18
“रथी, शमी,’ रवीबाबू ने पुकारा. दोनों
भागते हुए आये. शमीन्द्र उनकी गोद में बैठा. उन्होंने श्रीराम की कथा सुनाना आरंभ
किया. आधे घंटे तक वे श्री राम कथा सुनाते रहे.
“बाबा, श्री राम के तो तीन भाई थे.
मतलब,
वे चार थे. मेरा तो एक ही भाई हैं, शमी. फिर?”
“फिर क्या, तुम श्री राम और शमी
लक्ष्मण.”
“क्या हमें वन में जाना
पडेगा?”
“रथी, हमें सियालदह जाना है. वहां
भी अरण्य है,
परन्तु वहां हम सब जाने वाले हैं. वहां कोई राक्षस नहीं है. मनुष्य हैं –
सीधे-सादे मनुष्य.”
वे रुके और उन्होंने रथी से कहा, “सुरेन्द्र को बुलाकर ला.”
वे दोनों भागते हुए गए और रवीबाबू के भतीजे सुरेन्द्र को साथ लेकर आये
“क्या बात है, काका?”
“अरे, रथी, माधुरी, रेणुका बड़े हो गए
हैं,
उन्हें रामायण,
महाभारत को समझना चाहिए. अपने यहाँ काशीरामदास द्वारा बंगाली में अनुवादित ग्रन्थ
उपलब्ध हैं. तुम ऐसा करो,
सुरेन्द्र,
तुम बच्चों के लिए महाभारत और रामायण की संक्षिप्त आवृत्ति प्रकाशित करो.”
“दोनों?”
“अच्छा, ‘रामायण’ की संक्षिप्त कथा
हम शमी की माँ से लिखने को कहते हैं, तुम संक्षेप में ‘महाभारत’ लिखो, फिर तो ठीक है?” उसने प्रसन्नता से ‘हाँ’ कहा. सत्येन्द्रनाथ ने
यद्यपि कहा था कि रथींद्र को ठाकुरबाड़ी में रहने दे, फिर भी वे प्राथमिक शिक्षा के दौरान रथींद्र और
बेटियों को अपने सहवास में रखना चाहते थे. तब तक वे यहाँ न रहते हुए सियालदह में
रहेंगे,
ऐसा वे सत्येन्द्रनाथ से कहने वाले थे. कम से कम साल भर तो सबके साथ रहने का उनका
विचार था.
फिर भी उसे अमल में लाने में
देर लगाने वाली है,
यह उन्हें स्पष्ट नज़र आ रहा था. अब वर-संशोधन, लिखी हुई कथाओं, कविताओं का प्रकाशन
और बोलपुर के शान्तिनिकेतन की कल्पना के सन्दर्भ में एक आलेख तैयार करना.
सबसे पहले उन्हें सियालदह में एक विशाल घर बनवाना था. यहाँ से जाकर वहां संसार
बसाना सरल नहीं था.
उन्होंने मृणालिनी से कहा,
“छुटी, तुम्हारी क्या राय है?”
“मैं आपसे सहमत हूँ.”
“परन्तु, हम क्या पूछने वाले हैं, वह तुम्हें कैसे मालूम?”
“हमें सियालदह रहने के लिए
जाना है,
यही ना?”
“तुमसे किसने कहा?”
“किसी ने नहीं. आपने पूछा
नहीं. परन्तु हर पत्र में आपकी भावना समझ में आती है. परन्तु मैंने जानबूझकर उस पर
ध्यान नहीं दिया,
क्योंकि...”
“ऐसा क्या कारण है?”
“बेला छोटी ही थी कि रथी का
जन्म हुआ. रथी-बेला अभी छोटे ही थे कि रेणुका, मीरा और अब शमीन्द्र का जन्म हुआ है. इन छोटे बच्चों
का खानापीना,
दवा-दारू,
उन्हें संभालना,
हरेक की तरफ़ ध्यान देना,
मेरे लिए कैसे संभव था? यहाँ नौकर चाकर हैं. भाभियाँ हैं, और इस समय सहायता के लिए
बहुत कुछ है. बेला,
रथी, रेणुका को पढ़ाने के लिए शिक्षक घर आते हैं. क्या सियालदह में यह सब संभव था?
इसलिय मैं उस संबंध में एक भी शब्द नहीं कहती थी.”
“सही में, छुटी, पुरुषों के दिमाग में यह बात
नहीं आती. हमारा सचमुच इस ओर ध्यान नहीं गया. हमारे पत्रों से तुम्हें कष्ट हुआ
क्या?”
“पत्रों से यह ज्ञात होता था, कि आप अत्यंत एकाकी हैं, और आपके साथ हैं शब्द और
केवल शब्द, यह एहसास हमेशा होता था. परन्तु मेरी भी कठिनाइयां थीं. मैं भी बेबस
थी, अब आप समझे ना?
परन्तु बेला और रेणुका का विवाह होने तक मुझे यहाँ रहना पडेगा. फिर भी हम सब सचमुच
बोलपुर आयेंगे,
अभी,
आपके साथ. फिर वापस आकर दोनों के विवाह होने पर हम वहीं आयेंगे, शत प्रतिशत.”
अब रवीबाबू को बोलपुर के
शान्तिनिकेतन की याद आई. वहां के मर्यादित सामान की याद आई और वे बोले,
“बहुत सारी परेशानियों में
बच्चों को रहने में मुश्किल होगी.”
“ऐसा क्यों कहते हैं? सब ठीक हो जाएगा. और जब कहते
हैं कि कुछ ही महीनों में वापस लौटना है, तो निश्चित ही सब ठीक हो जाएगा. कम से कम पद्मावती
नदी,
इच्छामती नदी,
आपका शान्तिनिकेतन – यह सब देखकर उन्हें भी जीवन का दर्शन होगा.”
फिर उन्होंने उसे आश्रमशाला
के बारे में कल्पना दी. यह इच्छा भी प्रदर्शित की, कि रथींद्र की प्राथमिक स्तर की
शिक्षा वहीं पर हो, और मृणालिनी से खुशी से सहमति जताई.
अब रवीबाबू को बहुत सारे
निर्णय लेने थे – शान्तिनिकेतन आश्रमशाला के लिए एक नाम, उसका स्वरूप, बच्चों के रहने की व्यवस्था, शिक्षाक्षेत्र में प्रयोग करने संबंधी आलेख, अभ्यासक्रम, उसके लिए आवश्यक धन राशि का
की व्यवस्था – यह सब कुछ निश्चित करना था.
मृणालिनी का प्रश्न हल हो गया
था. अब सभी दृष्टिकोणों से विचार करके आश्रमशाला निर्माण करने का प्रश्न था.
उन्हें बहुत खुशी हो रही थी. सोचा हुआ कार्य विशाल स्वरूप में और सर्वाधिक
नाविन्यपूर्ण हो,
इस दृष्टि से अब वे प्रयत्न करने वाले थे और मन में बहुत प्रसन्नता का अनुभव कर
रहे थे.
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