Tuesday, 14 February 2023

Shubhangi - 54

  

 

“महाराज, आज आप चिंतित दिखाई दे रहे हैं!” अनेक मास बाद कालिदास और सम्राट चन्द्रगुप्त क्षिप्रा तट पर अपने प्रिय स्थान पर आये थे. दूर दिखाई दे रहा शिवशंकर का मंदिर, वहाँ से आता हुआ घंटा नाद, और सामने क्षिप्रा का शांत प्रवाह, उपवन से आता हुआ प्रसन्न समीर, उगता हुआ शीतल चंद्रबिंब, धूसर वातावरण में क्रमश: धूसर से स्पष्ट होता हुआ. दोनों का यह प्रिय स्थान था, आज दोनों आये थे.

“चिंतित होने जैसी घटनाएं ही हो रही हैं. जीवन समर्पित करके इतना बड़ा साम्राज्य बनाया, सोचा था कि प्रजा सुखी रहेगी, परन्तु प्रत्येक राज्य में आवश्यक साधन उपलब्ध नहीं करा सके. मगध से आते हुए देखा, कि कुछ सरिताएं काफी गति से प्रवाहित हो रही हैं, कुछ अन्य काल के प्रवाह में शुष्क हो गई हैं. लोगों को कई-कई कोस दूर जाकर जलाशय से जल लाना पड़ता है. कितने ही ग्राम अविकसित है, कित्येक ग्रामों में स्त्री-पुरुषों को वस्त्रों का प्रयोग ही ज्ञात नहीं है. अन्धकार से गुज़रने वाला प्रकाश मार्ग अद्याप उन तक पहुँचा नहीं है.”

“इतने महान विस्तारित राज्य में इतने विकास कार्य करना आसान नहीं है.”

“निर्माण होने के बाद वहाँ की अगली पीढ़ी को सुरक्षा और पालन कार्य की ज़िम्मेदारी लेनी पड़ती है. परन्तु लोकपाल और वहाँ के स्थानीय अधिकारियों को इस बात का ज्ञान ही नहीं है, इस बात का दुःख है, और...”

“और क्या?

सम्राट चन्द्रगुप्त ने कुछ कहा नहीं, परन्तु उनके मुख पर चिंता के काले बादल छा गए थे. बलशाली, रूपवान, तेजस्वी और सामर्थ्यशाली, अखंड भारत के निर्माता, महान साम्राज्य के अधिकारी सम्राट चन्द्रगुप्त अब प्रौढत्व की ओर झुक रहे थे, अनेक युद्ध करके थक गए थे.

“जीवन के पूर्वार्ध में पिताश्री समुद्रगुप्त के साथ साथ युद्धों में सहभागी हुए. अब, युद्ध समाप्त होंगे, यह मानते हुए, कितनी भी सुरक्षा व्यवस्था की जाए, शक और हूण बीच-बीच में आक्रमण कर ही रहे हैं. और यह सब ऐसे ही चलता रहेगा, यह हमने स्वीकार कर लिया है. परन्तु...” वे व्यथित हो गए थे.

“महाराज, आज तक हमें मित्र समझ कर आप हमसे सब कुछ कहते रहे. आज ऐसी क्या बात है, जिसे कहने में कठिनाई हो रही है...”

“प्रभावती का पहला पुत्र दामोदर अशक्त ही पैदा हुआ था. वह उसकी सेवा कर ही रही थी, कि दूसरे पुत्र प्रवरसेन का जन्म हुआ.”

“महाराज, उस समय आप स्वयँ गए थे. यहाँ आने के बाद रुद्रसेन के बारे में, प्रभावती के बारे में, दामोदरसेन, प्रवरसेन के बारे में बताया था. वहाँ की प्रशासनरीति, नीति, आतिथ्य, संस्कृति के बारे में बताया था. क्या विदर्भ पर किसीने आक्रमण करने का प्रयत्न किया है?

“नहीं, शालिवाहन की नागनिका महारानी के राज्य में जैसी शान्ति थी, वैसी शान्ति वहाँ है. परन्तु रुद्रसेन महाराज की अस्वस्थता का समाचार आया है. बात यह है कि सम्राट चन्द्रगुप्त प्रथम ने सत्रह महाजनपद और सोलह गणराज्यों को एकत्रित करके विराट एकसंघ राज्य का निर्माण किया था. उनके पश्चात हमारे पिताश्री ने और हमने मिलकर पच्चीस महाजनपद और सोलह गणराज्यों सहित शक, कुशाण, हूणों की भूमि पादाक्रांत करके एकसंघ राज्य की स्थापना की थी.

और रुद्रसेन महाराज को वैवाहिक संबंध से जोड़ा. हम समझ रहे थे कि अब दक्षिण भाग निश्चिन्त हो गया है. परन्तु रुद्रसेन महाराज के स्वास्थ के बारे में सुनकर हमें चिंता हो रही है. यदि वह अकारण हुई, तो कोई समस्या ही नहीं, परन्तु हमारे मन में आशंका...”

“उन पर अनेक वैद्यकीय उपचार हो रहे होंगे. जलवायु परिवर्तन के लिए उन्हें यहाँ भी ला सकते हैं.”

“परन्तु पिछले तीन माह से वे राजसभा भी नहीं गए हैं. राजसभा में यदि राजा ही न हो तो...और दामोदरसेन तीन वर्ष के तथा प्रवरसेन एक वर्ष के हैं. इसलिए चिंता होती है.”

“महाराज, देखें, यदि संभव हो तो...युवराज कुमार अब उत्तम रीति से शासन करते हैं. आप महारानी के साथ विदर्भ जाकर आयें. हमारे विचार से यह उचित होगा. आप प्रवरसेन के जन्म के समय गए थे...इस समय भी आपका जाना उचित होगा.”

“आप उचित ही कह रहे हैं, परन्तु युवराज कुमार पर इतना कार्य भार...”

“महाराज, हम भी हैं. और कभी-कभी उन्हें भी अपने कर्तृत्व को दिखाने का अवसर देना चाहिए! आप निश्चिन्त होकर जाएँ.”

“मन में तो हमारे भी यही है. परन्तु, सम्राट को, वैसे कहें तो, कोई भी न्याय नहीं दे सकता.”

“इस निमित्त से महारानी को भी साथ ले जाएँ. महाराज, कुबेर नागादेवी हमेशा शांत ही रहती हैं. वे पूरे तनमन से समर्पित हैं.

“सत्य है, कालिदास. अभी बहुत काम करना शेष है. महामार्ग अभी तक पूरे नहीं हुए हैं. जलवाहिनियों को पूरा करना है. व्यापारी केंद्र वृद्धिंगत और विकसित करना हैं. आश्रमों को अधिक अनुदान देना है. प्रत्येक परिवार के कम से कम एक सदस्य के पास आर्थिक उत्पादन का व्यवसाय होना चाहिए. राजनर्तकियों को सम्मान, गणिकाओं को उत्कृष्ट स्थान चाहिए. यह सब अद्याप शेष है. साहित्य शास्त्र, अर्थ शास्त्र, संशोधन शास्त्र, वैदिक साहित्य कोश का केंद्र होना चाहिए, चित्रकला, शिल्पकला के लिए प्रशिक्षण केंद्र...”

“महाराज, आप इतने पहलुओं से प्रजा का विचार करते हैं कि आश्चर्य होता है.”

“पिताश्री के काल में उन्हें जितना परिश्रम करना पडा, उतना हमें नहीं करना पडा. जब उत्तर भारत में कुषाणों की सत्ता आई, तब सम्राट अशोक के समय एकसंघ हुआ भारत नहीं था. सुंदरबन का मौखरी का राजा, मथुरा, विदिशा, पद्मावती, कान्तिपुर – ये नागराज्य थे. धनदेव कोसल का राजा था, तो कोशांबी में बृहत्स्वामीमित्र था. अयोध्या में विशाखादेव, तो दक्षिण भारत में वाकाटकों के राज्य में बाईस राज्य एकसंघ थे. राजस्थान में शिबी, तो वैशाली में लिच्छवी राज्य था. पूर्व भारत में नेपाल भी स्वतन्त्र राज्य था. मालवा, गुजरात, काठेवाड, सिंध शक-क्षत्रपों के पास थे. राजकीय अस्थिरता थी.

पिताश्री ने उन्हें संगठित किया. स्वपराक्रमी से लेकर वे उत्तम शासक, कलाप्रेमी, साहित्यप्रेमी थे. वे स्वयं भी उत्तम गायक और वादक थे. सुवर्णकाल का आरम्भ तभी हुआ था.”

सम्राट चन्द्रगुप्त अपने पिता के बारे में अतीव श्रद्धा से बोल रहे थे.

“महाराज, उनके काल को आपने सुवर्णमंडित किया. उसे नई ऊर्जा और चैतन्य प्रदान किया, विकास किया. कभी-कभी ऐसा सोचते हैं, कि सम्राट का पुत्र हो तो ऐसा. और वैसे ही युवराज कुमार हैं. आप निश्चिन्त रहें.”

“हमारे विचार को आपने मान्यता दी...”

कालिदास खुलकर हँसे.

“महाराज, हम मान्यता देने वाले कौन होते हैं, आपके सेवक...”

“नहीं, कालिदास, आप हमारे अन्तरंग मित्र हैं. आयु में हमसे लगभग बीस वर्ष तो छोटे होंगे, परन्तु अन्तरंग मित्र हैं.”

उन्होंने अपना हाथ कालिदास के स्कंध पर रखा. दोनों ही भाव विह्वल हो गए. बिना कुछ कहे दोनों उठे. दोनों ने मंदिर के शिवशंकर को मन ही मन प्रणाम किया और दोनों अपने अपने अश्वों की ओर मुड़े.

“आप रथ से नहीं आये, महाराज?”

“नहीं, आज सारथी के बिना आने का मन हुआ.”

दोनों अश्वारूढ होकर प्रासाद की ओर चले. रात्रि का प्रथम प्रहर आरम्भ हो चुका था.    

 

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