उन्होंने सम्राट चन्द्रगुप्त को विस्तार
से पत्र लिखना आरंभ किया और उन्हें स्मरण हो आया महाराज से संवाद का और चिंतित
पिता का.
“कालिदास महोदय, आपके लिए महाराज का सन्देश है कि वे
मध्याह्न में राजसभा नहीं जायेंगे और उन्होंने आपको भोजनोत्तर अपने ही कक्ष में
आमंत्रित किया है,” राजसेवक सुरानन्द महाराज का सन्देश लेकर आया था.
‘आज राजसभा में उन्होंने प्रत्यक्ष रूप
से तो कुछ कहा नहीं था, अकस्मात्
ऐसा सन्देश क्यों आ सकता है?’ वे विचार
करते हुए ही अपने भवन के दालान की ओर निकल पड़े थे.
उस समय महाराज विदर्भ गए थे, वह योग्य ही था. महाराज रुद्रसेन मानो
उन्हें देखने के लिए ही रुके थे. आठ ही दिनों के भीतर महाराज रुद्रसेन की मृत्यु
हो गई. अंतिम क्षणों में उन्होंने सम्राट चन्द्रगुप्त से कहा था, “आप हमारे लिए पिता समान हैं. हमारे स्वास्थ्य के लक्षणों को देखते
हुए, हम संभल पायेंगे
यह आशा हमने छोड़ दी है. प्रभावती के साथ हमारे वैवाहिक जीवन को केवल पाँच ही वर्ष
बीते हैं, परन्तु अब...”
कुछ देर रुक कर वे बोले, “वाकाटक वंश का इतिहास उज्जवल है, और प्रभावती ने हमें दो पुत्र भी दिए
हैं, यह अत्यंत महत्त्व की घटना है. आपसे बिदा लेने से पूर्व एक वचन चाहिए, हमें.”
“कौनसा वचन दें, महाराज रुद्रसेन?” उनका गला भर आया था.
दक्षिण में बलाढ्य साम्राज्य का निर्माण
करने वाले वाकाटक वंश के वीर, साहसी, रसिक, गुणी
राजा को अब असहाय अवस्था में देखकर सम्राट चन्द्रगुप्त का मन भर आया था. कुछ समझ
में नहीं आ रहा था, कि क्या
कहें. युद्धभूमि में अपार शौर्य का प्रदर्शन करने वाले दो योद्धा नियति की शरण में
आये थे.
“महाराज, हमारे नेत्रों के सामने मृत्यु का मार्ग प्रत्यक्ष साकार
हो गया है. यमदेवता ने उस मार्ग पर चलने का आदेश दिया है. हम चाहें या न चाहें, उनकी आज्ञा का पालन करना ही पडेगा. आप
केवल इतना ही करें...”
महाराज रुद्रसेन का कंठ अवरुद्ध हो गया
था, फिर वे
प्रयत्नपूर्वक आगे बोले, “हमारे पश्चात ज्येष्ठ पुत्र दामोदर सेन को
प्रभावती सिंहासन पर बिठाकर राज्य प्रशासन संभालें. प्रभावती सर्वगुण संपन्न है.
उसकी हमें चिंता नहीं है. परन्तु गुण और कर्तृत्व में कार्यसंगति अपेक्षित है. अभी
तक उसे कोई अनुभव नहीं है, अत: राज्य
प्रशासन में आप उसे सहयोग दें. प्रत्यक्ष कार्यान्वित होने पर ही राज्यशासन चलता
है.”
“कालिदास, हमारा ही वाक्य अपने अनुभव से रुद्रसेन बोल रहे थे. आपको
याद होगा, कालिदास, कि रुद्रसेन की मृत्यु के पश्चात हमने
दामोदरसेन का युवराज्याभिषेक किया. प्रभावती ने विश्वास पूर्वक राज्यशासन अपने हाथ
में लिया. उनका मंत्रीमंडल विश्वसनीय था, इसलिए छः मास में ही हमारे द्वारा भेजी
गई सेना और कुछ अधिकारी उसने वापस भेज दिए. उसका अभिनंदन करने की इच्छा होते ही
महाराज रुद्रसेन की मृत्यु का स्मरण होता. दामोदरसेन को विविध कलाओं में पारंगत
करने के लिए उसीने कुछ विद्वानों, कलाकारों
और पंडितों को भेजने के लिए कहा.”
“हमने तो काशी के विद्वानों को, पंडितों को भेजा, परन्तु पिछले छः मास से उसकी ओर से कोई
समाचार नहीं है. समाचार तो मंगवाया जा सकता है, परन्तु कालिदास, मन अस्वस्थ्य है. दिन-रात उस
अल्पवयीन, अनुभवहीन, यौवन में पदार्पण करने वाली और दो
बालकों की माता हमारी कन्या प्रभावती को कितना कष्ट उठाना पड़ रहा होगा, इसकी केवल कल्पना ही कर सकते हैं. एक पिता
और एक मित्र के नाते आपसे विनती है कि आप एक बार हमारी तरफ से विदर्भ जाएँ और देख
कर आयें कि उसका शासन सुयोग्य और सुचारू रूप से तो चल रहा है. आप बचपन से उसके
निकट हैं. आप उससे स्नेहपूर्वक समस्याओं के बारे में पूछ सकते हैं. क्योंकि यदि
माता, पिता को न बताने
जैसी कोई समस्या हुई तो वह आपको निश्चित रूप से बतायेगी. आप उसे व्यथा से भी बाहर
निकाल सकते हैं. कथा, काव्य, नाटक से उसका मनोरंजन भी कर सकते हैं.”
“महाराज, इससे बढ़कर सौभाग्य की बात और क्या हो सकती है कि
आपने हमें इस योग्य समझा!”
“एक माह में आप वापस आ सकते हैं.”
“अवश्य महाराज, हम जाते ही तुरंत आपको वहाँ की
परिस्थिति का वृत्तांत भेजेंगे, जिससे आप कुछ आश्वस्त हो सकें. आप भी अपनी प्रकृति
का ध्यान रखें.”
कालिदास प्रभावती के यहाँ जाने के लिए
तैयार हैं, इस बात से सम्राट
चन्द्रगुप्त प्रसन्न हुए. उन्हें आदेश देकर भी भेजा जा सकता था, परन्तु तब वह राजाज्ञा होती. और उनके समान
स्नेह से यह कार्य कोई और नहीं करेगा, यह वे
जानते थे. इसलिए सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा,
“मन से बोझ उतर गया. आपके बिना हमें भी
यहाँ अच्छा नहीं लगता. दुनिया में अनगिनत लोग होते हैं, परन्तु मन के निकट केवल एक ही होता है, और वह पत्नी
से भी अधिक घनिष्ठ होता है. इसलिए आप जाकर आयें, हमें तुरंत समाचार भेजें.”
“अवश्य, महाराज.” दोनों प्रसन्न मन से निकले. सम्राट
चन्द्रगुप्त रात्रि के समय मंदिर के लिए निकले थे, जैसा वह कभी नहीं करते थे. मंदिर की सीढियां चढ़ते हुए
वे प्रसन्न थे. पीछे मुड़कर उन्होंने कालिदास की ओर देखकर हाथ हिलाया. सम्राट
चन्द्रगुप्त की विनम्रता और उनका सौजन्य देखकर कालिदास मन ही मन धन्य हो गए.
सैनिकों के बीच एक सैनिक की तरह संचार करने वाला ऐसा कोई भी सम्राट नहीं होगा. वे
भी प्रसन्न मन से मधुवंती की और निकले थे.
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