“आर्य, कल जब आप
आये तो ‘उषा सूक्त’ का उल्लेख किया था. ऋग्वेद के जिस सर्ग में ‘उषा सूक्त’ है उसके
बारे में आज हमें बताएँगे?”
“अवश्य. हमें भी ऋग्वेद
अनेक कारणों से प्रिय है. हम ऋग्वेद में वर्णित अन्य देवताओं के बारे में भी अवश्य
बताएँगे.”
“यदि आप माध्याह्न के भोजन के लिए
आयें तो...” मधुवंती ने कहा, और फ़ौरन ही उसने आगे कहा,
“आप रात्रि के पूर्ण प्रहार में ही
आयें, वही योग्य है.”
“मधुवंती!” कालिदास ने सिर्फ इतना
ही कहा और मधुवंती के नेत्र भर आये.
“रात के अँधेरे में
हमारे जीवन में प्रकाश देने वाला कोई आता है, और हमारा जीवन ही प्रकाशित कर
जाता है. परन्तु दिन में?”
उज्जयिनी में आने पर साहस करके
सम्राट चन्द्रगुप्त से भेंट हुई. निवास की व्यवस्था भी हो गई. कुछ दिन चैन से
बीते. मगर जैसे-जैसे आसपास के परिवारों से परिचय होने लगा, वैसे वैसे अकेलेपन का अनुभव होने
लगा. शाम को उपवनों में, जलाशय के निकट, क्षिप्रा के किनारे पर, बाज़ारों, में, दुकानों में, रास्तों पर – जहाँ भी
नज़र जाती नवयुवतियां, विवाहित स्त्रियाँ, और उतना ही सम्मान प्राप्त राजमान्य गणिकाएँ भी दिखाई
देतीं. मन पर संयम रखा जा सकता था, परन्तु देह अनावर हो जाती थी. देह के भीतर स्थित मन
उतना ही अधीर, आतुर हो जाता किसी को अपना बनाने के लिए.
परन्तु मन साहस न करता. हर पुरुष
के पास उसकी अपनी पत्नी है, परन्तु हम?
एक बार सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा
था, “कविराज, कविता के शब्दों से
मन में मयूर नृत्य करने लगते हैं, कोयल पुकारने लगती है, देह और मन आतुर हो उठते हैं किसी
को भी समर्पित करने के लिए. क्या ऐसे समय में आपको यौवन सुलभ भावनाओं की अनुभूति
नहीं होती?”
और तब अनेक वर्षों से ह्रदय में
छुपाये हुए प्रण का उन्होंने उल्लेख कर दिया था.
“महाराज, जब तक हम “अस्ति कश्चित् वाग्विशेष:?” का
उत्तर नहीं दे देते, तब तक
विवाह नहीं करेंगे.”
“हम आपसे प्रण
तोड़ने के लिए कभी नहीं कहेंगे. मन में किये हुए संकल्प को पूर्ण करने में ही
पुरुषार्थ है. परन्तु ईश्वर निर्मित देह में जो मन है, यदि वह
अस्वस्थ हो तो...”
“ऐसे में मन पर
संयम रखना ही एकमेव मार्ग है ना?”
“कविराज, आप आयु में
हमसे छोटे हैं. अनेक युद्ध करते हुए हमें विजय प्राप्ति के लिए मृत्युपर्यंत
संघर्ष ही दिखाई देता है, परन्तु
जब अश्व वापसी के मार्ग की और मुड़ते हैं, तो हमारी देह और मन आतुर हो उठते हैं पत्नी के
लिए.”
कालिदास ने कुछ
नहीं कहा. बोलने जैसा कुछ था ही नहीं. सम्राट सत्य ही कह रहे थे. उनके मौन को
सम्राट ताड़ गए. वे बोले,
“कविवर, आपने हमारे
दिल को जीत लिया है, एक
सखा की भाँति. अनेक पारिवारिक बातें भी हमने आपके साथ की हैं. बिना किसी संकोच के.
अतः हम आपको एक सुझाव देना चाहते हैं...”
और उन्होंने
कालिंदी, आभा,
सुनेत्रा,
मधुवंती...ऐसे अनेक नाम सुझाए और बोले, “हम न्याय करते हैं. हम दंड देते हैं. हम अधिकार
प्रस्थापित करते हैं, हम साम्राज्य का विस्तार करते हैं. यह सब करते हुए भी हम
रसिकता को भूले नहीं हैं, कविराज. आप जैसे गुणज्ञ, रूपवान युवक को ऐसी भयानक
प्रतिज्ञा करनी ही नहीं चाहिए. जो समाप्त हो गया, उसे भूतकाल समझ कर उस दिन का त्याग
करके वर्त्तमान को जीना चाहिए. सुखद. मन को प्रसन्न करने वाला.”
“मान्य है, महाराज.
परन्तु जब घाव दिल में बहुत गहरा पैंठ गया हो, तो वर्त्तमान का पट्टीबंधन और औषधी का कोई उपयोग
नहीं होता. समय चाहे कितना ही आगे सरक जाए, परन्तु जीवन का वह क्षण ही पूरी ज़िंदगी पर हावी
हो जाता है.”
“अस्तु! कविराज, आजकल क्या
अध्ययन कर रहे हैं?”
कालिदास दिल
खोलकर हँसे.
“ क्या ये
व्यर्थ का प्रश्न था?”
“नहीं, महाराज.
अत्यंत सुसंगत प्रश्न था. और आज कल अध्ययन कर रहा हूँ वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’
का.”
दोनों ही दिल
खोलकर हँसे थे. कालिदास को इस क्षण भी महाराज के मुक्त हास्य का स्मरण हो आया.
उन्होंने कहा था, “जल
में रहकर भी आप सूखे ही रहे?”
“अब आपके सुझाव
के अनुसार जल में रहने का मार्ग पूछता हूँ. उसके बाद ही...”
और वे कालिंदी
के पास गए थे. नृत्यांगना कालिंदी श्याम वर्ण की, परन्तु अत्यंत चंचल थी. दो–तीन
बार उसके नृत्य देखकर वे प्रभावित भी हुए, परन्तु मन वहाँ लगा नहीं.
सुनेत्रा
राजसभा के आग्नवैश की कन्या, उसने विवाह न करके स्वेच्छा से गणिका का मार्ग चुना
था. कालिदास को ह्रदय से अच्छी लगी थी. भोली-भाली सुनेत्रा उनसे अनेक बार मिली थी.
परन्तु मधुवंती एक ही बार क्षिप्रा के तट पर दिखी थी. वे मंत्रमुग्ध हो गए. उसे भूल न सके. एक दिन
वे अस्वस्थ मन से उसके निवास पर गए. उसने उनका स्वागत किया, “आएं, आर्य...”
वास्तव में इन
शब्दों ने ही उन्हें जीत लिया था. उनमें अपार स्नेह था. जब उन्होंने प्रवेश किया, तब वह कुछ पढ़
रही थी. उसने भोजपत्र उठाकर रख दिए, और बोली,
“आर्य, आपके
आगमन की कबसे प्रतीक्षा थी.”
“ऐसा क्यों? आज मध्याह्न तक
, और कुछ समय पूर्व तक यह विचार नहीं था.”
“आप अवश्य
आयेंगे, ऐसा
मेरा मन मुझसे कह रहा था. क्षिप्रा के जल में अर्घ्य देते हुए कई बार आपको देखा और
जब से आपको देखा, तबसे
हमने कभी किसी से संपर्क नहीं किया. किसी के सहवास में नहीं आये, आपके अतिरिक्त
किसी अन्य का स्मरण नहीं किया. आप शायद विश्वास न करें, परन्तु मन से
आप हमारे पति हो गए हैं!”
उस रात उसने मन
का पूरा आकाश उंडेल दिया.
मधुवंती के
अनेक गुण दिखाई देने लगे थे. उसने गुरू से वेदविद्या का अध्ययन किया था. उसका
अध्ययन और उसकी लगन उन्हें अच्छी लगी. मधुरभाषिणी तो वह थी ही, परन्तु बीच
बीच में उनसे प्रश्न पूछकर वैदिक ज्ञान को गहराई से प्राप्त करने का प्रयत्न उन्हें
अच्छा लगता था. उसने भी उनसे प्रश्न पूछा था,
“आर्य, आप राजकवि
हैं. प्रकृति के भाष्यकार हैं. आपके स्फुट काव्य की कुछ पंक्तियाँ हमें भी कंठस्थ
हैं. वर्त्तमान में आप क्या लिख रहे हैं?”
“अवलोकन कर रहा
हूँ,
वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ का.” सम्राट
चन्द्रगुप्त जैसी ही वह भी दिल खोलकर हंसी थी. बोली थी,
“आचार्य, क्या सचमुच
में कामशास्त्र का अध्ययन करना पड़ता है?”
इस प्रश्न का
उत्तर कालिदास न दे सके. ‘प्रकृति की प्रीती की भाषा, वन्य
पशु-पक्षियों का प्रणय, और
मानवी प्रणय – क्या इनमें संवेदनाओं का अंतर हो सकता है? स्पर्श की मौन
भाषा सबको सहज ही समझ में आती है, फिर वात्स्यायन को क्यों आवश्यकता पडी? इसके बारे में
शास्त्र लिखने का विचार क्यों आया?
क्या श्रृंगार
के नियम होने चाहिए? क्या
उसका भी शास्त्र होना चाहिए? क्या अभ्यास करके ही श्रृंगार करना चाहिए? क्या रती का
सौन्दर्य ही मापदंड होना चाहिए? उनके मन में प्रश्न निर्माण हो ही गए थे.
मधुवंती के प्रश्न का उन्होंने उत्तर नहीं दिया था.
परन्तु उसके
पूछे प्रश्नों से प्रकृति के प्रेम की भाषा का बोध उन्हें हो गया था. संवेदनाओं का
अर्थ समझ में आ गया था. प्रीत बहार पर थी, उसके प्रत्येक पल का उपभोग वह ले रहे थे. उन्हें
लगा कि शायद यह वात्स्यायन के कामसूत्र का प्रभाव हो.
वे क्षिप्रा के
तीर पर पहुंचे. उस विशाल जल प्रवाह को देखते हुए उनका मन प्रसन्न हो गया. और उषा
सुन्दरी के राजमहल से निकले रविराज को उन्होंने अर्घ्य प्रदान किया. अब मन स्वस्थ
था.
***
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