्ञान का दर्पण दिखाया.

अनेक बार शास्त्रार्थ में हम भी  बोले हैं, परन्तु यहाँ हम नए थे, और यह भी संभव है कि ज्ञान पर परतें जम गई हों. और बिना पूर्व तैयारी के बोलना हमें कदापि मान्य नहीं था.   

हम मन:पूर्वक महाराज रुद्रसेन के आभारी हैं, जिन्होंने हमें इस सभा का समापन करने का अवसर दिया.”

कितनी ही घटनाओं का स्मरण हो आया था. अनेकविध व्यंजन आग्रहपूर्वक परोसे जा रहे थे. लोग मन से निर्मल थे. घनश्याम प्रदेश था, हरियाली का सिंगार किये हुए. वैसे वे प्रसन्न थे.

परन्तु रात होते ही सम्राट चन्द्रगुप्त के साथ क्षिप्रा तट पर हुए संभाषण याद आते, और रात गहराने पर मन में मधुवंती प्रवेश करती. रात उन सुखद स्मृतियों से महकने लगती, कभी वेदवती का स्मरण होता, तो कभी सरस्वती देवी से जाकर मिलने की इच्छा होती. स्वदेश से दूर होने पर सारी स्मृतियाँ मधुमक्खियों के समान मन पर धावा बोल देती हैं.

आखिरकार दो माह पश्चात विदर्भ की सुखद स्मृतियाँ लेकर सुबह वापस लौटे थे. और अपने कक्ष में निश्चिन्त बैठे थे. उनके आने की वार्ता उनके पहुँचने से पूर्व ही पहुँच गई थी. अपने घर वापस आने का और मधुवंती से अब मिलना सहजता से होगा, इसी आनंद को लेकर वे माध्याह्न के पश्चात राजसभा में पहुंचे. उनकी उपस्थिति से सबको, विशेषत: सम्राट चन्द्रगुप्त को बहुत आनंद हुआ. विदर्भ में वाकाटकों की राज्यव्यवस्था, अर्थव्यवस्था, रणनीति, परस्पर संबंध और समाज व्यवस्था के बारे पहले ही महामंत्री, कालिदास, सेनापति वीरभद्र बता चुके थे. परन्तु एक सप्ताह वहाँ रहकर सुनी-सुनाई बातों का वर्णन करना और अब प्रत्यक्ष वहाँ रहकर अपने अनुभव से वर्णन करना अलग बात थी. परन्तु इस समय उनकी कन्या कैसी है, दामाद कैसे हैं, रुद्रसेन के बारे में कैसा अनुभव हुआ, यह सब सम्राट जानना चाहते थे. परन्तु स्वयँ पर संयम रखते हुए उन्होंने पूछा,

“कालिदास, प्रात:काल शंकु आकर सब कुछ निवेदन कर चुके हैं. अब आप बताएँ, कैसे हैं महाराज रुद्रसेन?

कालिदास हँसे. उनके मन में आया, सम्राट पूछना चाहते हैं कि हमारी कन्या कैसी है? परन्तु यद्यपि राजसभा में व्यक्तिगत विषय वर्ज्य नहीं थे, फिर भी संयमित सम्राट ने यही बात पूछी.

“महाराज, इस समय बस इतना ही बताना चाहते हैं कि आपकी कन्या जिस ब्राह्मण कुल के वाकाटक वंश में दी गई है, उनका विदर्भ प्रदेश सुजलाम, सुफलाम्, अगत्यशील और विनयी प्रदेश है. वहाँ के परिजन उत्साही, आग्रही और कलाप्रिय हैं. उनकी राज्यव्यवस्था की विशेषताएं हम आपको बताएँगे ही, परन्तु आज सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि आपकी कन्या, राजकुमारी प्रभावती देवी को अत्यंत उत्तम पति प्राप्त हुआ है. वह अत्यंत प्रसन्न हैं, उन्होंने आपके लिए जो उपहार भेजे हैं, उन्हें आपके राजप्रासाद में भिजवा दिया है.”

“परन्तु हमारे लिए आप स्वयँ क्या लाये हैं? 

“एकसंध हिन्दू राष्ट्र के संघटक और उत्तर, पश्चिम तथा दक्षिण प्रदेशों तक जिनका साम्राज्य है, जिनका कोषागार परिपूर्ण है, जो सुवर्णकाल के पदचिह्नों पर वर्त्तमान में चल रहे हैं, ऐसे सम्राट चन्द्रगुप्त को हम क्या दे सकते हैं? या, श्रीकृष्ण से मिलने के लिए जाते हुए साथ में मुट्ठी भर चावल लाकर उन्हें छुपा रहे हैं, क्या ऐसा सोच रहे हैं, महाराज?

“श्रीकृष्ण से हमारी तुलना ही हमारे लिए सबसे बड़ा उपहार है. परन्तु वे चावल तो दिखाएं.”

राजसभा में हंसी गूँज गई. कालिदास ने पूछा,

“आपको हमसे किस बात की अपेक्षा थी? हीरे, जवाहिरात या चावल?

“हमें आपकी अपेक्षा थी. आप मिल गए. अधिक कुछ नहीं चाहिए.”

“अधिकस्य अधिकम् फलम्. हम अपने साथ कुछ फल लाये हैं. आप सचमुच में, उन्हें खाकर देखें. राजसभा में हरेक को दें. इन फलों को खाकर सैनिक युद्ध करना भूल जायेंगे.”

“अहो आश्चर्यम्! यह वेताल भट्ट की कोई काल्पनिक कथा तो नहीं?”

कालिदास के सेवक ने एक-एक नारंगी रंग का फल प्रत्येक को दिया. राजसभा में ऐसा पहली बार हो रहा था. माध्याह्न के पश्चात् ही कभी-कभी व्यंग्य-विनोद होता था.

हरेक ने उन फलों को लिया.

“बस, यही लाये हैं हमारे लिए?

“महाराज, ये तो सुदामा के चावल हैं. सबके लिए. श्रीकृष्ण ने ऐसा नहीं पूछा था.”

एक बार फिर सभा में हंसी गूँज गई.

सभा समाप्त हो गई थी. महाराज जाते-जाते पल भर को कालिदास के पास रुके, “कल शाम को हमसे मिलें, और आज....,” उनके अधूरे वाक्य के अर्थ को कालिदास संदर्भसहित समझ गए. वे कहना चाहते थे, मिलना चाहते थे सम्राट से, अपनी नाट्य कृति ‘विक्रमोर्वशीय सम्राट को अर्पण करना चाहते थे. इसके बाद ही वे मधुवंती से मिलना चाहते थे.

सम्राट के पीछे पीछे जाते हुए उन्होंने पूछा,

“महाराज, यदि हम आज आयें तो...”

“अवश्य आयें.”

सम्राट राजसभा के दालान से बाहर निकले और सभा समाप्त हुई.

***

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