“महाराज, कभी कभी मन उद्विग्न हो जाता है. क्या है जीवन का प्रयोजन? आपके सामने विशाल एकसंघ भारत खडा है. आपका जीवन उसके लिए समर्पित है. जीवन में पराक्रम की सार्थकता और मृत्यु में जीवन की परिपूर्णता – यह आपका लक्ष्य है. परन्तु हमारा क्या? वास्तव में हमें इस समय यह कहना नहीं चाहिए था.”
“कालिदास, कभी कभी ऐसा
विमनस्क, उदास
होना अच्छा होता है. इससे स्वयँ को परख सकते हैं.”
“कैसे?”
भोजन के पश्चात कालिदास सम्राट
चन्द्रगुप्त के कक्ष में गए थे. उस समय वे भोजपत्र पर कुछ लिख रहे थे. कालिदास के
मुख पर आज प्रसन्नता नहीं थी, अत: उन्होंने कारण पूछा. कालिदास ने अपनी
मनोव्यथा सुनाई.
“हमने अपने सम्मुख राष्ट्र संकल्पना, लोक संघटन, स्वातंत्र्य, समाज हित, राज्य प्रशासन
की कल्पना रखी. क्योंकि हमारे वंश का ‘कुल’ राजकुल है.
प्रत्यक्ष हमारे पिताश्री, सम्राट
समुद्रगुप्त ने हमारे मन में ध्येय रखा, अब वही हमारे लिए प्रथम कर्तव्य हैं.
आश्चर्य होता है एक बात का, हमारे
पिताश्री ने अपना व्यक्तिगत जीवन कब और कैसे बिताया होगा? कोसल, महाकान्तार, कोरल, पिष्टपुर, कोहूर, एरंडपल्ल,
कांची,
अवमुक्त, वैमी, देवरानट,
कुष्टलपुर, पालक्का – ये दक्षिणपथ के राज्य और पूर्व-पश्चिम प्रदेश के कामरूप, नेपाल, कृतपाल, समतट, दवाक को
भी साम्राज्य से जोड़ा. उत्तर भारत को तो वे पहले ही साम्राज्य से जोड़ चुके थे. तीन
प्रबल नागराज्य अहिच्छम, मथुरा, पद्मावती अपने
राज्य से जोड़े.
शक, हूण, यवन, आदिम टोलियों
से युद्ध करके विजय प्राप्त की. यही और सिर्फ यही देखते हुए हम बचपन से
किशोरावस्था तक पहुंचे. और उसके पश्चात राज सिंहासन पर आये. हमारी रक्तवाहिनियों
से रक्त प्रवाहित होता है राष्ट्र के लिए शौर्य, पराक्रम करने के उद्देश्य से.
इसलिए व्यक्तिगत जीवन और उसका आनंद हम केवल तभी संभव है जब हम उज्जयिनी में होते
हैं, और
अब...”
कालिदास मौन थे. कितना विराट
साम्राज्य! और वह संघटित साम्राज्य संघटित ही रहे, इस उद्देश्य ने मन के कितने विशाल
स्थान को घेरा है. और उनका व्यक्तिगत जीवन इस विराट साम्राज्य का ही एक ग्राम है.
एक पग जीवन में, और
बाकी सारा मार्ग मृत्यु की ओर. वे स्तंभित हो गए थे.
सम्राट समुद्रगुप्त के समान प्रशासन, अर्थ नियोजन, व्यापारीकरण, इसके अतिरिक्त
सैन्य व्यवस्था,
रणनीति. प्रत्यक्ष युद्ध करने वाले सम्राट चन्द्रगुप्त स्वयँ वीर योद्धा, रसिक, गुणज्ञ और
कलाप्रिय हैं. उन्होंने स्वयँ भी अनेक युद्ध किये है, कुछ राज्यों
को वैवाहिक संबंधों द्वारा साम्राज्य से जोड़ा है, कुछ को जीतकर मांडलिक बनाया है.
शकों का पूर्ण पराजय किया, ताकि
वे फिर से सिर न उठा सकें. मथुरा, कम्बोज, गांधार के कुषाणों का अंत किया.
“कालिदास!” अपने आप में मगन कालिदास
होश में आये.
“हमने आपको इसलिए बुलाया, कि हमारा जाना
अनिवार्य है. आप महाराज रुद्रसेन से परिचित हैं, अत: इस बात पर ध्यान दें, कि उनके
स्वागत-सत्कार में कोई त्रुटि न रहे.”
“हाँ, और एक बात बताना है कि हमारी कन्या
प्रभावती गर्भवती है. सातवाँ मास चल रहा है, परन्तु...” कहते हुए सम्राट भाव विह्वल हो गए.
कालिदास को अनुभव हुआ कि सम्राट एक पिता हैं.
“महाराज...” उत्तरीय से नेत्र पोंछते
हुए उन्होंने कहा.
“आप हैं इसलिए बता रहा हूँ, पंजाब की
ओर हम इसी सप्ताह जाने वाले हैं. ऐसी भी वार्ता प्राप्त हुई है कि हमारे पिताश्री
की कालावधि में उन्होंने कामरूप के कुषाणों को पराजित करके उसे अपने साम्राज्य से
जोड़ लिया था, परन्तु कामरूप में कुषाण अब फिर सक्रिय हो गए हैं. अत: युद्ध ही एक
पर्याय शेष हो.
अस्तु! युद्ध और युद्ध ही हमारे जीवन
का अविभाज्य अंग है, शायद
युद्ध ही हमारा जीवन है.
परन्तु कालिदास, आपके साथ ऐसा
नहीं है. मन का नैराश्य दूर करें. एक दैवी गुण का वरदान आपको प्राप्त हुआ है. आपके
हाथों में शब्द सौंपकर सरस्वती निश्चिन्त हो गई हैं. इतिहास में हमारे युद्धों के
विजय और आपके शब्दों की विजय लिखी होगी. उस दिन ‘विक्रमोर्वशीय’ सुना था. अभी
तक पढ़ा नहीं है,
परन्तु जितना भी सुना, उससे
विश्वास हो गया कि महाकवि की प्रतिभा, शब्दों का लावण्य, उपमा, अलंकार, आशय, लय, गति हमें
कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती. प्रत्येक का क्षेत्र भिन्न है, इसीलिये
परस्पर आदर होना चाहिए.
कालिदास, जब आप लिखते
होंगे तो शब्द सखी बनाकर आते होने, उसके लावण्य में आप इतने मगन हो जाते होंगे कि
बाह्य जगत का पता ही न चले. शायद योगी की तपस्या और आपकी एकाग्रता एक जैसी ही होती
होगी.”
अब कालिदास प्रसन्नता से हँसे.
“महाराज, आश्चर्य है, दूसरों को
प्रसन्न करने में भी आप यशस्वी होते हैं. मन को कैसे पढ़ लेते हैं?!”
“हम रणभूमि पर सैनिकों की मन:स्थिति
से अवगत रहते हैं. उस समय जीवन की प्रत्येक रेखा धूसर होती है, होता है तो
केवल मृत देहों का दर्शन, आक्रोश. कभी कभी मन उदास हो जाता है और अर्जुन की ही तरह
हम अपने आप से पूछते हैं, कि
क्या आवश्यकता है इन युद्धों की?”
मन हंसता है और कहता है, दूसरे मन से
पूछो.
अस्तु! कालिदास, आज केवल हम ही
बोल रहे हैं, अखंड. परन्तु कालिदास, आप कुछ ऐसा लिखें जिससे आपको जीवन का श्रेय
प्राप्त हो.
और एक बात, कालिदास. आप
अपनी विद्वत्वती से मिले नहीं हैं. वह भी तो जीवन का एक प्रयोजन है ना!”
“सत्य है, सम्राट! सत्य
है! उसका विस्मरण हमें हुआ नहीं है, और होगा भी नहीं. हम उससे अवश्य मिलेंगे.”
जब रात के चरण गवाक्ष से भीतर आये, तो कालिदास
उठे.
“महाराज, एक विनती करें
क्या?”
“अवश्य करें.”
“आज जब आप बोल रहे थे तो सहज ही
सरस्वती देवी का स्मरण हो आया. क्या प्रभावती देवी और दामाद के विदर्भ से निकलने
से पूर्व हम सरस्वती आश्रम जाकर आ सकते हैं क्या?”
“उनके आने में अभी पंद्रह दिन का
अवधि है. आप अवश्य जाकर आयें. आप कल भी प्रस्थान कर सकते हैं.”
“नहीं महाराज, रुद्रसेन महाराज
और प्रभावती देवी का स्वागत करने के पश्चात उनके वापस लौटने के बाद ही हम जायेंगे.
तब तक आप भी वापस आ चुके होंगे.”
सम्राट चन्द्रगुप्त ने दीर्घ नि:श्वास
छोड़ा. दोनों ही के मन में भविष्य की प्रात:काल जगमगा रही थी.
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