राजसभा में महामंत्री एवँ अन्य
मंत्री उपस्थित थे. अपनी व्यथा कहने के लिए कुछ नागरिक भी उपस्थित थे. नित्य
नियमानुसार आने वाले सम्राट आज अभी तक राजसभा में नहीं आये थे. काफी देर से उनकी
प्रतीक्षा हो रही थी. आखिर महामंत्री ने कहा,
“किसी अपरिहार्य कारण के चलते हुए ही
महाराज आये नहीं होंगे. सेवक सन्देश लेकर आयेगा, तब तक आप लोग अपनी समस्या निवेदन करें.
प्रत्येक समस्या राजसभा में बहुमत से हल की जाती है, अंतिम निर्णय महाराज का होता है.”
एक नागरिक और उसके साथ एक वृद्धा
सामने आये.
“हम क्या निवेदन करें महाराज से!
हमारा इकलौता पुत्र महाराज की सेना में था. उस मगध को सेना गई, तो वह जो गया, तो वापस लौटकर
नहीं आया. उसकी पत्नी पहले ही जा चुकी थी. अब मैं एकाकी हूँ. महाराज हमें धन राशि
भी देंगे, मगर
हमारा एकाकीपन कैसे दूर होगा? जीवन की ढलती सांझ में एकाकी जीवन कैसे बिताएं? ऐसे ही एकाकी
युवतियाँ भी होंगी. वे क्या करें?”
महामंत्री इस प्रश्न का उत्तर नहीं
दे पा रहे थे, ना ही मंत्रीमंडल का कोई मंत्री बोल रहा था. कालिदास भी मौन थे. अगर
युवतियां अकेली ही हों, तो
क्या वे एकाकी जीवन ही व्यतीत करें, अथवा सामाजिक मर्यादा और अकारण जनप्रवाद सहन
करने की अपेक्षा क्या वे एकाकी जीवन ही व्यतीत करेंगी? यदि वृद्ध
स्त्री-पुरुष एकाकी हों तो? उस
वृद्ध की समस्या वास्तविक थी, परन्तु उत्तर नहीं मिल रहा था.
उन आये हुए नागरिकों में से एक ने
कहा, “मैं
एक कृषक हूँ. इस वृद्धा के घर के पास ही रहता हूँ. परन्तु मेरा जीवन केवल कृषि से
संबद्ध है. मेरी भी एक समस्या है. महाराज ने कृषि के लिए जल व्यवस्था की है.
परन्तु वह जल हम तक नहीं पहुंचता. वह जल कहाँ जाता है, समझ में नहीं
आता. जलवाहिनियाँ शुष्क रहती हैं. ग्रीष्म ऋतु में कृषि के लिए हमें जल की अत्यंत
आवश्यकता है. अब हम कृषिधर क्या करें?”
महामंत्री ने कहा,
“आप चिंता न करें. मध्याह्न तक हम
निश्चित रूप से आपके लिए जल व्यवस्था कर देंगे.”
बीच में ही कोई जल की चोरी करने वाला
होगा, और यह
नागरिक कोई उपाय न देखकर कृषक प्रतिनिधि के रूप में यहाँ तक आया होगा. ऐसा अनुमान
उन्होंने लगाया.
सभा में लाई गईं अन्य तीन समस्याएं
महाराज के सिवा अन्य कोई सुलझा नहीं सकता था, ऐसी बात नहीं थी. इसी समय युवराज कुमार उपस्थित
हुए. उन्होंने महाराज की अस्वस्थता के बारे में बताया.
युवराज कुमार के आते ही महामंत्री ने
कहा,
“योग्य समय पर आये हैं, युवराज कुमार.
एकाकी वृद्धा, एकाकी
युवती यदि निराधार हों, तो वे
जीवन कैसे व्यतीत करें?”
“आसान है. एकाकी होना कोई अपराध नहीं
है. वृद्धों के लिए एक सह-आवास भवन की निर्माण किया जा सकता है, जिसमें ऐसी
निराधार स्त्रियाँ अकेले और स्वतन्त्र रूप से रह सकती हैं. अब हमारे राज्य में स्त्रियों
को पुनर्विवाह की मान्यता है, गणिकाओं को क्रय-विक्रय केंद्र में, आश्रम शाला
में मान्यता है. उन्हें अपने एकाकीपन से बाहर आने के लिए स्वयं को तैयार करना
होगा. उस प्रकार का एक सामाजिक सन्देश हम सहजता से दे सकते हैं.”
मंत्रीमंडल ने करतल ध्वनी की. सम्राट
चन्द्रगुप्त का पुत्र उतना ही योग्य है, ऐसा विश्वास निर्माण हो गया था.
सभा समाप्त हो गई. युवराज कुमार बाहर
निकले.
“युवराज, क्या महाराज
को ज्वर है?”
“नहीं.”
“तो फिर, रुद्रसेन
महाराज और प्रभावती देवी के यहाँ आगमन की वार्ता प्राप्त होने पर उन्हें प्रसन्न
होना चाहिए. ऐसा क्या हुआ है? महामंत्री अभी महाराज के पास ही जा रहे
हैं.”
“कालिदास महोदय, मगध राज्य में
शान्ति प्रस्थापित करने के पश्चात महाराज अभी हाल ही मैं वापस लौटे हैं और अब...”
“अब क्या?”
“हमारी भगिनी प्रभावती देवी और जीजा
जी महाराज रुद्रसेन डेढ़ वर्ष बाद यहाँ आ रहे हैं, और पंजाब पर पुन: हूणों द्वारा
आक्रमण किये जाने की वार्ता है. हमारे पितामह समुद्रगुप्त ने हूणों को पराजित करके
उन्हें दूर तक भगा दिया था. अब हूण पुन: आक्रामक हो गए हैं. अब स्थिति ऐसी है कि
तात का वहाँ जाना अनिवार्य हो गया है. सेनापति वीरसेन, महामात्य को
भेजने से वह कार्य नहीं होगा. एक बार हूणों का पूरी तरह सफाया करना ही होगा, ऐसा तात कह
रहे हैं. इसके परिणाम स्वरूप वे अस्वस्थ हैं. सेना को आदेश देने वाले हैं...यही सब
विचार कर रहे हैं.
माता ध्रुव स्वामिनी का आग्रह है कि
तात पिता का कर्तव्य न भूलें, इस पर तात ने कहा,
‘हम पिता हैं, पति हैं, अन्य सारे
स्नेह बंधनों में बंधे हैं,
परन्तु प्रथम हम भूमाता के पुत्र हैं, साम्राज्य के रक्षक हैं, साम्राज्य के
हितचिन्तक हैं. हमारा सर्व प्रथम कर्तव्य है युद्ध और राष्ट्र स्वातंत्र्य. हमें
इस प्रकार भावना विवश न करें.’
माता ध्रुव स्वामिनी के मन में अचानक
अपनी पुत्री और दामाद के प्रति भावनाएँ तीव्र हो गई हैं.”
युवराज कुमार ने सविस्तार जानकारी
दी. कालिदास को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए. जब सेनाधिपति, सेना और वहाँ
की सेना,
प्रान्तपाल के होते हुए भी कुछ नहीं हो पा रहा है, इसका अर्थ यह है कि महाराज की
रणनीति ही कार्य करेगी. क्या इसे लिखित रूप में नहीं भेजा जा सकता अथवा आवश्यक
सूचनाएं देकर काम नहीं होगा क्या? क्या इस पर कोई अन्य उपाय नहीं है?
मध्याह्न का समय हो गया था. वे भोजन
कक्ष की ओर मुड़े. वे मन ही मन हँसे. हम किसी में भी कोई भी नहीं हैं. हमारी ना तो
पत्नी है, ना
कन्या, ना
पुत्र, ना
दामाद. हमने युद्ध कला का अध्ययन तो किया था, परन्तु हाथ में शस्त्र भी उठा न सके. इनमें से
कुछ भी हमारे पास नहीं है. मधुवंती है, एकनिष्ठ है, परन्तु पत्नी का अधिकार हमने ही उसे नहीं दिया.
समाज में बहुपत्नीत्व के होते हुए भी. ऊपर से, हम विवाहित हैं, यह भी किसी को ज्ञात नहीं है. हमारे
जीवन का क्या प्रयोजन है, यह अब
तक हमें ज्ञात नहीं हुआ है. हमारे सम्मुख राष्ट्र संकल्पना है, परन्तु वह
हमारा ध्येय नहीं है. हम पति नहीं हैं, इसलिए पति के कर्तव्य नहीं. सत्य है. जीवन का
कोई उद्देश्य ही नहीं.
युवराज कुमार चले गए थे. भोजन शरीर
के लिए धर्म था. नित्य नियमित समय पर क्षुधा जागृत होना और उसकी परिपूर्ति करना, यह अनजाने में
होने वाला कर्तव्य कर्म था. वे भोजन गृह में गए और सेवक ने उनसे कहा,
“भोजनोत्तर महाराज के कक्ष में जाएँ, उनका सन्देश
है.”
कालिदास का आज भोजन की ओर ध्यान नहीं
था. वे भोजन करते-करते उठे, तो
दासी हेमवती ने पूछ लिया,
“कालिदास महोदय, आज व्यंजनों
में कोई त्रुटि रह गई है क्या?”
“नहीं, हेमवती, नहीं. सभी
व्यंजन स्वादिष्ट हैं. परन्तु एक कार्य का स्मरण हुआ, इसलिए...सिर्फ
इसलिए...” उन्होंने आगे कुछ नहीं कहा.
***
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