भोजन के पश्चात फिर से अश्व पर सवार होकर
मधुवंती के प्रासाद के समीप आये. मधुवंती अटारी में खडी थी. प्रकाशमान चन्द्रप्रभा
में साक्षात गंगा स्त्री रूप में खडी है, ऐसा उन्हें प्रतीत हुआ. एकनिष्ठ, पतिव्रता, सेवाभावी, सुमधुर
भाषिणी, सहचरी के
रूप में भी वह उन्हें प्रिय थी. सम्राट चन्द्रगुप्त ने एक बार कहा भी था,
“कालिदास, उत्कट प्रीती करते हैं, उसका साहचर्य भी आपको स्वर्ग
के समान प्रिय है, फिर भी
उससे विवाह क्यों नहीं करते, ऐसा
प्रश्न महारानी कुबेरानागा ने आपके बारे में हमसे पूछा, परन्तु आपसे वचनबद्ध होने के कारण हम उन्हें आपकी
वेदवती, अथवा विद्वत्वती
की कथा उन्हें सुना नहीं सके. यदि सुनाते, तो उन्होंने आपको शतमूर्ख कहा होता. और, कोई भी यही कहेगा ना?”
“आप विलास मग्न भी है, कालिदास. उसने क्या किया होगा? कभी कभी यह विचार भी मन में आता है.
क्यों प्रश्न चिह्न निर्माण करते हैं, कालिदास? कहीं ऐसा तो नहीं, कि आपको प्रणय तो चाहिए, मगर पारिवारिक बंधन नहीं? मधुवंती से विवाह करने में आपको कौन सी
समस्या है?”
कालिदास इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सके
थे. परन्तु वेदवती मन से जाती नहीं थी. उसके द्वारा किये गए अपमान का शल्य
अश्वत्थामा के लहुलुहान व्रण के समान उनके जीवन में था. और इस शल्य को मन में रखते
हुए पग-पग पर उसका स्मरण उन्हें स्वीकार्य नहीं था. हम कौन से कुल के हैं, यह शोध तो हमारे मन ने लगा ही लिया है.
ज्ञान का अपमान, ज्ञान का
अति अहंकार और ‘अस्ति कश्चिद् वाग्विशेष:’ ये शब्द प्रज्वलित शर के समान सीधे हृदय
को जलाते है, तब ‘नहीं चाहिए वह
मधुवंती, नहीं चाहिए यह संसार’, ऐसा क्रोध
पल भर को ही मन में टिकता है. अगले ही पल जिस तरह पूर्णिमा की रात को सागर उफनता
है, उस तरह मन उछलता.
परन्तु उसमें सागर और चंद्रप्रभा की प्रीत और रीत नहीं थी. उसमें था सहअस्तित्व का
संघर्ष, और यह संघर्ष
स्वयँ को सिद्ध करने के बाद ही समाप्त होने वाला था. अद्याप ऐसा संभव नहीं हो पाया
था.
प्रासाद के पास जब अश्व अपने आप रुका, तब उनकी विचारधारा खंडित हुई. वे
सीढियां चढ़कर उसके दालान के पास वाली अटारी पर गए और पीछे से उसे आलिंगन में लिया.
अचानक हुए इस आक्रमण से वह किसी लतिका जैसी कंपित और भयभीत हो गई, जिस पर वर्षा
धाराएं टूट पडी हों.
“स्वामी, अनेक दिनों बाद आये है! कहाँ थे, यह ज्ञात है. यहीं थे. परन्तु दिन विचार
करने में, और रातें
अस्वस्थता में बीत रही थीं. सन्देश भेजकर आपको आमंत्रित करें, यह हमारा स्वभाव नहीं है.”
वे उसे मंचक के निकट लाये. उसके सघन
केशकलाप में हाथ फेरते हुए बोले, “हे
गंधवती, तुम हमारे जीवन का
अविभाज्य अंग हो. हम कहीं भी और किसी अन्य गणिका के पास भी जाएँ, परन्तु तुम्हारा स्मरण रहता ही है. तुम
अनन्य हो.”
“दूसरी गणिका के पास अवश्य जाएँ, स्वामी. आप प्रसन्न रहें. किसी भी
प्रकार का शल्य मन में न रहे, यही हमारी निरंतर इच्छा रहेगी. परन्तु आप किस गणिका
के पास जाने वाले थे, स्वामी?”
“अनजाने में मुख से निकल गया. तुम क्या
समझती हो?”
“विश्वास, केवल विश्वास. अंधश्रद्धा नहीं, बल्कि साक्षात श्रद्धा. किसी अन्य
स्त्री का विचार भी आप मन में नहीं ला सकते स्वामी, इसी एक विश्वास के सहारे हम
आपकी प्रतीक्षा करते रहेंगे और जिस पल आप इस विश्व में नहीं रहेंगे, उसी पल हम भी अपनी जीवन यात्रा को पूर्ण
विराम देंगे. हम आपसे पूर्व प्रस्थान न करें, ऐसी ईश्वर के चरणों में प्रार्थना है.”
“ऐसा क्यों?”
“क्योंकि, स्वामी आपसे हमारा विवाह नहीं
हुआ है, अत: आप हमें
मुखाग्नि नहीं दे सकेंगे. सत्य है ना?”
आते-आते ही उनके संवाद का परिचित स्वर खो
गया था. जैसे अकारण ही कोई भैरवी गाये, वैसे सुर
वातावरण को व्यथित कर रहे थे. कालिदास समझ गए. उन्होंने उसके आषाढ़-सावन से भर आये
नेत्रों में देखते हुए पूछा,
“हम क्या लाये हैं तुम्हारे लिए? बताओ, प्रिये, क्या लाये
होंगे?”
“हम क्या बताएं? आपका हृदय तो हमारे ही पास है. इतनी
बहुमूल्य वस्तु पास में होते हुए बाकी सब शून्यवत ही है. स्वामी, हम निवेदन कर रहे थे, तो आपने विषय परिवर्तन कर दिया, इसका अर्थ हमने जो कुछ कहा, वह सत्य ही है ना?”
“प्रिये, हम कौनसा उपहार लाये हैं, यह पूछोगी नहीं?”
“क्योंकि हमें ज्ञात है. हीरे, मोती. सुवर्ण, इनसे भिन्न कस्तूरीगंध युक्त कोई काव्य
रचना ही आप लाये हैं, स्वामी.”
कालिदास ने उसे दृढ़ आलिंगन में लिया.
उसका विश्वास, उसका उन्हें जानना – उन्हें बहुत भाया. वे हौले से उसके कानों में
बोले,
“प्रिये, तुम हमारी देह की अनेक रेखाओं से परिचित हो, और
निराकार मन की अनेक सूक्ष्म रेखाओं से भी परिचित हो. इतना समरस होना उचित
नहीं...कहीं विरह की स्थिति आई तो...”
“तुम्हारे नाम की माला जपूंगी, स्वामी, और अखिल विश्व में कहीं भी हो, आप ईश्वर की भाँति आयेंगे. हमारे बिना
आप रह ही नहीं सकते, यह
विश्वास है. अब बताएँ क्या लाये हैं?”
“अश्व पर ही रह गया,” कालिदास ने कहा और मधुवंती ने सेवक को
उसे लाने के लिए कहा.
भोजन होने के कारण कालिदास निश्चिन्त थे.
उन्होंने सहजता से पूछा, ‘सखे, भोजन हो गया?”
उसने ‘ना’ कहा.
“क्यों? समय का ध्यान रख कर भोजन तो करना चाहिए.”
“आर्य, यदि आप आते हैं, तभी हम रात्रि का भोजन करते हैं. अन्यथा, प्रतीक्षा समाप्त होने पर मंचक पर लेट कर
नक्षत्रों की ओर देखते हुए निद्रिस्त हो जाते हैं.”
“यह ठीक नहीं है, मधुवंती.”
वे उठे. भोजन कक्ष में गए और सोने के थाल
में उसके लिए भोजन लेकर आये. उनके हाथ से एक-एक ग्रास खाते हुए उसके नेत्र भर आये.
“प्रिये, संभालो उन अश्रुओं को, और हमें वचन दो कि हम आयें
अथवा ना आयें, भोजन समय
पर ही करोगी. इस अन्न की सौगंध है.” उसने अश्रु पूर्ण नेत्रों से उनकी ओर देखा, वे भी अत्यंत स्नेह से उसकी ओर ही देख
रहे थे.
सेवक भोजपत्रों का संग्रह लेकर आया. वह
आश्चर्य से भोजपत्रों की राशि को देख रही थी. “स्वामी, इतना सारा क्या लिखा है?”
“कुमारसंभवं.”
“किसकी कुमार संभव स्थिति के बारे में
लिखा है?”
“होता ये है, कि कुछ स्मरण करने के लिए किसी निमित्त की आवश्यकता
होती है. एक बार अलकनंदा का प्रवाह गोमुख से बाहर निकला कि सृष्टि का लावण्य, घटनाओं के कल्पित नक्षत्र, वास्तविकता की भूमि, और अर्थ तथा आशय की संपन्न मालिका लेकर
इतने रास्तों से, इतने
मोड़ों से अग्रसर होता है कि गंगासागर से मिलते हुए वह अलकनंदा, मंदाकिनी नहीं, अपितु काल-प्रदेश की विविध घटनाओं को
अनुभव करती प्रगल्भ गंगा माता हो जाती है. स्त्री के अनेक रूपों के समान साहित्य
के विविध रूप एकत्रित होकर देवी सरस्वती के चरणों में नत मस्तक हो जाते हैं.”
कालिदास जब इस तरह बोलते, तो वह तन्मयता से सुनती रहती. मौन हो
जाती. परन्तु आज उसने पूछ, “यह
कल्पना कहाँ से प्राप्त हुई?”
“रानी प्रभावती से. वे गर्भवती हैं.
वाकाटक राज्य को उत्तराधिकारी चाहिए. कन्या भी उन्हें अधिक प्रिय है. अर्थात्
कुमार या कुमारी संभव निश्चित है. यहाँ से कुमार कार्तिकेय के जन्म का स्मरण हुआ.
और शंकर-पार्वती के विवाह का स्मरण हुआ.”
“परन्तु एक बात मन में खटक रही है.
शिव-पार्वती के विवाह के पश्चात गंधमादन और कैलास पर्वत पर उनके श्रृंगार का जो
वर्णन हमने किया है, वह करना
चाहिए अथवा नहीं, इस बारे
में संभ्रम है. इसलिए वाचनार्थ यह ग्रन्थ लाये हैं.”
“इस बारे में हम क्या कहेंगे? परन्तु
शिवशंकर-पार्वती को हम देवता मानते है, ऐसी
स्थिति में...”
“सभी गुणों का आधिक्य है ईश्वर. जबकि काम
एवँ श्रृंगार विश्व का सम्पूर्ण सत्य है, और सृष्टि का रहस्य भी उसमें है. वहीं से कार्तिकेय का
जन्म हुआ, यह भी सत्य है.
स्त्री-पुरुष आकर्षण देवताओं को भी है ही ना?”
“फिर भी...” उसने कहा.
“श्रीकृष्ण-राधा की प्रेम कथा से हमें
क्या प्रतीत होता है?”
“नवविधा भक्ति,” उसने तत्काल उत्तर दिया. कालिदास चकित
हो गये.
“तुमने इतना सब कब पढ़ा?”
“हम कुछ काल के लिए काशी के आश्रम में थे. तब हम गुरू के आश्रम में
जाया करते थे. गुरू के लिए सभी शिष्य समान थे. उस समय उन्होंने राधा-कृष्ण मधुरा
भक्ति का एक दृष्टांत प्रस्तुत किया था. वह आदर्श होने के कारण उसमें श्रृंगार
नहीं था. उसमें था विश्वास भाव, सत्य और
शाश्वत प्रीति भाव, सामंजस्य और एकनिष्ठता. हमने कब से मन में संकल्प कर लिया –
राधा होने का. हमारी माता काशी नरेश के राजभवन में नर्तकी थी. फिर हम उसी मार्ग पर
चल पड़े. हमारी सखी के साथ सम्राट चन्द्रगुप्त की नगरी में प्रवेश किया. यहाँ
गणिकाओं, कलाकारों को
प्रतिष्ठा प्राप्त थी. यहीं वास्तव्य कर लिया.”
“कभी विवाह करने की इच्छा नहीं हुई?”
“कभी कभी इच्छा तो होती थी, परन्तु विवाह योग्य व्यक्ति ढूँढने वाला
इस दुनिया में कोई नहीं था. अब पिता बाढ़ में गुज़र गए. हमारी दुनिया समाप्त हो गई.
और कैसे करें अर्थार्जन और कैसे प्राप्त हो किसी का साथ, यह विचार करते हुए एक युवक जीवन में आया, फिर दूसरा...तीसरा...गणिका होना सरल है, यह समझ में आ गया,,,फिर एक दिन आप जीवन में आये, और हम राधा हो गए. एकनिष्ठ होने का, पतिव्रता होने का भाग्य नहीं था, परन्तु राधा होना संभव था. अब, यदि हम राधा और आप श्रीकृष्ण हुए, और कोई हमारी श्रृंगार कथाएँ लिखे तो?”
“ ‘काम’ - जीवन है, ‘काम’ - शास्त्र है, ‘काम’ – जीवन का आनंद है. यदि शिवशंकर ने उसका अधिक
उपभोग किया तो उसमें अयोग्य क्या है, प्रिये?”
वह मौन हो गई. समझ नहीं पाई कि क्या उत्तर दे.
“अब रहने दो. पहले तुम पढो, तभी उचित परिवर्तन करेंगे.”
“आर्य, क्या आप काशी गए थे?”
“बिल्कुल गए थे,” परन्तु उन्होंने आगे कुछ नहीं कहा, क्योंकि उन्हें स्मरण हुआ कि सरस्वती आश्रम से
नौका से सारनाथ
जाते हुए काशी गए थे.
“हमें काशी के घाटों पर जाना प्रिय था, बल्कि जिस भूमि पर हमारा जन्म हुआ उसके
बारे में ज्ञान प्राप्त करके अधिक आनंद प्राप्त हुआ.”
“ऐसा क्या है उस भूमि में?”
“शिवशंकर ने भूमि पर अपना निवास स्थान
बनाया तो काशी में. भारत नामक महापुरुष के दो हाथ हैं – पूर्व एवँ पश्चिम दिशा, मस्तक – हिमालय, और चरण – कन्याकुमारी. इस भारत का हृदय
है – काशी. ‘असि’ और ‘वरुणा’ मिलकर बनी – वाराणसी, यह काशी.”
“विद्यादान का वैदिक ज्ञान केंद्र है
काशी. भारत के अनेक उपज्ञान केंद्र जिससे जुड़े – उसी काशी से. ऋग्वेद में भी ‘काशी’ शब्द का उल्लेख ‘काशिका’ अर्थात् ‘प्रकाश
से परिपूर्ण’ - इस रूप में हुआ है. ‘अविमुक्ता’ – इस सन्दर्भ में भी काशी का उल्लेख हुआ है. शिवशंकर
इस भूमि को छोड़कर नहीं जाते – वही है ये काशी.”
विद्वत्वती के समान, सरस्वती देवी के समान वह कह रही थी.
अपनी भूमि के बारे में आत्मीयता से, अभिमान
से. वे उसके मुख की ओर देख रहे थे. काशी महाजनपद था चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में.
वैदिक काल से लेकर आज तक गंगा, काशी और
विश्वेश्वर का महत्त्व तो है ही.
“अथर्ववेद की पिप्पलाद संहिता में, तो शुक्ल यजुर्वेद की शतपथ ब्राह्मण
संहिता में इनका उल्लेख है. काशी नरेश द्वारा धृतराष्ट्र को पराजित करने का उल्लेख
है. सुग्रीव जब सीता जी की खोज में हनुमान और उनकी वानर सेना को भेज रहे थे, तो कोसल और कोशल इन जनपदों की जानकारी
दी थी.”
“महाभारत में शांतनु
और गंगापुत्र भीष्म अपने बंधु के लिए काशी नरेश की पुत्रियों - अंबा, अंबिका, अंबालिका
को लेकर जाता है. भीष्म का शिखंडी के हाथों पराजय होने का भी उल्लेख है.”
“गौतम बुद्ध की ‘जातक कथा’ में काशी का
उल्लेख है. काशी के निकट ही सारनाथ में पाँच विद्वान पंडितों को उपदेश देते हुए
अपना पहला प्रवचन दिया था. तत्पश्चात जैन और बौद्ध विद्यार्थी काशी आते रहे. मगध
राज और वर्त्तमान में सम्राट चन्द्रगुप्त का काशी नगरी को उन्नत करने में सहकार्य
है. ऐसी है हमारी जन्मभूमि काशी – पवित्र, रमणीय, शांत...”
वह रुकी, फिर भी कालिदास उसके मुख की ओर देखते रहे. काशी के
प्रति अपनेपन की भावना से वह मन्त्र मुग्ध हो गई थी.
“प्रिये, कैसी स्नेहपूर्ण जानकारी दी काशी की! दशाश्वमेध घाट,
मणिकर्णिका घाट, हरिश्चंद्र घाट की कथाएँ भी उस भूमि से संबंधित हैं. हरिश्चंद्र
घाट की दहकती श्मशान भूमि, दूसरी ओर
हो रही गंगा-आरती, अग्नि के
दो रूप – गंगाजल में प्रतिबिंबित होते हुए; सजीवता और निर्जीवता का रूप भी सम्मुख
आया. काशी में हम कुछ ही दिन थे. परन्तु मन विचलित था. सामने अपार गंगा का जीवन
प्रवाह था, कहाँ जाएँ, क्या करें, कुछ भी निश्चित नहीं था, अंत में पहुँच गए उज्जयिनी.”
“हमारे ही लिए. संयोग से ही जुड़ते हैं
स्नेह संबंध. वैसा ही हुआ.”
आधी रात होने को थी. आधी रात अभी शेष थी.
वे मन ही मन हँसे. ईश्वर की ही सारी योजना है, अन्यथा हम यहाँ क्यों आते...वह सम्राट चन्द्रगुप्त
के बारे में पूछ रही थी.
“महाराज रुद्रसेन की प्रकृति अद्याप ठीक
नहीं है. महाराज अब विदर्भ जाने वाले हैं. उनका जाना उचित ही है. दो पुत्रों और
महाराज रुद्रसेन की देखभाल करते हुए प्रभावती को स्नेह की आवश्यकता होगी ना?”
“स्वामी, बस एक ही कमी है,”
“क्या ?”
“आप हमें एक पुत्र प्रदान करें. आज तक
आपसे कुछ नहीं माँगा. अब दूसरी बात,” कालिदास मन ही मन गंभीर हो गए, परन्तु प्रत्यक्ष में उन्होंने हँसते
हुए पूछा, “कैकेयी के समान
दो वर तो नहीं ना मांगोगी? अर्थात एक
वर से पुत्र प्राप्ति, और दूसरे
से कालिदास की गच्छन्ति, ऐसा तो
नहीं है ना? मधुवंती, हम अवश्य पुत्र की अनुमति देंगे, परन्तु कुछ समय बीतने दो. हम तुमसे
अवश्य विवाह करेंगे और तुन्हें कन्या अथवा पुत्र देंगे.”
“परन्तु ऐसा क्या कारण है कि आप आज ना कह
रहे हैं?”
“हमने अपने मन में एक व्रत किया है. समय
आने पर तुम्हें अवश्य बताएँगे. मधुवंती, हम चार
विवाह भी कर सकते हैं. बहुपत्नीत्व की अनुमति तो है, परन्तु हमें वह भी करना नहीं है. अभी हम वचनबद्ध हैं
तुम्हारे प्रति. परन्तु वह समय कब आयेगा, यह हम नहीं बता पायेंगे.”
मधुवंती ऐसी आश्वस्त हो गई थी, जैसे अशोक वृक्ष के कंधे पर माधवी लता
निश्चिन्त हो. पौर्णिमा के चन्द्रमा का शीतल प्रकाश उसके मुख पर था. लज्जा से
नेत्र मूंदे वह लज्जावती कमलिनी की भाँति प्रतीत हो रही थी.
कालिदास के मन में उसके प्रति अपार स्नेह
जागा. उन्होंने अत्यंत स्नेह से उसे अपने निकट लिया. मातृसुख से वंचित मधुवंती का
जो रूप वे आज देख रहे थे, वैसा उन्होंने
आज तक नहीं देखा था. उनके नेत्रों के सम्मुख लज्जावती शकुन्तला साकार हो उठी.
दुष्यंत ने उसके साथ कम से कम गन्धर्व विवाह तो किया था, हमने?
पल भर के लिए कालिदास विचलित हो गए, परन्तु अगले ही क्षण उन्होंने अपना
सांत्वन किया. एक बार वेदवती के पास जाना है. वह अभी तक मन में थी. उसे दूर किये
बिना मधुवंती तन मन में नहीं रह सकती थी. और मन से वेदवती को हटाना कम से कम आज तो
संभव नहीं था.
रात बहार पर थी, परन्तु आज दोनों ही शांत थे.
***
No comments:
Post a Comment