“अनावृत्तं कपाटं द्वारं देहि.”
सुमधुर स्वर कालिदास के हृदय को
चीरते चले गए. क्षत-विक्षत मन के व्रण अभी भी थे. काल ने उन पर अनेक बार लेप तो
लगाया था,
सांत्वन किया था, परन्तु वे ही जीवन का प्रयोजन हो
गए थे. आज विद्वत्वती के स्वरों से उन घावों से अनंत वेदनाएं फूट निकलीं!
कालिदास ने हौले से कक्ष के द्वार
खोले. कोई भी कल्पना न होने से सुस्नात विद्वत्वती धूप से केश सुखा रही थी.
दासियाँ उसका श्रृंगार कर रही थीं. स्कंध पर उत्तरीय नहीं था. ऐसे में द्वार से
रविराज के समान एक राजपुरुष को प्रकट होते देख दासियाँ अचंभित और विद्वत्वती
संभ्रमित हो गई.
दोनों हाथ जोड़कर प्रसन्न हास्य के
साथ कालिदास ने कहा,
“ शुभ प्रभात,
आर्ये!”
प्रत्यक्ष मदन ही राजवेश में
अवतरित हो जाए, ऐसा यह पुरुष कौन हो सकता है? यह
प्रश्न मन में आया. वह उठी. दासियों ने त्वरित उत्तरीय उसके स्कंध पर रखा. मेखला
अभी पहनाई न गई थी, वह चरणों तक आ रही थी. बाजूबंद
एक ही पहना था. कंठमालाएं अभी पहननी थीं. कंकण एक ही हाथ में था. मगर चरणों के
आभूषण पहना दिए गए थे. उसके उठते ही एक नाद उत्पन्न हुआ.
कालिदास ने पुन: प्रसन्न हास्य
किया. राजसी वैभव से दमकते कालिदास बोले,
“शुभ प्रभात आर्ये!...लगता है कि
आपने हमारे स्वागत को स्वीकार नहीं किया. हमारे आगमन से, और
सूचित न करते हुए आगमन से आपको कष्ट हुआ हो तो क्षमस्व! ऐसे सूचित न करके आना
शिष्टाचार नहीं है यह हमें ज्ञात है.”
सखियों ने उसका प्रसाधन साहित्य
हटा लिया और वे कक्ष से बाहर निकल गईं.
“हमें बिना सूचित किये आने का
प्रयोजन?”
“आपसे मिलने की अतीव अधीरता.”
“किम् कारणं?”
“आपके विषय में, आपके
ज्ञान के विषय में, रूप के विषय में,
सर्वकलासंपन्न व्यक्तित्व के विषय में ज्ञात था ही. इसके अतिरिक्त प्रचीति भी थी. साक्षात्
प्रचीति थी. आप हमारे हृदय में गौरवान्वित हैं.”
“आपका शुभ नाम? आपके
आने का प्रयोजन?” रूपगर्विता विद्वत्वती ने उसी
तरह प्रश्न किया.
“आपने हमें पहचाना नहीं, इसे
अपना सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य...समझ में नहीं आता.”
पल भर के लिए विद्वत्वती मौन हो
गई. उसने कालिदास की ओर देखा, उनके मुखमंडल का निरीक्षण किया.
परन्तु ऐसा कहीं से भी प्रतीत नहीं हुआ कि इस व्यक्ति को वह पहले देख चुकी है.
“आपका परिचय?” उसने पूछा.
“परिचय पाने की इतनी जल्दी क्या
है? क्या
आप हमें आसनस्थ होने के लिए नहीं कहेंगी? हमारी संस्कृति में कहते हैं
‘अतिथि देवो भव’, फिर राजशिष्ठाचार भी तो कोई चीज़
है.”
मन ही मन विद्वत्वती क्रोधित हो
रही थी,
परन्तु अपने क्रोध को प्रकट करने का साहस नहीं जुटा पा रही थी. इसका कारण था उसका
कामदेव जैसा स्वरूप, उसकी निर्भयता और नितांत मधुर स्वर में उसकी बातें. वह
प्रभावित हो गई थी.
“आसनस्थ हों,’
उसने आसन की ओर निर्देश करते हुए कहा.
“यदि हम प्रत्यक्ष आपके व्यक्तिगत
जीवन के बारे में पूछें, तो आपको कोई आपत्ति तो नहीं होगी? जब
आये ही हैं तो मन का संदेह दूर करना उचित होगा, ऐसा हमारा विचार है. यदि आपको
उचित न प्रतीत हो, तो उत्तर न दें. आप व्यथित हों, ऐसा
हमारा उद्देश्य नहीं है. क्या आपका विवाह हो चुका है? आपके पतिराज किस राज्य के हैं?”
विद्वत्वती को इस प्रश्न की
अपेक्षा नहीं थी. वह पल भर को मौन हो गई. और कालिदास के अस्तित्व से प्रभावित,
वर्षानुवर्षोँ से व्यथा का भार सहन करती, वह संयत स्वर में बोली,
“यह आप क्यों पूछ रहे हैं?”
“सहज ही. आपके बारे में हम अनेक
वर्षोँ से सुनते आ रहे हैं. विदिशा आये थे, आपकी भेंट हो जाए,
इसलिए आये थे. और सहज ही पूछ लिया. आपके पतिराज किस राज्य के युवराज, राजा
हैं, अथवा
ब्राह्मणपुत्र हैं?”
विद्वत्वती को अपने विगत का स्मरण
हुआ,
परन्तु इस अनामिक पुरुष के प्रति मोह का अनुभव करते हुए उसे बताना उचित है अथवा
नहीं यह पल भर के लिए वह समझ नहीं पाई. परन्तु कोई स्नेहपूर्ण ढंग से यह प्रश्न
करेगा ऐसा उसने सोचा भी नहीं था. उसने अनुभव किया कि कालिदास अत्यंत स्नेहपूर्वक
पूछ रहे थे.
“देवी, आपके मन को कष्ट देने का हमारा
हेतु नहीं, आपकी
भेंट हो जायें बस इतनी ही इच्छा थी. अब हम....”
“कृपया अन्यथा न समझें. अब आप
शांत मन से आसनस्थ हों.” उसने दासी से जलपान की व्यवस्था करने को कहा. वह भी अब
शांत हो गई थी.
“महोदय, हम
भोजराज की युवराज्ञी, कन्या विदयोत्तमा. शास्त्रों में
हमारी विद्वत्ता देखकर हमें विद्वत्वती – यह नाम प्रदान किया गया. और ‘विद्याभ्यास
में हम उत्तम हों’ इस विचार से हमारे पिताश्री ने
हमारा नामकरण ‘विद्योत्तमा’ किया था. हम सकल गुणसंपन्न हैं. सभी शास्त्रों,
कलाओं,
अस्त्र-शस्त्र विद्या के जानकार हैं.”
“उत्तम! अति उत्तम! यही लौकिक हम
कबसे सुनते आ रहे हैं. आपने अस्त्र-शस्त्र शास्त्र आत्मसात किया है, तो
युद्ध पर भी गई होंगी?”
“नहीं.”
“फिर शास्त्र के अनुसार आपने
रणनीति और व्यूहरचना, उसकी राजनीति के बारे में
जानकारी अपनी प्रशिक्षित सेना को दी होगी. जिसका प्रत्यक्ष प्रयोग उन्होंने यथासमय
किया होगा! सत्य है ना?”
“नहीं, वह विभाग हमारे पिताश्री ही
देखते है. हम संगीत, कला, शास्त्र से संबंधित...”
“इसका अर्थ – आप संगीत का दान,
अर्थात् प्रशिक्षण किसी को देती होंगी, शास्त्र ज्ञान भी दान करती
होंगी.”
“नहीं...नहीं. हम आत्मानंद के लिए
संगीत का और शास्त्रार्थ के लिए शास्त्रों का प्रयोग करते हैं. परन्तु आपको करना
क्या है? क्या
आप किसी विषय पर हमसे शास्त्रार्थ करना चाहते हैं? हमें मान्य है. परन्तु आप यह सब
हमसे क्यों पूछ रहे हैं?”
“केवल उत्सुकतावश,
देवी. अब एक अंतिम प्रश्न. शास्त्रार्थ में आप प्रवीण हैं देवी,
संगीत गायन भी आत्मानंद के लिए करती हैं. आपका आनंद औरों के लिए भी आनंद दायक हो, इसके
लिए आपने कभी उसे संप्रेक्षित क्यों नहीं किया, देवी?”
अब इस मदन के समान रूपवान,
सुदृढ़ कालिदास के प्रश्नों पर उसे क्रोध आने लगा था. कालिदास प्रसन्न थे.
“देवी, शास्त्र श्रेष्ठ है अथवा प्रत्यक्ष
निर्मिती?
आपने हमारे एक भी प्रश्न का उत्तर
नहीं दिया, देवी. इसका अर्थ हम क्या समझें?”
“ हमारा विवाह हो गया है. दूसरा
प्रश्न,
हमारे लिए संगीत और चित्रकला आत्मानंद के लिए है, और उसमें किसी को भी सम्मिलित
करने की हमारी किंचित भी इच्छा नहीं है.”
अब तीसरा प्रश्न. हम स्वयं
चित्रकार होने के कारण निर्मिती को महत्त्व देते हैं. निर्मिती पर किसी एक अथवा शत
भाष्यों से सर्वांगीण निष्कर्ष निकालकर
शास्त्र की निर्मिती होती है.”
इस अंतिम वाक्य से मन का क्रोध
प्रकट हो गया. प्रौढत्व की ओर जा रहे कालिदास की ओर वह आकर्षित हो गई थी. परन्तु
उससे ऐसे प्रश्न पूछने का साहस भी आज तक किसी ने नहीं किया था. मोहवश होने के कारण
वह अपने क्रोध को दबाकर संयमपूर्वक उत्तर दे रही थी. परन्तु अब उसका संयम समाप्त हो
चला था.
“जब तक आप अपना परिचय नहीं देते, तब
तक हम आपके किसी और प्रश्न का उत्तर नहीं देंगे, और आपको कक्ष से बाहर जाने का
आदेश देंगे.”
“पहले भी आपने हमें ऐसा आदेश दिया
था. लगभग तीस-पैंतीस वर्ष पूर्व. हम मातृगुप्त. क्षणमात्र के पति.”
“मातृगुप्त...आप?” वह
आश्चर्यचकित हो गई. विवाह के पश्चात एक माह देवदर्शन एवँ अनेक धार्मिक विधियों में
सबके सामने ठीक से नहीं देख पाई थी. ऐसा अनुपम-अनुरूप पुरुष मातृगुप्त? उसके
मन में पूरी घटना साकार हो गई. और उसे स्वयँ पर दया आई. ऐसा सुन्दर, प्रत्यक्ष मदन होते हुए,
शास्त्रार्थ में अपयशी और असत्य बोलने का अपराधी होने के कारण हमने उसे सीमा पार
कर दिया? बिना
कुछ सुने? फिर
भी मूल स्वभाव के अनुसार विद्वत्वती ने उपहास करते हुए पूछा,
“ मातृगुप्त...गोपालक...असत्यवचनी,
अज्ञानी पुरुष! अनुपम सौन्दर्य दैवी कृपा है, परन्तु परिश्रम से ज्ञान अर्जित करना
व्यक्ति का विकास है. आपने इतने प्रश्न पूछे. हम अब एक ही प्रश्न पूछते हैं. उस
प्रश्न का उत्तर आप दे नहीं पायेंगे, उसके बाद आप स्वयँ ही कक्ष से
बाहर निकल जाएँ.”
“मान्य! शतवार मान्य! आप अपना
प्रश्न पूछें.”
“वही प्रश्न आज हम फिर से पूछते
हैं,
मातृगुप्त...अस्ति कश्चिद् वाग्विशेष:? कुछ जानते भी हैं साहित्य के बारे में?”
“देवी, आपने प्रथम शब्द कहा – अस्ति.
उसी शब्द से आरंभ करके, अर्थात :
अस्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम
नगाधिराजः से आरंभ करके महाकाव्य ‘कुमारसंभवम्’ की रचना की.
‘कश्चिद्’ शब्द लेकर
कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा
स्वाधिकारात्प्रमत:
हमने
‘मेघदूतम्’ इस खंडकाव्य की रचना की . और ‘वाग्विशेष:’ शब्द से आरम्भ करते हुए
‘वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ‘
इस
काव्य पंक्ति से ‘रघुवंशम्’ महाकाव्य की रचना की.”
“हम आपके बारे में,
अज्ञानी मातृगुप्त के बारे में पूछ रहे हैं. महाकवि कालिदास के बारे में नहीं.
उनसे आपकी तुलना वटवृक्ष के नीचे वाले तृण जितनी भी नहीं. अब आप पधारें.”
“मान्य है, हम
चलते हैं.”
“अहो भाग्यम् कालिदास! आप
यहाँ हैं? हमारे सेवकों ने आपको अतिथिगृह में ढूंढा. परन्तु आपका रथ दिखाई
दिया, इससे विश्वास हो गया कि आप गए नहीं हैं. हमारे साथ भोजनोत्तर कुछ
समय व्यतीत करें, यह कहने के लिए हम स्वयँ अतिथि गृह तक आए थे.
विद्योत्तमा, आप
हैं महाकवि कालिदास... आपका संवाद चलने दें. हम राजसभा के लिए निकले हैं. प्रतिदिन
की तरह आपसे मिलाने आये थे. आपका ही आग्रह रहता है ना!”
राजा भोज आये और गए.
“आप कालिदास हैं?
राजकवि कालिदास? विश्वास नहीं होता...परन्तु अब...ये सत्य है.”
वह उनके निकट आने लगी.
कालिदास ने संकेत से उसे रुकने के लिए कहा. वह रुक गई. कब उनके चरणों में झुककर
आशीर्वाद लूं, और कब उन्हें दृढ आलिंगन में लूं...ऐसी अधीरता थी मन में. पल भर में
पिछले तीस वर्ष स्मृति से लुप्त हो गए. वह नव विवाहिता,
षोडश वर्षीय कन्या हो गई. श्रुंगारित मंचक, मिलन की रात, मन
में प्रस्फुटित होता शत-शत स्वप्नों का ब्रह्मकमल. सुगंधित मन,
ग्रीष्म काल के बाद कृष्ण मेघ से मिलने की धरती की अधीर आस का अनुभव करते हुए वह
खड़ी रही. समूची देह रोमांचित हो गई थी. तन मन में ऊर्जा का एक अनामिक स्त्रोत
प्रवाहित हो रहा था. सागर से मिलने के लिए सरिता उत्सुक थी.
मन से अभिसारिका होकर वह
उनसे मिलने के लिए निकली थी. अनेक ग्रीष्म झेले थे उसने. अब शांत, तृप्त होना
चाहती थी.
“आर्य,
फिर भी आप हमारा एक संदेह दूर करें.”
“आप हमारी परिक्षा तो नहीं
ले रही हैं, देवी?”
“आप ऐसा भी समझ सकते हैं,
आर्य!”
कमले कमलोत्पत्तिः श्रूयते न तु दृश्यते – कमल में कमल उत्पन्न हुआ ऐसा हम कहते हैं, परन्तु कभी देखा नहीं. इसका उत्तर क्या होगा?
“बाले
तव मुखाम्भोजे कथमिन्दीवरद्वयं - हे बाले तुम्हारे मुखकमल पर दो कमल कैसे खिले?”
वह
प्रसन्नता से हंसी, “यही उत्तर अपेक्षित था.”
वह
फिर से कालिदास के पास आने लगी,
तब कालिदास ने कहा,
“देवी,
आगे न बढ़ें. आप हमारे लिए गुरुस्थान पर हैं, आप हमारी गुरू हैं. हमें आपकी चरण
वन्दना करने दें.”
वह
एकदम स्तब्ध हो गई. पलभर को कुछ समझ ही नहीं पाई!
“आर्य...”
“कालिदास
हैं हम. और महाकवि, राजकवि की उपाधियाँ
आपके कारण इस अज्ञानी मातृगुप्त को प्राप्त हुईं. देवी, आपने
हमें ‘ज्ञान’ पर ताना दिया था. हम निरक्षर, अज्ञानी हैं, इसका तीव्र अनुभव हुआ. सत्य कहें तो हमें स्वयँ पर बहुत क्रोध आया था.
हमें कुमारसेन और राजपुरोहित यहाँ लाये थे. वस्तुत: हम उनके भी बहुत ऋणी हैं –
उनके कारण हम आप तक पहुंचे.
देवी, हम यहाँ से निकले थे अत्यंत क्रोध में.
वेत्रवती के वेगवान प्रवाह में स्वयँ को समर्पित करने. परन्तु वेत्रवती हमें
किनारे पर ले आई. कुछ आदिवासी हमें काली मंदिर में ले गए. और सरस्वती आश्रम में
हमने विद्या ग्रहण की. उज्जयिनी के सम्राट चन्द्रगुप्त की राजसभा में मंत्री के
रूप में कार्यरत रहे. उन्हीं की कृपा से आर्यावर्त देख सके.
देवी, हमारी सम्पूर्ण सफलता का कारण आप हैं. आप
हमारी गुरू हैं. गुरूदक्षिणा के रूप में हम अपना समस्त लिखित साहित्य आपके चरणों
में समर्पित करते हैं. उज्जयिनी से आते हुए ही हम अपने ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ
साथ लाये थे. दालान में हमारा सेवक है.
वे
कक्ष से बाहर गए, सेवक को ग्रन्थ लाने
को कहा. वे उन ग्रंथों को उसके चरणों पर रखने ही वाले थे, कि
वह अत्यंत व्यथित स्वर में बोली,
“आर्य, आपने जीवन में सब कुछ प्राप्त किया. हमने जो
प्राप्त किया, वह हमारा भ्रम था. हमने अपना सर्वस्व ही खो दिया. इतने वर्ष बिताए
अहंकार में. आज हमारा अहंकार समाप्त हो गया, परन्तु जीवन का
सब आनंद लेकर. हम तृप्त नहीं, अपितु रिक्त हो गए. आर्य
कालिदास, हमें देवत्व देकर आप यशस्वी हो गए. हम शून्य हो गए
सब कुछ पाकर.”
दोनों
हाथ जोड़कर उन्होंने उसे प्रणाम किया और रेशमी वस्त्र में बंधे हुए सभी ग्रन्थ उसके
चरणों के पास रख दिए. अब उसके नेत्रों से आकाश ही बरस रहा था. कबसे घिरे हुए कृष्ण
मेघ अब अनिवार गति से नेत्रों से प्रवाहित हो रहे थे. शब्द मौन हो गए थे. सम्पूर्ण
जीवन का प्रवास ही अब समाप्त हो गया था. सामने का मार्ग धूसर था. अब तक सहेज कर
रखा गया अहंकार आज इस प्रकार शून्य हो गया था. काश, सीता के समान धरती के उदर में लुप्त हो जाती, अपना
लज्जित मुख किसी को न दिखाती, यही विचार मन में था.
“अब
आपके आदेशानुसार हम चलते है,
वैसे भी केवल गुरुदक्षिणा देने ही आये थे. एकलव्य की परिक्षा यहीं समाप्त हुई.
अश्वत्थामा का घाव भी यहीं भर गया. मन के विचारों का कुरुक्षेत्र यहीं समाप्त हुआ.
आज हम परिपूर्ण हो गए, सम्पूर्ण हो गए. अब कहीं भी कुछ भी
प्राप्त नहीं करना है, देवी!
चलते
हैं, हम. परिपूर्ण हुए अपने शिष्य को
आशीर्वाद दें.”
स्वयं
को संभालते हुए वह बोली, ‘शुभास्ते पंथानां
सन्तु.’
वे
निकल पड़े. द्वार तक भी वह न जा सकी. स्तम्भ के समान निश्चल खड़ी रही.
कालिदास
ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. वे प्रासाद से बाहर आये. अपने रथ में बैठे. रथ अतिथिगृह
के पास रुका. मन निर्विकार हो गया था, फिर भी दो ऋण अद्याप शेष थे. वे आसन पर बैठे. भोजपत्र सामने रखा और उस पर
लिखा:
“आर्यावर्त
के सम्राट चन्द्रगुप्त,
हमारे
ज्येष्ठ बन्धु, मार्गदर्शक और हमारे
हितचिन्तक –
कृतानेक
दंडवत!
पत्र
में उन्होंने सम्पूर्ण वृत्तांत लिखा और अंत में लिखा,
“महाराज, हमारा जीवन सार्थक हुआ. हमने जो कुछ भी किया, वह हमारे मन में नित्य वास करने वाले आपको शायद अपेक्षित ही होगा! शायद
इसीलिये ‘राजकवि’ की उपाधि से हमें सम्मानित किया होगा.
जीवन
भर आप युद्धक्षेत्र पर युद्ध करते रहे ताकि आर्यावर्त संगठित रहे, वह एकसूत्र रहे इसलिए देववाणी संस्कृत को
प्रमाण माना. आर्यावर्त सबल और ओजस्वी हो इसलिए. और यह साध्य होने के बाद आप
युवराज कुमार का अभिषेक करके वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करेंगे,
यही आपने कहा था.
हमारा
युद्ध भी अब समाप्त हो गया है. हम रिक्त नहीं, अपितु सम्पूर्ण हो गए हैं. जीवन का पूर्णविराम अगले जीवन का आरंभ होता
है. वैसा आरम्भ कालिदास का होगा नहीं, परन्तु एक बात निश्चित
है – ‘कालिदास अपने शब्दों के माध्यम से अमर रहेंगे’ – ऐसा आपने कहा था, यह आने वाला काल ही निश्चित करेगा.
परन्तु
आज जीवन कथा सुफल-सम्पूर्ण हो गई है. इस अवसर पर आपका स्मरण स्वाभाविक ही है. अगर
आप यहाँ होते तो हमें दृढ़ता से आलिंगनबद्ध करके कहते, “कालिदास, आपकी विजय हुई! परन्तु आप इस
प्रकार विद्वत्वती को गुरुत्व प्रदान करंगे, ऐसी किंचित भी
कल्पना हमने नहीं की थी. अनपेक्षित,परन्तु अद्भुत, अलौकिक कर
गए आप. जीवन भर की साधना ही उसे अर्पण करने वाले आप, अनन्य
हैं, धन्य हैं. ये शब्द हमें सुनाई दे रहे हैं, आपके स्नेहल स्पर्श का भी अनुभव हो रहा है.
महाराज, आपने ज्येष्ठ बन्धु के समान हम पर अत्यधिक
स्नेह किया. हम पर पूरी तरह विश्वास करते हुए अपने अन्तरंग की कथा-व्यथा भी सुनाई.
इस समय जब विचार करते हैं, तो आश्चर्य होता है कि इतना
विश्वास आपने कैसे कर लिया? हम लोकप्रिय हुए, महाराज, इसमें कोई विशेष बात नहीं थी, क्योंकि आपने हमारी प्रत्येक कृति का समर्थन किया. चातुर्य कथाओं से
लोकरंजन हुआ, इसका कारण भी आप ही है. आपसे हमने अनेक उत्तम
गुण आत्मसात किये.
वहाँ
आने के बाद पत्र लिखना संभव न होता. और विदिशा नगरी की राजकन्या- विद्वत्वती के
यहाँ क्या हुआ होगा, यह जानने की उत्सुकता
आपको अवश्य होगी. इसीलिये हमने यह पत्र लिखा.
आप
मगध में – पाटलिपुत्र में होंगे,
इसलिए यह पत्र...
इति
वृत्त:
उन्होंने
पत्र पूरा किया और रक्तवर्णीय रेशमी वस्त्र पर लिखना आरंभ किया.
“प्रियतमा,
...सुखदा, शुभदा, मधुवंती,
सस्नेह...
मधुवंती, एक मधुर स्वप्न की भाँति तुम हमारे जीवन में
आईं, और हमने सभी स्वप्नों के वास्तविक रंगों का अनुभव किया.
सारी संवेदनाएं सजीव हो उठीं, देह का रोम-रोम पुलकित हो उठा.
हम कौन? कहाँ से? पूर्वातिहास क्या है? ऐसा कुछ भी न पूछते हुए तुम्हारे जैसी विदुषी गणिका ने हम पर सम्पूर्ण
विश्वास करके स्वयँ को भी अर्पित कर दिया...ऐसी अनन्य महिला को हमने तो कभी देखा
नहीं था. हम आये तो केवल मनोरंजन के लिए थे. देह भोगने के लिए. गणिका से कोई और
अपेक्षा ही क्या हो सकती थी? समाज की धारणा ही ऐसी है. उसकी
विद्वत्ता को, कार्य को कोई नहीं देखता. देखते हैं तो केवल
कमनीय देह...
हम
जैसे अतृप्त युवक ने भी यही देखा था, मगर यह देखने के बाद जो अनुभव किया वह अद्भुत था. तुम्हारे स्वर्गीय स्वर, तुम्हारा वीणा वादन, तुम्हारा विद्याभ्यास, तुम्हारा पदन्यास, तुम्हारा आविर्भाव, अभिनय और नृत्य का सादरीकरण सब कुछ हौले हौले मन में प्रवेश कर रहा था.
और विलक्षण गति से तुम हमारे हृदय में प्रवेश कर रही थीं,
हमेशा निवास करने के लिए. कुछ ही समय में तुम हृदयस्थ हो गईं.
मानो
तुम्हारे जीवन का ध्येय ही यह था कि हमें सुख, शान्ति मिले. तुम्हारे विगत को जानने का प्रयास हमने किया नहीं, परन्तु हमारे आगमन के बाद तुम्हारे प्रासाद में कोई और आया नहीं.
एकनिष्ठता तुम्हारा स्वभाव बन गया. हम देह से तुम्हारे हो गए, मन से भी तुम्हारे हो गए. तुम्हारे गुणों को एक-एक करके हम परखते गए और
साक्षात् सर्वगुणसंपन्न, शालीन,
सात्विक एक स्त्री का रूप हमारे सम्मुख प्रकट हुआ. जो रूप देखा, उससे हमारे जीवन में परिपूर्णता आई. समाज में सम्मानित गणिका मधुवंती
हमारी है, इसका अभिमान हुआ.
जीवन
में केवल दो ही व्यक्ति हमारे हृदय में चिरंतन रूप से रहते हैं – एक हैं सम्राट
चन्द्रगुप्त और दूसरी – तुम. सम्राट चन्द्रगुप्त को हमने एक दिन अपना पूर्व इतिहास
सुनाया. तुमने कभी पूछा नहीं. परन्तु यदि पूछतीं भी तो हम बताने वाले नहीं थे. याद
आता है कि एक बार तुमने जानने का प्रयत्न किया था, तब हमने कहा था कि ‘कथन करेंगे, परन्तु उचित अवसर आने पर.’ फिर तुमने पूछा
नहीं, पूछतीं भी तो हम बताने वाले थे ही नहीं.
परन्तु
आज बताएँगे अपनी जीवन गाथा.
कालिदास
ने अपनी जीवन गाथा लिखी और आगे लिखा,
‘मधुवंती, प्रियतमा सखी, तुम
हमारी हो, हमारी ही रहोगी. अब हमें कुछ और नहीं चाहिए, सखी. जीवन परिपूर्ण हो गया. एक स्त्री ने हमें ज्ञान संपत्ति दी. एक
स्त्री जीवन का प्रयोजन बनी. एक स्त्री से जीवन का अर्थ समझ लिया. देह में स्थित
मन और मन के भीतर की देह, दोनों को जागृत किया, सखी, मधुवंती
तुमने, केवल तुमने.
अनेक
भार्या रखने की समाज की मान्यता को हमने मन से नकारा. और तुम्हारा ही अंगीकार किया
– मन से. परेंतु पत्नीत्व का स्थान हम तुम्हें नहीं दे सके थे. परन्तु अब हम मुक्त
हैं.
और
मधुवंती, इतने मुक्त हैं कि
उसी क्षण निरभ्र आकाश हमारा जीवन हो गया. क्षितिज के सारे रंग लेकर वसन्त ऋतू
हमारे जीवन में आया....कृष्ण मेघों की धाराओं ने पूछा,
“अब
तुझे और क्या चाहिए, कालिदास?”
वृक्ष
लताओं ने पूछा,
“अब
और क्या चाहिए तुझे?”
प्रभात
काल की उषा, ढलती हुई
संध्या...दोनों ने पूछा,
“मातृगुप्त, अब और क्या चाहिए तुझे? क्या चाहिए तुझे?”
“मधुवंती....अब
क्या मांगें?”
उनकी
आँखों से अविरत बहती अश्रुधाराओं से शब्द धूसर हो गए. उत्तरीय से आँसू पोंछते हुए
उन्होंने स्वयँ को संभाला. दोनों पत्रों पर नाम लिखाकर उन्हें सेवक को देते हुए
कहा,
“पहले
मगध जाना. महाराज पाटलिपुत्र में हैं. वापस लौटते हुए रथ यहाँ से लाओगे तो हम
तुम्हारे साथ उज्जयिनी चलेंगे.
सेवक
पल भर को सोच में पड़ गया. ‘जब उज्जयिनी जाना ही है तो वहाँ का पत्र अभी किसलिए? परन्तु उसने कहा कुछ नहीं.
***
मध्याह्न
अब पश्चिम की ओर जा रही थी. अब वे राजवेष में नहीं, अपितु सादे वस्त्रों में बाहर निकले. मंदसौर किस दिशा में है, किस दिशा में शिव मंदिर है – उन्हें कुछ याद नहीं आ रहा था. उनके गाँव का
रास्ता वेत्रवती के उस पार से जाता था, अथवा अरण्य से होकर
जाता था, उन्हें याद नहीं आ रहा था. पल भर के लिए यह भी
स्मरण नहीं रहा कि वे कहाँ और क्यों जा रहे हैं. मन में विचारों की शून्यता थी, जीवन की परिपूर्णता थी. प्रसन्नता की लहरें मन में प्रवाहित हो रही थीं.
अब वे श्रीराम हो गए थे, शरयू के बदले वेत्रवती के मार्ग पर
जा रहे थे. इसी वेत्रवती ने उन्हें जीवन दिया था. सरस्वती आश्रम में पहुँचाया था.
इसी वेत्रवती के प्रवाह में प्रवास करते हुए समाज जीवन का अनुभव लिया था.
एक
मार्ग अरण्य का, एक मार्ग मंदसौर का, एक मार्ग शिव मंदिर का... कहाँ से जाएँ? कैसे जाएँ? यही विचार करते हुए वे वेत्रवती के जल में उतरे. सायंकालीन रंग के गहराने
से पहले ही पूर्णिमा का चन्द्र पूर्व क्षितिज पर प्रकट हो गया था. वेत्रवती की
लहरें प्रसन्नता से प्रवाहित हो रही थीं. कालिदास चल ही रहे थे. जब गले तक लहरें आ
गईं तो वे किसी बालक की भाँति कालिदास को सहलाते हुए प्रबाहित होती रहीं.
कालिदास
के नेत्रों में पूर्णिमा का प्रकाश था. उस प्रकाश में उन्हें अनंत आकाश के उस पार
एक महाद्वार दिखाई दिया. किसका होगा यह महाद्वार? वे विचारमग्न हो गए. वेत्रवती अपार गति से प्रवाहित हो रही थी. कालिदास
अपनी कल्पना में विचरण कर रहे थे. आनंद से, प्रसन्नता से.
‘इति
श्री कालिदास कथा:’ बीच बीच में वे मन ही मन लिख रहे थे. परन्तु कुछ भी आकलन होने
की अवस्था से परे चले गए थे.
***
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