कालिदास जब
सरस्वती आश्रम पहुंचे, तो
संध्या वृक्षों से उतरकर आश्रम में प्रवेश कर रही थी. श्वेत वस्त्रधारी प्रौढा
अपने निवास के द्वार पर खडी थी. आश्रम छोड़ने के पश्चात बीस से अधिक वर्ष बीत गए
थे. उनके नेत्रों के सामने युवती – प्रगल्भ सरस्वती देवी, वही तो थीं.
अनजाने ही काल की पर्ण मालिका वृक्ष से फिसल गई थी.
“माते...” कालिदास ने उनके चरणों पर
मस्तक रखा. यह सुदृढ़ व्यक्ति कौन हो सकता है, इसका उत्तर उसे सहज ही मिल गया था.
“कालिदास...वत्स कालिदास! हम समझ रहे
थे कि अब तुम कभी भी नहीं आओगे. बीच-बीच में महाराज चन्द्रगुप्त वसंतोत्सव के लिए
आते थे. परन्तु उन्होंने हमें रोकते हुए कहा था, “कालिदास के मन में इच्छा उत्पन्न
होने दें, उसे
स्वयँ आने दें. वह दिन निश्चित ही आयेगा, वे आयेंगे. जब तक वे स्वयँ नहीं आते, तब तक उन्हें
हमारे यहाँ आगमन के बारे में न बताएँ.” ऐसा महाराज ने कहा था. हमें भी वह मान्य
था. कालिदास,
तुम्हारे बारे में वृत्तांत ज्ञात होता रहता था. साहित्य की निर्मिती, शास्त्रार्थ
की प्रगति,
और...”
“और क्या, माते?”
कहें या न कहें इस दुविधा में
सरस्वती देवी थीं.
“माते, हमें संपूर्ण ही सुनाएँ.”
“वत्स, इतने वर्ष विवाह किये बिना रहे, ऐसा क्यों? प्रत्येक
व्यक्ति का विवाहित जीवन होना चाहिए. उसके बिना जीवन को परिपूर्णता नहीं प्राप्त
होती. गृहस्थाश्रम की अनुभूति गणिका के पास जाकर नहीं मिलती. वह केवल शय्या सुख
देती है. वह मधुवंती सभी विषयों में पारंगत होने के कारण तुम्हारी ज्ञान लालसा भी
पूरी हुई, उत्तम श्रोता, उत्तम
प्रेयसी तुम्हें मिली.
यह आनंद उससे विवाह करके भी तुम्हें
मिल सकता था. गणिका,
अंगवस्त्र पुरुषों के लिए समाज मान्य है, राजमान्य है. तुम उससे विवाह करके गृहस्थ
की तरह रह सकते थे! विवाह सोलह संस्कारों में से एक महत्वपूर्ण संस्कार है.”
“माते, हम सब जानते हैं. मन से वेदवती जाती
नहीं है. हम उसे पत्नीपद का सम्मान न दे सके यह पीड़ा मन में है. हमें स्वयँ पर
बहुत क्रोध आता है. एक वेदशास्त्र संपन्न कन्या का हमने उपहास किया. और हम अति
मूर्ख थे, यह
ज्ञान होने के पश्चात बाद की घटनाओं का स्मरण होते ही यह प्रश्न उपस्थित होता है
कि हमें किस अधिकार से विवाह करना चाहिए.
“माते, कभी-कभी उससे मिलने की तीव्र इच्छा
मन को व्याप्त कर लेती है. मन में कृष्ण मेघ व्याप्त हो जाते हैं. प्रकाश मार्ग
दिखाई नहीं देता, माते.
अज्ञान वश ही सही, हमारे
हाथ से अपराध हुआ है. अब इसके परिमार्जन का मार्ग बताओ, माते.”
कालिदास अब स्वयँ को रोक नहीं पाए, उनका शरीर कंपित हो रहा था, नेत्रों से
अविरत अश्रु धाराएं बह रही थीं.
सरस्वती देवी ने उनके दोनों स्कंध
पकड़कर उन्हें अपने निकट आसन पर बिठाया. उनके मस्तक को चूमा, उनके घने
केशों पर हाथ फेरा. कालिदास शांत हो गए थे, मन को स्वस्थता प्राप्त हो गई थी.
“वत्स, तुम्हारी व्यथा मैं जानती हूँ. उसके
लिए एकमात्र उपाय...”
“कौनसा उपाय?”
“वत्स, तुम ऐसा समझते हो ना, कि अनजाने में
ही सही,
तुम्हारे हाथ से अपराध हुआ है, तो विदिशा जाकर उस भोज कन्या से क्षमा मांग लो.
उसके बिना तुम्हें शान्ति नहीं मिलेगी.”
“यह तो हमारे मन में भी है. परन्तु
उसकी एक ही पंक्ति ने हमारे हृदय पर आघात किया है. “अस्ति कश्चिद् वाग्विशेष:” का
उत्तर हम क्या दें? फिर
से उसकी बातें सुनकर,
अपमानित होकर वापस आयें? हम
हनुमान के समान अपना विदीर्ण हृदय नहीं दिखा सकते. अपने अपराध की क्षमा नहीं मांग
सकते. हम अनजाने में ही सही, प्रतिदिन उसका स्मरण करते हैं. हमारे लिए अन्य
कोई उपाय नहीं.”
“वत्स, एक और मार्ग है उसके पास सन्मान
पूर्वक जाने का.”
“ऐसा कौनसा सन्माननीय मार्ग आपको मिल
गया?”
“तुम कवि हो, लेखक हो.
साक्षात सरस्वती के पुत्र हो. तुम अपनी ज्ञान संपदा ही उस ज्ञानवती, विद्वत्वती को
अर्पण करो और अनजाने में हुए अपराध की क्षमा मांगो.”
“देवी, यह उपाय हमें प्रिय है. अब हमारे मन
को शान्ति मिली. अभी अधिक लेखन तो हुआ नहीं है, परन्तु होगा. मन में कब से शकुन्तला-दुष्यंत की
कथा लिखने का विचार है. अब ‘मालविकाग्निमित्र’, ‘विक्रमोर्वशीय’ के पश्चात शकुन्तला के बारे में
लिखता हूँ, और वह
नाट्य कृति लेकर उसके पास जाता हूँ.”
“देवी, आपने हमारी कोई भी रचना नहीं पढी है
ना?” कालिदास अब
प्रसन्न थे.
“अर्थात, सभी पढ़ा है.”
“वह कैसे?”
“सम्राट चन्द्रगुप्त ने ‘ऋतुसंहार’ ,
‘मालविकाग्निमित्र’ ,
‘विक्रमोर्वशीय’ की
प्रतिलिपि हमें भेजी है.”
“महाराज ऐसी गुप्त यंत्रणा करते
होंगे, यह
ज्ञात नहीं था.”
“हमें आनंद मिले, यह उनका हेतु
शुद्ध ही था.”
कालिदास अब स्वस्थ थे.
“वत्स, तुम्हें भोजनशाला में पञ्च
पक्वान्नों की आदत होगी. यहाँ चार साधारण व्यंजन तुम्हें पत्तल पर परोसे जायेंगे.
उन्हें ग्रहण करना. हम तुम्हारे लिए...”
“देवी..., माते... नहीं
यहाँ नहीं, आज
तुम्हारे पुत्र, तुम्हारे विद्यार्थी के रूप में आश्रम में अपने हाथ से भोजन लेने
दो.”
उत्तर रात्रि तक कालिदास उसे सम्राट
चन्द्रगुप्त के राज्य विस्तार, प्रशासन, गुणग्राहकता के बारे में, और काश्मीर, केदारनाथ, बद्रीनारायण, मालिनी तट पर
स्थित कण्वाश्रम के बारे में, सम्राट चन्द्रगुप्त की पत्नी, पुत्र, कन्या, कन्या के
विवाह,
विदर्भ के बारे में बता रहे थे.
“वत्स, उत्तर रात्रि समाप्त होने को है, अब शांत
निद्रा लो, अभी
ब्रह्म मुहूर्त आने वाला है. हमें अपने नित्य के कर्म हैं.
कालिदास को किंचित अपराध बोध हुआ. भावना
के जोश में सरस्वती देवी की आयु का, ढलने वाली रात का विचार नहीं किया. हमें निद्रा
लेने को कहकर सरस्वती देवी ब्रह्ममुहूर्त पर नित्य कर्म करेंगी! ज़्यादा ही बोल गए
हम भावनाओं के जोश में, उन्होंने सोचा.
दो ही दिन बीते होंगे, कि सन्देश
आया. सम्राट चन्द्रगुप्त कामरूप की समस्याएँ निपटा कर, कुषाणों को दंड देकर वापस आ
गए हैं. और यह वार्ता सुनने के लिए नवजात
शिशु ने जन्म लिया है. प्रभावती देवी को पुत्र प्राप्ति हुई है और सम्पूर्ण
उज्जयिनी नगरी प्रसन्न है. इस अवसर पर आप अवश्य उपस्थित रहें, यह हमारी
आतंरिक इच्छा है.
‘कुमार संभव...’ कालिदास आनंद से मन
ही मन बोले. अब नए काव्यग्रंथ के लिए सहज ही शीर्षक और विषय मिल गया. वे प्रसन्न
मन से सरस्वती देवी के पास आये, वे कुछ लिख रहीं थीं.
“हे सरस्वती माते, आप हमारी माता
और गुरू भी हैं. आपको शत शत नमन करके उज्जयिनी को प्रस्थान करता हूँ. ‘हम फिर से
आयेंगे’ यह
आपको दिया हुआ वचन पूरा किया, माते. अब ‘फिर से आएंगे’, यह वचन नहीं
देते. परन्तु आपके कहे अनुसार “अस्ति कश्चिद् वाग्विशेष:” का उत्तर हम अवश्य
देंगे, यह विश्वास यहाँ आकर प्राप्त हुआ है. और काव्य लेखन के लिए सहज ही विषय भी
मिल गया है. प्रभावती के पुत्र का जन्म....कुमार का जन्म, और कुमार संभव
का स्मरण हो आया, माते. हम लिखेंगे, माते, पार्वती और शिवशंकर को पुत्र सभव अर्थात कुमार संभव.”
कालिदास अत्यंत प्रसन्नता से कह रहे
थे. सरस्वती के नेत्र आनंद से भर आये थे. उनके मस्तक पर हाथ रखते हुई वह बोली, “कल्याणमस्तु, वत्स!”
“अब यदि तुम फिर से आने का वचन नहीं
भी दो, तो भी
तुम आओगे. “अस्ति कश्चिद् वाग्विशेष:” का उत्तर पा लिया है, यह बताने
अवश्य आओगे. अब निकल ही रहे हो, मन की बात बताती हूँ, वत्स..”
“ऐसा क्या है तुम्हारे मन में, माते...क्या
हमारे साथ उज्जयिनी आना चाहती हो, या अपने इस मानस पुत्र के साथ यहीं आश्रम में
रहना चाहती हो? कथन
करो,
माते...तुम जो कहोगी, वह
अवश्य करूंगा,
माते...”
“ऐसा कुछ भी नहीं है. तुम्हारा
भविष्य उज्जवल है,
उज्जयिनी में है. कथा मेरी है, मेरे जीवन की.
मेरा विवाह हुआ था. एक पुत्र भी था.
नौका से जा रहे थे, और अचानक झंझावात आया. हमारी नाव जल के भीतर चली गई. कौन कहाँ, कौन कहाँ...पता
ही नहीं चला. परन्तु तुम्हें देखकर ऐसा लगा, कि तुम ही मेरे खोये हुए पुत्र हो, सरस्वती
पुत्र...”
“ऐसा हो सकता है, माते; नहीं भी
हो सकता. हमें अपने माता-पिता के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं. हमारा लालन-पालन एक
गोपालक ने किया. उन्होंने फिर तीर्थ यात्रा करन का निश्चय किया, और हम...आगे
की कथा तुम्हें ज्ञात ही है, माते. हम तुम्हारे मानस पुत्र अवश्य ही हैं.”
“रहने दो, कालिदास, तुम चाहे कोई
भी हो,
परन्तु मेरे पुत्र हो. और पुत्र हो इसलिए अवश्य आओगे. मेरे पुत्र की एक कंठमाला
है. उस समय उसके लिए बड़ी हो गई, अत: मैंने ही पहन ली थी. वह कंठमाला आज तुम्हें
उपहार स्वरूप देती हूँ.”
सरस्वती देवी आश्रम के भीतर गई, उन्होंने
संदूक खोली, उसके
भीतर एक रत्न माला थी.
“मेरे श्वसुर ने मेरे पुत्र के लिए
बनवाई थी. अर्थात, मैं
भी उसे पहनूं, यह भी
उनका उद्देश्य होगा.”
कालिदास ने अपनी सुदृढ़ देह की ओर देखा. यह कंठमाला सुद्रढ़ कंठ
में जायेगी या नहीं, इस
प्रश्न का समाधान उन्ह्पने खोज लिया.
“माते, तुमने हमें पहले ज्ञान समृद्ध किया.
इस भेंट में तुमने हमें नए विचारों से प्रेरित किया. यह कंठमाला पाकर हम कृतार्थ
हुए. हम इसे अपने वाम मणिबंध में पहनते हैं जिससे हमारा मणिबंध...सरस्वती का
मणिबंध हो जाएगा. माते, सरस्वती की
कंठमाला शब्दों की मालिका लिखने वाले उसके पुत्र का सुदृढ़ मणिबंध होगा.” उन्होंने
उस कंठमाला को अपने मणिबंध पर बाँध लिया.
“माते, चलता हूँ. पुनरपि आने का वचन नहीं
देंगे,
परन्तु वेदवती से मिलने के बाद भेंट का वृत्तांत कथन करने के लिए आने का प्रयत्न अवश्य
करेंगे.”
उसके नेत्र भर आये थे. कालिदास के
पैर भारी हो गए थे. माध्याह्न का समय कठोर प्रतीत हो रहा था. इस कठोर काल ने ही
दोनों की परिक्षा ली थी.
कालिदास अब अश्व पर सवार होकर
उज्जयिनी की ओर निकले थे. वैतरिणी नदी के किनारे वाले अरण्य का मार्ग उज्जयिनी की
ओर जाता था. उनके पीछे उनके चार सैनिक भी थे.
कालिदास प्रसन्न थे. सरस्वती देवी से
भेंट हो गई थी, और मन
में ब्रह्मकमल के समान एक-एक पंखुड़ी की भाँती कथानक खिल रहा था. हरिद्वार से
केदारनाथ तक प्रवास की एक-एक घटना याद आती रही. हरिद्वार के निकट ही कनखल में
शिव-पार्वती का विवाह,
नगाधिराज हिमालय की वह वेदाशास्त्र संपन्न, गुणवती, रूपयौवना पार्वती और प्रथम पत्नी उमा द्वारा यज्ञ
कुंड में प्राणार्पण करने के पश्चात अखिल विश्व को अपनी क्रोधाग्नि से भस्म करने के
लिए उद्युक्त शिवशंकर,
ऐश्वर्य और राजकन्या के अधिकार रखने वाली पार्वती और श्मशान में रहकर जीवन-मृत्यु
का आलेख लिखने वाले शिवशंकर! कर्पूरगौर शिवशंकर और मानव वंश की पार्वती. एक परम
ईश्वर, तो
पार्वती अनेक राजकन्याओं में से एक. तपस्या करके उसने शिवशंकर जैसे श्मशानवासी, विधुर, निर्धन पति के
ही लिए क्यों हठ किया इसका आकलन तो देवताओं को भी नहीं हुआ था.
कालिदास के सामने रुद्रप्रयाग, देवप्रयाग, गौरीकुंड, और नेत्रों के
सामने दिखने वाले हिमाच्छादित, जिस पर रत्न मालाएं बिखरी हुई हैं, ऐसे हिमालय की
कतारें खडी हो गईं.
कनखल से केदारनाथ और उससे भी आगे का
परिसर शिवशंकर का ही है,
कैलासनाथ,
मानसरोवर उन्हीं का है. वे भी हिमनगों के सम्राट थे. चंद्रप्रभा, सूर्यप्रभा से
हिमकणों पर बिखरे रत्न उनका जीवन था.
इस परिसर में प्रवेश करते हुए
पार्वती को कैसा लगा होगा? इतना विस्तृत,
कठिन मार्ग क्या वह चढ़ पाई होंगी? या, उसे अपने सुदृढ़ बाहुओं पर उठाकर वे उसे कैलास ले
गए होंगे? क्या
मंदाकिनी के तीर पर उन्होंने उसके लिए उष्ण जल प्रवाह तैयार किया था? अपनी प्राणप्रिय
पार्वती को तनिक भी कष्ट न होने पाए, इसलिए उन्होंने क्या गणों और रुद्रों को बुलाकर
उसका मनोरंजन भी किया होगा?
और फिर शुरू हुआ... वैवाहिक जीवन का
आरम्भ... वीतरागी शिवशंकर अनुरागी हुए. श्मशानवासी शिवशंकर अब स्वर्ग लोक से भी
ऊपर गोलोक को गए.
जीवन में बसंत का आगमन हुआ. जीवन
समृद्ध,
संगीतमय हो गया. देह वीणा की हर झंकार में एक नाद प्रकट हुआ. उनका प्रणयी जीवन
त्रैलोक्य के लिए उत्सुकता का विषय हो गया. हिमालय के परिसर में नियति भाव-काव्य
लिख रही थी. बीच-बीच में मंदाकिनी के सुर में सुर मिलाकर जल गीत भी गा रही थी.
कालिदास अत्यंत प्रसन्न थे. मन में
रजनीगन्धा फूल रही थी. जब उजयिनी की सीमा दृष्टिपथ में आईं तो वे सावधान हुए. अब
अश्व तेज़ गति से राजप्रासाद की ओर निकला.
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