Sunday, 29 January 2023

Shubhangi - 49

 

 

 

सम्राट चन्द्रगुप्त अभी वापस नहीं लौटे थे. बारबार होने वाले शक-क्षत्रपों के गुप्त आक्रमण मगध के जन जीवन को अस्तव्यस्त कर रहे थे. जंगल का सहारा लेते हुए ये लोग रात के अंधेरे में टोलियों में आते और सीमा पर तैनात सैनिकों को मारते. इतना ही नहीं, साधारण नागरिकों के रूप में आकर नदी पर आई स्त्रियों को भी उठाकर ले जाते. 

कभी वहाँ के मंदिर पर आक्रमण करते, कभी आश्रम शाला पर. या तो वे कूटनीति से अवगत थे, या प्रत्यक्ष सशस्त्र आक्रमण करने से डरते थे, कुछ समझ में नहीं आ रहा था. फिर यह भी ज्ञात नहीं था कि वे वास्तव में वे शक-क्षत्रप हैं, या कोई आदिवासी टोली. किसी भी रणनीति का प्रयोग करना असंभव लगता था.

युवराज कुमार रिक्त सिंहासन की ओर देखकर राजसभा में कहते,

“महामंत्री, क्या इस पर कोई उपाय नहीं है? तात अभी तक वापस नहीं लौटे हैं. दो मास बीतने को हैं. सन्देश आते हैं, परन्तु वे स्वयं नहीं आते.”

ऐसे प्रश्न से सभा स्तब्ध हो जाती. अनजाने ही सबकी नज़र उस रिक्त सिंहासन की ओर जाती. सभी सम्राट की प्रतीक्षा कर रहे थे.

तभी महाराज चन्द्रगुप्त की जयजयकार सुनाई दी. आनन्दोत्सुक हर व्यक्ति उनका अभिवादन करने के लिए उठा. ऐसा प्रतीत होता था, जैसे कोई मंदिर कलाकृतियों से अलंकारित हो, भक्तों से परिपूर्ण हो, परन्तु उसमें देवता न हो. अब वह रिक्तता परिपूर्ण हो गई थी. हरेक के मुख पर प्रसन्न हास्य था. साथ ही उत्सुकता भी थी. यह समझते हुए सम्राट चन्द्रगुप्त बोले,

“मगध साम्राज्य वैभवशाली है. जनसंख्या समृद्ध है, और अरण्य भी समृद्ध हैं. ऐसे में ये गुप्त आक्रमण कहाँ से हो रहे हैं, समझ में ही नहीं आ रहा था. एकदम अधिक हानि न पहुँचाते हुए, नित्य थोड़ी-थोड़ी हानि करना उनका लक्ष्य था. और ये आक्रमण भी एक ही रात में, या एक ही दिशा से, या एक ही समय पर, निश्चित अंतराल से किये जा रहे हों, ऐसा भी नहीं था. अत: युद्ध करें भी तो  किससे, बंदी बनाएं तो किसे यह समझ में नहीं आ रहा था. कोई पकड़ में ही नहीं आ रहा था. कभी भी, कहीं से भी, शत्रु आ धमकता, मगर एकत्र समूह दिखाई नहीं देता था.

यह युद्ध नहीं था, आक्रमण नहीं था, या युद्ध के लिए निमंत्रण नहीं था. परन्तु क्षुद्र प्रतीत होती हुई घटनाएं जब महिलाओं के अपहरण तक पहुँची, तो हर घटना पर विचार करना आवश्यक था. रात्रि के प्रहरियों की संख्या बढ़ाई गई, अरण्यों में प्रहरी नियुक्त किये, सीमा पर प्रहरी थे, अंतर्गत सुरक्षा थी, फिर भी, हमारे वहाँ पहुँचने के बाद भी घटनाएं हो रही थीं.”

“फिर क्या किया तात? कैसे ढूंढा उन चोरी करने वालों और निरपराध लोगों को सताने वालों को?

“कुछ सोच-विचार करने के उपरान्त मगध से लगे तीन प्रदेशों में हमने दूत भेजे. उनके साथ सन्देश भेजा,

“ आपकी इस अस्वस्थता निर्माण करने वाली भूमिका को रोककर युद्ध के लिए तैयार रहें. एक सप्ताह में जवाब न मिलने पर हम आक्रमण कर देंगे.”

“फिर?” महामंत्री ने अकस्मात् पूछा.

“मलदुकरुष, राजगृह, गया, दक्षिण कोसल, कौशिनिक, प्रयाग इन सब राज्यों ने सन्देश का उत्तर देते हुए कहा, “हम किसी भी बात में आपसे श्रेष्ठ नहीं हैं, ऐसी घटनाएं हम कदापि नहीं करेंगे. हम आपके हितचिन्तक हैं.” प्रश्न का समाधान नहीं मिल रहा था. गुप्तचर विभाग भी असफल हो रहा था.”

“फिर?” युवराज कुमार ने पूछा.

“फिर हमने स्वतः ही वेषान्तर करके भ्रमण करने का निश्चय किया. वैसा ही किया भी. परन्तु आठ दिनों तक कोई घटना नहीं हुई. परन्तु, यद्यपि हम ऐसा सोच रहे थे फिर भी कोई घटना हुई तो थी. दो व्यापारियों के घर से दस सहस्त्र सुवर्ण मुद्राओं और दो स्त्रियों का अपहरण हुआ था. और इस घटना से हम समझ गए कि इन घटनाओं के पीछे राज्य के ही किन्हीं अधिकारियों का हाथ है. रात में जब अरण्य की ओर सैनिकों की दौड़ धुप शुरू होती, उसी अवधि में एक-दो घटनाएं घटित हो जातीं. इस बात पर देर से ध्यान गया, हमारे ही नागरिक यह सब किसलिए कर रहे हैं, यह समझ में आ गया.

मगध में चौर्य कर्म करके वह संपत्ति निकट के राज्य को भेजी जाती, यहाँ की स्त्रियों का अपहरण करके उन्हें दूसरे प्रान्तों में भेजा जाता. यह युद्ध आतंरिक था. इसके बदले वे रत्न प्राप्त करते, शहद, रेशमी वस्त्र लेते. समुद्र मार्ग से अन्य देशों से आने वाली यह टोली आखिर पकड़ ली. तभी हम वापस आये.”

“भविष्य में ऐसा न हो इसके लिए क्या करना चाहिए?

“युवराज, युद्ध मनुष्य की प्रवृत्ति है. प्रतिशोध और अधिकाधिक प्राप्त करने के लालच के कारण दुष्ट प्रवृत्तियाँ जन्म लेती हैं, और वे समाप्त नहीं होतीं. परन्तु उन्हें नियंत्रण में रखा जा सकता है. सत्प्रवृत्तियों, सद्विचारों को जागृत करना पड़ता है, आवश्यकतानुसार कठोर दंड भी देना पड़ता है. सभी के समान व्यवस्था के अंतर्गत होते हुए भी ईर्ष्या की भावना समाप्त नहीं होती. राज्य को सीमा-प्रहरी सुरक्षित रखते हैं, साथ ही आतंरिक संघर्ष भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है. अधिकता से उपलब्ध करवाना उसे समाप्त करने का उपाय नहीं है, राष्ट्र हित की भावना जागृत करना महत्त्वपूर्ण है. और जो हम कर रहे हैं, वह राष्ट्र विरोधी, दुष्प्रवृत्ति की द्योतक कृति है, यह ज्ञान समृद्ध करने से ही समझ में आता है. इसलिए सामाजिक अज्ञान दूर करना भी राजा का कर्तव्य है.

मगध का कुछ अरण्य प्रदेश और उसमें रहने वाले लोग अभी भी आदिम स्वरूप में हैं, हम जब वहाँ पहुंचे, तो ज्ञात हुआ कि हमारे प्रान्तपाल और प्रशासन अभी तक वहाँ पहुँचा ही नहीं है. अज्ञान, दारिद्र्य, और उसके कारण उत्पन्न होने वाली आक्रामकता को देखा तो प्रान्तपाल की नियुक्ति का आदेश देकर हम वापस लौटे.

युवराज, इस सबका सारांश यह हुआ कि किसी राज्य को जीतकर, साम्राज्य से साम्राज्य को जोड़कर राज्य विस्तारित करना एक बार सहज है, वैसे वह सहज नहीं, परन्तु मान लें तो सहज है. परन्तु आतंरिक सुरक्षा, सुविधाएं, कर, दंड, सबके प्रति दक्षता – राज्य को स्थिर रखने की दृष्टी से महत्वपूर्ण है.”

सम्राट शांत हुए तो पूरी राजसभा ही स्तब्ध हो गई थी. हरेक के मन में एक ही विचार था, ‘प्रशासक को कितनी तरफ से विचार करना पड़ता है. प्रशासक हो तो ऐसा!’

कालिदास को एकदम रघुकुल के राजा दिलीप, श्रीराम की याद आई. उनका प्रशासन, उनका शौर्य, धैर्य, संयम और रसिक वृत्ति, कलाप्रियता का स्मरण हुआ. अभी हाल ही में उन्होंने विदर्भ के श्रीराम मंदिर में श्रीराम कथा सुनी थी, तभी उन्हें सम्राट चन्द्रगुप्त का स्मरण हुआ था. यदि प्रजा के सम्मुख एक आदर्श हो, तो प्रजा भी उन गुणों से प्रभावित होती है.

इतिहास के पृष्ठों पर अपनी सुवर्ण मुद्रा अंकित करने वाले काल को अधोरेखित करना होगा.

राजसभा समाप्त हुई तो मध्याह्न ढल रही थी. शिशिर ऋतु का शीतल समीर सारे वृक्षों की पर्णमालिका लेकर वसुंधरा से कह रहा था, ‘ हम जब आते हैं, तो वृक्षों के जीर्ण पर्ण लेकर जाते हैं, वृक्षों को निष्पर्ण कर जाते हैं, परन्तु अब वसन्त की पदचाप को तुमने सुन लिया है, इसीलिये तुम मन ही मन प्रसन्नता से हँस रही हो.’

वर्षा ऋतु के बाद हम विदर्भ गए थे. देखते देखते तीन-साढे तीन मास बीत गए थे. इस अवधि में हम विदर्भ में थे, आतिथ्य, मनोरंजन और ‘विक्रमोर्वशीयम’ के लेखन में व्यस्त होने के कारण मधुवंती का स्मरण केवल रात को ही होता था. परन्तु वह दूर है, इस भावना से मन शांत था.

उज्जयिनी वापस आने का मुहूर्त निश्चित होने पर कब मधुवंती से भेंट होगी, इस विचार से मन अधीर हो उठा. परन्तु सम्राट चन्द्रगुप्त से भेंट होते ही अपनी नाट्य कृति उन्हें समर्पित करने की भावना इतनी तीव्र हो गई कि उनके स्वीकृति दर्शाते ही मन आनंद से पुलकित हो उठा.

उसके अगले सप्ताह महामंत्री विष्णुगुप्त के पुत्र का विवाह था, इसलिए उन्होंने कालिदास को अपने साथ-साथ रखा था. कालिदास मन ही मन हँसे थे, ‘हमारा विवाह नहीं हुआ है, किसी भी गृह कृत्य की हमें चिंता नहीं, अतः लोग अपनेपन से, अधिकार पूर्वक हमें आमंत्रित करते हैं. उन्हें ना तो हमारे इतिहास के बारे में ज्ञान है, ना ही वर्तमान काल की हमारी भावनाएँ वे जानते हैं. केवल सम्राट चन्द्रगुप्त और कुमारसेन ही उन्हें समझ सकते थे.

परन्तु कुमारसेन के प्रान्तपाल बनकर विदिशा जाने से कभी-कभार उनकी भेंट हो जाती थी. कई बार उनका कोई संदेशपत्र आया करता, और अनेक बार कालिदास सोचते कि पूछें, ‘विद्वत्वती कैसी है,’ परन्तु इस बारे में न तो कुमारसेन ने कभी लिखा, न ही कालिदास ने पूछा. विदिशा से आरम्भ हुई मैत्री अभी तक थी. एक बार उससे मिलना था, उसकी भी तीव्र इच्छा थी. एक बार किसी मध्यवर्ती स्थान पर कुमारसेन से मिलकर विदिशा की वार्ता जानने की इच्छा तीव्रता से हो रही थी.

अब इस समय, ढलती सांझ को वे अपने अश्व पर सवार होकर मधुवंती के पास जा रहे थे. दिन भर के श्रम से श्रमित न होने वाले रविराज भी उतनी ही गंभीरता से संध्या के प्रासाद की ओर निकले थे. उसने पश्चिम की ओर रंग बिखेर कर विहंगों की रंगोली सजाई थी. यह रंगोली सजीव थी, उसके आकार बदल रहे थे. कभी पहले वाले विहंग दूर चले जाते और उनके स्थान पर नए विहंग आ जाते. परन्तु रंगोली का आकार वही था. क्षिप्रा के तीर पर स्थित ‘आमोद उपवन से आने वाला मार्ग भी यहाँ आकर मिलता था. ‘आमोद’ उपवन में नंदनवन जैसी सुगन्धित पुष्पलताएं थीं. अनेक कुञ्ज थे. राजकुमारी प्रभावती का यह प्रिय स्थान था. वे पल भर को वहाँ रुके. अश्व भी उनके संकेत को समझ गया था. अब इस आमोद वन से निनादित हास्य लहरें नहीं थीं. लता-वृक्ष एकाकी प्रतीत हो रहे हैं. जब इन वृक्ष-लताओं को भी उसका विरह सहन नहीं हो रहा है, तो प्रत्यक्ष माता-पिता का क्या...एक निपुत्रिक अपने अपत्य के प्रति माता-पिता की स्नेह भावना को कैसे समझे?

संध्या अब स्वागत के लिए पश्चिम की ओर स्थित सुवर्णप्रासाद से महाद्वार पर आ गई थी. उसका सुवर्ण प्रासाद जगमगा रहा था.

वास्तव में वे प्रासाद से अति आतुरता से मधुवंती से मिलाने के लिए निकले थे, परन्तु आजकल उन्हें ऐसा अनुभव हो रहा था, कि मन में उसका नाम आते ही तुरंत विद्वत्वती का स्मरण हो आता है. उज्जयिनी आकर इतने वर्ष हो गए थे, परन्तु ऐसा नहीं होता था. अंगवस्त्र के समान केवल मधुवंती ही उनके मन में थी, विद्वत्वती की याद कभी-कभार आ जाती, परन्तु आजकल ऐसा होने लगा था.

शायद हम अभी तक उसके प्रश्न का उत्तर देने योग्य नहीं हुए हैं. एक सुसंस्कृत स्त्री अज्ञान का इतना तीव्र उपहास करे कि सामने वाला कभी अपना मुख ही ऊपर न उठा सके! सप्त पाताल में जाकर छुप जाए, या आत्मसम्मान विहीन लाचार जीवन जिए, या स्वयं को मृत्युदंड दे दे.

हुआ तो था महान अपराध. प्रत्यक्ष सरस्वती को ही आह्वान दिया था. हम तो शतमूर्ख थे, परन्तु मंत्रीमंडल, वारंवार क्षमाप्रार्थी कुमारसेन, किसी को भी आशंका नहीं थी कि ऐसा अघटित हो जाएगा. अपराध तो वेदवती का भी नहीं था. अब वे विचारमग्न चल रहे थे. जब अश्व अकस्मात् रुका तो नक्षत्रों से जगमगाते प्रासाद में जैसे संध्या सुन्दर रविराजा की आरती करने के लिए सिद्ध थी, वैसे ही वह महल की सीढ़ियों पर खड़ी थी.

सब कुछ भूलकर वे प्रसन्नता से हंसे. सीढियां चढ़ने के बाद उन्होंने पूछा,

“प्रिये, हम आज आनेवाले हैं, यह किसने बताया?

“आर्य...आपके पैरों की आहट सुबह ही सुनाई दी थी. हमें सभी शुभसंकेत मिल रहे थे. माध्याह्न में तो कोयल अटारी में आकर हमें पुकार रही थी. ऐसा प्रतीत हुआ कि आप आयेंगे.”

“और जो हम ना आते तो?

“इतने सारे शुभ संकेत मिलने पर ऐसा हो ही नहीं सकता था कि आप ना आयें. वैसे भी उज्जयिनी नगरी में आगमन के पश्चात आप आयेंगे यह तो निश्चित ही था, परन्तु आप विलम्ब से आये. हम नित्य आपकी प्रतीक्षा करते थे.”

बातें करते हुए दोनों दालान में आये. मधुवंती ने उनके हाथ में जलपात्र दिया. उन्होंने उसकी ओर देखा. इन तीन-चार महीनों में वह कृष हो गई प्रतीत होती थी. उन्होंने उसे अपने निकट बिठाया, उसका हाथ अपने हाथ में लेकर पूछा,

“हे सुमधुर भाषिणी, इतनी कृश क्यों हो गईं? क्या व्रत कर रही थीं? तुम्हें इस अवस्था में देखकर...” उनका कंठ भर आया. उन्होंने उसे अत्यंत भाव विह्वल होकर गले लगा लिया.

“बताओ, सुमुखी, कैसे बीते हमारे बिना इतने मास?

“आर्य, पहले भी आप काश्मीर गए थे, तब भी ऐसे ही चार-पाँच मास दूर थे, मगर उस समय इतनी व्यथा का अनुभव नहीं हुआ था, क्योंकि हम संगीत और नृत्य के पाठ दे रहे थे.

परन्तु इस बार, कुछ भी करने का मन नहीं था,” बोलते-बोलते वह रुक गई.

“ऐसा क्यों? क्या यह भय था कि हम वापस नहीं आयेंगे?

“नहीं, परन्तु, आर्य, जब स्त्री एकनिष्ठ प्रेम करती है, तब मन में विश्वास होते हुए भी संदेह करती है.”

“क्या हम पर विश्वास नहीं था?

“ऐसा कदापि नहीं, आर्य. स्वयँ से भी अधिक विश्वास आप पर है. परन्तु हम सोच रहे थे, आर्य, कि क्या इतना समय आप स्त्री के बिना व्यतीत कर सकते हैं? पुरुष के पास स्वातंत्र्य होता है, स्त्री के पास स्वातंत्र्य में भी मर्यादा होती है, परम्परा, संस्कृति, संस्कार होते हैं.”

“ऐसा भी सोचो, कि यदि हम किसी अन्य गणिका के पास गए तो?

“आर्य, ऐसी स्थिति में हम एक ही प्रार्थना करेंगे कि हमारे प्राणप्रिय देवता को अत्यंत सुख देने वाली रसिक प्रिया प्राप्त हो. हमने आपके सुख की ही कामना की होती. और यदि अब ऐसा ज्ञात हो, तो भी मन में विकल्प नहीं आयेगा.”

कालिदास के नेत्र भर आये. उसके केश संभार पर हाथ फेरते हुए वह बोले,

“हमें मिल गई उर्वशी.”  

“कैसी थी?

“सद्गुणमंडित, स्वर्गीय सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति, हम पर उत्कट प्रेम करने वाली, उस          गंधवती ने, उस कामिनी ने हमारे समूचे अन्तरंग को आच्छादित कर दिया. उसके बिना हमें पल भर को भी चैन नहीं था. हम भ्रमित हो गए थे. ऐसा लगा कि उसके बिना हम शून्य हैं.” बोलते-बोलते वे रुक गए. पल भर का भी विलम्ब किये बिना मधुवंती ने कहा,

“आर्य, उसे यहाँ लाने की व्यवस्था करें, हम यह करेंगे.”

“परन्तु वह रहेगी कहाँ?

“आपके मन मंदिर में तो वह है ही, वह हमारे इस महल में रहेगी और..”

“और तुम?

“क्षिप्रा के तट पर हमारा एक निवास स्थान है, इस महल के बनने से पहले...हम वहाँ चले जायेंगे. परन्तु एक विनती है कि आपके मन में हमारे लिए भी स्थान हो...”

“कितनी तत्परता से व्यवस्था कर दी, मधुवंती! तुम्हें क्रोध नहीं आया? वैषम्य का अनुभव नहीं हुआ?

“जिससे हम प्रेम करते हैं ना, उसके सुख के लिए...”

उन्होंने उसे अपने सम्मुख बिठाया. उसकी आंखों में आंसू थे, मुख पर हास्य था. मन की व्यथा कहने वाली उसकी वाणी मौन थी.

“हे प्रिये, मधुवंती... उर्वशी हमारे मन की लावण्यवती अप्सरा, इंद्र देव की देवांगना. हम थे पुरूरवा और वह – हमारी कामिनी. प्रीति के अनेक रंग बिखेरने वाली वह प्रणय की साम्राज्ञी थी. उसके बिना हम अस्वस्थ थे.

जब हम काश्मीर गए थे तो ऋषिकेश में विद्या नामक युवती मिली थी. परन्तु उस सात्विक सौन्दर्य का हमने नम्र अभिवादन किया. किसी भी प्रकार का अविचार मन में नहीं आया, परन्तु उर्वशी क्षण भर में मन में प्रवेश कर गई.”

कालिदास बता रहे थे. उसके नेत्र अब आषाढ़ मेघ हो चले थे. गला भर आया था. उसका गौरवर्ण आरक्त हो गया था. शब्द मौन हो गए थे. उसकी अवस्था देखकर कालिदास उठे और उसके पीछे जाकर कंधे पर हाथ रखकर बोले,

“दर्पण में देखो, सखी! शब्द कुछ कहते हैं, मन कुछ और ही कहता है. नेत्रों से जलधाराएं बहती हैं, अधरों पर हास्य मौन हो जाता है. हम क्या समझें, प्रिये?

वे हँस रहे थे. इस प्रेम को कौन सी उपमा दें? आषाढ़ मेघ के इन जल बिन्दुओं को कौन सा अलंकार दें? उसके म्लान मुख कमल को कौनसा उदाहरण दें? उपमा, उत्प्रेक्षा, व्यंजन, अनुप्रास, यमक, अर्थालंकार और शब्दालंकार कौन से पहनाएं?

“प्रिये, हम पर विश्वास है ना? हमने जो कहा, वह हमारी नाट्य कृति की नायिका उर्वशी के बारे में था. उस देवांगना और मानव योनी के सम्राट पुरूरवा की प्रीति कथा हम लिख रहे थे – हम थे पुरूरवा, और उर्वशी केवल शब्दों से अवतरित हो रही थी, केवल तुम्हारा रूप लेकर.”

उसने पीछे मुड़कर उन्हें दृढ़ आलिंगन दिया. उस आलिंगन में अखिल विश्व का आनंद था. उसके मौन से भी वे उसके शब्द सुन रहे थे. पल भर में ही मानो समूचा आकाश कृष्ण मेघों से रिक्त हो गया था.

उन्होंने उसे दूर किया और बोले,

“सखे, मदनिके, लतिके, ऐसा अपराध पुन: नहीं होगा. तुम्हारे मिलन में हम जितने मग्न हो जाते हैं, उससे अधिक तुम्हारे विरह में हो गए थे. हमने ही वैदिक काल में ऋग्वेद में उल्लेखित उर्वशी-पुरूरवा की कथा को नए शब्द दिए, वर्त्तमान काल का आयाम दिया.”

“पुरूरवा-उर्वशी की कथा में यह विक्रम शब्द कैसे आया?

“विक्रम से, अर्थात पराक्रम से उर्वशी प्राप्त हुई, अतः वह नाट्य कृति है ‘विक्रमोर्वशीय.

वे उठे और बोले,

“हमसे भोजन के बारे में नहीं पूछा? आज हम अत्यंत क्षुधित हैं. कई माह का उपवास था.” 

“कुछ भी न कहें, आर्य. जैसी उदरशान्ति थी, वैसी ही मानसिक शान्ति भी थी. प्रत्यक्ष श्रृंगार न हो, अप्रत्यक्ष श्रृंगार तो था ही ना?”

उसने उनका हाथ पकड़ा, और आसन पर बिठाया. और बोली.

“आज आप आयेंगे इसलिए आपकी प्रिय खीर बनाई है.” दासी को न पुकारते हुए वह स्वयँ भोजन कक्ष में गई. कालिदास उसके पीछे-पीछे थे. कितने दिनों बाद स्वगृह लौटने जैसा आनंद हो रहा था.

भोजन के पश्चात तांबूल देते हुए मधुवंती ने उनसे पूछा, “प्रभावती देवी कैसी हैं?

“प्रभावती एकदम प्रसन्न हैं. दो साम्राज्यों में रीति, परंपरा, व्यंजन भिन्न होते हुए भी दोनों साम्राज्यों में मूल शाश्वत संस्कृति का प्रवाह गतिमान है.

सम्राट चन्द्रगुप्त वैश्य हैं, परन्तु वाकाटक ब्रह्म कुल के हैं, अतः नित्य जीवन में ब्रह्म कर्मों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. फिर भी हमें प्रतिक्षण सम्राट चन्द्रगुप्त का स्मरण होता था. सम्राट की रणनीति, उनका अगत्य, संस्कृत निष्ठा, संघटित राज्य की संकल्पना, आर्थिक विकास योजना, कृषि व्यवस्था, पर्यटन के लिए वन-उपवन, सरिताओं का विकास, समाज व्यवस्था, सुरक्षा व्यवस्था, गुप्तचर विभाग, महामार्गों का निर्माण, और अंतर्गत सुरक्षा पर सम्राट का सूक्ष्म निरीक्षण होता है. सम्राट चन्द्रगुप्त का साम्राज्य विस्तारित, क्षमता भव्य है. सम्राट की कलाप्रियता, गुणग्राहकता, दानी वृत्ति - यह सब हमें विदर्भ में भी देखने को मिला. और विशेषत: यह अनुभव हुआ कि महाराज रुद्रसेन युवा हैं, रूप संपन्न हैं. उतने ही वे आतिथ्यशील, व्यंजन प्रिय और प्रसन्न चित्त वृत्ति के हैं. प्रभावती को उत्तम पति प्राप्त हुआ है.

हमें वहाँ पितृतुल्य आदर प्राप्त हुआ यह विशेष है! कुछ भी करने के लिए निकलो, तो महाराज रुद्रसेन कहते, ‘विदर्भ की ऊष्मा सहन करना कठिन है. आप अश्व लेकर न जाएँ, रथ से जाएँ.’

कहीं पैदल चलने निकलो, तो कहते, विदर्भ में अभी राजमार्ग का निर्माण होना है, रास्ते में आपके पाँव लड़खड़ाएंगे.’ कोई पुत्र प्रति क्षण पिता की चिंता करे और उसे सुरक्षित रखते हुए शब्दों से सुख दे वैसा हो रहा था. वस्तुत: हम आयु में अधिक नहीं हैं, फिर भी...

एक बार शास्त्रार्थ का आयोजन किया जा रहा था. भारत के विद्वानों को आमंत्रित किया गया था. दो दिन. ‘भारत की वैदिक ज्ञान परंपरा’ इस विषय प्रत्येक विद्वान अपने विचार प्रस्तुत करने वाला था. शास्त्रार्थ आरम्भ करने से पूर्व महाराज रुद्रसेन ने कहा, “आज यहाँ सम्राट चन्द्रगुप्त की राजसभा के कवि-नाटककार कालिदास महोदय उपस्थित हैं. उनका परिचय हम इसलिए नहीं दे रहे हैं, कि वे सम्राट की राजसभा के सदस्य हैं, अथवा हमारी पत्नी के मातुल गृह के हैं, अपितु इसलिए दे रहे हैं, क्योंकि वे सरस्वती आश्रम के शिष्योत्तम हैं. विद्वान हैं. उनकी नाट्य कृतियों से हम प्रभावित हैं. उनकी काव्य कृति ‘ऋतु संहार से हम प्रभावित हैं, और अभी परसों ही उन्होंने जो नाट्य कृति ‘विक्रमोर्वशीय पूर्ण की है, यद्यपि हमने उसे पढ़ा नहीं है, परन्तु फिर भी उनके विक्रम के लिए हमारे मन में उतना ही आदर है, जितना पुरूरवा के लिए है. वे इस बात के प्रति अत्यंत सजग हैं कि यदि किसी चरित्र का लेखन शास्त्र शुद्ध और जनसंमत न हुआ तो वह कलाकृति अपयशी होती है.

ऐसे विद्वान कालिदास आज यहाँ उपस्थित हैं.”

“हमारी इतनी स्तुति की जाए, ऐसा हमारा साहित्य भी नहीं है, ना ही हमारा उनसे कोई विशेष परिचय था.”

“क्या आपको ऐसा लगता है कि उन्होंने अकारण आपकी स्तुति की?

“नहीं. उन्होंने अल्प काल में ही हमारा परिचय प्राप्त कर लिया था. उसीका यह परिणाम था. परन्तु वे स्वयं सम्राट और विद्वान होते हुए भी उन्होंने औरों का योग्य परिचय देने के लिए अपने आप ही यहाँ आये हुए सभी विद्वानों का परिचय प्राप्त कर लिया था. हमने सोचा, कि सिर्फ हमारा ही परिचय उन्हें है. और एक बात मधुवंती, ‘मालविकाग्निमित्र’ को हमने शुंग वंश और विदर्भ देश की घटनाओं को आधार मान कर लिखा था.

महाराज रुद्रसेन ने हमसे पूछा, कि वैदिक काल की कथाएँ कैसी थीं? क्या काल्पनिक थीं? यदि काल्पनिक भी थीं, तो वर्त्तमान के साथ उनका सुन्दर मेल होना चाहिए, इसलिए हमने ‘विक्रमोर्वशीयम लिखा. सम्राट चन्द्रगुप्त का स्मरण और तुमसे विरह के कारण हमने उस नाट्य कृति की रचना की. अस्तु!”

“उनका साम्राज्य छोटा है परन्तु उत्तम है. विशेष बात यह है कि अब राजकन्या प्रभावती देवी महारानी पद पर आरुढ़ हो गई हैं. स्त्रियों के बारे में सोचने पर आश्चर्य होता है...कल तक अपनी सखियों के साथ मुक्त विहार करने वाली कन्यका विवाह होते ही कर्तव्य दक्ष गृहिणी कैसे हो जाती है? इसका ज्ञान उन्हें कौन देता है? सहजता से कली का फूल में परिवर्तन हो, वैसे ही गुलाब के कांटे दूर करते हुए वे पुष्पित भी होती हैं.

“अस्तु! प्रिये, अब रात्रि का दूसरा पहर चल रहा है. प्रकृति में वसन्त फूल रहा है. आम्रकलिका नवजात शिशु जैसे स्वरूप में हैं. परन्तु वसन्त के आगमन की वार्ता समीर के साथ पहुँच गई है. सुगन्धित मोगरा फूल रहा है, प्रत्येक वृक्ष पर नवपल्लव मालिका है. सखे, प्रकृति का यह वसन्त ऋतू हौले से हमारे तन-मन में भी प्रवेश कर गया है.

अब विलम्ब नहीं. चन्द्रमा के साथ रोहिणी आकाश मार्ग पर निकल पड़ीं है. सखी, वह गवाक्ष बंद कर दो, सारे दीप अब शांत कर दो, परन्तु जिसमें तुम्हारा मुख चन्द्रमा दिखाई दे उस दीप को रहने दो.”

मधुवंती के मुख पर प्रसन्नता थी. कालिदास की अधीरता से वह परिचित थी. और वह जानबूझ कर विलम्ब कर रही थी. आखिर कालिदास ने स्वत: ही उठकर गवाक्ष बंद किये और दीप शांत कर दिए. बंद गवाक्ष से भी चन्द्रमा भीतर झाँक ही रहा था.

“प्रिये, अब बाकी सब रहने दो.”

नि:स्तब्ध रात भी अब स्पर्श से मुखर हो रही थी.

 

***

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