ब्रह्म
मुहूर्त का समय. शांत स्तब्धता. कार्तिक मास का आरम्भ. कालिदास
ने अर्ध रात्रि को बुझाए हुए दीप जलाए. आसन पर बैठकर भोजपत्र उठाए और उनकी लेखनी
ने उस पर सर्व प्रथम लिखा : ॥ कुमार संभवम् ॥
मन
में निश्चित ही था. गर्भवती प्रभावती देवी को देखकर कभी मन में आई हुई कुमार कार्तिकेय
की जन्म कथा ने इस निमित्त से जन्म लिया था. और इसीलिये वे आधी रात को शुचिर्भूत
होकर प्रसन्न मन से लिखने बैठे थे.
अस्त्युत्तरस्यां
दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः ।
पूर्वापरौ
तोयनिधी विगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः ॥
अनंत रत्नमणि जिसने धारण किये हैं, ऐसे नगाधिराज हिमालय, और वह अनुपम
सौन्दर्य जिसे प्राप्त हुआ हो, जो सिद्ध
पुरुषों को साधना के लिए प्रेरित करता हो, ऐसे हिमालय का कितना-कितना वर्णन करूँ? शब्द-शब्द सरिता अनावर वेग से मन में
प्रवाहित होने लगी. हिमालय का नितांत सुन्दर स्वरूप उनके नेत्रों के सम्मुख प्रकट
हो गया था.
इस हिमालय पर रहने वाली स्त्रियाँ भोज
वृक्षों के रस में अपनी लेखनी डुबो कर अपने प्रिय जनों को सन्देश भेजती हैं.
हिमालय की गुफा से समीर इतना नादमय हो जाता है जैसे बांसुरी के स्वर गूँज रहे हैं.
हिमालय में उपस्थित दिव्य वनस्पतियों का प्रकाश गुफा में वास्तव्य करने वाले
वनचारियों को दिव्य प्रकाश देता है, और हिमालय
पर विचरण करने वाली किन्नर महिलाएं भी दर्शनीय एवँ सुखी प्रतीत होती है.
कालिदास हिमालय के प्रेम में प्रेयसी
होकर मग्न हो गए थे. हिमालय के अंग प्रत्यंग का वर्णन करते हुए कालिदास अबाधित लिख
रहे थे. सुमेरू पर्वत के ज्येष्ठ मित्र हिमालय ने मीनाक नामक कन्या से यहाँ विवाह
किया था. और इसी हिमालय के साथ उसने अनेक प्रणय रातें बिताई थीं. और वह गर्भवती हो
गई. उसी मैना के पुत्र – मैनाक ने नागकन्या से विवाह किया और आगे चलकर इंद्र को
पराजित किया.
पर्वतराज हिमालय की पूर्व पत्नी सती का
पुनर्जन्म भी यहीं हुआ. उसी मैना की कन्या है पार्वती. इस अनुपम लावण्यवती पार्वती
का बचपन यहीं खिला था. यौवन यहीं विकसित हुआ. तपोवन के ऋषियों के आश्रम में
शास्त्रों और वेदों का अध्ययन हुआ. यौवन में पदार्पण करने वाली पार्वती.
उन्मीलितं
तूलिकयेव चित्रं सूर्यांशुभिर्भिन्नमिवारविन्दम् ।
बभूव
तस्याश्चतुरस्रशोभि वपुर्विभक्तं नवयौवनेन ॥
कामदेव स्वतः ही हाथ में तूलिका लेकर
नवयौवना पार्वती के अंग प्रत्यंग का सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए चित्र रेखन कर रहे
हैं, ऐसा आभास अपने ही
शब्दों से कालिदास को हो रहा था. प्रत्येक शब्द से पार्वती की लावण्यलतिका
स्वर्गीय सौन्दर्य और गंध लेकर खिल रही थी.
नवपल्लव मालिका में शुभ्र पुष्प के समान
पार्वती का गौरवर्ण खिला पड़ रहा था और उस पर लाल रत्न के समान पार्वती के अधर
सुशोभित हो रहे थे. उसकी धनुष्याकृति भंवें देखकर कामदेव ने भी अपने धनुष्य का
त्याग कर दिया था. पार्वती के मधुर स्वर कोयल को भी लजा रहे थे.
कालिदास अनेक उपमाओं का प्रयोग कर रहे थे, परन्तु चित्रकार के रंग और शब्दकार के
शब्द ही मौन हो जाएँ, ऐसी
स्वर्गीय मोहकता थी उसके अंग-प्रत्यंग की. उसके केश सघन और रेशमी मृदु थे. यदि
स्वर्ग की कामधेनु को पता चलता, तो वह भी
उसके बालों से ईर्ष्या करती. ब्रह्मदेव ने समूची सौन्दर्य संपदा ही पार्वती को
अर्पण कर दी थी.
नारद मुनि ने उसे देखते ही भविष्यवाणी की
थी, कि अत्यंत रूपवान
शिवशंकर के लिए ही इसका जन्म हुआ है. इसीलिये उसके विवाह योग्य होने पर भी पार्वती
पिता हिमालय ने अभी तक वर संशोधन आरंभ नहीं किया था. पूर्व जन्म की सती (उमा) इस
जन्म में पार्वती के रूप में उन्हीं की प्रतीक्षा में थी. परन्तु विरक्त महायोगी
देवदार के वन में तपस्या रत थे. शिलाजीत की चट्टान पर वे न जाने कब से आसनस्थ थे, और पार्वती, वह तो तपस्यामग्न शिव शंकर की मनोभाव से सेवा कर रही
थी.
अवचितबलिपुष्पा
वेदिसम्मार्गदक्षा
नियमविधिजलानां
बर्हिषां चोपनेत्री ।
गिरिशमुपचचार
प्रत्यहं सा सुकेशी
नियमितपरिखेदा
तच्छिरश्चन्द्रपादैः ॥
यहाँ कालिदास ने ‘कुमारसंभवम्’ का प्रथम
सर्ग समाप्त किया.
अभी प्रात:काल होने में समय था. उन्होंने
द्वितीय सर्ग आरंभ किया. एक के बाद एक शबद सहज ही भोजपत्र पर अवतरित हो रहे थे.
शिवशंकर तपस्या में मग्न थे. उसी समय
तारकासुर बलवान होकर निरंतर देवताओं को सता रहा था. तब सभी देवता ब्रह्म देव के
सम्मुख उपस्थित हुए. देवताओं ने पूछा,
सृष्टिकर्ता आज आप चिंतित क्यों प्रतीत होते हैं? हे अजन्मा, आप ही ने तो जल में अमोघ बीज डाला था, जिससे संसार का जन्म हुआ. आप जनक हैं.
स्वत: में ही उत्पत्ति, स्थिति, विलय अर्थात ब्रह्मा, विष्णु एवँ महेश हैं.
और फिर कालिदास ने ब्रह्मा द्वारा की गई
सृष्टि रचना, उनके कार्य, कार्य का विभाजन, सत्व, रज, तम और
उदात्त, अनुदान, स्वरित – ऐसी वेदवाणी का निर्माण किया.
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – ये चार पुरुषार्थ प्रदान किये.
त्वं पितॄणामपि पिता देवानामपि देवता ।
परतोऽपि परश्चासि
विधाता वेधसामपि ॥
त्वमेव हव्यं होता च
भोज्यं भोक्ता च शाश्वतः ।
वेद्यं च वेदिता
चासि ध्याता ध्येयं च यत्परम् ॥
पूरी स्तुति सुनने
के बाद ब्रह्मदेव द्रव्य, गुण, क्रिया और परा, पश्यन्ति, मध्यमा एवँ वैखरी का उपयोग करते हुए बोले, “आज देवता तेजोविहीन हो गए हैं. वृत्रासुर का वध करने वाले
इंद्र आज सुखासीन हो गए हैं. वरुण, कुबेर, यम, मरुत सभी जैसे निष्प्रभ हो चुके हैं.
जिस प्रकार शास्त्र
में, व्याकरण में सर्व साधारण नियमों का उल्लंघन करने वाला एकाध
अपवाद होता है, उसी प्रकार आप देवताओं ने स्वप्रतिष्ठा नष्ट कर दी है. यही
मेरी चिंता का और चिंतन का विषय है.”
“परन्तु आपने
तारकासुर को ‘देवताओं द्वारा अवध्य’ होने का वरदान दिया
है. उसका वध कैसे किया जाए? त्रैलोक्य को भयभीत करने वाला तारकासुर
धूमकेतु के समान अचानक प्रकट होता है. चन्द्र भी भयभीत होने के कारण कृष्ण पक्ष
में भी प्रकाशित होता है, समीर भी मंद गति से चलता है, समुद्र भी दस
बार देखकर रत्न देता है, वासुकी-नागगण अपने-अपने रत्नों से उसकी नगरी को प्रकाशित
करते हैं. देवांगनाएँ पुष्प एकत्रित करने के लिए जिन वृक्षों के पास जाती थीं, उन वृक्षों को ही उसने नष्ट कर दिया.”
“हे प्रजापिता, ब्रह्मदेव तारकासुर के बारे में जो जो उपाय करने थे, सब कर लिए. विष्णुदेव द्वारा छोड़ा गया सुदर्शन चक्र भी उसका
कंठच्छेद नहीं कर सका. आपने ही उसे वर दिया था, अब आप ही उपाय
बताएँ.”
“अवश्य, परन्तु उसके लिए प्रतीक्षा करनी होगी. मैंने उसे वरदान दिया है, अत: मैं उसका वध नहीं कर सकता. एक ही संभाव्य है. यदि शिवशंकर
को पुत्र हुआ, तो वही तारकासुर का वध करेगा. इसके लिए शिवशंकर को मानव वंश की
स्त्री से विवाह करना होगा.” इन्द्रदेव को यह कल्पना मान्य हो गई. विरक्त योगी
शिवशंकर के मन में यदि कामदेव प्रवेश करें, तो वे निश्चित रूप
से विवाह करेंगे और
अथ स ललितयोषिद्भ्रूलताचारुशृङ्गं रतिवलयपदाङ्के
चापमासज्य कण्ठे ।
सहचरमधुहस्तन्यस्तचूताङ्कुरास्त्रः
शतमखमुपतस्थे प्राञ्जलिः पुष्पधन्वा ॥
ऐसा कामदेव वसंत ऋतु को लेकर ही इन्द्रसभा में प्रकट हुआ.
द्वितीय सर्ग समाप्त करने के बाद कालिदास ने गवाक्ष से बाहर देखा. अरुण रथ
में सवार होकर रविराज उषा के प्रासाद में प्रवेश कर चुके थे. शुचिर्भूत होकर पुन:
लिखने का विचार करके उन्होंने तीसरा सर्ग आरंभ किया.
इन्द्रदेव का सन्देश प्राप्त होते ही कामदेव तत्काल इन्द्रसभा में पहुंचे.
इंद्र ने उन्हें अपने निकट आसन पर स्थान दिया. कामदेव प्रसन्न होते हुए बोले, “ऐसा कौनसा
कार्य है, जो आप और देवता नहीं कर सकते? किसी को अपने पद का मोह तो नहीं
हुआ है? शुक्राचार्य को नीतिशास्त्र की परिभाषा ही बदलने पर बाध्य होना पड़े, ऐसी कौन सी
व्यक्ति है, जिसे मुझे असंयमित, मोहित करना है? किस वीर को
प्रलोभन में डालना है?
मैं वसन्त की सहायता लेकर पुष्प वर्षा करते हुए प्रत्यक्ष वीतरागी शिवशंकर
को भी अनुरागी बना सकता हूँ.”
“मित्र, कामदेव, मेरे पास केवल दो ही अस्त्र हैं –
एक वज्र और दूसरे तुम! तपस्या करने वालों पर मेरे वज्र का उपयोग प्रभावी नहीं
होता.”
यह वाक्य लिखने के बाद कालिदास को मेनका, उर्वशी का स्मरण हुआ, और वे मन ही
मन हँसे. सामर्थ्यशाली पुरुष भी स्त्री के सम्मुख हतबल हो जाता है. अत: अपने
विचारों का हमने योग्य ही प्रतिपादन किया है, इस विचार से उन्हें समाधान प्राप्त
हुआ.
“कामदेव, वसन्त को लेकर उस स्थान पर जाओ, जहाँ शिवशंकर
तपस्या कर रहे हैं, और उनके मन को विवाह के लिए तैयार
करो, उसके बिना उन्हें पुत्र प्राप्ति नहीं होगी.”
कामदेव हँसे. हाथ में मदनबाण और वसन्त का धनुष्य होते हुए उन्होंने आज तक
इंद्रदेव के सारे कार्य सफलतापूर्वक किये थे. इस समय भी उसने ‘हाँ’ कहा और अपना
मदनबाण लेकर वसन्त के साथ शिवशंकर के तपस्यास्थल पर आया.
वह तपस्याभूमि तब वसंतभूमि हो गई. वसुंधरा पर नवचैतन्य, यौवन का नव
ज्वर प्रकट हुआ. तपस्या में मग्न शिवशंकर के मन में अचानक अस्वस्थता होने लगी.
उन्हें अनुभव हुआ कि उनके वीतरागी मन में अनुराग ने प्रवेश किया है. ये कैसे हुआ? एक युग बीत
गया था, जब उमा ने अपने दक्ष पिता के यज्ञकुंड में स्वयँ को समर्पित कर दिया था.
अब भावनाएँ-संवेदनाएं कैसे जागृत हो गईं? अनजाने में ही उन्होंने नेत्र
खोले. नवयौवना पार्वती जब हाथ में जल और पुष्प लिए दिखाई दी तो नवविकसित
देह का अनुपम लावण्य देखकर वे विस्मित ही नहीं, अपितु अनुरक्त हो गए.
कालिदास के नेत्रों के सामने स्वर्गीय
सौन्दर्य प्राप्त पार्वती खड़ी थीं, उसके अंग-प्रत्यंग
का वर्णन करते हुए वे एकेक उपमा दिए जा रहे थे, ना तो उपमाएं समाप्त हो रही थीं, ना ही पार्वती का सौन्दर्य वर्णन. वे
स्वयँ ही अपने शब्द चातुर्य पर विस्मित हो रहे थे. आखिरकार उन्होंने सौन्दर्य
वर्णन रोक दिया, ऐसे
सौन्दर्य से जो विचलित हो जायें वह शिवशंकर कैसे हो सकते हैं?
शिवशंकर ने देखा. मदन बाण हाथ में लिए
कामदेव उन्हें दिखा और अनावर क्रोध से उन्होंने अपनी तपस्या भंग करने वाले मन्मथ
को पलभर में ही अपने क्रोध से भस्म कर दिया. कामदेव की पत्नी मूर्च्छित हो गई और देवलोक
में भी शोक फ़ैल गया. वसन्त भी दबे पाँव वापस चला गया. हिमकन्या को मूर्च्छितावस्था
में हिमराज हिमालय ने इस तरह हलके से उठाया जैसे ऐरावत अपने मुख में कमल पुष्प ले
जा रहा हो.
हिमालय के अपनी कन्या को अपने प्रासाद
में ले जाने के बाद कालिदास की चिंता समाप्त हो गई थी. कामदेव की पत्नी रति अभी
मूर्च्छित थी. तीसरा सर्ग समाप्त हो गया था, परन्तु अब पूर्व दिशा हलके-हलके प्रकाशमान हो रही
थी. नित्य नियमानुसार वे शुचिर्भूत होने के लिए क्षिप्रा तट पर गए. परन्तु वे अभी भी रति के बारे में चिंतित थे.
मूर्च्छा टूटने पर उसकी क्या अवस्था होगी, इस बारे में वे विचार कर रहे थे. और चौथा सर्ग आरम्भ
हो गया, मानो वे लिखते ही
रहे हों. रति
को होश आ गया था. शिवशंकर की क्रोधाग्नि में कामदेव का निधन होने का समाचार उस तक
पहुँच गया था,
परन्तु अब उसका विलाप आरम्भ हो गया था. उसके विलाप का करूण स्वर प्रकृति के
चेतन-अचेतन को आंदोलित कर रहा था. तपोभूमि से चैतन्य खो गया. उसकी अवस्था दयनीय हो
गई. ऐसा क्यों हुआ? वह तो कामदेव की सखी, सहचरी, पत्नी थी. कभी किसी कारण से वह उस पर क्रोधित
भी हुई होगी,
परन्तु उसकी प्रीत सच्ची थी. हे प्रियतम, यह रति मदन के बिना कैसे रह सकेगी...तुम असत्य
तो नहीं कह रहे थे कि मेरे जीवन के साथ एकरूप हो? अगर ऐसा होता, तो तुम जाओ, और मैं रह जाऊँ, ऐसा कैसे हो सकता है? स्वयँ को दोष देते हुए वह विलाप करती
रही. अंत में मदन का सखा वसन्त उसका सांत्वन करने आया.
पत्नी की अपेक्षा मित्र अधिक घनिष्ठ होता है. पत्नी से जो बात गुप्त
रखी गई हो, वह
मित्र को ज्ञात होती है. वह वसन्त से कहती है, “आज तक मदन के बिना रति कभी थी ही नहीं. उसकी
देह भस्मसात हो चुकी है, मेरा सिंगार व्यर्थ है. आज तक बिताई सहजीवन की रमणीय रातें मैं वापस
नहीं ला सकती,
इसलिए हे बसंत, श्रृंगार
रहित रति के, अब
सती जाने की व्यवस्था करो. हे वसन्त, तुमने अनेक बार हमारी पुष्प सज्जा सजाई है, मदन की रति अब सती जा रही है, अत: उसकी काष्ठ शैया सजाओ. वसन्त उसका
सांत्वन करने का प्रयत्न करता है, परन्तु वह कहती है,
“चन्द्र के अस्त होने के बाद कौमुदी का अस्त होता है. मेघों के जाने
के बाद सौदामिनी भी जाती है. उसी प्रकार मैं भी उसके पीछे अग्नि में प्रवेश करके
जा रही हूँ. उसी समय आकाशवाणी होती है, “हे रति, तुम्हारे पति ने एक बार ब्रह्मदेव के मन में
अपनी पुत्री के प्रति अभिलाषा, काम भाव निर्माण किया था, तब ब्रह्मदेव ने उसे शाप दिया था. वह भविष्यवाणी
पूर्ण हुई, और
तुम्हारा पति शिव-पार्वती के विवाह के अवसर पर पुन: जीवित होगा.”
कालिदास त्वरा से अपने कक्ष में आये, आज वे सूर्य को अर्ध्य देना भी भूल गए थे. सेवक
ने उनके लिये दूध का पात्र भरकर उनके आसन के निकट रख दिया था. और अर्ध रात्रि को
प्रज्वलित की गई दीप ज्योति को वह अब शांत कर रहा था. कालिदास को मन ही मन स्वयँ
पर आश्चर्य हो रहा था. उन्हें सुखद अनुभव हुआ कि वे इस ‘कुमारसंभव’ में अनजाने ही
उलझते जा रहे हैं.
आते ही उन्होंने आसन पर बैठकर लिखना आरम्भ किया. अब उनका ध्यान
पार्वती पर था. वे पांचवां सर्ग लिखने लगे.
तथा समक्षं दहता
मनोभवं पिनाकिना भग्नमनोरथा सती।
निनिन्द रूपं
हृदयेन पार्वती प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता॥
शिवशंकर ने कामदेव को भस्म कर दिया, अर्थात् पार्वती के सारे मनोरथ ही विफल हो गए
थे.
जब वे तपस्या करने के लिए निकली, तो उसकी माता मैना ने कहा,
“जब तुम्हें सारा ऐश्वर्य प्राप्त हो रहा है, तो क्या तुम्हारा कोमल शरीर निबिड़
अरण्य में कठोर तपस्या सहन कर पायेगा?”
परन्तु दृढ संकल्पित मन प्रवाह की भाँति गतिमान होता है. पर्वतराज
हिमालय ने उसके निर्धार और संकल्प को देखकर अनुमति दी. अपनी गौरवर्णा गौरी को
मयूरों के निवास वाली शिवशंकर की भूमि में स्थित अरण्य की ओर जाते देखा तो पिता के
नेत्र भर आये. सुकुमारी, गौरांगी, मृदुला, पर्वतकन्या पार्वती के राजकन्या के समस्त ऐश्वर्य को त्यागकर अरण्य
में जाने का वर्णन कालिदास अति सवेदनशीलता से कर रहे थे. राजवस्त्र, राजऐश्वर्य, राजभोग, राजअधिकार... सब कुछ त्याग कर वह एक वज्र
निर्धार से निकली थी. कठोर परीक्षा दे रही थी. जल. वायु, भूमि और ऋतुओं से संघर्ष कर रही थी,
फिर भी शिवशंकर प्राप्त नहीं हो रहे थे. अब उसने जल और वायु का भक्षण करना आरम्भ
कर दिया. इतना ही नहीं, ग्रीष्म में भी उसने अग्नि परिक्षा आरंभ कर दी थी. बिना पलक झपकाए
ग्रीष्म के सूर्य की ओर देखती रहती.
परन्तु प्रदीप्त सूर्य किरणों की ओर निरंतर देखते रहने से उसके नेत्र
आरक्त हो गए, उनके नीचे श्याम वलय प्रकट हो गए. वह वर्षा ऋतू की अविरत धाराओं के
नीचे खड़ी रहती,
पौष मास में अविरत तीव्र गति से बहते समीर के मध्य वह शीत जल में खडी रहती. हिमपात
में उसका कृश शरीर कंपित होता, परन्तु उसने अपनी निष्ठा और तपस्या छोड़ीं नहीं थी. अनेक ऋषि-मुनि
विस्मित होकर उसकी तपस्या को देख रहे थे. उसके लगाए अंकुर वृक्ष बनकर फलों फूलों
से लद गए. परन्तु उसकी मनोकामना फूलने का तो क्या, फलने का भी नाम नहीं ले रही थी.
इसी समय एक युवा, तेजस्वी ब्रह्मचारी उस वन में आया. उसने पूछा,
“तुमने मेरा गृहिणी की भाँति स्वागत किया. परन्तु तुम्हारे जैसी
राजकन्या किस प्रयोजन से तपस्या कर रही है? ऐसी कौन सी वस्तु है, जो तुम्हें अप्राप्य है? तुम्हारे लिए कुछ भी असाध्य, असंभव न होते हुए भी तुम ऐसी कठोर
तपस्या किस उद्देश्य से कर रही हो? क्या उत्तम पति प्राप्त हो इसलिए तो यह तपस्या
नहीं?”
उसकी सखी ने तत्क्षण उत्तर दिया, “उत्तम पति के लिए ही यह तपस्या है.”
“कौन सा पति मांग रही है?”
“शिवशंकर,” सखी ने तत्परता से उत्तर दिया.
ब्रह्मचारी मन ही मन हंसा. इससे पूर्व उसने पार्वती के निवास की, जल की, उसके द्वारा निर्माण किये गए उपवन की स्थिति
के बारे में जानकारी प्राप्त की थी. इतना ही नहीं, उसने यहां तक कहा था, कि अपनी तपस्या का आधा फल तुम्हें
देता हूँ, परन्तु पति का नाम बताओ. ‘शिवशंकर’ का नाम सुनकर उस ब्रह्मचारी ने शिवशंकर की
निंदा करना आरम्भ कर दिया, और कहा,
“अमंगल और निकृष्ट वस्तु प्राप्त करने का तुम हठ करो, इसका आश्चर्य होता है.”
उस ब्रह्मचारी ने शिवशंकर के प्रति एक भी उत्तम शब्द नहीं कहा, इससे पार्वती दु:खी हो गई, व्यथित हो
गई. स्वयँ को संभालते हुए उसने कहा,
“आप अमंगल कहते हैं, परन्तु वह मंगल और अमंगल से भी परे देवतात्मा है.’
जब ब्रह्मचारी ने उसकी आयु पूछी, तो पार्वती ने कहा, “उसकी आयु का किंचित भी विचार मेरे मन
में नहीं है. अकिंचन प्रतीत होने वाले शिवशंकर अनन्य सिद्धि दाता हैं. वे
सर्पमुंडमाला धारण करते हैं, फिर भी उनकी देह के भस्म को शरीर पर लगाने से देवता भी धन्य हो जाते
हैं. उनके कुल-गोत्र से, माता-पिता से मुझे कुछ भी लेना देना नहीं है, क्योंकि विष्णुदेव और
ब्रह्मदेव का कुल-गोत्र किसे ज्ञात है?”
पार्वती ने अपनी सखी से कहा कि उस ब्रह्मचारी से मौन धारण करने के
लिए कहे. किसी की निंदा करना योग्य नहीं है. इतना कहकर जैसे ही वह वहाँ से जाने
लगी, तभी शिवशंकर ने अपना वास्तविक रूप प्रकट किया और उसका मार्ग रोका. ऐसा प्रतीत
हुआ मानो जलप्रवाह से जाते हुए अचानक कोई पर्वत सम्मुख आ जाए और पल भर को प्रवाह
ही स्तंभित हो जाए. उसने प्रत्यक्ष शिवशंकर को देखा और प्रसन्नता से हंसी.
उन्होंने कहा,
“हे सुन्दरी,
हमें प्राप्त करने के लिए तुमने जिस अविचल निष्ठा से अथक परिश्रम किया, अगणित क्लेश सहन किये, उससे हम प्रसन्न हुए.”
कालिदास से लेखनी रख दी. पांचवां सर्ग पूरा हो गया था. सेवक ने
उन्हें गोरस पात्र दिया. और, उन्हें अचानक स्मरण हुआ राजसभा में जाने के समय के बारे में.
उन्होंने तत्काल सम्राट चन्द्रगुप्त को एक सन्देशपत्र भेजा. उसमें उन्होंने विनती
की, कि
यदि कुछ दिन सभा में उपस्थित न रह पायें, तो क्षमा करें, परन्तु यदि महत्वपूर्ण कार्य हो तो वे अवश्य
उपस्थित रहेंगे. सन्देशपत्र लेकर सेवक चला गया.
मध्य रात्रि से वे निरंतर लिख रहे थे. बीच में कुछ समय मंचक पर लेट
गए थे. परन्तु जिस प्रकार अलकनन्दा के यौवन प्रवाह को थामना कठिन है, उसी प्रकार मन की शब्द सरिता को रोकना
उनके लिए असंभव था.
शिवशंकर ने पार्वती को विवाह के लिए सहमति दर्शाई थी. परन्तु विवाह
होगा कैसे?
शिवशंकर एकाकी,
श्मशानवासी,
नाते-रिश्तेदार बिलकुल नहीं. पार्वती की इच्छानुसार शिवशंकर हिमालय कन्या को
कन्यादान में माँगने वाले थे.
वे अपने स्थल वापस जाने ही वाले थे कि अत्यंत तेजोमय सप्त ऋषियों को
देखकर रुक गए. वसिष्ठ ऋषि अरुंधती सहित आये थे. उन्हें देखते ही विवाह करने की
तीव्र इच्छा शिवशंकर के मन में जागी. उन्होंने अपनी कथा सुनाई. पार्वती की कथा भी
सुनाई. उन्होंने सप्त ऋषियों से विनती की कि हिमालय की राज सभा में जाकर यह कहें
कि पार्वती का कन्यादान करके उसे शिवशंकर को अर्पित करें. तब सामवेद के निर्माता
ऋषियों ने कहा,
“मान्य है. हमारा स्थान चन्द्र-सूर्य से भी श्रेष्ठ है, परन्तु हे त्रिलोचन, आपने अपने हृदय में हमें जो श्रेष्ठ
स्थान दिया है,
उसके लिए हम आपके आभारी हैं. परन्तु आपके बारे में हम हिमालय से क्या कहें, यह आप हमें बताएँ. आप सृष्टिकर्ता हैं, और मंदारकर्ता भी.” शिवशंकर ने कहा, “जो उचित समझें, वह कथन करें, परन्तु वास्तव ही कथन करें.”
“सप्तर्षि, हिमालय नगाधिराज महाराज को भी इस बात की कल्पना दें, कि हमारे मन में किसी भी प्रकार का
स्वार्थ नहीं है. पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा को भी यह ज्ञात है. परन्तु तारकासुर का वध करने के लिए
देवताओं ने हमसे पुत्र की याचना की है...यह आपको भी ज्ञात है, अत:...”
“सत्य है, हम उचित और सत्य ही कथन करेंगे.” सप्तर्षि गंधमादन के परिसर में आये
और हिमालय की औषधि वनस्पतियों के उपवनों की वैभवशाली नगरी दिखाई दी. वहाँ से होते
हुए वे भीतर गए, तब स्वत: हिमालय ने महारानी के साथ उनकी पाद्य पूजा की.
“आपके आगमन का यदि कोई विशेष प्रयोजन हो तो उसे हम अवश्य पूर्ण
करेंगे.”
“राजश्रेष्ठ, शिवशंकर ने मस्तक पर गंगा धारण की है, यह आपको ज्ञात ही है. जो शिवशंकर
अणिमा सहित अष्ट सिद्धि से युक्त हैं, पृथ्वी सहित अन्य लोकों के पालक हैं, प्रत्यक्ष कथन करें तो शिवशंकर को आप
अपनी कन्या पार्वती दें, यह विनती करने के लिए हम आये हैं. ईश्वर-देवता अनेक हैं, परन्तु परमेश्वर केवल एक है, यह आप जानते ही हैं.” देवर्षि अंगिरस
जब यह कथन कर रहे थे, तो मन में अत्यंत प्रसन्न पार्वती क्या करें, यह न सूझने के कारण गुलाब
पुष्पों की पंखुड़ियां विलग कर रही थी.
अत्यंत प्रसन्न होते हुए महाराज हिमालय ने पूछा, “मुहूर्त कब का रखें?” सप्तर्षियों ने शुभ योग देखकर तीन
दिन पश्चात का मुहूर्त बताया.
अब शिवशंकर को तीन दिनों की अवधि अत्यंत दीर्घ प्रतीत हो रही थी.
माध्याह्न का समय हो रहा था. कालिदास आसन पर बैठे थे. सेवक द्वारा
रखा गया फलाहार उनकी प्रतीक्षा कर रहा था. परन्तु जैसे मोतियों की माला के खुल
जाने पर मोती पटापट नीचे गिरते हैं, उसी प्रकार से मन से भी शब्द निकल निकल कर
भोजपत्र पर अवतरित हो रहे थे. अब तो कालिदास पार्वती और शिवशंकर के विवाह की
अधीरता से प्रतीक्षा कर रहे थे. अनजाने ही सातवाँ सर्ग आरम्भ हो गया था.
सर्व-ग्रह शांति करने के बाद महाराज हिमालय ने नगर को सुशोभित किया.
आप्तजनों को त्वरा से आमंत्रित किया गया. अवधि कम होने से नगर में सब कुछ शीघ्रता
से हो रहा था. राजमार्ग मंदार पुष्पों से सुशोभित था. आप्तजनों ने पार्वती को
आशीर्वाद सहित अनेक अलंकार दिए.
विवाह के समय तो पार्वती-त्रिलोकसुन्दरी ऐसी अनुपम प्रतीत हो रही थी
कि उसका वर्णन करने के लिए कालिदास के पास शब्द ही नहीं थे. नेत्रों के सम्मुख
स्वर्गीय देवता प्रकट हुए परन्तु पार्वती वर्णनातीत ही थीं. फिर भी उन्होंने
उसकी कमनीय देह को कैसे श्रृंगारित किया
इसका वर्णन कर रहे थे. रेशमी वस्त्रों में सालंकृत पार्वती को देखकर माता मैना भी
अत्यधिक प्रसन्न थीं.
शिवशंकर ने सप्तर्षियों की पत्नियों को मातृका रूप में केवल स्पर्श
मात्र से सभी श्रृंगार सामग्री उपलब्ध कर दी. जब वे स्वयँ भी तैयार हुए तो ऐसा
प्रतीत हो रहा था, मानो कोई अद्वितीय राजकुमार विवाह के लिए जा रहा हो. उनके द्वारा
धारण किये चन्द्रमा का तेज मुखमंडल पर था. जब वे विवाह के लिए शक्तिशाली वृषभ पर
बैठकर निकले, तो
ब्रह्मदेव से विष्णु और महेश विभक्त हुए. सभी देवतागण विवाह के लिए निकले. शिवशंकर
की वेशभूषा राजसी थी.
स्त्रियाँ अपना रूप दर्पण में देखती हैं, परन्तु वीर्यवान पुरुष अपना रूप
किसमें निहारें?
क्षण भर में कालिदास ने लिखा – शिवशंकर ने चमचमाते खड्ग में अपना रूप देखा. सभी
देवताओं सहित शिवशंकर ने नगरी में प्रवेश किया, सभी नगरजन उन्हें देखने दौड़ पड़े. पार्वती तो
गीले कुंकुम चरणों से उन्हें देखने के लिए गवाक्ष तक भागी. एक ही आंख में काजल
डाले कई स्त्रियाँ बाहर आईं.
कालिदास मन ही मन हँसे. अपने नेत्रों के सामने उन्हें नगरजनों की
हडबड़ाहट दिखाई दे रही थी. विवाह वेदी के पास शिवशंकर, पार्वती का आगमन हुआ.
लज्जावती पार्वती और प्रत्यक्ष परमेश्वर का विवाह न भूतो, न भविष्यती ऐसा संपन्न हो रहा था.
देवता,
ऋषिगण,
राजा,
महाराजा,
नगरवासी विशाल मंडप में एकत्रित हुए थे. हरेक के मन में शिव पार्वती को देखने की
इच्छा थी.
पूर्णिमा के चन्द्रमा जैसा पार्वती का मुख कमल देखकर शिवशंकर के
नेत्र मन ही मन प्रफुल्लित हो गए थे. और उनका मन जल की भाँति निर्मल हो गया था.
मंत्रोच्चारों के बीच विवाह विधि संपन्न हो रही थी. महाराज हिमालय ने पार्वती का
हाथ शिवशंकर के हाथ में दिया और पार्वती को ऐसा अनुभव हुआ, मानो प्रत्यक्ष कामदेव ने दोनों के
हाथों को स्पर्श किया है. मंत्रोच्चार रोकते हुए राजपुरोहित ने कहा,
“हे कन्या,
वधूं द्विजः
प्राह तवैष वत्से वह्निर्विवाहं प्रति पूर्वसाक्षी ।
शिवेन भर्त्रा
सह धर्मचर्या कार्या त्वया मुक्तविचारयेति ॥
अग्नि की साक्षी से अब विवाह संपन्न
हुआ.”
उस किंचित हस्त स्पर्श से वह पुलकित हो
उठी. अग्नि की साक्षी से हुआ विवाह नेत्रदीपक था. उन्होंने ब्रह्मा से आशीर्वाद
लिया, लक्ष्मी ने उन्हें
कमलपुष्प दिया जो जलबिन्दुओं से सुशोभित था.
विवाह संपन्न होने के पश्चात देवताओं ने
उनसे कामदेव को सजीव करने की विनती की. शिवशंकर हँसे. उन्होंने देवताओं की विनती
मान्य कर ली.
सर्ग समाप्त होने के बाद कामदेव को सजीव
करने का स्मरण हुआ. स्वयँ उन्हें ही आनंद हुआ. लज्जावती, अनुपमसुन्दरी और शिवशंकर अब शय्यागृह की
ओर निकले थे, अत: कामदेव की
उपस्थिति नितांत आवश्यक थी.
माध्याह्न हो चुकी थी. भोजन कक्ष की ओर न
जाकर उन्होंने फलाहार करने का निश्चय किया. वस्तुत: भोजनकक्ष उनके कक्ष से लगा ही
हुआ था, परन्तु उनका मन
शिव-पार्वती की प्रथम रात्रि के श्रृंगार में मग्न था.
परन्तु उसी समय मध्याह्न के उपरांत
मनोरंजन सत्र में राज सभा में एक नर्तकी आई थी. दक्षिण से सम्राट चन्द्रगुप्त के
पास वह किस प्रयोजन से आई थी, यह सूचित
न करते हुए सेवक ने सन्देश दिया कि महाराज ने उन्हें आमंत्रित किया है. कालिदास का
मन शंकर-पार्वती के शय्यागृह में व्यस्त था. परन्तु उन्हें जाना पडा था. राजसभा
में बिना पूर्व सूचना के आई इस नर्तकी को केवल कुछ प्रश्नों के उत्तर चाहिए थे,
अन्य कोई अभिलाषा नहीं थी. उसके प्रत्येक वाक्य में पदन्यास का निनाद था. वाणी में
तर्कशुद्धता और लीनता थी. सम्राट उससे राजसेवा में रहने की इच्छा के बारे में पूछ
रहे थे. परन्तु वह उत्तर नहीं दे रही थी. एक सखी के साथ वह दक्षिण से यात्रा करते
हुए आई थी. उसके आगमन का प्रयोजन स्पष्ट नहीं हुआ था. वह पूछ रही थी,
“राष्ट्र संकल्पना क्या है? समाज परिवर्तन के लिए कितना समय लगेगा? क्या भविष्यवाणी सत्य होती है? शाप के
लिए उ:शाप क्यों आवश्यक है? क्या
पश्चात्ताप करने से अपराध क्षम्य हो जाता है? निराकार से साकार हुआ तो निराकार साकार क्यों नहीं
है? मृत्यु का अर्थ
क्या है? यदि जीवन मृत्यु
के ही अधीन है तो निर्मिती का प्रयोजन क्या है?” सभा में उपस्थित विद्वान अपने-अपने विचार से उत्तर
दे रहे थे, परन्तु उसके मुख
पर समाधान नहीं था.
सम्राट बारबार पूछ रहे थे, “सुन्दरी, तुम्हारे आने का प्रयोजन क्या है?”
उसने प्रतिप्रश्न किया, “महाराज क्या प्रयोजन के बिना राजसभा
में प्रवेश की अनुमति नहीं है? भौतिक
किसे कहते हैं? अभौतिक का अर्थ क्या है? व्यवहार, व्यापार, कर्म, क्रिया, शब्द-व्याकरण का निश्चित अर्थ क्या है?”
सम्राट चन्द्रगुप्त ने अभी-अभी आसनस्थ
हुए कालिदास की ओर देखा. संध्या हो रही थी. योग्य उत्तर उसे नहीं मिला था, यह उसके मुख के भावों से स्पष्ट था.
“हे सुन्दरी, अब हम एक प्रश्न पूछते हैं. तुम्हारा नाम क्या है? कहाँ से और किसलिए आई हो?” सम्राट ने फिर से पूछा.
वह हंसी. “मेरा नाम पूर्वा है, परन्तु
मैं दक्षिण पथ की नर्तकी हूँ. मेरी अपनी नृत्यशाला है.”
“हमसे क्या अपेक्षित है?”
“जो भी मांग रही हूँ, उसका समाधानकारक उत्तर नहीं प्राप्त हो
रहा है, तो धनसंपदा से क्या प्राप्त होगा? महाराज, धन संपत्ति अधिक मूल्यवान है अथवा मन:स्थिति? मन निराकार है, परन्तु भावनाओं को कृति की आवश्यकता
क्यों है?”
अब तो कालिदास भी संभ्रमित हो गए. अंत
में राजसभा समाप्त करते हुए सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा, “हे नवयौवना पूर्वादेवी, अपने प्रश्नों के उत्तर प्राप्त होने तक आप
राजप्रासाद के अतिथि कक्ष में वास्तव्य करें.”
सबके साथ कालिदास भी उठे. अपने गृह की ओर
जाते हुए वह समझ नहीं पा रहे थे कि यह सालन्कृत, निर्भय, रति की
प्रतिमा जैसी सरस्वती कन्या कौन हो सकती है? क्या हमने जो देखा, वह स्वप्न था या सत्य? कहीं हिमालय कन्या पार्वती स्वयँ तो नहीं आ गई? परन्तु यह सब वास्तव ही था.
अब वे मधुवंती के निवास पर जाने के लिए अश्वशाला
से अश्व लेने के लिए निकले, तो देखा
कि वह युवती सखियों के साथ उद्यान की ओर जा रही थी.
इसके पश्चात का मास भी ऐसे ही बीता, और
एक दिन प्रात:काल में उन्होंने ‘कुमारसंभवं’ का आठवां सर्ग लिखना आरम्भ किया. और, उन्हें प्रतीत हुआ कि प्रात:काल में हम
मध्यरात्री के श्रृंगार का वर्णन करने वाले हैं. इसे रात्रि में ही लिखना श्रेष्ठ
होगा. परन्तु लेखनी को शब्दों का मोह इतना अनावर हो चला था कि लेखनी और शब्दों के
सम्मिलन से साकार हो रही थी शिवशंकर और पार्वती के विवाह के पश्चात की प्रथम
रात्रि.
नव विवाहिता और लज्जावती पार्वती और
प्रौढ़, प्रगल्भ, अनुभूति
प्राप्त शिवशंकर की प्रणय स्थिति का वर्णन करते हुए कालिदास को क्या लिखूं, कितना लिखूं, ऐसा हो रहा था. पर्वत की कगार से अपने सम्पूर्ण
जलप्रवाह सहित गिर रही चिर यौवना नर्मदा जैसी नवपरिणीता पार्वती और उस समूचे
प्रवाह को अपने भीतर समा लेने वाला भव्य सागर – शिव शंकर. रति और मदन...तन से भी
और मन से भी.
दिन, मास, वर्ष बीत
रहे थे. प्रणय के रंग अधिकाधिक गहरा रहे थे. कालिदास ने प्रणय की सूक्ष्म छटाओं का
भी वर्णन किया था, स्पर्श से
अंग-प्रत्यंग के सुरीले संगीत का निनाद भी दर्शाया था. मानो कालिदास अखिल विश्व का
सम्पूर्ण रति सुख उसे देना चाहते थे. काल कितना आगे निकल गया था, इसका दोनों को ही भान नहीं था.
इसके पश्चात वे विहार के लिए गंधमादन
पर्वत पर गए. सूर्योदय, सूर्यास्त, चंचल सरिता, हिमपात, हरियाली
से सुशोभित प्रकृति के सान्निध्य में वे अपनी पर्णकुटी में प्रसन्नता पूर्वक सह
जीवन व्यतीत कर रहे थे.
कालिदास ने सूर्यास्त और निसर्ग शोभा का
वर्णन पार्वती के अंग-प्रत्यंग को ध्यान में रखते हुए किया. मन में जो पार्वती की
छबि है, वही प्रकृति में
भी दिखाई दे, ऐसा उनका भाव
चित्र था. क्षण भर को भी पार्वती शिवशंकर से दूर नहीं होती थी. वे उसे सदा प्रसन्न
रखने का प्रयत्न करते. पल भर को आई उसकी अप्रसन्नता को दूर करावे के लिए भी
गंधमादन पर्वत की अधिष्ठात्री देवी सूर्यकांत मोतियों से बनाए गए आसव को पात्र में
लेकर आई थी. अंतत: उसकी अप्रसन्नता को दूर करने लिए शिवशंकर स्वयँ तत्पर हुए.
कालिदास अत्यंत तन्मयता से शिव-पार्वती
की रति क्रीडा का वर्णन कर रहे थे.
शिवशंकर और पार्वती के विवाह को एक शतक
पूर्ण हो चुका था. अभी भी उन्हें समय का भान नहीं था. समय का भान उन्हें हो, इसलिए तत्काल नवम सर्ग लिखना अनिवार्य
था.
नवम सर्ग के आरम्भ में जब वे दोनों रति
क्रिया में निमग्न थे, तो एक
कबूतर गवाक्ष से भीतर प्रवेश करता है. उसका स्वर बहुत मधुर था. उन्हीं दोनों के
चारों ओर प्रदक्षिणा कर रहा था. कुछ ही क्षणों में शिवशंकर को ज्ञात हुआ कि इस
पक्षी के रूप में अग्निदेव आये हैं. शिवशंकर का क्रोध अनावर हो गया, तो अग्निदेव ने कहा, “हे ईश्वर, देवता आपकी प्रतीक्षा में हैं. काल सौ वर्षों तक
रुका रहा, अब यदि आप जागे
तभी तीनों देवताओं का कार्य सुचारू रूप से पुन: आरम्भ होगा. तारकासुर का विनाश
करने के लिए पुत्र का विचार करें!”
अकस्मात् अग्नि देवता के आ जाने पर
पार्वती ने स्वयँ को संभाला. उनके जाने के बाद शिवशंकर ने नखशिखांत उसे सजाया.
इतने वर्षों तक रति क्रीडा से श्रमित
शिव-पार्वती को देखकर पुष्प, लता, समीर, जल, आकाश ने
बाहर निकलने पर उनका स्वागत किया. गंधमादन पर्वत से वे दोनों कैलास पर आये, जो स्फटिकमय था, और सभी ऋतुओं में तथा रात को भी चमकता
था. वे अपने भवन में आये. रूद्र, गण, देवता, प्रकृति प्रसन्न हो गए, क्योंकि अब वे पुत्र जन्म के बारे में
विचार करने वाले थे. कैलास गमन का नवम सर्ग समाप्त हो गया था.
रतिभंग करने के अपराध में पार्वती ने
अग्निदेव को शाप दिया था. वे इंद्र सभा में आये और सारी घटना सुनाई. इन्द्रदेव ने
उन्हें स्पर्श किया, तो उनका
शरीर जल रहा था.
सभी देवताओं के कहने पर अग्निदेव ने गंगा
प्रवाह में जाकर अपना दाह शांत होने तक स्नान किया.
गंगा अग्निदेव के स्पर्श से तप्त हो गई.
जलचर बाहर आ गए. आकाश गंगा भी तप्त हो गई. आकाश में श्वेत उष्ण लहरें निर्मित हो
गईं. रति क्रीडा में विघ्न डालने के कारण उनके शरीर पर तप्त वीर्य बिखर गया था, उसीका यह परिणाम था.
वह वीर्य गंगा के प्रवाह में मिल गया.
गंगा तप्त हो गई. उस समय छः कृत्तिकाएं स्नान हेतु गंगा जल में उतरी थीं. उनके
मुखों में भी गंगा जल के साथ वह वीर्य गया और उन कृत्तिकाओं के उदर में गर्भ धारणा
हो गई. शिव शंकर के तेज को उन्होंने अनुभव किया, गर्भ को भी अनुभव किया. अब स्वगृह जाकर पतियों को
क्या बताएं, इस भय से वे निकट
ही सरकंडे के वन में गईं. यथावकाश पुत्र का जन्म होते ही, पुत्र का रक्षक ईश्वर है, ऐसा कहकर उन्होंने पुत्र को वहीं रख
दिया. सहस्त्रों सूर्यों का तेज उस शिशु के मुख पर था. यहां कालिदास ने दशम सर्ग
समाप्त किया.
कथा में अधिकाधिक उत्सुकता बढ़ रही थी.
परन्तु उन्होंने निश्चय किया कि अब एक ही और सर्ग लिखकर उठेंगे.
उस नवजात शिशु के छः मुख थे. उस षडानन का
गंगा ने साकार होकर पालन किया. कृत्तिका, प्रत्यक्ष अग्निदेव भी उसके दर्शन से मुग्ध हो गए.
कृत्तिकाएं पार्वती के पास गईं. यह पुत्र किसका हो सकता है, यह बताएँ, माता! तब वहाँ उपस्थित शिवशंकर ने कहा, “हे गौरांगी, यह तुम्हारा ही पुत्र है. उन्होंने सम्पूर्ण कथा
सुनाई और कहा, कि ऐसे
तेजस्वी शिशु की तुम माता हो, उसका
प्रतिपालन करो,”
पार्वती ने उस तेजस्वी बालक को हृदय से
लगा लिया. देवताओं ने पुष्प वृष्टि की.
षडानन अब बोलने लगा, चलने लगा, दौड़ने लगा, नित नया हठ करने लगा. बैलों के सींगों को पकड़कर
खींचने लगा, शिवशंकर के गले
में पडी सर्पमाला में अपनी उंगली डालने लगा. केवल शिवशंकर-पार्वती ही नहीं, अपितु समूचा देवलोक उन बाल लीलाओं का
आनंद उठा रहा था. उन बाल लीलाओं का वर्णन करते हुए ग्यारहवां सर्ग समाप्त हुआ.
अब वे उठे. आज वे क्षिप्रा तट पर नहीं
गए. अपने ही उपवन के झरने में उन्होंने स्नान किया और वे अपने भवन की ओर निकले.
मार्ग में युवराज कुमार मिले, वे राजसभा
की ओर जा रहे थे.वे बोले,
“आजकल तात यहाँ हैं, इसलिए हम निश्चिन्त हैं. मगर तात कहते
हैं, “वत्स, आपको राज्य भार सौंप कर हम निश्चिन्त
हैं.”
“आप दोनों ही सत्य ही कह रहे हैं. पिछली
बार जब वे मगध से विलम्ब से लौटे, तो राज
प्रशासन इतना उत्तम चल रहा था, कि ऐसा
प्रतीत हो रहा था, मानो
सम्राट चन्द्रगुप्त ही सारी व्यवस्था देख रहे हैं. कुमार, आप दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं. और, महाराज अब आपके विवाह के सन्दर्भ में भी
कह रहे थे. कौन है वह भाग्यवान युवती? क्या आपके
मन में कोई है?”
“कालिदास महोदय, हम आपसे क्या छिपाएं...आपकी गोद में बड़े
होते हुए आप कब हमारे मित्र बन गए, पता ही
नहीं चला. हमारे मन में है मगध के लोकपाल की कन्या गंधवती, हमारे मन में है भगिनी
प्रभावती की सखी - मदनिका. महोदय, आपके ही काव्य से, आपके सहवास से हम पुलकित हैं. अब यदि मन
में सहस्त्र कन्याएं भी हों, तो भी हम
श्रीकृष्ण तो नहीं. हम पिताश्री की आज्ञा के बाहर नहीं हैं. हाल में आप किसी बात
से परेशान हैं, या किसी
कार्य में व्यस्त हैं?”
“आपको सत्य ही बताऊँगा. प्रभावती यहाँ
आई. अभी गर्भवती, वह दो मास
बाद पुत्रवती होगी, उस
सन्दर्भ में जब हम बहुत पहले केदारनाथ गए थे, उस यात्रा का स्मरण हो आया. और हमने कार्तिकेय –
‘कुमारसंभवम्’ इस काव्य का लेखन आरंभ
किया.
अभी तक पूर्ण नहीं हुआ है, कारण क्या है, समझ में नहीं आ रहा है.”
“क्या हम बाद में उसे पढ़ सकेंगे?”
“आपके जीवन में भी विवाह के पश्चात
‘कुमारसंभव’ होने की स्थिति आयेगी, तब आप यह
काव्य पढ़ें.”
“ऐसा क्यों?”
“कुछ प्रश्नों के उत्तर नहीं होते, युवराज.”
युवराज कुमार शीघ्रता से राजसभा की ओर गए, और उतनी ही शीघ्रता से कालिदास प्रभावती
के भवन की ओर चल पड़े. अभी तक महाराज रुद्रदेव अपने विदर्भ को वापस नहीं गए थे, परन्तु वे शीघ्र ही प्रस्थान करने वाले
हैं, ऐसी वार्ता
कालिदास को प्राप्त हुई थी. प्रभावती कुछ मास यहीं रहने वाली थी.
कालिदास अब शांत मन से चल रहे थे.
गर्भवती प्रभावती का तेजस्वी मुखमंडल उनके नेत्रों के सामने साकार हो गया था.
राजसभा में नित्य नए आने वाले अतिथियों, योगियों से संवाद साधने का कार्य, उनकी उचित व्यवस्था करने का कार्य
कालिदास ने स्वयँ ही लिया था. इसमें अनेक दिन सहजता से व्यतीत हो जाते, परन्तु मन में काव्य प्रफुल्लित होता
रहता.
कालिदास ने अनेक दिनों के पश्चात भोजपत्र
हाथ में लिए. जब सम्राट चन्द्रगुप्त उज्जयिनी में होते तो अनेक विद्वानों, कलाकारों, संगीत-नृत्यकारों, प्रजा की समस्याओं आदि में समय फिसल जाता. प्रभावती के
भी नित्य नए कार्यक्रम होते रहते – कभी वनविहार, कभी वनभोजन, कभी उपवन में हिंडोला तो कभी नौका विहार.
मगर आज उन्होंने दृढ निश्चय करके बारहवां
सर्ग आरंभ किया. पुलोमा की कन्या और इन्द्रदेव की पत्नी शची देवी इन्द्रदेव को
बारबार तारकासुर के अत्याचारों की क्रूर कथाएँ सुना रही थीं. अंत में इन्द्रदेव
मातलि के सारथ्य पर विश्वास करके कैलास पर्वत पर आये. फिर भी तारकासुर ने उनका
मार्ग रोका. देवता भी भयभीत होकर उनके पीछे आये. सभी देवताओं ने बताया कि तारकासुर
कितना उन्मत्त हो गया है. अब देवतागण और इन्द्रदेव शिवशंकर के आगे नतमस्तक हो गए
थे.
“हे देवतागण, इतने पराक्रमी और शस्त्र सज्ज होकर भी, मन्त्र सामर्थ्य होते हुए भी आप लोग ऐसे
म्लान क्यों हो गए हो, जैसे
तुषारपात होने पर कमल पुष्प म्लान हो जाता है?”
“हम स्वर्ग से निष्कासित हो गए हैं. तारकासुर
ने स्वर्ग पर भी आक्रमण कर दिया है. इसलिए हम भयभीत होकर पृथ्वी पर रह रहे हैं. हे
सर्वज्ञानी महादेवं यह तो आपको ज्ञात ही है. आपको यह भी ज्ञात है कि जब आपका पुत्र
कार्तिकेय सेनापति होगा, तभी देवता
हाथों में शस्त्र उठाएंगे. ब्रह्मदेव ने ऐसा कहा है, अत: कृपया अपने पुत्र को हमारा सेनापति होने के लिए
प्रवृत्त करें.”
शिवशंकर को यह ज्ञात ही था, पुत्र के पराक्रम पर विश्वास भी था.
उन्होंने कुमार कार्तिकेय को आमंत्रित करके पूरी वार्ता सुनाई, और युद्ध में सहायता करने की आज्ञा दी.
कार्तिकेय ने सहर्ष उसे स्वीकार कर लिया. यहाँ पर बारहवां सर्ग पूर्ण हो गया था.
तेरहवें सर्ग के आरंभ में कुमार कार्तिकेय
अपने माता-पिता की चरण वन्दना करके स्वर्ग की और प्रस्थान करते हैं.
कार्तिकेय को सेनापति बनाकर देवता भी
उनके पीछे-पीछे स्वर्ग को जाते हैं. तारकासुर आक्रमण की प्रतीक्षा में ही था.
कार्तिकेय विजय प्राप्त करेगा इस बारे
में देवताओं को विश्वास ही था. क्योंकि इसी उद्देश्य से उनका जन्म हुआ था. अत:
आठवें सर्ग के पश्चात कालिदास कथा पूर्ण करने के उद्देश्य से लिख रहे थे. युद्ध का
वर्णन करने में उनकी रूचि नहीं थी.
आठवें सर्ग की वे पंक्तियाँ उन्हें याद आ
रही थीं, जब शिवशंकर ने पार्वती
को अपने आलिंगन से मुक्त करते हुए नेत्र खोले. उस समय अकस्मात् किया गया निसर्ग का
वर्णन – परन्तु अब युद्ध का वर्णन करते समय उन्हें अलंकारों, उपमाओं की कमी का अनुभव होने लगा. युद्ध
में हुए रक्तपात का, संहार का, आवेश पूर्ण परस्पर युद्ध करते हुए
मृत्युमार्ग को प्रस्थान करना – इसमें उन्हें रस नहीं था. शिव-पार्वती विवाह, गंधमादन और कैलास की वह अनुपम, रमणीय
भूमि और रक्तलांछित रण भूमि में आकाश-पाताल का अंतर था. संवेदनशील, श्रृंगारी मन उस वास्तव को लिखना नहीं
चाहता था.
और फिर तेरहवें सर्ग में कुमार कार्तिकेय
का सेनापति के रूप में अभिषेक किया गया. चौदहवें सर्ग में देवसेन के साथ युद्ध
भूमि पर प्रयाण करने का वास्तविक चित्रण किया. पन्द्रहवें सर्ग में तुमुल युद्ध का
वास्तविक वर्णन किया.
तारकासुर की सेना का वर्णन करते हुए
कालिदास ने लिखा, “कुमार कार्तिकेय
को निमिषभर में ही ज्ञात हो गया कि अपार सेना होते हुए भी उसमें वांछित सामर्थ्य
नहीं है. वह सैन्य यमदेव को की आमंत्रित कर रहा था. अब कार्तिकेय के हाथो से किसी
का भी जीवित रहना संभव नहीं था.
और अब सोलहवें सर्ग में आरम्भ हुआ
सुर-असुरों के बीच भीषण युद्ध का प्रसंग. उसमें उन्होंने कभी-कभी अतिशयोक्ति
अलंकार का प्रयोग भी किया.
दो सैनिकों के मस्तक बाण से छेदने के बाद
वे मस्तक ऊपर अवकाश में गए, और
उन्होंने नीचे की ओर झांककर देखा कि उनके अपने देह हाथ में खड्ग लिए खड़े हैं.
सत्रहवें सर्ग में इंद्र, कार्तिकेय, तारकासुर के बीच भीषण युद्ध दिखाया गया है. तारकासुर
देवताओं द्वारा अवध्य, परन्तु
मानव वंश के माध्यम से आये कार्तिकेय द्वारा वध्य था. परन्तु आयु से कुमार होने के
कारण तारकासुर बार बार उस पर व्यंग्य कर रहा था, उसे आह्वान दे रहा था. असुर सेना
का नाश हो रहा था. देवता भी अपने अपने शस्त्र लेकर युद्ध कर रहे थे.
सत्रहवां सर्ग लिखते समय कालिदास के मन
में विचार आया कि, जो मानव
के लिए असंभव है, वह
देवताओं के लिए सहज संभव है. उन्होंनें ही किया विश्व का निर्माण, उन्होंने ही बताये ज्ञान-विज्ञान, शास्त्र, संशोधन, अध्यात्म, तपस्या के अर्थ. परन्तु क्या देवताओं
में शौर्य का गुण नहीं है? क्या उनके
पास सामर्थ्य नहीं? कैकेयी रथ
की धुरी पकड़कर दशरथ की विजय प्राप्ति में सहायक हो सकती है, पुरूरवा, दुष्यंत जैसे अनेक राजा देवताओं के साथ युद्ध में सहकार्य
करते हैं. जिन्होंने शौर्य और सामर्थ्य के गुण दिए, वे ही देवता मानव के सहकार्य की
अपेक्षा करते हैं.
वृद्धावस्था में पिता पुत्र के स्कंध का
सहारा लेता है, क्या देवता अब वृद्ध हो गए हैं? वे स्वरक्षण भी क्यों नहीं कर
सकते. कार्तिकेय युद्ध के प्रसंग तक यह विचार आज तक कभी मन में आया नहीं था. मगर
अब कालिदास इस बारे में सोच रहे थे. शायद देवता हमारे जैसे रसिक, विलासी, गुण मंडित होंगे. शायद युद्ध
उन्हें प्रिय न होगा, बिलकुल
हमारे समान.
कालिदास मन ही मन हँसे. देवता और वे
स्वयँ भी विद्वान, गुणवान के रूप में नामांकित हैं, हम युद्धनीति का अध्ययन करते हैं, कभी-कभी
मार्गदर्शन भी करते हैं. परन्तु प्रत्यक्ष युद्ध में जाना हमें मान्य ही नहीं है.
वह हमारी वृत्ती नहीं, शायद
देवताओं की भी न हो. बार बार असुरों के आक्रमणों के चलते देवताओं की सेना
प्रशिक्षित क्यों नहीं है? सबल क्यों
नहीं है? यह प्रश्न भी उनके मन में उठा.
अब सत्रहवें सर्ग में कुमार कार्तिकेय ने
देवताओं को विजय प्राप्त करवा दी है. कुमार की निर्मिती हो, वह तारकासुर का वध करे, तब तक देवता गुप्त रूप से पृथ्वी पर
रहें, कैसी है देवताओं
की यह स्थिति...और उसके द्वारा निर्मित मानव उनके सारे गुण लेकर स्वसामर्थ्य से
विशेषत्व प्राप्त करता है.
अंत में देव-मानव संबंधों से उत्पन्न
कार्तिकेय ने तारकासुर पर विजय प्राप्त की. इन्द्रदेव अपने आसन पर विराजमान हो गए.
कार्तिकेय का सम्मान और सत्कार हुआ. यहाँ ‘कुमारसंभवं’ की पूर्तता हुई.
कितने ही महीनों के लेखन के पश्चात
काव्यग्रंथ पूरा हुआ. वे प्रसन्न हो गए, और तभी
सेवक आनंद वार्ता लेकर आया,
“कालिदास महोदय, रानी प्रभावती देवी को पुत्ररत्न की
प्राप्ति हुई है.”
इस वार्ता को सुनने के बाद कालिदास
भोजपत्रों को रेशमी वस्त्र में बांधकर शीघ्रता से राजप्रासाद की ओर निकले.
वास्तविक अर्थों में कुमारसंभव हुआ था. उनका आनंद द्विगुणित हो गया था.
***
“महाराज,
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