संध्या की सुनहरी किरणें क्षिप्रा के जल में विहार के लिए उतरी थीं. मंदिर की सायं-आरती के लिए अभी बहुत समय था. सम्राट सायं आरती के समय आते हैं. परन्तु कालिदास अधीरता से उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे, कब सम्राट के हाथों में अपनी नाट्यकृति दूँगा ऐसा उन्हें लग रहा था. व्यक्ति चाहे आयु से प्रगल्भ हो जाए, परन्तु एक शिशु की उत्सुकता सदैव उसके मन में रहती है, यही सत्य है. अस्वस्थ मन से वे सम्राट की प्रतीक्षा कर रहे थे. वैसे रथ में आने वाले सम्राट आज अश्वारूढ़ होकर आये थे. कालिदास ने आगे बढकर रज्जू हाथ में लिए और वृक्ष से बाँध दिए. सम्राट प्रसन्नता से हँसे.
“कालिदास, इतिहास में ही
नहीं, अपितु
वर्त्तमान में भी कोई सम्राट किसी से इस प्रकार मिलने नहीं जाता होगा, जैसे प्रियकर
प्रेयसी से मिलने जाता है, है ना?” कालिदास दिल
खोलकर हंसे.
“महाराज, माध्याह्न में
राजसभा में आपने पूछा था ना, कि आपके लिए क्या भेंट लाया हूँ? हम भेंट लाये
है, महाराज...” वे
भोजपत्रों को रेशमी वस्त्र में लपेट कर लाये थे. सम्राट के हाथों में उन्हें रखकर
उन्होंने उस वस्त्र को खोला और आवरण पृष्ठ पर अत्यंत सुन्दर सुनहरे अक्षरों में
लिखा था,
॥ विक्रमोर्वशीय॥
‘आर्यावर्त की
सम्पूर्ण दिशाओं के स्वामी, पृथ्वीपति, सकलगुणमंडित
सम्राट चन्द्रगुप्त को यह नाट्यकृति सादर समर्पित.’
सम्राट चन्द्रगुप्त गद्गद् हो गए.
कालिदास के स्कंध पर हाथ रखकर उन्होंने कहा,
“हमारे नाम के साथ उर्वशी जोड़कर हमें
संकट में तो नहीं ना डाल रहे हैं? आपकी समर्पण की भावना से हम गद्गद् हो गए हैं.
इस समय हमने एक निर्णय लिया है, आपके विवाह का.”
कालिदास ने तत्परता से कहा,
“हमें अभी विवाह के विषय में रूचि
नहीं है. उस पर विचार करते समय सबसे पहले हम आपको बताएँगे. परन्तु अभी नहीं...आप
यह नाट्यकृति पढ़ें.”
“कालिदास, इस नाट्य कृति
का सादरीकरण होना चाहिए. आप हमें विक्रम और उर्वशी कैसे जुड़े, इस बारे में
संक्षेप में बताएँ. क्योंकि पुरूरवा और उर्वशी की कथा हमें ज्ञात है.”
“महाराज, आपमें हमने अत्यंत
पराक्रमी सम्राट पुरूरवा को देखा, इसलिए विक्रमी पुरूरवा न लिखते हुए हमने शौर्य
और सौन्दर्य के प्रतीक के रूप में लिखा विक्रम और उर्वशी.”
“अब हमें कथा सुना ही दें.”
सम्राट उनके नित्य के शिलाखंड पर
बकुलवृक्ष से टिक कर बैठे थे. बिलकुल निश्चिन्त. कालिदास ने रेशमी वस्त्र हटाकर
भोजपत्र हाथ में लिए.
“संक्षेप में सुनाएं ना?”
“अब हमें उत्कंठा है. पूरी सुनाएं.
उर्वशी–पुरूरवा की कथा नए सिरे से श्रवण करेंगे.”
सम्राट के ऐसा कहने पर भी कालिदास ने
संक्षेप में कथा सुनाना आरंभ किया. इस समय उन्होंने सावधानी से ‘मालविकाग्निमित्र’
में रह गई त्रुटियों को दूर किया था. इस बार विदूषक अलग प्रकार का था. कलाकारों की
संख्या कम थी. इतना ही नहीं, बल्कि चौथे अंक में महापराक्रमी पुरूरवा को
रंगमच में विरही के रूप में दिखाया गया है, उसके साथ अन्य कोई भी नहीं है. और उन्होंने पूरी
तरह से संतुलित नाट्य कृति की रचना की थी. किसी एक व्यक्ति के पास अनेक प्रकार का
शास्त्र ज्ञान होता है, वैसा ही हमारे पास भी है. परन्तु संयमित, सुन्दर, प्रवाहपूर्ण, प्रासादिक और
नादमधुर लेखन करने वाला ही श्रेष्ठ होता है. यह ध्यान में रखकर उन्होंनें इस कृति
की रचना की है.
“महाराज, हम कथन करेंगे, परन्तु एक
विनती है – जो भी त्रुटिपूर्ण प्रतीत हो, वह हमें अवश्य बताएँ. इस नाट्यकृति को उत्तम
बनाने का हमने प्रयत्न किया है.” सम्राट ने ‘हाँ’ कहा.
“अवश्य...अवश्य...! अब प्रारम्भ
करें.”
वेदांतेषु यमाहुरेकपुरुषं व्याप्त स्थितं रोदसी।
यस्मिन्नीश्वर इत्यनन्यविषय: शब्दोयथार्थाक्षर:॥
अंतर्यश्च मुमुक्षुभिर्नियमितप्राणादिभिमृग्यते।
सस्थाणु: स्थिरभक्तियोग सुलभो नि:श्रेयसायास्तु व:॥
“वेदों ने एकमेव ऐसे पुरुष का वर्णन
किया है, जो
पृथ्वी और आकाश में सर्वत्र व्यापक रूप से विद्यमान है. उसीका नाम ईश्वर है. उसी
नाम में वह सिद्ध है. मोक्षार्थी उसे प्राणायाम से प्राप्त करते हैं. भक्ति और योग
से वह सहज प्राप्त होता है. ऐसे शिव को वंदन.”
“कालिदास, अपनी लोकभाषा संस्कृत होने
से जब हमें कोई संदेह होगा, तब हम
अर्थ पूछेंगे.” संस्कृत पंडित सम्राट को हम अर्थ बताएँ, यह ऐसा ही
होगा जैसे ज्योति तेज की आरती करे. वे केवल हँस दिए.
“महाराज, इस नाटक का
आरम्भ सूत्रधार और नटी के मध्य हो रहे वार्तालाप के बीच नेपथ्य से ‘रक्षितं! रक्षितं!”
की आवाज़ से होता है. उसका कारण स्पष्ट होता है इस प्रकार. स्वर्ग की रंभा, मेनका और कुछ
अप्सराओं का यह आक्रोश है. क्योंकि उर्वशी और उसकी सखी चित्रलेखा जब कुबेरभवन से
लौट रही थीं, तब
केशी नामक दैत्य ने उनका अपहरण कर लिया था.
उसी समय पुरूरवा सूर्य को अर्ध्य
देकर वापस लौट रहा था, वह
त्वरित रथारूढ़ होकर वहां आता है. अप्सराएं कहती हैं, “दैत्य केशी से हमारी सखी को मुक्त
करें.” वीर्यवान पुरूरवा कहता है, “आप हेमकूट पर हमारी प्रतीक्षा करें. हम आपकी
सखी को लेकर आते हैं.” मेनका उसके शौर्य का वर्णन करती है.
“सत्य है, कालिदास. जब जब भी देवताओं
को युद्ध में आवश्यकता हुई,
पृथ्वी लोक के सम्राट ही उनके साथ सहकार्य किया करते थे,” सम्राट चन्द्रगुप्त ने
कहा.
और उर्वशी की सखियों को शुभ संकेत
प्राप्त होते-होते पुरूरवा का सुवर्ण रथ पहुँच चुका होता है. भयभीत उर्वशी उसमें
अपनी सखी के हाथ पर नेत्र मूंदे बैठी है. पुरूरवा कहता है,
“अति सुन्दर! प्रात:काल होने पर जैसे
कमलिनी अपने नेत्र खोलती है, वैसे नेत्र तुम खोलो.”
कालिदास पढ़ ही रहे थे.
“कुछ समय बाद उर्वशी शांत होती है और
पुरूरवा को उसकी जन्मकथा का स्मरण होता है.
नारायण ऋषि की साधना को भंग करने के
लिए कुछ अप्सराएं तपोवन में जाती हैं. तब वे अपनी जंघा पर एक अलौकिक युवती का
चित्र बनाते हैं. वही है उर्वशी. ऋषि की जंघा पर बने चित्र से उसका निर्माण होना
असंभव था. यह तो कामदेव की रचना है.”
“हमने भी यह कथा सुनी है. समूचे
विश्व के स्त्री-सौन्दर्य को एकत्रित करके उसका निर्माण होने की वह कथा है.”
“परन्तु महाराज, हमें ऐसा
प्रतीत होता है, कि
शरद ऋतू के चन्द्रमा में ही यह सामर्थ्य है. श्रृंगार जिसका एकमेव विषय है, ऐसे मदन की ही
वह कन्या होगी. या वसन्त ऋतू ने ही उसे जन्म दिया होगा.”
हेमकूट पर्वत पर उर्वशी की
अप्सरा-सखियाँ मिलती हैं. वे पुरूरवा के शौर्य का वर्णन करती हैं. सौन्दर्य तो
देखते ही दृष्टिगोचर होता है, उसे मन से यह वीर पुरुष अत्यंत प्रिय लगता है.
तभी वहाँ चित्ररथ गन्धर्व आता है.
स्वर्ग में यह वार्ता पहुँच गई है. गन्धर्व चित्ररथ पुरूरवा से कहता है कि इन्द्रदेव ने उसे स्वर्ग
में आमंत्रित किया है. परन्तु पुरूरवा, ‘आज नहीं, फिर कभी,’ कहकर इनकार करता है. उस समय चित्ररथ अप्सराओं
से कहता है कि ‘पुरूरवा ने केशी जैसे दैत्य को पराजित किया है, इन्द्रदेव प्रसन्न
हैं.’
तब पुरूरवा कहता है, “आप अकारण ही
हमारी स्तुति कर रहे हैं,
वस्तुत: यह इन्द्रदेव के पराक्रम का ही विजय है. हम तो सर्वसामान्य हैं. अब यदि
उदाहरण ही देना हो तो, जब
वनराज सिंह की गर्जना गिरी-कंदराओं में घूमती है तो सभी प्राणी भयभीत हो जाते
हैं.”
“कालिदास, उदाहरण उत्तम
है, वास्तविक है,”
सम्राट ने कहा.
उर्वशी अप्सराओं के साथ पीछे देखते
हुए जाने लगती है, और
उसके गले की वैजयंती माला एक वृक्ष की शाखा में फंस जाती है. चित्रलेखा भी माला
निकालने में असमर्थ है. मगर पुरूरवा मन ही मन प्रसन्न हो जाता है – कुछ अधिक समय
उर्वशी के सौन्दर्य का दूरस्थ सहवास वह प्राप्त कर सकेगा. चित्रलेखा वृक्ष की शाखा
से माला निकालती है. पुरूरवा रथ में बैठता है. उर्वशी सोचती है कि क्या इस वीर
पुरुष का दर्शन फिर कभी होगा? और जब वह आकाशमार्ग से जा रही होती है, तो पुरूरवा भी
मन ही मन कहता है,
‘कामदेव भी दुर्लभ ऐसी कामिनी के
प्रति अकारण अभिलाषा उत्पन्न करते हैं.’
और यहाँ प्रथम अंक समाप्त होता है.
“कालिदास, यह
मालविकाग्निमित्र की अपेक्षा अधिक रोचक बन पडा है. क्या इसमें विदूषक नहीं है?”
“बिल्कुल है. परन्तु यद्यपि वह चतुर
है, फिर भी खाद्य
व्यंजनों का भोक्ता है. इसलिए द्वितीय अंक के आरंभ में ही वह दिखाई देता है. कहता
है, “खीर खाकर पेट
इतना भर जाए कि उसके कारण अस्वस्थ, अशांत हो जायें, उसी प्रकार मैं उर्वशी के
प्रेम में आकंठ डूबे हुए महाराज द्वारा कथन किये गए कथानक में डूबा हुआ हूँ. कह भी
नहीं सकता और छुपा भी नहीं सकता. वह देवच्छन्दक महल में अकेला बैठा है. तभी वहाँ
निपुणिका आती है. उससे महारानी ने कहा है, कि आजकल महाराज उदास दिखाई देते हैं, उनके प्रिय
सखा, विदूषक माणवक से पूछ. औशिनरी महारानी का यह काम कैसे करे, यह विचार उसके
मन में है.
स्वाभाविक ही है. अब पुरूरवा का मन
उर्वशी के पास होने से उसकी संवेदनाएं भी उसीके साथ चली गई हैं. अब पुरूरवा के मन
में अमावस का अन्धकार है, और
शरीर में है कौंधने को तत्पर सौदामिनी.
दासी निपुणिका अब विदूषक को ढूँढती
हुई देवच्छंदक महल के निकट पहुँच गई है. विदूषक की अवस्था कुछ ऐसी है जैसे उदर से
अन्न बाहर निकले बिना चैन नहीं पडेगा. अंत में माणवक उर्वशी का रहस्य बता देता है
जो पुरूरवा ने उसे बताया था, और यह भी कहता है कि वह इस बारे में किसी को भी न
बताये.
निपुणिका के जाने के बाद पुरूरवा
विमनस्क अवस्था में आता है. माणवक अब स्वस्थ है, परन्तु पुरूरवा अस्वस्थ मन से पूछता
है, “हमारा प्रेम
रहस्य गोपनीय है ना?” तब
सच न बताते हुए माणवक अन्य विषयों पर बातें करने लगता है. पुरूरवा कहता है, नींद आये इसके
लिए प्रयत्न करता हूँ,
परन्तु नींद ही खो गयी है, अत: स्वप्न
में भी उससे मिलना असंभव ही है...”
“वा...वा...कालिदास! आपकी ये
पंक्तियाँ हमें प्रिय लगीं.”
कालिदास पढ़ने में मग्न थे. उन्होंने
पूछा, “कौन
सी पंक्तियाँ?”
माणवक पुरूरवा को प्रमदवन लेकर जाता
है, परन्तु वहाँ
भी उसे वृक्ष और लता की प्रीति ही दिखाई देती है.
उसी समय चित्रलेखा के साथ उर्वशी
आकाशमार्ग से पृथ्वी पर आ रही है. पुरूरवा के मन में मदन द्वारा उत्पन्न किया गया
अग्नि है, उसी
अगन में उर्वशी भी जल रही है. वे दोनों बातें करते हुए यमुना के तीर पर स्थित
पुरूरवा की राजधानी – प्रतिष्ठापुर पहुँचती हैं. उन्हें ज्ञात होता है कि कामज्वर
से ग्रस्त पुरूरवा प्रमद वन में है. दोनों तिरस्करणी विद्या का प्रयोग करने के
कारण अदृश्य स्वरूप में हैं. वे सुनती हैं. माणवक कहता है, “महाराज, या तो आप सो
जायें, जिससे
स्वप्न में उर्वशी से भेंट हो जाए, या फिर चित्रफलक पर उसका चित्र बनाकर उसे एकटक
देखते रहें.”
“मित्र विदूषक, हमारी स्थिति
से तुम अनभिज्ञ हो. ये दोनों ही बातें नहीं हो सकतीं. मन इतना दुखी है कि नींद आ
ही नहीं सकती, और
आंखों में बार-बार आंसू आने के कारण चित्र का पूरा होना भी असंभव है.”
अदृश्य रूप में चित्रलेखा ने उर्वशी
से कहा, “सुनो, सखी, महाराज
की क्या अवस्था हो गई है!” उर्वशी के मुख से दु:खोद्गार निकलता है, “हा धिक्! हा
धिक्! अप्सरा-देवांगना होने के कारण मैं कुछ कर भी नहीं सकती. परन्तु भोजपत्र पर
अपनी व्यथा तो लिख सकती हूँ! और वह भोजपत्र पर अपनी प्रणय अवस्था और असहायता प्रकट
करती है. जब यह पत्र पुरूरवा के हाथों में आकर गिरता है, तो विरह व्यथा
में भी आनंदित होकर वह विदूषक से कहता है,
“ऐसा प्रतीत होता है, जैसे हम दोनों
आमने-सामने खड़े होकर बातें कर रहे हैं, कहीं पत्र मेरी उँगलियों के पसीने से गीला न हो
जाए, इसलिए
इसे तुम रखो.”
पत्र देकर भी उर्वशी महाराज से मिलने
के लिए अत्यंत आतुर है, वह
तिरस्करणी विद्या दूर करती है और कहती है, ‘जय हो, सम्राट!’
पुरूरवा आनंद से कहता है,
“मया नाम जितं यस्य त्वयायं समुदीर्यते।
जयशब्द: सहस्त्राक्षाद्गत: पुरुषांतरम् ॥
“हे
सुन्दरी, ‘जय’ शब्द का प्रयोग आज
तक केवल इन्द्रदेव के लिए किया गया है, आज हमारी ‘जय’ कहने से हम वास्तव में विजयी हुए हैं.”
महारानी
औशिनरी दासी निपुणिका के साथ प्रमदवन में आई हैं. उस समय बातों की धुन में सम्राट
पुरूरवा के हाथ से उर्वशी का पत्र फिसल कर महारानी के चरणों के पास आकर गिरता है.
वह उस पत्र को उठाती है. पढ़ती है और सखी निपुणिका से कहती है, “हमारा संदेह सत्य
था. महाराज प्रीति के जाल में उलझ गए हैं.” वह प्रमद वन में आती है. चित्रलेखा और
उर्वशी तिरस्करणी विद्या का उच्चार करके अदृश्य हो जाती हैं, और महारानी को सारी
बात ज्ञात हुई देखकर पुरूरवा उसे मनाने का प्रयत्न करता है,
अपराधी नामाहं
प्रसीद रम्भोरू विरम संरम्भात।
सेवो जनस्य
कुपित: कथं नु दासा: निरपराध:॥
परन्तु महाराज की विनती न
सुनकर महारानी निकल जाती है और यहाँ दूसरा अंक समाप्त होता है.
सम्राट बड़े ध्यान से सुन रहे
थे. कालिदास ने पूछा,
“महाराज, रात्रि का प्रथम प्रहार आरंभ हो गया है. आप भोजन के लिए प्रासाद में
चलें.”
“कालिदास, हमारे सम्मुख स्वर्गीय सौन्दर्य के होते हुए हम अपने उदर की चिंता करें, या आगे क्या होने वाला है इसकी चिंता से व्याकुल हों? सामने क्षिप्रा में आकाश का प्रतिबिम्ब देखें या शयनकक्ष में औशिनरी का
मुख चन्द्रमा देखें?”
कालिदास दिल खोलकर हँसे. यह
स्थिति ऐसी थी कि एक कवि दूसरे कवि का साथ दे रहा हो. वातावरण सुरम्य था. सम्राट
ने आगे पढ़ने का संकेत किया.
“महाराज...आप शिलाखंड पर
हैं...कहीं आप ...”
“नहीं, नहीं, हम स्वस्थ हैं, मन भी
स्वस्थ और आतुर है.”
तीसरा अंक आरम्भ होता है, तब गालव और भरत के दो शिष्यों के बीच संवाद से ज्ञात होता है कि जब
स्वर्ग में ‘लक्ष्मी स्वयंवर’ नाट्य कृति को सादर किया गया
तो उर्वशी बनी थी लक्ष्मी और मेनका – वारुणी. उस नाटक में वारूणी लक्ष्मी से पूछती
है, ‘यहाँ विष्णु सहित अनेक देव और लोकपाल उपस्थित हैं.
तुम्हें कौन प्रिय है?’ तब वह अनजाने में कहती है, ‘ततस्थता पुरुषोत्तमे इति भगितव्ये पुरूरवसीती तस्या निर्गता वाणी.’ उसे
भरत मुनि ने जो वाक्य दिया था, उसमें पुरूषोत्तम के स्थान पर
वह पुरूरवा कहती है. तब भरत मुनि ने उसे शाप दिया कि अब तुम स्वर्ग में नहीं रह
सकतीं. परन्तु देवेन्द्र उसका सांत्वन करते हुए कहते हैं, कि
पुरूरवा ने अनेक बार युद्ध में हमें सहकार्य प्रदान किया है. तुम उससे एक पुत्र
होने तक उसके साथ रहो और फिर स्वर्ग में वापस आओ.”
“कालिदास, यह उत्तम कल्पना है.
इससे उर्वशी के मन की इच्छा सहज ही पूरी हो गई.”
प्रमदवन में उर्वशी का पत्र मिलने से
महारानी पुरूरवा पर क्रोधित है. परन्तु उसकी भी पुरूरवा पर उत्कट प्रीति होने से
वह व्रत करती है और व्रत पूर्ण होने पर पुरूरवा को आमंत्रित करती है.
“सम्राट, यहाँ ऋतु वर्णन
है,” कालिदास ने
कहा.
“नहीं, नहीं...आप जितने अच्छे निसर्ग कवि
हैं, उससे
भी बढकर श्रृंगार कवि हैं. अभी हमें निसर्ग की अपेक्षा पुरूरवा-उर्वशी ही प्रिय
हैं. आप उनके बारे में ही कथन करें.”
पुरूरवा महारानी के महल में जाता है.
व्रतस्थ महारानी अत्यंत सात्विक प्रतीत होती है, पुरूरवा उसे ‘आएं, देवी’ कहकर संबोधित
करता है. तब स्वर्ग से पृथ्वीलोक आ रही उर्वशी और चित्रलेखा यह प्रसंग देखती हैं.
इंद्राणी जैसी सुन्दर,
सात्विक स्त्री के लिए ‘देवी’ संबोधन उचित है. महारानी औशिनरी कहती हैं,
“आर्यपुत्र, आज मैं रोहिणी
और चन्द्रमा को साक्षी मानकर आर्यपुत्र को प्रसन्न कर रही हूँ. आज से आर्यपुत्र जिस किसी स्त्री
की कामना करेंगे, और जो
भी स्त्री आर्यपुत्र की पत्नी बनना चाहेगी, उसके साथ मैं सदा प्रेम पूर्वक व्यवहार करूंगी.”
“उत्तम, कालिदास.
स्त्रियाँ प्रथम अपने अधिकारों के लिए क्रोधित होती हैं, और फिर उनके
सुख के लिए व्रत करती हैं. यहाँ तो औशिनरी ने एक आदर्श ही निर्माण किया है. स्त्री
के इस गुण का आपने योग्य दर्शन प्रस्तुत किया है. अभिनन्दन!”
“महाराज, रात अब गतिमान
हो चली है. आप उठें...और...अश्व भी थक गया है.”
“आपको हमारी चिंता, रात की चिंता, अश्व की चिंता, भोजन की
चिंता...हमें केवल एक ही चिंता है कि पुरूरवा और उर्वशी का मिलन कैसे होगा. आप
संक्षेप में ही कह रहे हैं, इसलिए
अधिक समय नहीं लगेगा, कथन
करें.”
पुरूरवा महारानी पर प्रसन्न है, परन्तु वह
कहती है,
‘जितना संभव था, उतना
किया.’ कुछ समय पश्चात औशिनरी चली जाती है. उसके जाने के बाद उर्वशी और चित्रलेखा
प्रकट होती है.
लावण्यवती उर्वशी ने पुरूरवा के लिए
अधिक ही श्रृंगार किया है. चित्रलेखा पुरूरवा से कहती है, अब वसन्त ऋतू है, ग्रीष्म काल
में मेरा यहाँ रहना संभव नहीं, अत: मेरी सखी को प्रेम से संभाले.”
रात गतिमान हो चली है, विदूषक माणवक
कहता है, ‘अब
आप दोनों विश्रान्ति के लिए जाएँ. हम चित्रलेखा को बिदा करके आते हैं.’
और तीसरा अंक समाप्त होता है. निसर्ग
वर्णन छोड़कर हमने कथन किया है, क्योंकि आपने ही ऐसा कहा है. और रात आगे बढ़ रही
है.”
“आपको रात की इतनी चिंता क्यों है? कहीं आपको
अपनी उर्वशी के पास तो नहीं जाना है?”
“नहीं, महाराज, ऐसा विचार भी
नहीं है. केवल आपके स्वास्थ्य के लिए.”
“कालिदास, जब हम युद्ध
पर जाते हैं, तो
अगले दिन के आयोजन के विचार से नींद नहीं आती. अब भी हमें मगध जाना है, अगले सप्ताह.
शकों का उपद्रव फिर बढ़ गया है. बात ये है कि युद्ध करना मनुष्य का स्वभाव ही है.
कभी वह मन में युद्ध करता है, कभी प्रत्यक्ष. तब रातें अनजाने ही बीत जाती
हैं.”
कालिदास स्तब्ध रह गए. यह विचार तो
मन में कभी आया ही नहीं था. प्रतिशोध, ईर्ष्या, अभिलाषा, लालच – ये भावनाएँ मानव को रातों को जगाए ही
रखती है. प्रियकर-प्रेयसी की रातें सुखद और जगाने वाली होते हुए भी प्रसन्न होती
हैं.
उन्होंने चौथा अंक पढ़ना आरम्भ किया.
अब क्षिप्रा भी गंभीर होकर उर्वशी की कथा सुनने लगी.
“महाराज, इस चतुर्थ अंक
में केवल नायक ही है – पुरूरवा. उसकी व्यथा, वेदना, प्रीति और विरह. उर्वशी और पुरूरवा का मिलन होने
के बाद पुरूरवा राज्य शासन अमात्य को सौंप देता है और वे दोनों मधुचंद्र के लिए
गंधमादन पर्वत पर जाते हैं. दोनों प्रणयोत्सुक है. लावण्यवती कामिनी उर्वशी और
पुरुषोत्तम पुरूरवा इनका वह श्रृंगार रस का काल. महाराज, हम वर्णन नहीं
करेंगे, आपको
उसका अनुभव है ही.”
“मान्य है. आगे पढ़ें.”
“गंधमादन पर्वत से एक बार पुरूरवा
उर्वशी को मंदाकिनी के तट पर ले जाता है. अतिरम्य शांत, निसर्ग रम्य –
ऐसा है वह स्थान. उस तीर पर खिलती हुई कली जैसी एक युवती उदयवती रेत पर चित्र बना रही थी. यह विद्याधर कन्यका थी.
पुरूरवा का ध्यान उसकी तरफ जाता है, और वह आगे पैर ही नहीं बढाता. यह बात उर्वशी के
ध्यान में आती है. स्वर्ग सुन्दरी, लावण्यवती उर्वशी के साथ होते हुए महाराज का उस
नवयुवती को एकटक देखना उर्वशी को अच्छा नहीं लगा, और वह क्रोधित होकर अकस्मात् वहाँ
से निकल जाती है. वह कहाँ चली गई, यह पुरूरवा समझ ही नहीं पाता. वह उसे पुकारता
है, अनुनय विनय करता है, क्षमा
मांगता है,
परन्तु वह प्रकट नहीं होती.
और पुरूरवा भ्रमित हो जाता है.
वृक्षलता, आकाश, धरती, मेघ, सर-सरिता हर
स्थान पर उसे पुकारता है. परन्तु कोई परिणाम नहीं होता. ये अचानक चली कहाँ गई, इस रहस्य को
वह बूझ ही नहीं पाता. और फिर उसे प्रत्येक स्थान पर उर्वशी ही दिखाई देने लगती है, निसर्ग के हर
रूप में.
अब वह और अधिक भ्रमित हो गया है.
वर्षा धाराओं में हरी वसुंधरा उसे उर्वशी का वस्त्र प्रतीत होता है, और उसके ऊपर
लाल रंग के इंद्रगोप अधरों के रंग से मिलते-जुलते प्रतीत होते हैं.
घूमते हुए उसे चट्टान पर एक मणी
दिखाई देता है. वह उस मणी को उठा लेता है. सोचता है कि उर्वशी की सुवर्ण वेणी में
यह मणी कितना सुन्दर लगता. वह उस मणी को फेंकने लगता है, इतने में एक
ऋषि की आवाज़ सुनाई देती हैं, “इस मणी को मत फेंको. पार्वती माता के चरणों के पर
लगाए लाल चन्दन का रंग इसने धारण किया है.”
अब पुरूरवा मणि लेकर वन-वन घूम रहा
है. भ्रमित अवस्था में निरर्थक प्रलाप कर रहा है. कृष्ण मृग की त्वचा पर नक्षी
देखकर प्रसन्न हो जाता है.
अभी भी उसे उर्वशी के अदृश्य होने के
रहस्य का पता नहीं चला है. विरह वेदना से व्याकुल पुरूरवा वन के प्रत्येक वृक्ष को
आलिंगन देते हुए पूछता है,
‘...हमारी प्रिया आखिर है कहाँ?’
ऐसे ही एक वृक्ष को आलिंगन देते समय
उसकी भुजा पर झुकी एक लता को उसका स्पर्श होता है, और उसके हाथ का लाल मणि उस लता
में अटक जाता है. उस लता में से उर्वशी प्रकट होती है. लता में से उर्वशी के इस
प्रकार प्रकट होने से उसे आश्चर्य होता है. तब वह कहती है,
“मैं वास्तव में हूँ, मैं सत्य हूँ.
स्पर्श करके देखें, मैं
सत्य हूँ, आपकी ही उर्वशी हूँ.”
“यह कैसे हुआ?”
“मैं आपकी वेदना का अनुभव कर रही थी,
परन्तु स्वयँ को प्रकट नहीं कर पा रही थी. कारण यह हुआ कि घूमते हुए हम अचानक
कार्तिकेय वन में चले गए. स्त्री का उस वन में जाना निषिद्ध है, अत: मैं लता
बन गई. पार्वती माता के उस मणि के स्पर्श से मैं वापस अपने पूर्व रूप में आ सकी.”
“महाराज, यहाँ चतुर्थ अंक समाप्त
हुआ. अब केवल पंचम अंक ही शेष है.
उन दोनों के प्रतिष्ठानपुर नगरी में
आने से विदूषक माणवक प्रसन्न है, नगरी भी प्रसन्न है, अब कमी है तो
केवल संतान की. उसके मन में विचार आता है.
राजा पुरूरवा जब स्नान करने के लिए जा रहे थे, तो जिस
संगमनीय मणि के कारण उर्वशी से मिलन हुआ था उसे नदी में उतरने से पूर्व निकालकर
किनारे पर रख दिया. कोई गिद्ध उसे मांस का टुकड़ा समझा कर उठा ले गया. राजा अपनी
सेना को मणि ढूँढने के लिए भेजता है, वह दिन समाप्त हो जाता है.
दूसरे दिन दासी वह मणि लेकर आती है.
सम्राट उसे संदूक में रखने की आज्ञा देता है. सनिकों को उस गिद्ध को मारा गया एक
बाण मिलता है, वे
उसे लेकर आते हैं. वह बाण पुरूरवा के सामने प्रस्तुत किया जाता है. उस बाण पर लिखा
है:
‘उर्वशी और पुरूरवा के धनुर्धारी
पुत्र ‘आयु’ का यह बाण है.’
“पुत्र?” सम्राट
चन्द्रगुप्त ने आश्चर्य से पूछा.
“महाराज, यही प्रश्न
पुरूरवा के सामने भी था. सिर्फ एक नैमिषीय यज्ञ को छोड़कर वह कभी भी उर्वशी के बिना
नहीं था. परन्तु उस काल में उसके गर्भवती होने का पता नहीं चला था, उसने भी कुछ
बताया नहीं था. तब विदूषक माणवक कहता है, “वह देवलोक की अप्सरा है, पृथ्वी की
स्त्रियों के लक्षण उसमें कैसे हो सकते हैं?”
संवाद, तर्क-वितर्क, परामर्श चल
रहे थे, इतने
में एक तपस्विनी च्यवन ऋषि के आश्रम से एक धनुर्धारी कुमार को लेकर आती है.
उस समय एक सेवक कहता है, ‘यही वह कुमार
है, जिसने उस
गिद्ध को मारा था. और यह कुमार आप जैसा दिखाई देता है, साथ ही वीर भी
है..’
राजा पुरूरवा अपने पुत्र को देखकर
प्रसन्न है. उसका रोम-रोम पुलकित है, आंखों में आनंदाश्रु हैं. उसे स्पर्श करने को मन
अधीर है. पुत्र तो हमारा ही है, परन्तु उसका जन्म कब हुआ?
आयु को भी अपने पिता के प्रति स्नेह
का अनुभव हो रहा है. विश्वास हो रहा है.
राजा पूछता है, “यहाँ आने का
प्रयोजन क्या है?
अकस्मात् इस कुमार को कैसे लाईं?”
तब वह तपस्विनी कहती है, ‘उसने अपराध
किया है. आश्रम का नियम भंग किया है. एक गिद्ध के प्राण लिए हैं. तब च्यवन ऋषि ने
आदेश दिया कि उर्वशी का पुत्र उसे वापस दे दो.’
उर्वशी को आमंत्रित किया जाता है. वह
पहली बार अपने पुत्र को देखती है. मातृ हृदय भर आता है. राजा पूछते हैं, “आनंद से रो
क्यों रही हो?”
“मैं वन में घूम रही थी, तभी यह पुत्र
पैदा हुआ,
परन्तु इसका मुख देखे बिना ही मैंने दो तपस्विनियों को उसे दे दिया, समीप ही था
च्यवन ऋषि का आश्रम.”
“सब कुछ मान्य है, परन्तु यह
रुदन किसलिए?”
“महाराज, आपको याद होगा
कि इन्द्रदेव ने मुझसे कहा था कि जब तक पुत्र का मुँह न देखो, तुम पृथ्वी पर
रह सकती हो. अब मुझे जाना होगा, क्योंकि सखियाँ मुझे लेने के लिए आ रही होंगी.”
परन्तु तभी देवर्षि नारद आते हैं और
कहते हैं, कि
त्रिकालदर्शी ऋषियों ने भविष्य वाणी की है कि सुर-असुर युद्ध होने वाला है. उसमें
परमवीर,
परमदक्ष पुरूरवा ने सहायता की है, और आगे भी करेंगे. अतः उर्वशी उनकी सहचरी के रूप
में हमेशा पृथ्वी पर रहे,
स्वर्ग में न लौटे.”
“अर्थात आनंद ही आनद.” कालिदास ने
कहा. महाराज आप इस नाट्य कृति को आप विस्तार से पढ़ें, फिर आप उस पर
भाष्य करें,
सम्राट,” कालिदास ने भोजपत्र एकत्रित करते हुए कहा.
“कालिदास, आपकी उत्तुंग
प्रतिभा का विश्वास हमें हो गया है.”
“बिना पढ़े? केवल कथन से?”
“कालिदास, यह कथा हम
जानते थे,
परन्तु उसमें उर्वशी और पुरूरवा हमें नहीं भाये. ऋग्वेद के दसवें मंडल में पुरूरवा-उर्वशी
की कथा आई है. परन्तु वह कथा हमें अच्छी नहीं लगी थी – उसमें उर्वशी स्वर्ग को
निकली है, राजा भ्रमित
के समान उसका अनुनय करता है, वह वीर पुरुष नहीं, अपितु प्रेम
में पागल हुआ पुरुष जान पड़ता है. क्योंकि वह उससे कहता है, “अगर तुम
जाओगी, तो
मैं कूद कर प्राण त्याग दूँगा.” उर्वशी अत्यंत स्पष्ट वक्ता है, वह कहती है, “आत्महत्या न
करना. स्त्री के प्रेम को सत्य नहीं समझना चाहिए.” और भी बहुत कुछ है ऋग्वेद की उस
कथा में, जो मान्य
नहीं किया जा सकता. इसीलिये हम कहते हैं कि प्रतिभास्पर्श होने से यह साहित्यिक
कृति सर्वश्रेष्ठ है. औशिवरी, उनका वह कुमार आयु, विदूषक माणवक, चित्रलेखा, उर्वशी, पुरू, च्यवन ऋषि –
सभी को मन स्वीकार करता है. कथावस्तु सुगठित है, परन्तु हमें ज्ञात है कि आपकी
शब्दावली दैवी है. उपमा,
अलंकार,
उदाहरण, नवरस
सभी कुछ विलोभनीय है.”
“सम्राट, अब चलें, मध्यरात्री का
प्रहार है, भोजन
भी...”
“रहने दें, कालिदास. हमारी
क्षुधा आपकी कथा से शांत हो गई.”
सम्राट चन्द्रगुप्त अपने अश्व पर
आरूढ़ हुए. मगर कालिदास शांत थे. नक्षत्रों का आकाश लपेटे क्षिप्रा गहरी निद्रा में
थी. कालिदास को मधुवंती का स्मरण हुआ, परन्तु उन्होंने अपने अश्व को अपने घर की ओर
मोड़ा.
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