Tuesday, 21 March 2023

Shubhangi - 70

 प्रात:काल अभी हुई भी नहीं थी कि सेवक ने वार्ता दी, “पंडित अमरसिंह आपसे मिलना चाहते हैं.”

कालिदास कुछ ही समय पूर्व जागृत होकर गवाक्ष से दिखाई देने वाला राजप्रासाद देख रहे थे. उपवन से आने वाले सुगन्धित समीर का आनंद ले रहे थे. वे बाहर आये.

“कालिदास, पल भर को भी सोये बिना हम सब कुछ लिख कर लाये हैं. मित्रवर्य कालिदास, कृपया अवलोकन करें.” उन्होंने रेशमी वस्त्र में लिपटे भोजपत्र कालिदास के हाथों में दिए.

“इसमें क्या है?” यह प्रश्न सुनने के लिए भी वे नहीं रुके. जाते-जाते बोले,

“आज राजसभा में लेते हुए आयें, अवश्य!”

पंडित अमरसिंह जैसे आये थे वैसे ही चले गए.

सूर्य को अर्ध्य देकर कालिदास आसन पर स्थानापन्न हुए. सामने चौकी रखी. भोजपत्र सामने रखे और पढ़ने लगे.

“राजकवि की उपाधि से सम्मानित महाकवि कालिदास एक स्वयंभू, दैवी प्रतिभा से संपन्न, लावण्य रूप हैं. शब्द, अर्थ, अलंकार, उपमा, उत्प्रेक्षा ऐसे समृद्ध अलंकारों से उनकी प्रतिमा सुसज्जित है. मानो वाग्देवी के कंठ में उन्होंने शब्दों की नवरत्न माला पहनाई है. आयुर्वेद, गान्धर्वविद्या, ज्योतिष, लोक व्यवहार, चातुर्य, व्याकरण, धर्मशास्त्र, वेद वेदांग के प्रकांड पंडित हैं. ऐसा एक भी विषय नहीं, जो उन्हें अवगत न हो. संयोग श्रृंगार और विप्रलंभ श्रृंगार, उपमा, उपमान इनकी योजना करने में इनके जैसा न कोई कवि हुआ, न भविष्य में पृथ्वीतल पर होगा. ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने मानवी संवेदनाओं के सूक्ष्म शास्त्र का,  कामशास्त्र का सूक्ष्म अध्ययन किया है. चित्रकला में भी उन्हें प्राविण्य प्राप्त है. ऐसा पुरुष युगातीत है. संस्कृत साहित्य के शिरोमणी महाकवी कालिदास इस पृथ्वी तल पर अन्य कोई भी, कभी भी नहीं होगा.

“उनका ‘ऋतूसंहार’ यह षड्ऋतुओं का वर्णन करने वाला निसर्ग काव्य है.  इसमें उन्होंने क्वचित अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग किया है. फिर भी काल-प्रसंग पर शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, यह अनुभूति विलक्षण है. सर्प और मयूर, दोनों परस्पर शत्रु हैं, परन्तु ग्रीष्म काल में सर्प मयूर पंख की छाया में विश्राम कर रहा  है. यह उदाहरण परस्पर विरोधी प्रतीत होते हुए भी असंभव नहीं है. अनेक उपमाओं से सृष्टि का वर्णन करने वाला यह काव्य है. इस ‘ऋतुसंहार के छः सर्गों में प्रत्येक सर्ग में कम से कम सोलह से अट्ठाईस छंद हैं. ये छंद गेय हैं. भाषा अत्यंत सरस, सहज, ईमानदार और रसनिर्मिती से परिपूर्ण है. ग्रीष्म काल का वर्णन विलोभनीय नहीं हो सकता, परन्तु कालिदास के सहज शब्दों में वह पठनीय हो गया है. उसमें वर्षाऋतु का वर्णन कल्पनातीत रूप से सुन्दर है. ऐसा वर्णन करने वाला कवि आज तक हुआ नहीं है. कामना उद्दीपन और कामना समापन का ऋतू परिवर्तन से संबंधित है. मानव और निसर्ग का परस्पर संबंध बताने वाला कवि अन्य कोई भी नहीं है. 

हमें आश्चर्य होता है उनके ‘मालविकाग्निमित्र से. इस नाट्य कृति में उन्होंने चौबीस पात्रों को इस प्रकार एक दूसरे से संबद्ध किया है कि किसी एक को हटाना संभव नहीं है. यह कालिदास की काल्पनिक कृति नहीं है, फिर भी उसमें निहित कथानक आदर्श तक ले जाने वाला है. नाट्य कृति रोचक, उत्कंठावर्धक, प्रेमानुभूति से परिपूर्ण है. और राजा अग्निमित्र एवँ मालविका का वर्णन इतनी सूक्ष्मता से किया है कि प्रेक्षकों की अधीर उत्सुकता प्रवाहित होती रहे. संयोग श्रृंगार और विप्रलंभ श्रृंगार अत्यंत सुन्दर है. नाट्यकृति की भाषा सहज, मनोहर, प्रासादिक है, उत्कंठावर्धक है. मानवी संवेदनाओं का सूक्ष्म अभ्यास उससे प्रकट होता है.

सुललित, सरस और काव्यमय, सुमधुर शब्द योजना महाकवि कालिदास का वैशिष्ठ्य है. वाग्देवी के अत्यंत प्रिय पुत्र कालिदास मनमोहिनी भाषा के उपासक हैं. वे अत्यंत कठिन–क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग सहज ही कर सकते थे, परन्तु प्रकृति की नित्य की उपमाएं देते हुए उनकी काव्य पंक्तियाँ सहज लिखी गई हैं.

उनकी रचनाओं के विषय पौराणिक, ऐतिहासिक होते हुए भी कवि ने उन्हें अपनी प्रतिभा से इतनी अच्छी तरह सजाया है कि वे वर्त्तमान काल की और उनकी अपनी ही प्रतीत होती हैं. नवरसों का उन्हें अद्भुत ज्ञान है.

कालिदास के महाकाव्यों की ‘उपमाएं’ अन्य कवि प्रयत्न करके भी इतनी प्रयोग में नहीं ला सकते. प्रयोग के लिए प्रथम कालिदास के महाकाव्य का ही आश्रय लेगा. परन्तु कालिदास केवल कल्पना विलास में ही रममाण नहीं होते, अपितु प्रत्येक स्थल पर यथार्थता, लोक-व्यवहार, मानवी संवेदना, विविधता प्रकट करते हैं. प्रतिदिन, प्रतिक्षण वे काव्य ही जीते हैं. वे केवल मृदु संवेदनाओं के ही कवि नहीं हैं, बल्कि व्यथा, वेदना, विरह, अमर्ष, आक्रोश, आवेग आदि विषय भी सूक्ष्म गंभीरता से लेते हैं.

कविता कामिनी का सहज श्रृंगार उन्हें जितना प्रिय है, उतनी ही प्रिय उन्हें विरह की उत्कट व्यथा है. उनका प्रकृति प्रेम सर्वश्रुत है. नाट्य कृति में प्राकृतिक दृश्य और श्रृंगार रस का इतना प्रभाव है कि उन्हें अलग करना कठिन है.’ कालिदास पंडित अमर सिंह द्वारा लिखित भाष्य पढ़ रहे थे. पल भर को तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि हमने ही इतनी सुन्दर, इतनी भव्य रचनाएं की हैं. ‘मेघदूतम्’ में दो विरही जनों के मिलन की उत्कटता सिर्फ हमारी नहीं, अपितु सभी विरही जनों की है. इतना ही नहीं, प्रकृति में भी है. हमने सिर्फ उसे लिखा भर है. पंडित अमर सिंह मित्रता की भावना से इतने अभिभूत हो गए हैं, कि कहीं उन्होंने स्नेहभाव से तो हमारे बारे में नहीं लिख दिया?  

कालिदास ने फिर से भोजपत्र हाथों में लिए और पढ़ने लगे:

‘ ‘मेघदूताम्’ की छन्द रचना अवर्णनीय है. कहीं कहीं पर वह अतिशयोक्तिपूर्ण हो गई है, फिर भी उत्कंठावर्धक है. ‘ऋतूसंहार’ के समान उपजाति. इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, वियोगिनी, रथोद्धता छंदों का प्रयोग किया जाता तो उसे इतनी सफलता प्राप्त न हुई होती. ‘मंदाक्रांता नाम के अनुसार इस काव्य के मंदगति से चलने के कारण कालिदास प्रत्येक स्थान का सूक्ष्म वर्णन कर सके. इसका एक-एक छंद एक-एक रत्न के समान बहुमूल्य है. उसके प्रकाश में ‘मेघदूतम् अधिक प्रकाशमान हो गया है.

और, यदि ‘रघुवंशम् के बारे में कथन करना हो, तो उसके बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है. रघुवंश के पात्र धरती पर जन्म लेने वाले, परन्तु धरती को स्वर्ग बनाने की आकांक्षा रखने वाले नर रत्न हैं. उनके चरित्र में धीरता, वीरता, तपस्या, यज्ञाराधन आदि अनेक गुण हैं, जिन्हें चित्रित करते हुए कालिदास की सम्पूर्ण प्रतिभा प्रकट हुई है. भक्ति, श्रद्धा, औदार्य, शब्द प्रतिष्ठा, संवेदना इतनी गतिमान हो गई हैं, कि पाठक एक के बाद एक सर्ग कंठस्थ करेंगे. उपमा देते हुए उपमेय और उपमान का सुन्दर आविष्कार हुआ है.

अपने मूल प्रवाह का दर्शन करने गंगासागर गंगोत्री तक जाए, वैसे ही प्रत्येक कवि कालिदास तक पहुंचेगा. अब हम उनकी प्रत्येक काव्य कृति और नाट्य कृति की कथावस्तु का वर्णन करेंगे.’

कालिदास को अब अपनी स्तुति असह्य हो गई. पंडित अमरसिंह ने सत्य ही लिखा होगा, जिससे हमें प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि प्राप्त हो. परन्तु हमारे लेखन का प्रयोजन प्रत्येक संहिता लेखन के समय एक कभी भी नहीं रहा, लोकानंद भी हमने नहीं देखा था. ‘मेघदूतम् में हमने अपनी ही अवस्था लिखी थी. प्रत्येक रचना का कारण भिन्न था. आगे न पढ़ते हुए उन्होंने उन भोजपत्रों को रेशमी वेष्ठन में रखा और वे उठे. मगर उनकी स्मृति में भाष्य को पंडित अमरसिंह द्वारा दिया गया शीर्षक रह गया – “दीपशिखा-कालिदास”. आरंभिक पंक्ति भी – “शाक्तसुत महाकवि कालिदास ने महाकाव्य का महामार्ग सबके लिए उपलब्ध कर दिया है, ऐसा प्रतीत होते हुए भी केवल प्रतिभावंत कवि ही उन तक पहुँच पायेगा.”      

कालिदास मन ही मन हँसे. किसलिए चाहिए प्रसिद्धि? और हमारी प्रतिष्ठा को जतन कौन करेगा? हमारा पुत्र-कन्या, अथवा पत्नी-प्रेयसी? पल भर को वे खिन्न हो गए. आज तक जीवन का जो प्रयोजन था, उसे सिद्ध करने का समय आ गया था. परन्तु विद्वत्वती विदिशा में नहीं थी. उसके वापस आने तक वे प्रतीक्षा करने वाले थे.

वे उठे. कंठमालाएं पहनीं. पीताम्बर के ऊपर मेखला पहनी. नीलवर्णीय उत्तरीय उनके पीताम्बर पर जंच रहा था. अनुपम सुन्दर पुरुष का रूप उन्होंने दर्पण में देखा और वे निकल पड़े.

राजसभा के द्वार में प्रवेश करते ही पंडित अमरसिंह ने पूछा, ‘हमारे भोजपत्र नहीं लाये?

“कल लायेंगे. अभी पूरे पढ़े नहीं हैं.” कालिदास ने सहजता से उत्तर दिया.

“आप अभी यौवनावस्था में हैं, महाकवी. अभी संहिता लेखन करना है, अत: ऐसा विस्मरण योग्य नहीं है.”

अगले दो दिन राजसभा में काव्यशास्त्र पर विश्लेषण होने से पंडित अमरसिंह को अपने भोजपत्रों का स्मरण नहीं हुआ, परन्तु उसके बाद उन्होंने कहा,

“आज हमारा अंतिम भाष्य है. मगर कल हम आपके ही बारे में बोलेंगे. निश्चित रूप से.”

कालिदास के मुख पर स्मित रेखा प्रकट हुई. आज अमरसिंह मन:पूर्वक काव्य शास्त्र के बारे में बोल रहे थे. उनका वक्तृत्व अमोघ था. कालिदास शांत, संथ स्वर में कहने लगे,

“काव्य मन से एक-एक पंखुड़ी के रूप में प्रकट होने वाला सहस्त्र दल है. जिस जल में यह सहस्त्रदल है, उस जल में अनगिनत रत्न हैं. प्रत्येक रत्न का प्रकाश, उपयोग और घनता भिन्न है. उसके प्रयोग भिन्न हैं. उन रत्नों को एकत्रित करके माता सरस्वती के लिए कंठहार बनाना इतना आसान नहीं है. परिश्रम से साध्य करने जैसा भी यह सहस्त्रदल नहीं है. वह ब्रह्मदेव की निर्मिती है, और जिस पर सरस्वती देवी का वरद हस्त है, उसी को यह सुगन्धित, रसमय सहस्त्रदल प्राप्त होता है. दैवी प्रतिभा साधना, वैचारिक मनोवृत्ति, शास्त्राभ्यास से समृद्ध होती है. ‘अलंकारशास्त्र’, साहित्यशास्त्र से काव्य वृद्धि के लिए अध्ययन किया जाता है. और जो सब शास्त्रों का आधार है, वह ‘समीक्षाशास्त्र समस्त उपलब्ध साहित्य की कसौटी है. इसी को ‘क्रियाकलाप कहते हैं. उसमें क्रिया, काव्यग्रंथ, कल्पविधान का समावेश है.

प्रत्येक काल में काव्य और साहित्य की परिभाषा में परिवर्तन होता रहता है. शब्दशिल्प और दृश्यकाव्य से प्रतिभा का आविष्कार होता है. प्रतिभा का उच्चतम साक्षात्कार ‘प्रज्ञा के रूप में परिचित है. गुण, रस, रीति, वृत्ति, ध्वनि के सहकार्य से महन्मंगल काव्य की रचना होती है. अलंकार, विशेषत: उपमा, रूपक, स्वभावोक्ति, अतिशयोक्ति ऋग्वेद के मन्त्रों से प्रकट होते हैं.

काव्यशास्त्र का अध्ययन करते हुए काव्यनिर्माता और काव्यानुशीलक, और नाट्यकृति के सन्दर्भ में नाट्य प्रयोगकर्ता और नट का भी समावेश होता है.

कविता के प्रयोजन के बारे में दो मत हैं. पारंपरिक चिंतन काव्य का उद्देश्य है नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना, तो दूसरा पक्ष वर्तमान काल की घटनाओं का लेखा जोखा लेता है. अभिधा, लक्षणा, व्यंजना का भी काव्य शास्त्र से महत्वपूर्ण संबंध है. इसके अतिरिक्त वर्ण्य अथवा कथ्य विषय का भी प्राधान्य है.”

कालिदास और पंडित अमरसिंह बीच बीच में अपने विचार रख रहे थे. आखिर पाँच दिनों के बाद इस विषय पर सार प्रस्तुत किया गया और विषय का समापन करते हुए राजा भोज ने कहा,

“काव्य शास्त्र, अथवा साहित्यशास्त्र, व्याकरण शास्त्र का अध्ययन करने से कोई  कवि नहीं हो जाता. परन्तु इन पाँच दिनों के शास्त्रार्थ की उपलब्धि है   
महान विद्वानों की विदिशा की राजसभा में  उपस्थिति. इससे अनेक काव्य प्रकारों के सुगन्धित गुच्छ का अनुभव हुआ. एक विलक्षण अनुभव रहा. पंडित अमरसिंह कल एक अभिनव कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले हैं और राजकवि कालिदास संगीत का आनंद देने वाले हैं. इस अवसर पर हमें अपनी कन्या विद्वत्वती का स्मरण हो रहा है. वह होती तो उसे विलक्षण आनंद हुआ होता. अनेक गुणों से परिपूर्ण
, सभी शास्त्रों में पारंगत विद्वत्वती उत्तम गायिका भी है. नृत्य में पारंगत और उत्तम चित्रकार भी है. इस अवसर पर यदि उपस्थित होती तो उसे आनंद हुआ होता.

कल के पश्चात आप सब लोग अपने अपने घर लौट जायेंगे. परन्तु हमें आपका स्मरण रहेगा. अनेक विद्वतजन, पंडित, शास्त्रकार पधारे. भाष्यविचार प्रस्तुत किया गया. परिसंवाद हुए. मैत्री और सामंजस्य के बारे में विचार भी इसी राजसभा में रखे गए.

परन्तु विद्यमान आर्यावर्त के, उज्जयिनी के सम्राट चन्द्रगुप्त के महाकवि कालिदास हमारी राजसभा में पधारे और विदिशा की प्रतिष्ठा वृद्धिंगत हुई. ऐसे प्रतिभावान, प्रज्ञावंत महाकवि कालिदास युगातीत कवि हैं, इसकी साक्ष देते हैं उनके महाकाव्य. हमने पंडित अमरसिंह से जानकारी प्राप्त की है, परन्तु कल वे इस सभा में कालिदास के महाकाव्य का परिचय देंगे, यह उनका अभिनव कार्यक्रम होगा.”

सभा समाप्त हो गई. जाते-जाते उन्होंने पंडित अमर सिंह से कहा,

“आप कालिदास के साथ कुछ और दिन वास्तव्य करें.”

“हमारे लिए तो किन्हीं पारिवारिक कारणों से असंभव है, परन्तु हम कवि कालिदास से विनती करेंगे, वह हमारी बात मानेंगे.”

कालिदास पीछे थे, परन्तु यह संवाद उन्होंने सुना और उन्होंने सोचा, ‘यह ईश्वर ही इनके मुख से बोला है, अन्यथा विद्वत्वती के आने तक किस कारण से यहाँ रुकें, यह भी समस्या ही थी, जो सहज ही हल हो गई थी.’

दूसरे दिन राजसभा जाने से पहले पंडित अमर सिंह शीघ्रता से उनके अतिथि गृह में जा रहे थे. उस समय कालिदास एकेक भोजपर्ण गोमाता के मुख में दे रहे थे, गोमाता आनंद से उन्हें खा रही थी.

“कालिदास, आज आप यह क्या कर रहे हैं?

“प्रत्यक्ष को कैसा प्रमाण? जो देख रहे हैं, उस पर विश्वास करें.”

“परन्तु...” अंतिम भोजपत्र पर उन्हें अपने अक्षर दिखाई दिए.

“कालिदास, ये तो हमारे लिखे हुए भोजपत्र हैं ना, जो हमने पढ़ने के लिए आपको दिए थे?

“हम क्षमाप्रार्थी हैं, मित्रवर्य पंडित अमरसिंह. आपने हमारे साहित्य के बारे प्रेम से, परिश्रम से बहुत कुछ लिखा. परन्तु मित्रवर्य, साहित्य स्तुति करने से श्रेष्ठ नहीं हो जाता. काल ही साहित्य का परीक्षक होता है.

हमने यह सोचकर अपना साहित्य नहीं रचा कि वह कालातीत होगा कि नहीं. और यदि वह हो भी गया कालातीत, तो भी हमें चिरंजीवित्व नहीं मिला है.”

क्यों होना चाहिए हमारे बारे में कुछ...कालिदास का नाम, उसका ग्राम, माता-पिता, यह सब कुछ यदि अज्ञात रहा तो भी कोई प्रश्न उपस्थित नहीं होगा. उस नाम से, अथवा हमारे लिए भी अज्ञात कुलवंश से जैसे हमारे सम्मुख रत्ती भर भी प्रश्न उपस्थित नहीं हुआ, उसी प्रकार यदि हमारा साहित्य भी यदि सर्वांग सुन्दर हुआ, तो कोई भी, कुछ भी पूछे बिना, उसका आस्वाद लेगा.

अभी वर्त्तमान काल में उसे प्रसिद्ध न करें, मित्रवर्य! उस दिन बोलने से आपको रोकना असंभव था, परन्तु आप अधिक कुछ न कहें, इसलिए आपके द्वारा परिश्रम पूर्वक भोजपत्रों पर लिखी हुई हमारी स्तुति गोमाता को अर्पण कर दी है.

त्रिवार क्षमस्व!”

पंडित अमरसिंह के नेत्र भर आये. उन्होंने कालिदास को दृढ़ आलिंगन दिया और रुंधे हुए गले से बोले,

“कालिदास, ऐसा प्रसिद्धि पराङ्मुख कवि अनन्य है. अनन्य है आपकी साहित्यनिष्ठा, अनन्य है आपका एकाकी जीवन और अनन्य है आपकी लोकप्रियता. स्वयं के बारे में एक भी शब्द न कहने वाला और दूसरों को चातुर्य से जीतने वाला यह कवि अनन्य है. हमें वन्दनीय है.”

“अमरसिंह, मित्र...”

“अब हम कुछ भी नहीं कहेंगें कालिदास, क्योंकि अब आपका काव्य ही युगों युगों तक जनसंवाद करता रहेगा. मन में प्रश्न उठेंगे, आपके काव्य से आप दृष्टिगोचर होंगे, परन्तु वास्तविक कालिदास कौन है? उन्हें संशोधन करने दो. परन्तु हमारे हृदय में आप अनन्य हैं.”

कालिदास हाथ थामकर उन्हें भीतर ले गए. दोनों मौन थे.

 

***

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