पूरे सप्ताह वे प्रभावती के साथ कृषि व्यवस्था का अवलोकन करने जाते रहे. राजा जनक स्वयँ हलधर थे. बलराम हलधर थे. परन्तु स्वयँ जाकर कृषि व्यवस्था देखने वाली प्रभावती उन्हें कई गुना महान प्रतीत हुई. अश्वारूढ प्रभावती अपने दोनों पुत्रों और संरक्षकों के साथ जाकर प्रत्येक प्रांत की कृषि व्यवस्था का निरीक्षण करती थी, इसका उन्हें अनुभव हुआ था. गोधन के बारे में वह बहुत जागरूक थी. गोधन वाकाटक वंश की संपत्ति है, ऐसा वह कहती थी.
“प्रभावती, यदि प्रत्येक राजा यह कार्य करे ना, तो राष्ट्र समृद्ध होगा.”
“कालिदास महोदय, महाराज रुद्रसेन कहते थे, ‘अरण्य – संपदा है.’ हम कहते, ‘कृषि – संपदा है, ये हम मानते हैं, परन्तु अरण्य संपदा है, यह हमें मान्य ही नहीं है. उस घने अरण्य में निवास कौन करता है? पहले असुर, तो अब श्वापद. क्या इस वन संपदा को मृगया के लिए होना चाहिए?” हमारे प्रश्न पर वे कितनी ही देर हँसते रहे.
‘रानी पद मिल गया प्रभावती, परन्तु सर्वज्ञानी होना आवश्यक है. यदि अरण्य न हों, तो वर्षा नहीं होगी. वर्षा के अभाव में कृषिबल की अवस्था कठिन होगी. और
जिस कृषि पर हमारा भारत देश निर्भर है, वह कृषि – वह कृषिबल... तब हम क्या करेंगे? ’
और हमें स्वयँ पर ही लज्जा आई. कालिदास महोदय, वे आयु में हमसे दस वर्ष बड़े होंगे, परन्तु हर बात का ज्ञान उन्हें था. हमने अस्त्र-शस्त्रज्ञान ग्रहण किया, परन्तु शेष समय हम सखियों के साथ मनोरंजन में ही बिताते रहे.
उस दिन एक कवि राजसभा में आया था. यहाँ आकर सिर्फ इतना हुआ था, कि हम उनके साथ राजसिंहासन पर विराजमान होते थे और सूक्ष्म अवलोकन किया
करते. हमारे भीतर यह अहंकार था कि हम संस्कृत शास्त्र में पारंगत हैं. उज्जयिनी
में सर्वत्र भाषा भी संस्कृत ही थी. उस दिन उस कवि ने एक श्लोक पढ़ा और महाराज
रुद्रसेन ने तत्काल कहा, “ कवि महाराज, एक ही काव्य पंक्ति में दो उपमाएं हैं, और वे भी विरोधाभास दर्शाने वाली हैं. जब हम लिखते हैं ना, तो प्रत्येक
शब्द का आशय, विषय, प्रयोजन और अर्थ ज्ञात होना चाहिए.”
हमने भी वह श्लोक दो बार पढ़ा, परन्तु हमें समझ में नहीं आया. एक बार शिल्प कला देख रहे थे. अद्वितीय
शिल्प था, परन्तु उसमें युवती की तर्जनी टेढ़ी थी. एक बार राजसभा में आई हुई नर्तकी
के पदन्यास की लय योग्य नहीं है, इस बात पर प्रकाश डाला. उस नर्तकी को यह अपमानास्पद प्रतीत हुआ. वह बोली, “महाराज, मेरा पदन्यास योग्य ही है.” महाराज रुद्रसेन बिना कुछ कहे सिंहासन से उठे
और उसे नृत्य करके दिखाया. हम आश्चर्य चकित रह गए, कालिदास महोदय.”
अनेक प्रसंगों पर वह महाराज रुद्रसेन के गुणों का वर्णन करती रही. मगर एक
दिन उसने कहा, “सर्वगुण संपन्न व्यक्ति
को प्रत्येक वस्तु में सुन्दरता वांछित होती है, और उन्हें हर बात की जल्दी पड़ी होती
है. इसीलिये वे शीघ्र ही यहाँ से निकल गए, स्वर्ग भी जल्दी से देख लें इस विचार से. परन्तु उन्हें स्मरण न रहा कि
वहाँ से वापस आने का मार्ग नहीं है.”
अब सारी व्यवस्था सुचारू रूप से चल रही थी. प्रभावती योग्य निर्णय ही ले
रही थी. सम्राट चन्द्रगुप्त को भी वे दो बार सन्देश भेज चुके थे, कि अब हम वापस
आने वाले हैं. परन्तु वापस जाने का विचार करते ही प्रभावती कहती, “वहाँ जल्दी जाकर क्या करेंगे? यहीं वास्तव्य करें,” वे कहते, “छः माह तो क्या, सात माह होने को आये. अब अनुमति दें, देवी!” वह हंसती, “अगले माह”. दो पुत्रों को लेकर राज्य कर रही प्रभावती को मना करना कठिन
हो जाता. ढलते मार्गशीर्ष में यहाँ आये कालिदास ग्रीष्म समाप्त होने को आया, फिर भी विदर्भ में ही थे.
प्रतिदिन प्रातःकाल रामगिरी जाकर दर्शन करना उन्हें प्रिय था. क्षिप्रा तट
पर जाते समय हर बार सम्राट चन्द्रगुप्त साथ होते, यहाँ एकाकीपन का अनुभव होता. रात में गवाक्ष से चन्द्रमा के साथ रोहिणी
को देखकर उनके मन में कृष्ण छाया तैर जाती.
रात समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती. अब जाना ही है, ऐसा निश्चय करके उन्होंने प्रभावती से जाने की अनुमति मांगी. उसने
नम्रतापूर्वक कहा, “हमें कल्पना है. आप यहाँ एकाकी अनुभव करते हैं. हमें आपका साथ मिला. अब
एक ही बात और निश्चित रूप से कहते हैं कि केवल वर्षा ऋतू समाप्त होने दें, क्योंकि
सर-सरिताओं में बाढ़ आई होती है. अरण्य प्रदेश जलाधाराओं से भीगा रहता है. ऐसे में
न जाएँ, यह विनती है. आप अवश्य
प्रस्थान करें, अब हम आपको नहीं
रोकेंगे.”
आकाश के कृष्ण मेघों से आच्छादित होने की संभावना थी. देह व्याकुल हो गई
थी. हर रात मधुवंती की याद आती. दिल बहलाने के लिए उन्होंने ‘वाकाटकों का
कुलवृत्तांत’ पढ़ना आरम्भ किया. जाने से
पहले प्रभावती को निश्चित ही अभिप्राय की अपेक्षा होगी. कालिदास ने ‘कुलवृत्तांत’ आरम्भ किया.
सम्राट समुद्रगुप्त के काल से पाँच शतक पूर्व दक्षिण पथ में नागनिका
महारानी ने अपना राज्य विस्तार किया था. नागनिका क्षत्रप कन्या थी, जिसने सातवाहन कुल में विवाह किया था. उसी समय सातवाहन वंश ने दक्षिण पथ
में अपना राज्य विस्तार किया था.
उसी काल में एक और वंश का उदय हुआ था. उस वंश का मूल पुरुष वाकाटक
ब्राह्मण वंश का था, और सातवाहन भी ब्राह्मण वंश का ही था. शायद यह वाकाटक सातवाहन के संपर्क
में आया हो, परन्तु वह स्वयँ ही
साम्राज्य और राजधानी की खोज में घूम रहा हो. अमरावती के शिलालेख के अनुसार यह
गृहपति विष्णुवृद्ध गोत्र का था. वह यज्ञ करता, दानधर्म भी बहुत करता था. उसने मध्यक्षेत्र में प्रथम राज्यनिर्माण किया,
जिसके सर्व प्रथम शासक के रूप में विन्ध्यशक्ति का उल्लेख आता है. शायद विन्ध्य
पर्वत की तलहटी में होने के कारण यह नाम पडा होगा. उसका कार्यकाल केवल बीस वर्षों
का था. वायुपुराण में यह उल्लेख मिलता है.
सातवाहनों की चौथी-पांचवी पीढी में विन्ध्यशक्ति का प्रथम पुत्र प्रवरसेन
अनेक संकल्पनाओं, आकांक्षाओं के साथ राज्य प्रशासन आरंभ कर रहा था. उत्तम प्रशासक के रूप
में उसकी ख्याति फ़ैल रही थी. उसे प्रतिष्ठा भी प्राप्त हुई. चार अश्वमेध करने के
कारण उसकी कीर्ति दूर दूर तक फ़ैली. प्रवरसेन के काल में कोई अन्य शासक बलाढ्य न
होने से उसे आंध्र प्रदेश, मध्यदेश में अपने साम्राज्य का विस्तार करने में सफलता मिली. उसका शासन
पूर्व-दक्षिण आर्यावर्त, मालवा, सौराष्ट्र तक फ़ैल गया था. दक्षिण कोसल तक भी उसका साम्राज्य फैला हुआ था.
अत्यंत बलशाली राजा के रूप में उसका उल्लेख किया जाता था.
उसके पुत्र – गौतमीपुत्र की अल्पकाल में मृत्यु होने के कारण उसका पुत्र
सर्वसेन सिंहासन पर बैठा, परन्तु वह दुर्बल शासक सिद्ध हुआ.
उसके बाद राजसिंहासन पर आया प्रवरसेन का प्रपौत्र रुद्रसेन. यह सात्विक,
शूर और उत्तम गृहपति, राजपति था. सम्राट समुद्रगुप्त के शासन काल में कौशाम्बी के युद्ध में
रुद्रसेन का विलक्षण शौर्य देखकर उसे पराजित न करते हुए समुद्रगुप्त ने उससे
मित्रता की. यह मित्रता दृढ़ हो गई थी, इसका उल्लेख अभिलेख में है. उसने अनेक शिलालेखों, ताम्रपटों का निर्माण किया. उसने वत्सगुल्म को अपनी राजधानी बनाया. उसके
पुत्र पृथ्वीषेण ने कुंतल पर विजय प्राप्त की. उस समय समुद्रगुप्त के पुत्र सम्राट
चन्द्रगुप्त की कीर्ति और राज्यविस्तार हिमालय तक फैला था.
उसके पश्चात सिंहासन पर आये राजा रुद्रसेन – ये भी वीर योद्धा थे. उसने
सौराष्ट्र के युद्ध में पूर्णत: सहकार्य किया, जिससे सम्राट चन्द्रगुप्त की विजय हुई. और चन्द्रगुप्त ने स्वयँ जाकर
अपनी बुद्धिमती, वीर कन्या रुद्रसेन को अर्पण की.
अल्पकाल में ही रुद्रसेन की मृत्यु होने बाद सम्राट चन्द्रगुप्त की कन्या
ने राज्य भार संभाला और वह उत्तम शासक सिद्ध हुई.
कालिदास पढ़ तो रहे थे, परन्तु उनका पूरा ध्यान उस पर नहीं था और इतिहास भी जैसे लिखा जाता है, वैसे वह लिखा नहीं गया था.
अब वाकाटक राज्य की राजधानी नंदीवर्धन में वास्तव्य के काल में वह उचित
प्रकार से लिखा जाए, इस बारे में वे प्रयत्न करने वाले थे. परन्तु इस समय उन्होंने उन भोज
पत्रों को समेट कर रख दिया और सोचा,
‘स्त्री बचपन को, मातृगृह को भूलकर पति के साथ सुदूर राज्य में अपनेपन से अपना
विशिष्ट स्थान निर्माण करती है, परन्तु पुरुष उसी कक्षा में बार-बार गोल-गोल घूमता रहता है.
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