Friday, 27 June 2025

एकला चलो रे - 6

 6

 

सुबह-सुबह सत्येंद्रनाथ ने कान्देवाडी चॉल में रहने वाले तर्खडकर के घर की कुंडी बजाई.

“यस, जस्ट कमिंग!” ये शब्द सुनते ही रवीन्द्र चकित हो गया. उसने अपना बक्सा ज़मीन पर रख दिया और दरवाज़ा खुलने की राह देखता रहा. आवाज़ युवा महिला की होगी यह बात उसके दिमाग में दर्ज हो गई.

दरवाज़ा खुला और पाश्चात्य वेशभूषा में एक युवती प्रकट हुई.

“गुडमॉर्निंग, वेलकम टू माय हाउस.” उसने सत्येन्द्रनाथ का बक्सा अपने हाथ में लेने की कोशिश की. हंसकर रवीन्द्र पर नज़र डाली. रवीन्द्र मन ही मन थरथरा गया. उसके मन में वह लुभावना चेहरा और अंग्रेज़ी भाषा अंकित हो गए.

डॉक्टर तर्खडकर बाहर आये और उन्होंने मनःपूर्वक दोनों का स्वागत किया.

“डॉक्टर, माय ब्रदर रवीन्द्रनाथ,” सत्येन्द्रनाथ ने परिचय करवाया.

“एण्ड माय डिअर डॉटर एना, अन्नपूर्णा.”

औपचारिक परिचय होने के बाद एना की माँ चाय-पोहे लेकर आईं. सबको नमस्ते कहने के बाद उसने स्वयं का परिचय दिया और कहा, “आपका भाई रवीन्द्र हमारे यहाँ रहने वाला है, यह सुनकर मुझे स्वयं को बहुत खुशी हुई. अन्नपूर्णा उसका उचित मार्गदर्शन करेगी. आप निश्चिंत रहें.”

कुछ देर बाद जब सत्येन्द्रनाथ उसे छोड़कर घर से बाहर आये तो सरकारी गाड़ी का ड्राईवर उनकी प्रतीक्षा कर रहा था.

“रोबी, जब चाहो, फ़ोन कर लेना. तो मैं चलूँ? मैं फ़ोन करता ही रहूँगा, परन्तु एक नया काम आया है, उसे ज़िम्मेदारी से करते हुए अगर न भी कर पाऊँ, तो तू फ़ोन कर लेना. बाय एव्हरीबडी.”

“क्या तेरा घर का नाम रोबी है?” उसने ‘हाँ’ कहा. तो फ़िर हम भी तुझे ‘रोबी ही  कहेंगे, जिससे तुझे परायापन महसूस न होगा,” अन्नपूर्णा की माँ ने कहा.

‘मगर मुझे ‘एना ही कहना हाँ. सब मुझे इसी नाम से जानते हैं. मेरे बाबा – आत्माराम पांडुरंग तर्खडकर, निवासी कांदेवाड़ी, मगर विद्यार्थी उन्हें इसी नाम से जानते हैं. वे तुझे अंग्रेज़ी व्याकरण पढाएंगे, मैं तुझे पाश्चात्य शिष्टाचार और अंग्रेज़ी बोलना सिखाऊँगी. ठीक है ना?

रवीन्द्र ने सहमति दर्शाई. सब लोग बैठकखाने में आये, तो डा. तर्खडकर ने पूछा, “तुम्हारी उम्र कितनी है, रवीन्द्र?

“सत्रह वर्ष.”

“एना अभी उन्नीस वर्ष की है. वह पंधरा साल पूरे करते-करते इंग्लैण्ड गई थी. वह भी अकेली. अभी दो ही महीने हुए हैं उसे वापस लौटे. वह सचमुच में तुम्हें मैनर्स सिखाएगी. हमारे भारतीय और पाश्चात्य रीति रिवाजों में फ़र्क होता है. हमारे यहाँ कोई औपचारिकता नहीं होती. हम कुछ भी कहे बिना, सूचित किये बिना, अधिकारपूर्वक किसी के भी घर जा सकते हैं. वहाँ ऐसा नहीं होता.”

काफ़ी देर तक सब लोग बातें करते रहे. एना उसे लेकर उसके लिए निश्चित कमरे में गई और कमरे में उसकी बगल में बैठते हुए बोली,

“नाऊ, वी आर फ्रेंड्स...इसलिए एकदम निःसंकोच होकर बात करना. समझ गए ना?

बगल में उसके बैठने से रवीन्द्र सकुचा गया था. साथ ही उसे कादम्बरी की भी याद आई. मेरे बिना उसे कैसा अकेलापन महसूस होता होगा, यह विचार आया. उसने मन ही मन कहा, “मैं चाहे जहां भी रहूँ, मेरे मन में तुम ही हो, छोटी भाभी. तुम्हारा हंसना, बोलना...तुम मेरी पहली वाचक और तुम्हीं मेरी प्रेरणा, तुम्हारे बिना मेरा अस्तित्व ही नहीं है. तुम्हारे प्रेम को मैं समझता था, परन्तु उसे स्वीकार नहीं कर पाया. शायद उतना साहस मुझमें नहीं था.

“कहाँ खो गए, रोबी?” रवीन्द्र  हौले से मुस्कुरा दिया.

उस समय खुल कर हंसने में भी उसे संकोच हो रहा था.

“कुछ नहीं, बस यूं ही. कुछ चीज़ें याद करके लाना चाहता था, उन्हें लाया अथवा नहीं यही सोच रहा था.”           

प्लीज़, किसी बात का संकोच न करो. अगर कोई चीज़ रह भी गई हो, और वह घर में न हो, तो मैं और तुम दुकान में जाकर ला सकते हैं.”

रवीन्द्र ने मन ही मन कहा,

‘मेरे और कादम्बरी के सहवास-काल को कैसे वापस ला सकते हैं? वह मुक्त कंठ से गाती थी, वो गीत कैसे लाऊँ? वह सहज ही कटोरी में तेल लेकर हौले से मेरे बालों में लगाती थी, तब उसके झुके हुए बाल कन्धों से आगे आकर मेरे गालों पर, कन्धों पर आते, उन बालों का स्पर्श कैसे लाऊँ? वह जब अकेली ही बारिश में खड़ी होती, तो अपने गीले बालों को जानबूझकर चेहरे पर झटक कर भाग जाती, वह बचपना मुझे किस दुकान में मिलेगा? कथा पढ़ते हुए, कविता गाते हुए उनकी गलतियाँ वह स्पष्ट रूप से बताती, वह स्पष्टता मुझे कहाँ मिलेगी? और छोटी-छोटी बातों में छुपा हुआ अत्यानंद मुझे कहाँ मिलेगा?’ वह मन ही मन कह रहा था.

एना, उसके चेहरे की ओर देखते हुए बोली,

“क्या कोई अत्यंत महत्वपूर्ण चीज़ घर में, ठाकुरबाड़ी में रह गयी है?

“नहीं, नहीं,” रवीन्द्र ने फ़ौरन संभलते हुए कहा.

“कल से मैं तुम्हें मैनर्स और मेरे बाबा अंग्रेज़ी पढ़ाएंगे, रोबी महाशय! और मैं आपको पूरी मुम्बई दिखाऊंगी. ठीक है ना?” रवीन्द्र हंस पड़ा.

“ये अच्छा है! जवाब देने के बदले हंस देना! रोबी, तुम्हारा हंसना लाजवाब है. बहुत सुन्दर दिखाई देते हो. सब मिलाकर तुम्हारा चेहरा, आंखें, हंसना सब कुछ सुन्दर है.”

वह निडर थी. रवीन्द्र संस्कारों से बंधी मर्यादा में था. आज तक सिर्फ एक ही बार ठाकुरबाड़ी से बाहर – पिता के साथ हिमालय गया था. उसकी बात सुन कर उसका मन खिल उठा.

अगले ही दिन से उसकी पढ़ाई आरम्भ हो गयी, वह भी अनायास ही. ‘गुड मॉर्निंग मिस्टर रवीन्द्रनाथ ठाकुर, इस वाक्य से, और ‘गुड नाईट मिस्टर रवीन्द्रनाथ ठाकुर’ तक. हर शब्द में निहित भाव और उससे संलग्न शिष्टाचार समझाने का उसने प्रयास किया.

स्वभाव से अत्यंत संकोचशील होने के कारण उसके साथ बोलते हुए या उसे उत्तर देते हुए वह उसकी तरफ देख भी नहीं रहा था.

“बाबूमोशाय...ज़रा ऊपर तो देखो...मेरी आंखों में देखो. मुझसे घबराते रहोगे तो काम कैसे चलेगा? इंग्लैण्ड के किसी परिवार में आपके रहने की व्यवस्था आपके बड़ो दा ने की होगी, वहां भी आप इसी तरह शर्माते रहे, तो कैसे चलेगा? ज़रा संकोच को छोडिये.”

 

एक सप्ताह बीतते-बीतते रवीन्द्र धीरे धीरे खुलने लगा. एना का हमेशा रवीन्द्र के पीछे-पीछे रहना, सदा सूचनाएं देते रहना, कभी पीठ पर हाथ रखकर उसकी सराहना करना, तो कभी उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे अपने निकट खींचना – बीच-बीच में रवीन्द्र को कादम्बरी की याद आती. उसका स्पर्श संकोचशील था, तो एना एकदम मुक्त थी. उन्नीस वर्ष की – वह हाल ही में इंग्लैण्ड से लौटी थी, और घर के सम्पूर्ण स्वातंत्र्य के कारण वह निःसंकोच हो गई थी. रवीन्द्र के साथ ये बात नहीं थी. ठाकुरबाड़ी, वहां उससे ज़्यादा उम्र की, माँ की आयु की भाभियाँ, और पिता समान बड़े भाई, घर पर आने वाले ज्येष्ठ लोग. केवल कादम्बरी ही समवयस्क थी. शारदादेवी की मृत्य के समय रवीन्द्र चौदह वर्ष का, तो कादम्बरी थी पन्द्रह वर्ष की. लगातार तीन साल उसके सहवास में वह अनजाने ही मूक संवेदनाओं का भागीदार हो गया था.,

अब एना थी सत्रह वर्ष की और वह था पंद्रह वर्ष का. वह मन ही मन हंसा.

एक दिन एना ने सहज ही उससे पूछ लिया, “रोबी, तेरे कितने निकटतम मित्र हैं?

“कोई नहीं, क्योंकि मैं घर में ही पढ़ा हूँ, शिक्षकों से.”

“फिर, तुम्हें क्या अच्छा लगता है?

“मुझे गीत-संगीत, नाट्य लेखन, नाट्याभिनय, लेख, कथा – यह सभी अच्छा लगता है, और मैं आठ वर्ष की आयु से कवितायेँ लिख रहा हूँ.”

“आठ वर्ष की आयु से कविता?

“हां, शायद उसका भी कारण होगा. बचपन में मुझे एक कमरे में बिठाकर नौकर चला जाता, तब खिड़की से मुझे निसर्ग दिखाई देता. उसे देखते-देखते मन की भावनाएं, शायद कविता में अवतरित होने लगीं. क्योंकि बोले बिना मन नहीं मानता, कभी वह स्वयं से बोलता है, कभी औरों से. स्वयं से बोलते हुए शब्दों की आवश्यकता होती है, उन्हींसे व्यक्त हुई कवितायेँ.

हमारे ठाकुर परिवार में मेरे सभी भाई अलग-अलग विषयों के तज्ञ हैं. कला के उपासक हैं.”

रवीन्द्र पहली बार दिल खोलकर बोल रहा था. “मेरी पहली कविता ‘अभिलाष प्रबोधिनी पत्रिका में प्रकाशित हुई. ‘अमृत बाज़ार पत्रिका में भी मेरी कवितायेँ प्रकाशित हुई हैं, और हमारे ठाकुर परिवार से भी ‘भारती नामक मासिक पत्रिका प्रकाशित होती है, उसमें मैं नियमित रूप से लिखता हूँ. शायद कम आयु का लेखक होने के कारण मेरी प्रशंसा होती होगी.” बोलते हुए वह रुका, कुर्सी पर बैठी हुई एना फ़ौरन उसके पास आई और उसने रवीन्द्र के गालों पर अपने होंठ टिका दिए.

रवीन्द्र सिहर गया, ऐसा अनपेक्षित सुखद अनुभव होगा, इसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी. वह शरमा गया और उससे कुछ दूर हटा, मगर एना ने उसे अपने निकट खींचा और उसके गले में हाथ डालकर बोली, “तुम कवी हो. सुन्दर-सुन्दर कल्पनाएँ तुम्हारे मन में आती होंगी. उसी तरह सुन्दर-सुन्दर नाम भी दिमाग में आते होंगे. मेरे लिए भी एक सुन्दर नाम ढूंढकर मुझे उपहार में दो.”

“तुम्हारा नाम ‘नलिनी रोबी ने फ़ौरन उत्तर दिया.

“अरे वा! अत्यंत सुन्दर और समर्पक. रवी उदय होने पर जो खिलती है, हंसती है वही नलिनी ना?!”

रवीन्द्र के मन ने कल्पना भी नहीं की थी, कि वह ‘नलिनी का अर्थ वह रवीन्द्र से जोड़ेगी. वह चौंक गया.

“रोबी, हम दोनों पर कोई कविता लिखो ना. स्मृति में रह जायेगी. वैसे तो तुम यहाँ से जाओ ही नहीं, या मुझे भी अपने साथ ले चलो, फिर याद ही क्यों आने लगी? सिर्फ तीन साल तुम इंग्लैण्ड में पढ़ाई के लिए रहोगे, तो विरह तो होगा ही. बस, उतने ही समय के लिए कविता चाहिए.”

रवीन्द्र अब कादम्बरी के सहवास का अर्थ भली-भांति समझने लगा था. ये उसका एकतरफा प्यार था, इस पर अब उसका विश्वास हो गया था. और एना का प्यार स्पष्ट है – मन और शरीर को उत्तेजित करने वाला. परन्तु इसकी चाहत होते हुए भी यह उचित नहीं है, यह रवीन्द्र जानता था.

“लिखो ना, रोबी, कविता!”

“ऐसे अचानक कैसे लिखी जायेगी?

“क्यों नहीं लिखी जायेगी? तुम कवी हो ना? ये लो कागज़, ये लो पेन. और मैं तुम्हारी तरफ़ पीठ करके बैठती हूँ.”

“मुझे तुम्हारी पीठ पर कविता नहीं लिखनी है.”

“रोबी, मैं यहाँ से जा रही हूँ, दस मिनट बाद आऊँगी, तब तक कविता तैयार होनी चाहिए, हाँ!”

“तुम बैठो. जैसा संभव होगा, वैसी कोशिश करूंगा...” वह फिर से बैठ गई. उन घने बालों की ओर उसका ध्यान आकर्षित हुआ, मोहक चेहरे की ओर ध्यान गया और उफ़नते चैतन्य की ओर ध्यान गया, वह बोली
“रोबी
, तुम्हारा चेहरा बहुत सुंदर है, कभी दाढ़ी बढ़ाकर उसे छुपा न लेना.”

वह अचानक ऐसा कुछ कह बैठेगी, ऐसा रवीन्द्र ने सोचा ही नहीं था. वह एकदम थरथरा गया. वह बोली, “अरे, लिख न कविता...तुमने मुझे नया, सुन्दर ‘नलिनी - यह नाम दिया है ना, तो फिर अपनी नलिनी को कविता दे.” सुबह का समय था. इमारत के ऊपर उदित हो रहा सूर्य था, उसने कागज़ पर बंगाली में कविता लिखी और नलिनी के सामने कागज़ रख दिया, वह उसे पढ़ ही नहीं पा रही थी. रवीन्द्र हंस पडा.

“पढ़ो, रोबी, पढो.”

“शुन नलिनी, खोलो गो आंख

धूम एखनो भांगिल न कि

देख तुमार दुयार परे

सखी एसेछे तोमार रवी...”

“अरे बाबा, मुझे समझ में आये, ऐसी मराठी में बताओ.

“देखो, नलिनी, मुझे सत्येन दा ने थोड़ी-थोड़ी मराठी सिखाई है. मैं मराठी में बोलूंगा, मगर हंसना नहीं.”

उसने गर्दन हिला दी.

“सुन, नलिनी, अपनी मुंदी हुई पलकें खोल. क्या अभी तुम्हारी नींद पूरी नहीं हुई? आँखें खोलकर देख तो सखी, तेरे द्वार पर रवी (सूर्य) आया है.”

यह सुनते ही उसने रवी को अपने बाहुपाश में ले लिया. उसका अंग-अंग रोमांचित हो उठा.

“मुझे मालूम है, रोबी, सूर्योदय से पूर्व रात को खिलने वाली कुमुदिनी कुम्हला जाती है, और क्षितिज पर सूर्य के पग रखते ही नलिनी जागृत हो जाती है, खिलती है, है ना?

वह जवानी की देहलीज़ पर खड़ा था, मगर नलिनी उससे दो वर्ष बड़ी थी. वैसे भी लड़कियां जल्दी समझदार हो जाती हैं. फिर इंग्लैण्ड में अध्ययन के लिए जब गई थी, तो वहां का मुक्त वातावरण उसने पूरी तरह आत्मसात कर लिया था. इसी दौरान उसकी एक स्कॉटिश युवक से मुलाकात हुई, मुलाकात का रूपांतर विवाह में हो गया. जीवन में आए इस आनंद में एना मगन हो गई थी.

परंतु दोनों में निभाव नहीं हो पाया और वह उसे छोड़कर भारत चली आई. जीवन में उत्पन्न इस खालीपन में रवीन्द्र ने प्रवेश किया. रवीन्द्र ने एक भी कदम आगे नहीं बढाया था, मगर एना का विरोध भी नहीं किया था.  

एक दिन सुबह-सुबह एना उसके कमरे में आई और उससे सटकर बैठ गई. तब उसने अचानक कहा,

“ये क्या कर रही हो, एना...छिः ...छि:...”

वह उठकर बाहर आई और कुछ ही देर में हाथों में एक डोरी लेकर आई.

“रोबी, क्या तुम्हारे यहाँ ये ‘रस्सीखेंच’ खेल खेला जाता है? चल, आज तुम और हम खेलेंगे. तुम ताकतवर हो, तुम ही जीतोगे, मगर मैं अपनी शक्ति अवश्य आज़माऊँगी.”

मगर उसने डोरी फेंक दी और अपना हाथ आगे बढाया. “देखें, कौन किसको हराता है!”

रवीन्द्र ने तैश से उसका हाथ पकड़ लिया और दोनों ईमानदारी से यह खेल खेलने लगे. अचानक उसने हाथ हलके से खीचा और वह हौले से उसके शरीर पर झुकी. रवीन्द्रनाथ को यह अच्छा नहीं लगा था, मगर उसने कुछ कहा नहीं.

आजकल वह कादम्बरी के ही समान उसके आगे-पीछे रहती थी. उसे अकेलेपन का अनुभव न हो इसलिए उसे अनेक चुटकुले सुनाती, इंग्लैण्ड के अनुभव सुनाती, उसे सदा प्रसन्न रखने का प्रयत्न करती. उसके सारे किस्से, विनोद इंग्लैण्ड के थे.

तर्खडकर परिवार में उस समय स्वयं को पाश्चात्य संस्कृति से जोड़ने का प्रयत्न चल रहा था, और अक्सर माँ पूजा करने और पिता लिखने बैठते तो एना के पास भी पर्याप्त समय होता.

एक दिन तर्खडकर परिवार किसी विवाह समारोह के लिए बाहर गया था. घर में दादा-दादी थे, नौकर थे. एना घर में ही रुकी थी. दोपहर का समय. एना रवीन्द्र के कमरे में आई और इंग्लैण्ड के अनेक किस्से सुनाते हुए बोली, “रोबी, तुम्हें बताती हूँ रोबी, इंग्लैण्ड की कुछ प्रथाएं बहुत सुन्दर हैं. एक तो वहां की ठण्ड में कोई भी अपने दस्ताने और जुराबें उतारते नहीं हैं. मगर मानो यदि किसी युवती ने गलती से दस्ताने उतार कर रख दिए और वे किसी नौजवान को मिल गए, तो वह नौजवान अधिकारपूर्वक उस युवती का चुम्बन ले सकता है. इसलिए वहां की युवतियां दस्तानों के प्रति सजग रहती हैं.”

रवीन्द्र किताब पढ़ रहा था और सुन रहा था. एना ने अपने साथ लाये हुए दस्ताने कुर्सी के पास डाल दिए और वहां से निकल गई. कुछ देर बाद आकर उसने देखा कि रवीन्द्र दीवार की तरफ मुंह किये लेटा है. वह कुछ देर बाद फिर आई तो वह नौकरानी से कह रहा था,

“मैडम के ये दस्ताने उन्हें दे देना, वे यहाँ भूल गईं थीं.”

एना ने अपनी आंखें पोंछी. यह भावनाशून्य नौजवान कुछ समझता क्यों नहीं है, यह प्रश्न उसके मन में उठा.

मगर रवीन्द्र नियमित रूप से दीर्घ काव्यखंड ‘काव्यकाहिनी नियमित रूप से लिख रहा था. मासिक पत्रिका ‘भारती से वह क्रमशः प्रकाशित हो रहा था. इसी समय वह मन में उमड़ती प्रणय भावना लिख रहा था. ये सब बंगाली में होने के कारण एना पढ़ नहीं सकती थी. फिर भी बीच-बीच में वह उसे अर्थ समझाता, तब वह मन ही मन प्रसन्न होती.

लगभग तीन महीने हो चले थे, अब इंग्लैण्ड जाने के दिन निकट आ रहे थे. एना परेशान थी, निराश हो रही थी, उसके आस-पास होने पर भी अस्वस्थ हो रही थी.

“रोबी, क्या तुम्हें मेरी याद आयेगी?

“एना, जीवन की सुनहरी सुबह की ऊर्जा देने वाली यादों को भला कोई कैसे भूल सकता है? क्या किसी की रिक्तता कोई भर सकता है?” रवीन्द्र के मन में कादम्बरी थी, और प्रत्यक्ष में एना थी. दोनों ही खिलती हुई कलियाँ थीं, परन्तु एना विवाहित जीवन का आनंद उठा चुकी खिलती कली थी, और कादम्बरी की किस्मत में खिलने का भाग्य लगभग था ही नहीं.

वे दोनों बातें कर ही रहे थे, की सत्येनदा के ऑफिस का एक चपरासी आया और बोला, “चार दिन बाद, सोमवार को तैयार रहना, सत्येनदा भी आपके साथ इंग्लैण्ड आ रहे हैं. उसके जाते ही, एना बोली,

“रोबी, तुम मेहमान हो, जाने वाले हो, यह जानते हुए भी मैं यह बात बिल्कुल भूल गई थी. अब तुम्हारे बिना जीना मेरे लिए कठिन होगा. इंसान किसी न किसी तरह ज़िंदा तो रहता है! क्योंकि समय ठहरता नहीं, और आत्महत्या करना सबके बस की बात नहीं होती.”

रवीन्द्र को भी महसूस हुआ, वह समूचे मन पर छा गई है. वह मन से कभी नहीं जा सकती. क्षण भर के लिए उसे समझ में नहीं आया, कि क्या करे. पल भर में ही उसका चेहरा स्याह हो गया था, जैसे आकाश को कृष्ण मेघों ने ढांक लिया हो.

“तुम मुझे मुम्बई का समुद्र दिखाने वाली थीं, ना एना?

“तुम तो इंग्लैण्ड पहुँचने तक समुद्र के ही दर्शन करते रहोगे. मुम्बई के अखंड सागर से ही तुम जाओगे. अब तुम्हारे लिए समुद्र का क्या कुतूहल रहेगा?” वह अत्यंत दुखी हो गई थी. आंखों में आषाढ़-सावन जमा हो गए थे.  

“देखो, एना, अभी मेरे जाने में चार दिन शेष हैं. तब तक हम प्रसन्न रहेंगे. आज तक तुम्हारा हंसता हुआ चेहरा और छलकता हुआ उत्साह देखा. वही रूप मेरे मन में रहने दो.”

“कितनी आसानी से कह रहे हो, रोबी.”

“सही है, कि मैं मेहमान के रूप में इस घर में आया था. मगर तुमने और घर के अन्य लोगों ने इस बात का एहसास नहीं होने दिया. पहली ही मुलाक़ात में तुमने मुझे अपना बना लिया. मैंने ये कहा नहीं था, मगर यहाँ आने पर मन में अनगिनत मर्यादाएँ थीं. मेरे मन को तुम्हारा मुक्त व्यवहार प्रसन्नता देता था. मेरे हाथ बढ़ाते ही तुम मुझे अपनी बांहों में ले लेतीं. पिछले तीन महीने मैंने स्वयं को कैसे संभाला, यह मैं ही जानता हूँ.” रवीन्द्र आज पहली बार मन की बात बता रहा था, उसे अपने यौवन का पूरा ज्ञान  हो चुका था.  

“इन तीन महीनों में मैंने हर पल पूरे मन से जिया है. मेरा विवाह हो चुका था, और उस पति को मैंने छोड़ भी दिया था. परन्तु तुम्हें मैं कभी भी नहीं छोडूंगी. तुम्हारे बिना मैं रह नहीं पाऊँगी, ये सत्य है. सच्चे प्रेम का परिचय मुझे हो गया है.”

कितनी ही देर वे दोनों बातें कर रहे थे. ख़ास तौर से, हमेशा की तरह एना ही बोल रही थी. रोबी सुन रहा था, हर बात वह मन से कह रही थी, यह अनुभव उसे हो रहा था.

अगले तीन दिन बातों में ही बीत गए. सुबह-सुबह एना उसके कमरे में आई. वह तैयार हो रहा था.

उसने पीछे से रोबी को अपनी बांहों में भर लिया. उसकी आंखें छलक रही थीं. रोबी ने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में लिए और बोला,

“अन्नपूर्णा, मैं तुम्हें कभी भी भूल नहीं पाऊंगा. इंग्लैण्ड से सीधे यहीं आऊँगा. तभी कुछ कहूंगा, मगर इतना कहे जाता हूँ कि तुम मुझे अच्छी लगीं. मैं वापस आऊँगा.”

कुछ ही देर में दरवाज़े पर गाडी खड़ी हो गई. अन्नपूर्णा बाहर ही नहीं निकली. डा. तर्खडकर ने उसे बिदा किया. रोबी के मन का आकाश भी बस बरसने को तैयार था.

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