Thursday, 2 March 2023

Shubhangi - 62

 

संध्या का अन्धकार पटल दूर करके रजनीकांत ने प्रसन्न मन से रजनी के प्रासाद में प्रवेश किया. उसके स्वागत के लिए आतुर रजनी प्रसन्नता से हंसी और पूरे आकाश में तारों के पुष्प खिल गए. कमलिनी के पुष्प खिल गए. चक्रवाक और चक्रवाकी यह दृश्य देख रहे थे, वैसे ही यह अनुपम दृश्य कालिदास भी देख रहे थे. चन्द्र किरणों का प्राशन करके जीने वाले चकोर का उन्हें स्मरण हो आया.

हमारी भी एक चंद्रिका है, हम चकोर हैं. हम रजनीकांत हैं, हम ही समूचे विश्व का आनंद है. हमारा मार्ग भी मधुवंती के प्रासाद की ओर जाता है.अश्व पर आरूढ़ वे आनंद विभोर थे. चराचर का लावण्य और असीम आनंद उनके तन मन में था. अपनी आदत के अनुसार अश्व मधुवंती के प्रासाद के सामने रुका.

शायद अंतर्मन की पुकार उस तक पहुँची थी, मधुवंती प्रासाद के ऊपर ही सीढ़ी पर उनकी प्रतीक्षा करती हुई दिखाई दी. वे फ़ौरन अश्व से उतरे. हाथ में हस्तलिखित भोजपत्रों का गट्ठा था. वे सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आये. अब इतनी अवधि के विलम्ब पश्चात आने का स्पष्टीकरण क्या दें, यह प्रश्न उनके सामने था. वे सोच ही रहे थे कि मधुवंती ने रजनीगन्धा के फूलों की माला उनके गले में डाल दी. उस सुगंध से प्रसन्न होते हुए वे बोले,

“हे चारुते, मधुवंती, क्या हमारी प्रतीक्षा कर रही थीं, या हम आयेंगे ही यह विश्वास  था?

“प्रतिदिन हाथों में पुष्पमाला लेकर उगते हुए तारों को साक्षी मानकर आपकी प्रतीक्षा करते हुए आज तीन मास हो गए. रोज की पुष्पमाला हम सामने वाले बकुल वृक्ष को अर्पण करते रहे. केवल बकुल स्मृति के सहारे भी जिया जा सकता है, यह अनुभूति भी हुई. आप काश्मीर और फिर केदारेश्वर, बद्रीनाथ से आने के बाद केवल एक बार दोपहर में “आ गया हूँ” यह बताने के लिए आये थे. और...”

आगे कुछ न कहते हुए उसने उन्हें दृढ़ आलिंगन में लिया. उसकी वेदना, व्याकुलता, एकाकीपन, अपरंपार स्नेह उसके आलिंगन से और अपने स्कंध पर हो रहे अविरत अश्रु प्रवाह से उन्हें समझ में आ रहा था.

उन्होंने उसे अपने से दूर किया. उत्फुल्ल कमलिनी पर ओस की बूँदें छाई हों ऐसा वह दृष्य था. वे उसे लेकर दालान में आये, उसे आसन पर बिठाया.

“हे रूपमती, गंधवती, सुकेशिनी मधुवंती हम क्षमाप्रार्थी हैं. कार्य बाहुल्य के कारण हम नहीं आ सके, इसका अर्थ कदापि यह नहीं है कि हमें, हमारे तन-मन को तुम्हारी याद नहीं आती थी. हे चारुगात्री, हम तुम्हारे अनन्य अपराधी है, जो चाहो वह सज़ा दो, प्रिये, जो चाहो...” उनका मन भी भर आया था.

“प्रिये, अगर तुम इस प्रकार अनवरत अश्रु बहाती रहीं. तो हम...”

शब्द मौन हो गए. कुछ देर नि:स्तब्धता छाई रही.

अब थोड़ा प्रसन्नता से हंसोगी लावण्यलतिके?

वह उनसे दूर होते हुए प्रसन्नता से हंसी. ऐसा प्रतीत हुआ मानो वर्षाधाराओं से चन्द्रमा का अप्रतिम स्नेहिल रूप झाँक रहा हो. उसका विलोभनीय रूप मन में गहरे समा रहा था.

“अब हम आपको जाने नहीं देंगे, स्वामी,...” उसका वह अधिकार स्वयँ उसीने प्राप्त किया था. वे हंसते हुए बोले,

“हे मदनिके, तुम्हें छोड़कर जीने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते. हे सुशीला, सुहास्यवदना मधुवंती, तुमसे बढाकर अप्सरा-गन्धर्व कन्या भी हमें प्रिय नहीं. अप्सरा...”

उन्हें अचानक स्मरण हुआ, हस्तलिखितों का गट्ठा शायद हमने सीढ़ियों के पास छोड़ दिया है.    

“सखे, हम अपना हस्तलिखित लेकर आते हैं.”

“हम दासी को भेजते हैं,” उसने कंचना को भेजकर हस्तलिखित मंगवा लिया.

“ऐसा क्या है, इसमें?

“हम कुछ भी न बताये बिना तुम्हें आश्चर्यचकित करना चाहते थे, परन्तु हमसे रहा न गया. बताते हैं, भोजनोपरांत.”

मधुवंती को भोजन की उत्सुकता न थी. उससे कई गुना ज़्यादा  अधिक उत्सुकता थी उस हस्तलिखित के बारे में. भोजन के उपरांत कालिदास आसन पर बैठे. उन्होंने रेशमी वस्त्र में बंधा हुआ गट्ठा खोला.

“बताइये ना, स्वामी, क्या है?

“ये है, हमारे द्वारा लिखा गया ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’.

“अर्थात्?

“हमने यह लिखा है, इस बारे में अब तक किसी को भी ज्ञान नहीं है. यह नाट्यकृति है. हमने यह नाट्यकृति महामंत्री देववर्मा को पढ़ने के लिए दी, तो उन्होंने कहा, “कालिदास, यह किसकी कृति है? इस पर किसी का नाम क्यों नहीं है? इस नाट्यकृति का रचयिता कौन है?” तब हमने उनसे कहा, कि यह नाट्यकृति होने वाले अश्वमेध यज्ञ के बाद मनोरंजन के प्रयोग के लिए सादर की जाए और सम्राट चन्द्रगुप्त अत्यंत रसिक, कलाप्रेमी और उत्तम समीक्षक हैं. यदि उन्हें भी नाट्यकृति प्रिय हुई तो वे स्वयँ ही रचयिता का नाम पूछेंगे, तब हम उसे प्रस्तुत करेंगे.”

“फिर?

“फिर क्या, सखी! देववर्मा को वह नाट्यकृति इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने उसे तत्काल कलाकारों को सौंप दिया और कहा, कि प्रत्येक शब्द महत्वपूर्ण है, उसका उचित प्रयोग करें.”

“अब तो बताएँ विस्तार से!” वह उनके निकट बैठी. उन्होंने कहा, “प्रिये, लेखक चाहता है कि श्रोता, रसिक उसके सम्मुख हो. तुम हमारे सामने बैठो.”

वह हंसी, मानो पूरे आकाश में चांदनी खिल उठी.

“काश्मीर से लौटते हुए हम हरिद्वार, ऋषिकेश होकर देवप्रयाग, गौरीकुंड और केदारेश्वर, और फिर बदरीनाथ के लिए, फिर से देवप्रयाग आकर गए. वहाँ से लौटते हुए हम मालिनी तीर की दिशा से आये. मालिनी तीर के किनारे-किनारे से जाएँ तो हरिद्वार से देवप्रयाग का मार्ग है. हम उसी मार्ग से चल पड़े.”

कहते-कहते कालिदास उस परिसर में पहुँच गए थे.

“हिमालय के परिसर में सूर्योदय से पूर्व आकाश विविध रंगों से सुशोभित हो जाता है. हिमकणों पर किंचित भी प्रकाश पड़े तो जैसे सहस्त्रों हीरे दमकने लगते. शीत लहरों से कभी देह पर रोमांच आता, तो कभी ऐसा प्रतीत होता मानो देह काष्ठवत् हो गई है. मगर हिमालय की किसी गुफा में उष्णता का अनुभव भी होता. परन्तु ऐसी गुफा कभी-कभी ही मिलती. अपरिचित और कठिन मार्ग पर यात्रा करते हुए सैनिक, सुश्रुत, सुश्रवा सभी संभ्रमित रहते. उनके साथ पथप्रदर्शक भी थे. उन पर विश्वास करते हुए बीस-पच्चीस सैनिक और हम तीनों थे. सूर्यास्त देखते-देखते रात में परिवर्तित हो जाता. दिन के तापमान में कभी परिवर्तन हो जाता, कभी प्रकाश से दसों दिशाएं इतनी प्रकाशित हो जातीं, कि हिमालय का प्रकाश असहनीय हो जाता. कभी हिमपात से परेशान, कहीं भी छुपने के लिए स्थान न मिलता, तो कभी भयानक शीत लहरें शरीर को काष्ठवत् बना देतीं. हाथों से अश्व की लगाम छूट जाती और पता भी नहीं चलता. आगे गए हुए सैनिक कहाँ कोई स्थान ढूंढेंगे, यह भी विकट प्रश्न ही था. फिर भी चलते रहना ही एकमात्र पर्याय था. मन केवल वर्त्तमान पर ही केन्द्रित रहता, मानो सारी संवेदनाएं ही समाप्त हो गई हों.

इस कठिन यात्रा के बाद हम पंद्रह दिन पश्चात मालिनी तीर पर स्थित कण्व मुनि के आश्रम में पहुंचे. हमारे अश्व अत्यंत थक गए थे. वे हमें सकुशल लाये थे. अगर वे बोल सकते, तो एक सुर में कहते, ‘कालिदास महोदय, आपके आनंद के लिए हमें कितने कष्ट झेलना पड़े. आपके विश्वास को हम तोड़ नहीं सकते थे.’

“ठीक है...मधुवंती, हम कण्व आश्रम पहुँच गए थे. सबकी स्थिति अत्यंत दीन-हीन थी. उस आश्रम में कोई नहीं था, परन्तु आसपास कुछ कुटियां थीं, जिनमें कुछ लोग थे. उन्होंने बताया,

“हमारे पूर्वज कण्व मुनि के शिष्य थे. उस समय इस परिसर में सैंकड़ों आश्रम थे. अनेक विद्वत्जन, विद्याभ्यासी, राजा-महाराजा यहाँ वास्तव्य करने के लिए आते. यहाँ यज्ञ-महायज्ञ किये जाते, शास्त्रार्थ सभाओं का आयोजन होता, मानो आर्यावर्त का लघु रूप यहाँ था. अनेक पथिक वास्तव्य करते.

प्रात:कालीन मंत्रघोष से आश्रम परिसर और आसपास का अरण्य प्रदेश गूँज उठता. मालिनी के जल में खड़े होकर सूर्य को अर्ध्य देते हुए देवतुल्य ऋषि साक्षात शुभ-मांगल्य की प्रतिमा प्रतीत होते.

महोदय कालिदास, युग बीत गए, परन्तु नित्य नियम से उदय होने वाले सूर्य-चन्द्र के समान, वैदिक काल से वर्त्तमान काल तक यहीं घटित हुई राजा दुष्यंत और कण्व मुनि की धर्मंकन्या शकुन्तला की प्रेम कथा हम हर काल में कहते आ रहे हैं. 

आश्रम के वर्त्तमान ऋषि सत्येन्द्र अभी देवप्रयाग में वास्तव्य कर रहे हैं. उनका परिवार शिवकाशी में है. आपके स्वागत के लिए हम प्रस्तुत हैं.”

“और सखी, मधुवंती, हमारा मन वहाँ इतना रम गया कि हमने उस पर एक नाट्यकृति ही लिख डाली, ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’. हम तुम्हें पढ़कर सुनाने वाले हैं. लेखक-कवि को उत्तम श्रोता और रसिक प्रेक्षक के सिवा किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं होती.”

“स्वामी, हम सुनेंगे, आस्वाद भी लेंगे, परन्तु...”

उसके मन की सहवास की इच्छा को वे नहीं समझे, उन्होंने पढ़ना आरंभ किया:

,,,या सृष्टि: स्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री
येद्वेकालंविधत: श्रुतिविषयगुणा: प्राणवन्त: या स्थिता व्याप्य विश्वम्।
यामाहु: सर्वबीजप्रकृतिरिति यया प्राणिन: प्राणवन्त:
प्रत्यक्षाभि: प्रपन्नस्तुनुभिरवतु वरताभिरष्टाभिरीश:।।

अर्थात् ,,,”

“हम बताते हैं, स्वामी. अर्थात्, जो जल, अग्नि का निर्माण करने वाला और यजमान स्वरूप में यज्ञ करने वाला है, जो दिन-रात का नित्य नियोजन करता है, जो आकाश है, जो पृथ्वी है, शब्द है और भूमि में बीज देने वाला है, जो वायु भी है. सम्पूर्ण सृष्टि जिसके कारण जीवित है, वह शिवशंकर, हमारा रक्षण करते हुए, आज प्रत्यक्ष रंगभूमि पर आशीर्वाद देने के लिए प्रकट होने वाला हैं.”

“सखे, मधुवंती, तुम स्वयँ शास्त्र पंडित हो, फिर सम्राट चन्द्रगुप्त ने उज्जयिनी में संस्कृत को बोलचाल की भाषा बनाया है, अत: हमारी नाट्यकृति सामान्य जनों को भी आनंद प्रदान करेगी, ऐसा हमें विश्वास है.”

“और आपका विश्वास सार्थ है, स्वामी! स्वयँ आप ही इतने अधिक मनोहारी हैं कि आप हिमगौर शिवशंकर हैं, या प्रत्यक्ष विष्णुदेव हैं, समझ में नहीं आता. किसी पुरुष का सौन्दर्य इतना उत्कट, अनुपम, अनन्य हो सकता है, इसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी.”

‘अब बस करो, मधुवंती. यह सत्य है कि हम जितने भाग्यवान हैं, उतने ही शापदग्ध भी हैं. हमारी कोइ पत्नी नहीं, परिवार नहीं, कन्या का, पुत्र का स्नेह नहीं. उन बाल लीलाओं से हम वंचित हैं. सुख के हर परमोच्च क्षण में हम मन ही मन बिखरते जाते हैं, और एक ही वाक्य मन पर आघात करता है, ‘इसी क्षण नगर से बाहर निकल जाओ. सीमापार जाना ही तुम्हारी सज़ा है.’

अगर उसने हमें समझा होता, स्पष्टीकरण माँगा होता, तो उस जैसी अनन्य विदुषी को हमने अभिप्राय के लिए यह नाट्यकृति दी होती....’

कालिदास मन ही मन अत्यंत दुखी हो गए, मगर अगले ही पल ऐसा हुआ जैसे झंझावात निर्माल्य उठा कर ले जाए. वे हँसे.

उनके मुख के निरंतर बदलते भावों को देखते हुए मधुवंती के सामने सदा की तरह प्रश्न उपस्थित हुआ, ‘इस रूप संपन्न, विद्वान, लोकप्रिय युवक ने अब तक विवाह क्यों नहीं किया होगा?’ परन्तु हमेशा की तरह उसने इस प्रश्न को झटक दिया और कहा,

“आरम्भ करें, आर्य!”           

“शिवस्तुति से आरम्भ करने के बाद नाटक तुरंत आरम्भ नहीं हो जाता, सखी! पहले सूत्रधार, निवेदक नाटक की भूमिका कथन करते हैं, और फिर संवाद रूप से कथा आरम्भ होती है. भरत मुनि के नाट्य शास्त्र का सूक्ष्म अध्ययन हमने किया ही था, क्योंकि वह विषय हमें प्रिय था, अब यहाँ उसका उपयोग हुआ.”

“आर्य, यदि आरम्भ में ही सारा स्पष्टीकरण देते रहे, तो रसिक नाटक देखेंगे नहीं. समझदार व्यक्ति को हम क्या बताएँ!”

कालिदास हंसे.

रात पूरे यौवन पर थी, परन्तु कालिदास अपनी ही नाट्य कृति में मग्न थे. उन्होंने कहा,

“मालिनी तीर पर स्थित कुलपति कण्व मुनि के आश्रम का एक मृग अरण्य की दिशा में जाता है. उसी समय हस्तिनापुर के सम्राट दुष्यंत उस अरण्य में मृगया के लिए आये हैं. आश्रम का वह मृग आश्रम की दिशा में भागने लगता है. सम्राट दुष्यंत भी उसके पीछे अश्व गति से भागते हैं. आश्रम परिसर दिखाई देते ही वे रुक जाते हैं. दो शिष्य उन्हें बताते हैं कि यह कण्व मुनि का आश्रम है. सांप्रत वे अपनी कन्या की ग्रह शान्ति के लिए प्रभास क्षेत्र के सोमतीर्थ में गए हैं. आप पधारें, उनकी कन्या शकुन्तला, माता गौतमी आपका स्वागत करेंगी. रथ को आप यहीं रखें. उन्होंने रथ और सारथी को वहीं छोड़ा और आश्रम द्वार से भीतर प्रवेश किया. उन्हें कुछ आश्रम कन्याएं दिखाई दीं. वे स्वच्छंद, मुक्त और प्रसन्न थीं. वृक्ष लताओं को पानी दे रही थीं. उनमें एक निसर्ग कन्या लावण्यवती थी. उसे देखते रहने का मोह हुआ. परन्तु अचानक वहाँ जाना उन्हें अनुचित प्रतीत हुआ, अत: वे एक वृक्ष के पीछे ठहर गए. यहाँ किसी पुरुष के उपस्थित होने की संभावना न होने से वे युवतियां स्वच्छंद रूप से घूम रही थीं. लता को पानी देते हुए वह लावण्यवती युवती अपनी सखी अनुसूया से कहती है, “सखी अनुसूया, मेरी कंचुकी शिथिल करो, प्रियंवदा ने बहुत कस कर बांधी है.”

मधुवंती हँस पडी. “प्रत्येक युवती को यौवन काल में ऐसा प्रतीत होता है कि उसके शरीर के वस्त्र कष्टदायक हैं.”

“संभव है कि ऐसा ही हो.”

“शकुन्तला हाथ में जल पात्र लेकर आम्रवृक्ष के समीप जाने लगी तो अनुसूया कहती है, ‘जब तुम आम्र वृक्ष के निकट जाती हो, तो उसे ऐसा लगता है, कि मेरे निकट एक लता है, जो मेरा आलिंगन कर रही है.’

सम्राट दुष्यंत यह दृश्य देख रहे हैं और आनंद ले रहे हैं. वे मन ही मन कहते हैं,     

‘शकुन्तला सृष्टि का अनुपम स्वप्न है. प्रकृति और सृष्टि का अनुपम, उत्कट सत्यरूप है. इस युवती का नाम शकुंत पक्षी से साधर्म्य रखता है.

शकुन्तला के अंग-प्रत्यंग से उन्मीलित यौवन किसी सुगन्धित पुष्प के समान दृष्टिगोचर हो रहा है.’

“वा...आर्य! स्त्री के अंग-प्रत्यंग पर आपकी सूक्ष्म दृष्टी है!”

“निश्चय ही, सखी, हम मार्ग में जाते हुए जो दृष्टिगत होता है, उसे तो देखते ही हैं साथ ही अन्तरंग का भी सहज अवलोकन करते हैं.”

आम्रवृक्ष को आलिंगन करती हुई लता का नाम शकुन्तला ने वनज्योत्स्ना रखा है. और वह स्वयँ भी आम्रवृक्ष के निकट यूँ खडी है, मानो उसे कोइ सुदृढ़, सुन्दर, मधुर स्वभाव का वर उसे प्राप्त हो गया हो.

सम्राट दुष्यंत अब समझने का प्रयत्न कर रहे हैं. कण्व मुनि कुलपति हैं. सहस्त्रों शिष्यों को वे शास्त्र ज्ञान प्रदान करते हैं. अगर कण्व मुनि का विवाह हो गया हो, तो यह ब्राह्मण कन्या होगी.

वे विचार कर ही रहे थे कि ऋषि कन्याएं भयभीत होकर भागने लगती हैं. शकुन्तला निरंतर कह रही है, “सखियों, यह दुष्ट मेरे पीछे पडा है, मुझे छोड़ता ही नहीं है, मुझे बचाओ, सखियों!”

राजा दुष्यंत अचानक आगे आते हुए कहते हैं, “हे ऋषि कन्या, पुरुवंशी राजा दुष्यंत के रहते हुए भय किस बात का? कौन है वह दुष्ट? हमें दिखाओ.’ वे कहते हैं.

अकस्मात् प्रकट हुए सम्राट दुष्यंत को देखकर सखियों सहित शकुन्तला आश्चर्यचकित हो जाती है. ‘कौन है वह दुष्ट?’’ शकुन्तला लज्जापूर्वक कहती है, ‘भ्रमर.

सम्राट दुष्यंत दिल खोलकर हँसते हैं. वृक्ष को सिंचित किये हुए जल में शकुन्तला उनका सुदृढ़ रूप देखती है, और अधिक ही लज्जित हो जाती है.

“सुन रही हो ना, मधुवंती?”

“सुन रही हूँ. उसकी सखी कहती है ना, कि सम्राट दुष्यंत के सिवा अन्य कौन रक्षक हो सकता है? क्योंकि आश्रम की रक्षा करना राजा का कर्तव्य होता है, अत:...”

“ऐसा नहीं, सखी. मृगया के लिए सम्राट दुष्यंत आये हैं..., आगे सुनो...”

“आधी रात हो गई है, आर्य...” उसने कहने का प्रयत्न किया, परन्तु वे कहते रहे.

“वे अपना परिचय नहीं देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने शकुन्तला से कहा, ‘हम सम्राट दुष्यंत की राज्य व्यवस्था के एक व्यक्ति हैं, धार्मिक कार्य, आश्रम व्यवस्था जैसे कार्यों का उत्तरदायित्व हमारे ऊपर है. आपके आश्रम में कोई समस्या तो नहीं है ना?

‘नहीं, आपके आगमन से आश्रम सनाथ हो गया है.’

‘हमें ज्ञात है कि कण्व मुनि ब्रह्मचारी हैं!’

‘यह सत्य है. हम सुनाते हैं शकुन्तला की कथा.

सुनिए, आर्य! गौतमी के तीर पर राजर्षि विश्वामित्र घोर तपस्या कर रहे थे. इंद्र का आसन डगमगाने लगा, अत: उन्होंने अपनी प्रिय राजनर्तकी, अप्सरा मेनका को उनका तपोभंग करने के लिए भूतल पर भेजा.’

‘जभी! अन्यथा ऐसा स्वर्गीय सौन्दर्य मनुष्य जाति में कहाँ से प्रकट होता. सौदामिनी कभी भूमि से प्रकट नहीं होती.’

और सखियों के साथ मुक्त संवाद करते हुए सम्राट दुष्यंत शकुन्तला के बारे में जानने का प्रयत्न कर रहे थे, क्योंकि देखते ही वह उनके हृदय में गहरे पैंठ गई थी. ‘यह सौन्दर्यवती इस समय वल्कल धारण किये हुए है, क्या ये विवाह के बाद भी रहेंगे?’

“मधुवंती, जैसे हमारे मन में तुम हो, वैसे ही अनेक रानियों के होते हुए भी सम्राट के मन में उसका स्थान दृढ़ हुआ. हम केवल तुम से ही...”

‘हं,’ इतना ही मधुवंती ने कहा, परन्तु स्वयँ में ही मग्न कालिदास आगे पढ़ते ही रहे...

“तुम पूछोगी, ‘आर्य, सम्राट दुष्यंत को इतनी विस्तृत जानकारी की क्या आवश्यकता थी?

“हं,” मधुवंती ने फिर कहा.

“मधुवंती, प्रिये, प्रथम दर्शन में ही सम्राट उसे अपने हृदय में अग्रणी स्थान दे चुके थे. उनके कामनासक्त, रसिक और सहृदय मन ने उनसे कहा था, कि शकुन्तला के बिना वे अपूर्ण हैं. संयमित होने के कारण ही दुष्यंत सारी पूछताछ कर रहे थे, और अपना परिचय भी नहीं दे रहे थे. परन्तु उन्होंने वृक्षों को जल सिंचन करने के ऋण स्वरूप अपनी उंगली की मुद्रिका शकुन्तला को दी. तब सखियों को सम्राट दुष्यंत का परिचय प्राप्त हुआ.

दुष्यंत का परिचय प्राप्त होते ही सखियों ने उसे आश्रम-आतिथ्य के किये अतिथि कक्ष में आमंत्रित किया. सखियाँ उसका स्वागत करने के लिए अतिथि कक्ष की ओर चल पडीं, परन्तु शकुन्तला वस्त्र उलझ गया है, यह बहाना बनाते हुए दुष्यंत की ओर देख रही थी. दुष्यंत मन ही मन कह रहे थे,

“अब हस्तिनापुर जाने की तीव्र इच्छा समाप्त हो गई है, और मन बार बार कह रहा है कि यहीं वास्तव्य कर लें. शकुन्तला के सिवा अन्य कहीं मन लगता नहीं है,” सम्राट दुष्यंत की ऐसी अवस्था हो गई.

यहाँ प्रथम अंक समाप्त हुआ.

“मधुवंती अब हम द्वितीय अंक संक्षेप में सुनायेंगे और तुम्हारे आलिंगन में रात्रि व्यतीत करेंगे.”

“हं,” मधुवंती ने उत्तर दिया, कालिदास पढ़ते रहे:

“मधुवंती, द्वितीय अंक में कथा को आगे ले जाने से पूर्व हमने रसिकों को मनोरंजन में व्यस्त रखा है. मृगया के लिए आये हुए सम्राट दुष्यंत के पीछे सेना है, सेनापति है. इसी समय अरण्य के हाथी आश्रम में आकर विध्वंस करने लगे. यह निमित्त था, जिसके कारण सम्राट दुष्यंत को आश्रम में वास्तव्य करने का अवसर प्राप्त हुआ है. सेना हाथियों को रोक रही है, और दुष्यंत स्वयँ को रोक रहे हैं, जिससे शकुन्तला पर दृष्टि न जाए. इस समय कण्व मुनि के दो शिष्य उनसे कहते हैं,

“आजकल मायावी राक्षस यज्ञ में विघ्न डाल रहे हैं. कण्व मुनि के प्रभास तीर्थ जाने के कारण उन्हें किसी का भय नहीं रहा. हमारा यज्ञ पूर्ण होने तक कृपया यहाँ वास्तव्य करें. ”

विदूषक माधव सम्राट का परम मित्र होने के कारण सम्राट दुष्यंत के मन में फूल रही प्रीती की सुगंध को भांप लेता है. सम्राट दुष्यंत उससे कहते हैं, “माधवा, ऐसा कुछ भी नहीं है. तुम्हें प्रीति की जो गंध आई है, वह सत्य नहीं है. हमारा वैभव, हमारी श्रेष्ठता कहाँ, और मृग-शावकों के साथ विचरण करने वाली ये मुनि कन्याएं कहाँ...तुम मिथ्या सोच रहे हो. विदूषक हँसता है, क्योंकि उसे सम्राट दुष्यंत के मन की अति सूक्ष्म भावना ज्ञात है. परन्तु वह प्रकट में कहता है, ठीक है.”

मधुवंती यहाँ द्वितीय अंक समाप्त हुआ.”

कोइ उत्तर न आने से उन्होंने उसकी ओर देखा और वे मन ही मन हँसे.

उस शांत रात में शायद वह चन्द्रमा के प्रकाश की धवल चादर ओढ़े स्वप्न लोक में विचरण कर रही थी. उसके अधरों पर मुस्कान थी. मुख पर ऐसे भाव थे, जैसे बोल रही हो. शायद किसी से संवाद कर रही थी. वह शांत थी, वह भी सुख का अनुभव कर रहे थे.

उन्होंने उसके मुक्त केश संभार पर हाथ फेरा और उसके निकट ही वे भी निद्रावश हो गए,

 

***

No comments:

Post a Comment

एकला चलो रे - 4

  4 “ रोबी , यह बद्रीनाथ धाम मंदिर बहुत-बहुत प्राचीन है. श्री विष्णु ने इसे ‘योगसिद्ध ’ नाम दिया और  आगे , द्वापरयुग में प्रत्यक्ष श्...