Thursday, 2 March 2023

Shubhangi - 63

 

 

प्रात:काल जब देव मंदिर में आरती चल रही थी, कालिदास हाथ में सुवर्ण कलश लिए अटारी में खड़े थे. अभी बादलों की ओट से सूर्य बाहर नहीं निकला था. वास्तव में कालिदास को जल्दी थी. थोड़ी ही देर में सूर्य दर्शन हुआ. उन्होंने उगते हुए सूर्य को अर्ध्य दिया और दालान में आये. मधुवंती अद्याप आई नहीं थी. ‘लगता है, आज प्रतीक्षा का दिन है,’ उन्होंने मन ही मन कहा. कुछ ही देर में सद्य:स्नाता, सुहास्यवदना मधुवंती हाथ में दुग्ध पात्र लेकर आई.

उसे अपने निकट बिठाते हुए कालिदास बोले, “अब हमारी अनुमति के बिना यहाँ से उठना नहीं.”

“ऐसा क्यों, कालिदास महाराज?”

उसके मुख से अपना नाम सुनकर कालिदास उसे निकट लेते हुए बोले,

“फिर से लो ना हमारा नाम!”

मधुवंती के मुख पर लज्जा की लाली छा गई. शीश झुकाते हुए वह बोली,
“ अब नहीं ले सकूंगी आपका नाम
,” फिर भी उसने स्वागत कहा, “कालिदास महाराज!”    

कालिदास ने भोजपत्रों को व्यवस्थित रखते हुए कहा, “प्रिये, आज प्रात: हम तुमसे वार्तालाप कर रहे थे और तुम गहरी निद्रा में मगन थीं. जी चाहा कि तुम्हें उठाएं, परन्तु जिस प्रकार विलोभनीय निसर्ग कन्या को देखते हुए सम्राट दुष्यंत ने अपने मोह का संवरण किया, उसी प्रकार हमने भी स्वयँ को रोका.”

“आप ‘शाकुन्तलम्’ में मग्न हैं इसीलिये दुष्यंत की उपमा सूझी.”

“हे मनमोहिनी, हम स्वयँ ही उस आश्रम परिसर पर, उस लावण्यलतिका शकुन्तला पर मुग्ध हो गए हैं, तो प्रत्यक्ष सम्राट दुष्यंत की क्या अवस्था होगी, इसकी बस कल्पना ही कर सकते हैं. हम पूरी रात लिखते ही रहे, अब प्रात:काल वह लेखन समाप्त हुआ. अब तुम उसे पढ़ोगी, या हम पढ़कर सुनाएं?

“मुझे भी पहले आपके मुख से सुनना अच्छा लगेगा, इसके बाद में विस्तार से पढूंगी. सुनाएं, आर्य, हम सुनने के लिए आतुर हैं. सम्राट दुष्यंत-शकुन्तला की प्रेम कहानी सुनाते हुए आप कितने भाव विभोर हो जाते हैं, यह हमें देखना है, आर्य. शकुन्तला को यहाँ प्रत्यक्ष होना चाहिए था अपने रूप का वर्णन सुनने के लिए.”

“तुम तो हो ना!” वह मन ही मन खिन्न हो गई, परन्तु खुद को संभालते हुए बोली,

“आप कथन आरम्भ करें, आर्य. दो अंक हम सुन चुके हैं.”

“तीसरे अंक के आरम्भ में शिष्य दुष्यंत से कहता है, ‘आपने यहाँ वास्तव्य करना स्वीकार किया, इसलिए हमारे यज्ञ निर्विघ्न संपन्न हो रहे हैं. आप यदि धनुष्य की प्रत्यंचा भी तानते हैं तो उसकी टंकार से उत्पन्न ध्वनी लहरों से असुर भयभीत होते दिखाई देते हैं.’

कालिदास ने आगे कहा, “उसी समय शकुन्तला की प्रिय सखी प्रियंवदा उसके लिए चन्दन का उबटन ले जाते हुए सम्राट दुष्यंत को दिखाई दी. उन्होंने उससे पूछा तो वह बोली, “कण्वाश्रम की लता मुरझा गई है. सूर्य के ताप से कमलिनी के समान म्लान हो गई है.”

“अर्थात् सम्राट दुष्यंत को उससे मिलने का बहाना मिल गया, यही ना?”

“सत्य है, मधुवंती. बिना प्रयोजन के मिलना उस समय तो उचित नहीं था. सम्राट दुष्यंत मन ही मन कहते हैं, ‘हे कामदेव, तुमने और चन्द्रमा ने हमारे मन को क्लेश दिए है, तुम्हारे पुष्प बाण हमें आहत कर रहे हैं, यह उचित नहीं है, कामदेव!’

वैसे तो यज्ञ समाप्त हो गया है, यहाँ वास्तव्य करने का अब कोई कारण नहीं है. शीघ्र ही गौतमी माता और शिष्य उन्हें बिदा करेंगे, तो फिर किया क्या जाए, इस प्रश्न से सम्राट दुष्यंत चिंतित हैं.

उससे पूर्व मालिनी तट के लतामंड़प में कमलिनी के समान म्लान हुई शकुन्तला को देखने की अनावर इच्छा जागृत हो उठी है. उनके रसिक मन में यह भी भावना अनावर हो उठी है कि वह उनके अति निकट हो.

सम्राट दुष्यंत उसे देखने के लिए जाते हैं...”

कालिदास पल भर को रुक  कर बोले,

“हम ही दुष्यंत हो गए हैं, प्रिये. हम ही निकले हैं लता मंडप की ओर. हम ही देख रहे हैं उसे. ग्रीष्म ऋतु की अत्यधिक उष्ण लहरें उस लताकुंज में सहनीय ही थीं, परन्तु हमारे ही समान वह भी कामदग्ध थी. उसके भी तन में बसंत फूल रहा था. उसका प्रभाव हम तक पहुँच रहा था. अद्याप हम उसके निकट पहुंचे नहीं थे.”

“आपका भावनिक विवेचन उत्कृष्ट है,आर्य. यह स्वानुभव से है ना?

“लेखन संवेदना, सहसंवेदना और उसकी अनुभूति पर ही होता है, प्रिये. अब सुनो.”

उसकी सखियाँ उससे कमल पत्र पर लिखकर प्रेमभावना व्यक्त करने को कहती हैं. राजा दुष्यंत वृक्ष की ओट से उसकी एकाग्रता, प्रेमभावना निहारते हैं, उसके प्रत्येक भाव को देखते हैं.”

“आर्य, सम्राट दुष्यंत सदा वृक्ष के पीछे क्यों खड़े रहते हैं?”

“क्योंकि कोई भी राजा अथवा कोइ भी पुरुष यूँ अकस्मात् स्वयँ को प्रकट नहीं करता.”

“अब पढ़िए उसका पत्र,” मधुवंती ने कहा.

तव न जाने हृदयं मम पुन: कामो दिवापि रात्रिमपि।

निर्घृण तपति बलीयस्त्वयि वृत्तमनोरथाया अङगानि।।

शकुन्तला ने सखियों को पत्र पढ़कर सुनाया और सम्राट दुष्यंत स्वयँ को रोक न सके. वे अकस्मात् प्रकट हो गए. उन्होंने कहा कि उनकी भी यही अवस्था है.

तब सखियाँ आशंका प्रकट करती हैं, ‘आपके अंत:पुर में अनेक रानियों के होत्ते हुए हमारी सखी को सपत्नी के रूप में...’

उनका वाक्य पूर्ण होने से पहले ही सम्राट दुष्यंत कहते हैं,

“अंत:पुर में अनेक रानियाँ होने पर भी हम प्रतिष्ठित होंगे शकुन्तला और चारों ओर से घेरती हुई पृथ्वी पति के रूप में. अब चिंता न करें.”

कुछ ही समय में समूचे कण्वाश्रम की व्यवस्था देखने वाली गौतमी माता प्रकट होती है, तब सम्राट दुष्यंत फिर से वृक्ष के पीछे छुप जाते हैं. गौतमी शकुन्तला का हाथ पकड़कर उसे आश्रम की ओर ले जाते हुए कहती हैं, “संध्या हो गई है, कन्या शकुन्तला!”

सम्राट दुष्यंत व्यथित हृदय से देखते रहते हैं, तभी आश्रम से आवाज़ आती है,
“राजन
, सायंकालीन यज्ञ का आरम्भ करते ही यज्ञवेदी के पास असुरों की कृष्ण छायाएं दिखाई देने लगी हैं, महाराज, आप त्वरित आयें.’ और सम्राट दुष्यंत आश्रम की ओर जाते हैं, यहाँ तीसरा अंक समाप्त होता है.”

“अति सुन्दर, आर्य! अति सुन्दर...परन्तु अब प्रेम की ज्वाला दोनों तरफ समान रूप से भड़कने से सुनने की उत्सुकता बढ़ रही है.”

“हमें भी उनकी आगे की प्रेम-कथा सुनाने की तीव्र इच्छा है. कई बार तो ऐसा लगता है, जैसे हम स्वयँ ही दुष्यंत हो गए हैं, और तुम हो शकुन्तला. तुमसे प्रथम मिलन में हम ऐसे ही कामातुर थे.”

“हमारी भी वैसी ही स्थिति थी. परन्तु केवल प्रेम में मग्न होकर पेट नहीं भरता. मध्याह्न हो चली है.”

“होने दो. अगला, चतुर्थ अंक सुनो.

“उन दोनों ने गन्धर्व-विवाह कर लिया है. तत्कालीन समाज में और वर्त्तमान में भी गन्धर्व-विवाह को मान्यता है. परन्तु अनुसूया के सामने प्रश्न उपस्थित होता है, कण्व मुनि अभी आने वाले नहीं हैं, सम्राट दुष्यंत यहाँ अधिक काल वास्तव्य नहीं कर सकेंगे. और, सम्राट दुष्यंत हस्तिनापुर जाने के बाद अपनी अनेक रानियों के सहवास में शकुन्तला को भूल तो नहीं जायेंगे? प्रियंवदा ने तुरंत कहा, ‘गुणी जन ऐसा नहीं करते. परन्तु मुझे चिंता हो रही है कण्व मुनि की. शकुन्तला की ग्रह शान्ति के लिए ही तो वे प्रभास क्षेत्र गए हैं.’

और अचानक दुर्वासा मुनि आश्रम के द्वार पर आते हैं. वे कहते हैं, “हम आये हैं.” दो सखियाँ दूर, पुष्प वाटिका में हैं. आश्रम के द्वार के निकट ही शकुन्तला मौलसिरी के वृक्ष की छाया में सम्राट दुष्यंत की प्रिय स्मृति में खोई हुई है. उनकी आवाज़ उस तक पहुँचती नहीं है. सखियाँ भयभीत होकर पुष्प वाटिका से भागकर आती हैं. परन्तु इसके पूर्व ही दुर्वासा क्रोधित होकर कहते हैं,


विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा
तपोधनं वेत्सि न मामुपस्थितम् ।
स्मरिष्यति त्वां न स बोधितोऽपि सन्
कथां प्रमत्तः प्रथमं कृतामिव ॥१॥

 
   “संयम धारण करने वाले
, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाले दुर्वासा अपने क्रोध पर विजय न प्राप्त कर सके. उन्होंने उस भोली, प्रेममग्न किशोरी को यह शाप दिया, ‘ तू जिसके स्मरण में खोई हुई है, वही तुझे भूल जाएगा.’”

“आर्य, यह तो अन्याय है. आप दुर्वासा के मुख से ऐसा शाप क्यों दे रहे हैं? अपने शब्द वापस लीजिये.”

“सखी, मधुवंती, यह असंभव है, क्योंकि इसी पर तो आगे का नाटक निर्भर है. भागकर आई हुई दोनों सखियाँ शकुन्तला की ओर से बारंबार क्षमा माँगते हुए कहती हैं, कि ‘सम्राट दुष्यंत को यहाँ से गए हुए अल्प काल ही बीता है. वह मन में दुखी होगी या उसकी स्मृति में मग्न होगी. आपने हमारे आने से पहले उसे शाप दिया है, मुनिवर, अब कृपा करके उ:शाप तो दीजिये.’

वह कण्व मुनि की धर्मं कन्या और हस्तिनापुर के सम्राट दुष्यंत से गन्धर्व विवाहबद्ध शकुन्तला है, यह ज्ञात होने पर वे कहते हैं, ‘मेरा वचन अन्यथा नहीं हो सकता, परन्तु गन्धर्व विवाह के समय सम्राट दुष्यंत द्वारा दी गई किसी निशानी का प्रयोग कर सकती है.’

“कितना सहज है यह शकुन्तला के लिए... सम्राट दुष्यंत द्वारा राजमुद्रा वाली अंगूठी का शकुन्तला अभिज्ञान के रूप में प्रयोग कर सकती है.”

“मधुवंती...मधुवंती...तुमने इस काव्य के शीर्षक के लिए हमारी सहायता की है. तुम्हें इसकी कल्पना भी नहीं है. हमारे इस काव्य का नाम अब ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ होगा.”

“आर्य, क्या सम्राट दुष्यंत ने उसके परिचय को नकार दिया?

असंभव, प्रिये! दुष्यंत के बिना शकुन्तला हो ही नहीं सकती. क्योंकि उन्हींके पुत्र ‘भारत के कारण आर्यावर्त को ‘भारत  नाम प्राप्त हुआ है.”

“शकुन्तला को आर्य दुष्यंत प्राप्त हुए, और हमें...?” मधुवंती साभिप्राय हंसी. उसे जिसकी अपेक्षा थी वह वाक्य कालिदास ने नहीं कहा.

“क्या जीवन के मोड़ और प्रेम की सफलता इतनी आसान होती है?”

“समस्याओं के बारे में बाद में, आर्य. आचार्य अब मध्याह्न हो गई है, भोजन के पश्चात आगे कथन करें.”

कालिदास ने उसका फूल से भी कोमल हाथ अपने हाथ में लिया.

“हे कमलाक्षी, मधुवंती, प्रभात की लालिमा ने तुम्हें मधुर हास्य प्रदान किया है और प्राजक्त के फूलों ने तुम्हें सुगन्धित कोमलता दी है.”

“अस्तु! आर्य... भोजन शाला चलें.” वे दिल खोलकर हँसे. वह गंभीर हो गई.

“देवांगना उर्वशी, मदालसा, रंभा...देवताओं की ये गणिकाएँ सर्वमान्य हुईं. ऋषि कन्या दुष्यंत को मान्य हुई. मगर हम! आर्य, क्या हमें भी दे सकेंगे पत्नीत्व का अधिकार? या देवांगनाओं के समान केवल मनोरंजन...?”

उनके मन में तुरंत प्रकट हो गई लावण्यवती विद्वत्वती. उन्होंने कुछ नहीं कहा.

 

***

No comments:

Post a Comment

एकला चलो रे - 20

    20           22 दिसंबर 1901 को रवीबाबू के मन की कल्पना साकार हो गई. द्विजेन्द्रनाथ, सत्येन्द्रनाथ - जो उनके गुरू समान थे , और पर...