Tuesday, 21 February 2023

Shubhangi - 58

 

कालिदास ने अधूरे पत्र को आगे लिखना आरंभ किया. 

“महाराज, कुंकुम विरहित, सौभाग्य अलंकारों के बिना, अधोवदन, और अपराधी के समान – ऐसी हमने प्रभावती देवी के रूप की कल्पना की थी. परन्तु जो दिखी, अब बहुमानार्थी शब्द का प्रयोग करते हैं, जो दिखीं वह...  

प्रभावती देवी ने चन्दन का तिलक लगाया था. उनके श्यामल वर्ण पर वह अत्यंत सुन्दर और सात्विक प्रतीत हो रहा था. उन्होंने राजवस्त्र तो नहीं, अपितु रेशमी वस्त्र धारण किये थे. बाजूबंद, कमरबंद, रत्नमाला, रत्न कंकण वैसे ही हैं. केवल सौभाग्य चिह्न का अभाव है. परन्तु सद्य परिस्थिति में वे म्लान नहीं हैं, अपितु कर्तव्य का पूर्ण ज्ञान रखने वाली परम तेजस्वी और कर्तृत्ववान हैं. पहले कभी नहीं देखा, ऐसा उनका रूप देखते हुए एक तरफ दु:ख है, परन्तु वह एक स्वयंसिद्धा का रूप है. हमें वह प्रिय प्रतीत हुआ.

व्रतबंध होने के कारण दामोदरसेन अब विद्याध्ययन करने लगे हैं, परन्तु कुछ अशक्त हैं. अब हम उन्हें योग्य बात बताएँगे ही. बाल प्रवरसेन अभी भोले हैं, उनकी बाल लीलाओं से मनोरंजन होता है. इसके अतिरिक्त अल्पावधि में ही महारानी प्रभावती ने स्वयँ को संभाल लिया है, चिंता न करें.

अभी इतना ही लिखकर लेखनी को विराम देता हूँ.

आपका विनम्र राजसेवक,

कालिदास

एक और बात कथन करना है. प्रवरसेन की बाललीलाओं में सात्विकता और आक्रामकता है. पंडित हरिप्रसाद ने विंध्यशक्ति के बारे में जो भी कथन किया उसका स्मरण द्वितीय प्रवरसेन की ओर देखकर हो आया.

महाराज विन्ध्यशक्ति ने प्रचंड युद्ध किये. जब उसे क्रोध आता तो उसका रूप इतना रौद्र हो जाता कि देवताओं को भी उसे संभालना कठिन हो जाता. उतना ही मृदु उनका स्वभाव भी था. उनका साम्राज्य दक्षिणपथ से विन्ध्य पर्वत तक था. आज उनमें से कोई प्रदेश नहीं हैं, फिर भी प्रथम प्रवरसेन की प्रसिद्धि उससे अधिक थी ऐसा पंडित हरिप्रसाद कह रहे थे.’

एक मास वास्तव्य के लिए आये हुए कालिदास देखते-देखते छः मास बीत गए फिर भी यहीं थे. इस वास्तव्य में प्रथम प्रवरसेन से लेकर वर्त्तमान के द्वितीय प्रवरसेन तक के वाकाटक वंश के अत्यंत रोमांचकारी इतिहास के बारे में कालिदास ने लिखा था. परन्तु अभी बहुत कुछ लिखना शेष था. विदर्भ की जनरीति, उत्सव, सामाजिक मान्यताएं, अर्थ व्यवस्था, सैन्य व्यवस्था और कला-साहित्य के बारे में.

उस दिन दामोदरसेन सिंहासन पर विराजमान थे. प्रभावती देवी उनके निकट के आसन पर विराजमान थीं. प्रभावती देवी ने सम्राट चन्द्रगुप्त की राजसभा देखी थी. यहाँ भी वह वैसी ही होगी, ऐसा कालिदास ने सोचा था. परन्तु प्रभावती देवी की शायद अपनी या महाराज रुद्रसेन की व्यवस्था होगी.

प्रभावती देवी ने प्रथम कोषागार समिति के अध्यक्ष को बुलाकर कोष में कितनी धन राशि है, इसकी जानकारी प्राप्त की. अर्थमंत्री सब कुछ लिख रहे थे. यह कार्य होने के बाद उन्होंने सेनाधिकारी पुष्पकसेन को बुलाया और अश्वाधिपति, पैदल सैन्य प्रमुख, गुप्तचर, वार्ताहर और परराष्ट्र मंत्री की सभा बुलाकर पूरी जानकारी प्राप्त की.

भोजन काल को छोड़कर पूरा दिन विविध समितियों की जानकारी प्राप्त करने में व्यतीत हुआ. शाम को उसने कालिदास से कहा,

“आप हमारे पिता के बन्धु के समान हैं. कृपया बताएँ, हमसे कोई गलती हो रही है क्या...”

“एक ही दिन में सभी समितियों से चर्चा करने का प्रयोजन समझ में नहीं आया.”

“यह हमारी पद्धति हमने ही बनाई है. कोषागार में कितनी संपत्ति है, इसकी जानकारी होने पर आँखों के सामने संख्या होती है. उस संख्या का व्यय कितना और किस पर किया जाए, इस पर माह के आरम्भ में विचार किया जाता है. एक बार कोषागार में विशिष्ट संख्या में धन है, यह ज्ञात होने पर प्रथम सीमा रक्षण और उसका प्रमुख भाग निकाल कर बाकी धनराशि किन्हीं प्रस्तुत समस्याओं पर व्यय की जाती है.

अब, उदाहरण के लिए यहाँ सभी ऋतुएँ अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर ही आती हैं. ग्रीष्मकाल अत्यंत तीव्र होता है. शीत ऋतु भी तीव्र और वर्षा ऋतु भी तीव्र. ऐसी स्थिति में कृषकों को प्राधान्य दिया जाता है. जल वाहिनियाँ बनाकर कृषि के लिए जलव्यवस्था तो की जाती है, परन्तु यदि सरिताएं ही सूख जाएँ, तो जल व्यवस्था कैसे की जाए, यह समस्या होती है. तब हमें भागीरथ का स्मरण होता है. अब हम जल व्यवस्था करने के लिए सरिता के पात्र को गहरा बनाते हैं. वहाँ से वर्षा ऋतू में आया हुआ अधिक जल एक मानव निर्मित सरोवर में एकत्रित करते हैं, और जो आप हरी-भरी कृषि देखते हुए आए, यह उसीका परिणाम है.

महाराज रुद्रसेन के पास अनगिनत कल्पनाएँ थीं, परन्तु उन्हें कार्यान्वित करने का समय नियति ने उन्हें दिया नहीं. परन्तु अब हम हैं. पिताश्री का प्रत्यक्ष आदर्श हमारे सम्मुख है.”

“और साम्राज्य विस्तार के बारे में क्या?

“कालिदास महोदय, पहले राष्ट्र सुरक्षित और संरक्षित रहे यह हमारा प्रयत्न है. सीमा पर यदि सैन्य दल कार्यरत दिखाई दे तो आप्त राष्ट्रों को धैर्य प्राप्त होता है, और शत्रु राष्ट्रों को भय का अनुभव होता है. कोष का काफी भाग सैन्यदलों पर व्यय होता है, क्योंकि यदि सीमा सुरक्षित है, तो देश भी सुरक्षित रहेगा.”

“आपने महाराज के वाक्यों को पूरी तरह आत्मसात किया है.”

“और महाराज रुद्रसेन के भी. कभी कभी वे प्रथम प्रवरसेन से लेकर अपने वंशजों के पराक्रम के बारे में बताया करते. हमारे पिताश्री युद्ध पर अवश्य जाते. वापस लौटने पर विजय उत्सव संपन्न होता. हम बचपन से उसका आनंद उठाते, परन्तु युद्ध का सविस्तर वर्णन कभी सुना नहीं था, न ही उसे कभी देखा था. रुद्रसेन महाराज ने पाँच वर्षों में हमें अनंत ज्ञान दिया. पचास वर्षों के कार्य की कल्पना, योजना, आय-व्यय, कहाँ अधिक व्यय करना चाहिए, कहाँ से धन प्राप्ति होगी, इन सबके बारे में विस्तार से ज्ञान दिया.”

“प्रभावती देवी, रुद्रसेन महाराज के जाने के बाद इन पाँच-छः वर्षों में आप अनुभव संपन्न, प्रौढ़-प्रगल्भ हुई हैं. महाराज चन्द्रगुप्त के मन में एक आशंका थी, वह अब समाप्त हो गई है. दामोदरसेन भी अब दस वर्ष के हो गए हैं. प्रवरसेन भी समझदार हो गए हैं. महाराज को चिंता थी, वह अब समाप्त हो गई है.”

“कालिदास महोदय, आप हमारे लिए आदरार्थी संबोधन का प्रयोग न करें, आयु में हम आपसे आधे से भी ज़्यादा छोटे हैं.”

“परन्तु अब महारानी पद पर हैं, वह आपका सम्मान है.”

“आप मुझे स्नेहपूर्वक प्रभावती कहें.”

प्रभावती बोल रही थी. दामोदरसेन, प्रवरसेन भी थे. उसने कहा,

“हमें आश्चर्य इस बात का है, कालिदास महोदय, कि सदा यही प्रतीत होता है, जैसे महाराज रुद्रसेन अभी हैं. प्रत्येक कार्य को करते हुए उनका स्मरण होता है. महाराज जब पहली बार हमें मृगया के लिए ले गए थे. मृगया करना अत्यंत क्रूर प्रतीत हो रहा था. महाराज ने कहा,

‘मृगया मनोरंजन के लिए नहीं की जाती. इससे धैर्य, संयम, एकाग्रता, मृत्यु का दर्शन होता है. अरण्य के किसी श्वापद की हत्या पहले मानवता विरुद्ध प्रतीत होती है, परन्तु आगे चलकर यदि राष्ट्र के लिए युद्ध करते समय शत्रु का लहू देखकर हम भावविवश हो गए तो... अहिंसा तभी तक होनी चाहिए जब तक हम पर कोई आक्रमण नहीं करता. और आक्रमण ही न हों, और कोई हमारी तरफ वक्र दृष्टी से न देखे, इसके लिए सेना प्रशिक्षित, सुसज्ज और कार्यतत्पर होनी चाहिए.’

अर्थात्, मृगया का जो स्पष्टीकरण उन्होंने दिया, वह हमें अच्छा नहीं लगा था. मृगया मनोरंजन के लिए की जाती है, यही हमारी राय अभी भी है. तब भी इस बात पर हमारे बीच वाद-विवाद हुआ करता, परन्तु विसंवाद कभी भी नहीं हुआ.”

कालिदास सुन रहे थे. अभी-अभी किशोर वय पूर्ण करके, दो पुत्रों की माता प्रभावती कर्तव्यनिष्ठ और राजनिष्ठ रानी प्रतीत हो रही थीं. इतना ही नहीं, उसके मुखमंडल पर प्रौढ़-प्रगल्भता छाई थी, वह स्वयंसिद्धा नवयौवना लग रही थी.  

“अद्याप बहुत कुछ कथन करना है, बहुत कुछ दिखाना है, कालिदास महोदय. उज्जयिनी जाने की त्वरा न करें. आपकी कन्या ही यहाँ है, ऐसा समझें.”

रात गहरा रही थी. वे उठे और अपने कक्ष की ओर गए. उनका मन भर आया था. मंचक पर बैठकर वे स्वयँ को रोक नहीं पाए.

‘हमारी कन्या? हमारा न तो कोइ पुत्र है, न ही कन्या! हमारी ना तो पत्नी है, ना ही कोई आप्तस्वकीय. गणिका मधुवंती ने हमसे संतान की मांग तो की थी, परन्तु हमारे मन ने ही स्वीकार किये गए शाप का उ:शाप नहीं मांगा. हमने ही स्वयँ को शापित समझ लिया. प्रतारणा की अपने मन से, उस एकनिष्ठ प्रीति करने वाली मधुवंती से. क्या प्राप्त किया हमने?

‘शतमूर्ख हैं हम. होगी वह विदिशा के राजा भोज की कन्या, होगी विद्वान पंडिता, हुआ होगा किसी क्षण विवाह भी. और उसने कर भी दिया हमें कठोर वचनों से सीमापार. फिर भी...फिर भी यह जिद्दी मन शापमुक्त नहीं होता. क्या शापमुक्त होना हमारे जीवन में है ही नहीं?

‘हम शास्त्र संपन्न हो गए. थोड़ा साहित्य भी निर्माण कर लिया. समाज में प्रतिष्ठित भी हैं. फिर भी खुद ही अपने आप को दिया हुआ शाप क्यों भोग रहे है?’

‘नहीं, नहीं. अब उज्जयिनी वापस जाने के बाद एक बार उसके पास जाना है, और अपने जीवन को मुक्तता से जीना है. मधुवंती से विवाह करना है. देर से ही सही, प्रभावती के समान दो पुत्र हमें चाहिए. दो पुत्र नहीं – एक पुत्र और एक कन्या. उसे श्वसुर गृह भेजते हुए सम्राट चन्द्रगुप्त जैसा श्रेष्ठ योद्धा भी भाव-विह्वल होने से स्वयँ को रोक नहीं पाया था. हमारी भी वैसी ही स्थिति होगी.’

वे अपनी कल्पना में खोये थे, कि सेवक ने कक्ष में आने की अनुमति मांगी. वे स्वयँ को संभालते हुए बोले, “ऐसी क्या बात है?

“महारानी ने ये भोजपत्र भेजे हैं,” उसने रेशमी वस्त्र में लपेटे हुए भोजपत्र रखते हुए कहा.

उनका मन मानो स्वर्ग से पृथ्वी पर आ गया.

‘ऐसा ही होता है. हम कल्पना के स्वर्ग की सीढियां चढ़ने लगते हैं, और वास्तविकता का भान हो जाता है. उन्होंने रेशमी वस्त्र में लिपटे हुए भोजपत्रों को हाथ में लिया. रेशमी धागे से बंधे हुए उन भोज पत्रों को हाथ में लेते ही प्रभावती के मोती जैसे अक्षर दिखाई दिए.

प्रथम पृष्ठ पर लिखा था – ‘वाकाटक कुलवंश’.

प्रत्येक व्यक्ति को गर्व होगा, ऐसा यह कुल वृत्तांत था, जिसे स्वयँ प्रभावती ने अपने सुन्दर अक्षरों में लिखा था.

‘आश्चर्य है, कल तक सम्राट चन्द्रगुप्त को सर्वश्रेष्ठ मानने वाली कन्या प्रभावती श्वसुर गृह आकर अभिमान पूर्वक अपने कुल का इतिहास लिखती है...ऐसा प्रतीत होता है कि सरिता अपने अस्तित्व को खोकर पूरी तरह सागर में विलीन हो जाए. उसके लिए अब सब कुछ वाकाटक वंश ही है.’

वे हंसे.

आधी रात होने को थी. अब फलाहार और फिर शांत निद्रा.

मगर क्या निद्रा आयेगी? फिर एक आशंका...

‘शिवशंकर, मन में कोई भी विकल्प आये बिना शांत निद्रा आये...’ वे मन ही मन नमस्कार करते हुए मंचक पर लेटे.

 

***

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