‘अखंड भारत के पुरस्कर्ता, हिन्दू धर्म–संस्कृति उपासक सम्राट
चन्द्रगुप्त की सेवा में विनम्र प्रणाम.
आज प्रात:काल हम महिष्मति नगरी में आये.
लोकपाल चंद्रदेव ने हमारी उत्तम व्यवस्था की, इससे भी अधिक यह अनुभव हुआ कि चंद्रदेव ने अपनी इस
नगरी को सुव्यवस्थित, सुसंगठित
रखा है. इस नगरी की ऐतिहासिक, पौराणिक
पार्श्वभूमी है. इसे ध्यान में रखते हुए यहाँ मंदिरों का, अभ्यास भवनों का निर्माण किया गया है.
यहाँ के लोग गतिशील हैं. अत्यंत सुन्दर कलाकारी करके उन्होंने अपनी गृह रचना की
है. आदरातिथ्य और स्वागत यहाँ की विशेषता है. यहाँ की निर्मित अनेक वस्तुएं विदर्भ
और दक्षिण में भेजी जाती हैं. व्यापार के क्रय-विक्रय केंद्र तो इतने अधिक हैं कि
देखकर आश्चर्य हुआ. यहाँ के लोग उत्साही है, और अलंकार मंडित युवतियां तो सौदामिनी के समान चंचल
हैं.
दो दिन यहाँ रहकर हम विदर्भ की ओर जा रहे
हैं. हमारे साथ विश्वासपात्र दूत और थोड़ी सी सेना है, आप निश्चिन्त रहें.’
कालिदास ने लिखे हुए पत्र को वैसा ही रखा
और दो दिन बाद विदर्भ में प्रवेश करके अमरावती पहुंचे. महाभारत काल में स्वयँ पत्र
लिखकर विवाह प्रस्ताव भेजने वाली स्वयंसिद्धा रुक्मिणी का स्मरण हो आया. वे अंबा
माता के मंदिर में गए. यहीं से तो देवी के दर्शन के लिए आने का संकेत भेजकर
श्रीकृष्ण को आमंत्रित किया था. लोकनेता, द्वारकाधीश श्रीकृष्ण तब तक उसे जानते भी नहीं थे.
परन्तु एक कन्या प्रेम करती है, पिता
द्वारा निश्चित किया गया विवाह वह अमान्य करती है, और धैर्य तथा विश्वासपूर्वक इतनी दूर पत्र लिखती है, यह कल्पना ही कालिदास को मंत्रमुग्ध
करने वाली थी.
कैसे हैं ये प्रेम बंधन! जिससे केवल
चित्र द्वारा ही परिचय है, जिसके
शौर्य का डंका चारों और गूँज रहा है, जिससे
पिता और बन्धु का बैर है, उस श्रीकृष्ण
को सिर्फ पत्र से आवाज़ दी, और उसे भी
लोक सम्राट श्रीकृष्ण ने सुन लिया! सभी कुछ कल्पनातीत, अगम्य प्रतीत हुआ उन्हें, परन्तु सब सत्य था. ऐसा भी घटित हो सकता है, इसका
उन्हें आश्चर्य हो रहा था. कालिदास पहले महाराज रुद्रसेन और उनकी नगरी देखने आये
थे. परन्तु तब का अपरिचित निसर्ग अब उन्हें परिचित प्रतीत हो रहा था, और प्रवेश करते ही स्वागत करने वाला
विदर्भ भी.
अंबा माता के मंदिर में पंडित हरिप्रसाद
बता रहे थे, “महाराज, यहाँ
अत्यधिक दर्भ होने से यह विपुल दर्भ वाला अर्थात् ‘विदर्भ’ है. यहाँ के नरेश विदर्भ राज प्राचीन
काल के है. रामायण में जिसका उल्लेख है, इतना
प्राचीन है यह प्रदेश. रामायण में जब श्रीराम सीता जी को पुष्पक विमान से अयोध्या
वापस ले जाते हुए कहते हैं, ‘जिस
प्रदेश से विमान जा रहा है, वह सामने
है, विदर्भ
नगरी.’
विदर्भ की भूमि अनुपम लावण्यवती, उपजाऊ, फलों-फूलों से लदी हुई. वसुंधरा ने यहाँ काला दुशाला
ओढा है. अनेक सर-सरिताएं, अरण्य
प्रदेश, निरभ्र रातें और सुरम्य प्रात:काल. रसिका, यौवना है यह विदर्भ भूमि. जलधाराओं में भीगने वाली, ग्रीष्म की लपटों में संयमित रहकर कृष्ण
मेघों की प्रतीक्षा करने वाली. धनधान्य से समृद्ध, आतिथ्य से ओतप्रोत, स्वागत सिद्ध, प्रौढ़-प्रगल्भ लोकमाता भी है यह विदर्भ भूमि.
पंडित हरिप्रसाद काशी से इस मंदिर में
आये थे. उन्हें विदर्भ भूमि प्रिय हुई, अत:
उन्होंने यहीं वास्तव्य कर लिया. और वे विदर्भ के बारे में दिल खोलकर बता रहे थे.
प्राचीन परंपराओं से, रीति-नीति से, संस्कार साधनों से, संस्कृति से और
विपुल साहित्य संपदा से अर्थगर्भ हुई यह ऋषि मुनियों की उपासना भूमि है. भारत माता
के नवरत्नों के कंठहार का कौस्तुभ मणि अर्थात् विदर्भ भूमि.
रामायण से पूर्व भी विदर्भ भूमि
प्रतिष्ठित थी. अनार्यों, नागलोकों
और आदिवासियों का यह वसति स्थान था. अरण्य से समृद्ध है यह हरित भूमि. इसलिए
श्रीराम ने दंडकारण्य में प्रवेश करने से पूर्व यहाँ वास्तव्य किया था – वह स्थान
है रामगिरी.
आगे चलकर आर्यों ने दक्षिण भारत में
प्रवेश किया, और आर्य-अनार्य संमिश्र संस्कृति का उदय हुआ. प्राचीनतम विकास का
पहला चरण रखा अगस्ति मुनि ने. उत्तर से विन्ध्य पर्वत पार करके उन्होंने
उत्तर-दक्षिण मार्ग प्रारंभ किया. दक्षिण पथ में क्रान्ति का समीर प्रवाहित होने
लगा. अस्त्र, शस्त्र, वस्त्र, धनधान्य,
शास्त्रविद्या, मन्त्रों के कारण पहले से ही सुजलाम्, सुफलाम् विदर्भ भूमि को
प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त हुआ.”
“पंडित हरिप्रसाद, आपको विदर्भ कितना प्रिय है, यह अब समझ में आया.”
“महोदय, यदि श्रवण करने वाला अभ्यासक श्रोता हो, तो प्रत्येक शब्द शीघ्रता से आता है.
कितना कथन करें, इसका भान
ही नहीं रहता, क्षमा
करें...” वे दोनों हाथ जोड़ते हुए बोले. कालिदास ने उनके दोनों हाथ अपने हाथों में
लिए और बोले,
“पंडित हरिप्रसाद, आप कथन करें. हम सम्राट चन्द्रगुप्त को
पत्र लिख ही रहे हैं, अब उन्हें
भी अपनी कन्या के विदर्भ में होने का अभिमान होगा.”
दोनों मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे.
“किसी भी समाज का इतिहास प्राय: राजकीय
घटनाओं से आरम्भ होता है, परन्तु विदर्भ में वह आदिवैदिक संस्कृति, आर्य-अनार्य संस्कृति के मेल से बना है.
आगे चलकर भोजवंशीय नामक क्षत्रिय राजा के नाम से विदर्भ परिचित हुआ. ऋषभदेव नामक
सम्राट ने अपने साम्राज्य को नौ पुत्रों में विभाजित किया, जिनमें विदर्भ नामक
पुत्र को विदर्भ की भूमि दी गई.
विदर्भ की कई पीढ़ियों बाद भीम राजा बना.
उसका पुत्र दक्ष, फिर एक के
बाद एक बृहद्भान, हलधर, सुधील, पद्माकर, रिपुमर्दन, चित्रसेन, भीम, रुक्मांगद
और भीम – दमयंती के पिता और फिर इंदुमती का भाई भोज प्रथम. इस भोज वंश में दो
शूरवीर क्रथ-कौशिक हुए. क्रथ का पुत्र अंशुमन, तो कौशिक का पुत्र भीष्मक, भीष्मक का पुत्र रुक्मी, रुक्मी की भगिनी – रुक्मिणी.”
“पंडित हरिप्रसाद, आपने इतनी जानकारी...”
“उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं, महाशय. एक बार पढ़ने से मुझे सब याद हो
जाता है. यह ईश्वरीय कृपा है. अनेक वर्ष अध्ययन करने वाले विद्यार्थी होते हैं, मैं एकपाठी, इसीलिये ‘घनपाठी’ हूँ. मेरे आचार्य मुझे ‘बहुघनपाठी’
कहते थे.”
“उसके बाद क्या हुआ विदर्भ में?”
“विदर्भ का प्रथम ज्ञात राजवंश था
सातवाहन अथवा शालिवाहन वंश. उसमें ३३ राजा हुए. दीर्घकाल तक शासन करने वाला यह
राजवंश अनेक राजाओं के कारण भी इतिहास में प्रसिद्ध हुआ. इनका शासन ४४० वर्षों तक
विदर्भ और महाराष्ट्र में था.
वात्स्यायन का ‘कामसूत्र’ आगे चलकर लिखा गया. उसके बाद शक-क्षत्रप, हूण, कुशाण इनकी कुछ जातियां विदर्भ में
आईं. वे यहाँ स्थाई भी हो गईं, फिर आया
वाकाटक कुलवंश. सातवाहनों के प्रशासन में विष्णुवृद्ध गोत्र का विन्ध्यशक्ति नामक
अधिकारी था. ४४० वर्षों बाद सातवाहन राज्य अस्त होने के मार्ग पर था कि प्रथम शालिवाहन
ने अशोक की मृत्यु के बाद दक्षिण पथ में राज्य निर्माण किया. उसी प्रकार
विन्ध्यशक्ति ने सातवाहन की मृत्यु के बाद राज्य का निर्माण किया.”
“परन्तु ये विन्ध्यशक्ति महाराज कहाँ के
थे?”
“यह तो हमें ज्ञात नहीं, परन्तु उनके पुत्र प्रवरसेन का उल्लेख
मिलता है. विदिशा के नागराज का दौहित्र जिस पुरिका नगरी में राज्य करता था, उसी पुरिका नगरी को कालान्तर में
प्रवरसेन ने युद्ध में जीतकर वहाँ स्वयँ की, अर्थात् वाकाटक वंश की राजधानी स्थापित की. प्रवरसेन
की दो राजधानियां थीं - पिरिका और चनका.”
“आपने विदर्भ और विदर्भ की ऐतिहासिक
घटनाओं के बारे में जो बताया, पंडित
हरिप्रसाद जी, वह इतना
जीवंत था. और कोई व्यक्ति इस प्रकार से तभी बोल सकता है, जब वह उस भूमि से प्रेम करता हो. है ना? महाराज विन्ध्यशक्ति के पराक्रम और
शौर्य की कथाएँ हम सुन चुके हैं, जब हम पहली बार यहाँ आये थे. परन्तु एक अन्य
मार्ग से आये थे. विदर्भ मध्यकेंद्र होने से यहाँ कहीं से भी आ सकते हैं.”
“महोदय, आप कौन हैं, कहाँ से हैं और यहाँ आने का प्रयोजन
क्या है?”
“हम सम्राट चन्द्रगुप्त की राजसभा में
हैं. कालिदास हमारा नाम है.”
“कुछ वर्ष पूर्व महारानी प्रभावती देवी
के विवाह के अवसर पर आपने एक नाटक प्रस्तुत किया था. क्या आप वही हैं?”
कालिदास को कोई बहुमूल्य रत्न प्रदान
करता तब भी इतना आनंद न हुआ होता. उनके लिए यही महत्वपूर्ण था कि मंदिर के एक
विद्वान पंडित को उनका नाम मालूम था.
“यदि पहले ज्ञात होता, तो हम आपका स्वागत उत्तम प्रकार से कर
सकते थे. इस समय हम मंदिर में हैं, आप मेरे
यहां पधारें. आतिथ्य स्वीकार करें, तो मुझे
प्रसन्नता होगी.”
“पंडित हरिप्रसाद जी, हम पुनश्च आयेंगे. यहाँ से निकट ही
नगरधन है, वहाँ हमारी
प्रतीक्षा हो रही है. हम आपसे बिदा लेते हैं. आप हमें मंदिर का प्रसाद दें.”
हरिप्रसाद तत्परता से उठे और मंदिर से एक
फल कालिदास के उत्तरीय में रखा.
कालिदास निकल पड़े. अरण्य का प्रसन्न समीर, अस्त की ओर प्रयाण कर रहे सूर्य का
जलाशय में परावर्तित होता सुनहरा रूप, उड़ती हुए बगुलों की माला, घर की ओर भाग रहा
गोधन, उनकी घंटियों का
सुरीला नाद, कृषि प्रधान
विदर्भ में हर स्थान पर दृष्टीगोचर होती कृषि सम्पत्ती, हवा के साथ झूमती बालियाँ.
उन्हें याद आया कि किसी ऋषि ने पहले कपास
के पौधे यहीं लगाये थे. कपास से सूत निकालकर उन्होंने यहीं पर वस्त्र विकास किया
था.
नवरत्नों की यह भूमि महाराज रुद्रसेन के
बिना भी ऐसी ही उन्नत रहे, ऐसी
उन्होंने मन ही मन प्रार्थना की.
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