“पधारें, आर्य! आज ढलती दोपहर में?” मधुवंती ने कालिदास से पूछा.
कालिदास ने
कुछ नहीं कहा, सीधे पलंग पर
बैठ गए. उनका प्रसन्न मुखमंडल आज निस्तेज चन्द्रमा के समान प्रतीत हो रहा था.
अंतर्मन की व्यथा उन्होंने कभी भी प्रकट नहीं की थी. वैसे भी उसका अधिक सहवास था
ही कहाँ? किस अधिकार से वह पूछने वाली थी? वे उसके पति नहीं थे. पूर्व में उसके साथ रात बिताने के
लिए आने वालों जैसे भोगविलासी न थे. वे विद्वान, रसज्ञ, गुणग्राहक, सुन्दरतम, सुदृढ़ कालिदास थे. राजकवि का सम्मान उन्हें
प्राप्त था. वे विवाहित नहीं थे, यह स्पष्ट था, परन्तु
विवाह क्यों नहीं किया, और क्यों करना नहीं चाहते, यह सब उसके लिए अनाकलनीय था.
“आर्य, भोजन हो गया होगा!”
“नहीं, और अब पुनश्च दूसरा सत्र नहीं है इसलिए आ गया.”
“परन्तु
भोजन क्यों नहीं किया?
स्वास्थ्य...” वह रुक गई, उसने उनका हाथ पकड़ा और बोले, “अब उठिए, ऐसे
देर-सबेर भोजन करना अच्छा नहीं होता. फलाहार करें. परन्तु ऐसा विलम्ब क्यों किया? क्या कार्यनिमित्त कहीं जाना पडा?”
“कितने
प्रश्न, मधुवंती?” वे प्रसन्नता से हँसे. “बिलकुल समयानुसार भोजन करना
कभी कभी संभव नहीं होता. आज तो सभा में तीन युवतियां आई थीं”
उन्होंने वह
प्रसंग सुनाया तो वह प्रसन्नता से हँसते हुए बोली,
“प्रत्येक
स्त्री को उसकी इच्छानुसार कार्य करना संभव होना चाहिए.”
“सखे, मधुवंती, अगर तुम्हें अनुमति मिले तो तुम क्या करोगी?”
वह सोचने
लगी. सचमच, वह क्या
करने वाली थी? उसे भी
सोच-समझ कर पति के, परिवार के सारे स्नेह संबंध स्थापित करने थे. उसे भी तो
कन्या-पुत्र की लालसा थी. परन्तु वह हो गई भोगादासी. इच्छा न होते हुए भी हो गई. उज्जयिनी
में स्थित एक गणिकालय में उसके माता-पिता ही उसे एक दिन छोड़ गए थे. तब वह अबोध थी.
क्यों छोड़ा था, यह बात उसे
काफी विलम्ब से पता चली. आठ कन्याएं होने के बाद पुत्र प्राप्ति के लिए अनेक व्रत
करने वाले उन निर्धन माता-पिता को नवीं भी कन्या ही हुई. वही थी मधुवंती. उसका
मार्ग उसके लिए तैयार किया गया था. अगर उसे मंदिर में छोड़ते तो वह देवदासी हो गई
होती. दास्यत्व से मुक्त होना उसके लिए संभव नहीं था, परन्तु स्वयँ की उन्नति करते हुए जो भी कार्य मिला है, उसे प्रामाणिकता से करते रहने की उसकी इच्छा थी.
अर्थार्जन के लिए गणिकालय में और क्या प्राप्त हो सकता था? परन्तु उसने अत्यंत परिश्रम से ज्ञान प्राप्त किया. उसे
‘काव्यालंकार’,
‘शास्त्रकार’, ‘पंडिता’ – इन
उपाधियों से सम्मानित किया गया. समाज का उसकी ओर देखने का दृष्टिकोण यद्यपि
परिवर्तित हो गया था, परन्तु
उससे विवाह करने वाला अब तक कोई आया नहीं था. अर्थार्जन के लिए गणिका होना उसके
लिए क्रमप्राप्त था. उसीसे उसने अपने लिए प्रासाद का निर्माण किया. छोटा था, परन्तु वह प्रासाद ही था. पूरा वैभव प्राप्त हो चुका
था. अनेक लोगों को उसके चित्र प्रिय थे. उसके पास आने वाले व्यक्तियों में से एक
ने उस पर प्रसन्न होकर उसके चित्रों को देश-विदेशों में मान्यता प्राप्त करने का
मार्ग बताया था.
वह भिक्षुणी
संघ में गई. अपनी स्थिति का वर्णन करते हुए उनसे चित्रों का व्यापार करने की विनती
की. वे प्रत्यक्ष चित्र तो नहीं ले गईं, परन्तु उसकी प्रसिद्धी की. और आर्यावर्त के धनिकों के घरों में उसके चित्र
लगाए गए.
रेशमी
वस्त्रों पर रेशमी धागों से की गई उसकी कला
उज्जयिनी के क्रय-विक्रय केंद्र में आई, अनेक शास्त्रों में उसकी प्रगति
देखकर अनेकों ने ज्ञानार्जन के लिए उसकी सहायता ली. परन्तु फिर भी वह सुप्रतिष्ठित, लावण्यवती गणिका ही तो थी.
अब गणिका का
व्यवसाय नहीं था, परन्तु फिर
भी देह भोग की आदत उसकी देह को तो थी ही. वैसे कौन था उसका पति? आने-जाने वाले, समाधान प्राप्त करने वाले! अब इसी में उसने भी अपना
समाधान ढूंढ लिया था.
और कालिदास
आये. उसने मनःपूर्वक सर्वस्व अर्पण किया, वे नित्य यहीं रहें, यह प्रार्थना की, अब वे और सिर्फ वे ही उसके जीवन में रहें, यही उसकी कामना थी. कालिदास ने पुनः पूछा,
“सखी, यदि तुम स्वतन्त्र हो गईं, तो क्या करोगी?”
उसने उनके
सम्मुख कुछ मिष्ठान्न और फल लाकर रखे. वे अब आसन पर विराजमान थे, वह भूमि पर बैठी थी. विचारों में खोई हुई. उन्होंने
उसके मस्तक पर हाथ रखा. उसकी आंखें भर आईं. उन्होंने उसे दृढ़ आलिंगन में बाँध
लिया.
“क्या हमारा
प्रश्न अनावश्यक था?”
“नहीं, आर्य, ऐसा नहीं! स्मृतिकारों ने, शास्त्रकारों ने अपने ग्रंथों में लिखा है कि
स्त्री पति की संपत्ति की उत्तराधिकारी होती है, उसका स्त्री धन भी होता है. याज्ञवल्क्य ने तो
दुश्चरित्र स्त्री को किसी भी प्रकार के अधिकार न दिए जाएँ, ऐसा लिखा है. अत्रि और देवल ऋषियों ने भी व्यभिचार करने
वाली स्त्रियों को समाजबाह्य माना है. अत: पूरी तरह परतंत्र, दुश्चरित्र स्त्री
किस स्वातंत्र्य को अधिकारपूर्वक ले सकती है? और कौनसा समाज उसे अधिकार देगा?
“लगता है, कि कुछ शास्त्रों का तुमने उचित अध्ययन नहीं किया है.
प्रिये, कुछ शास्त्रों में ऐसा भी लिखा है कि प्रतिमास होने वाले रक्तस्त्राव के
कारण वह पूरी तरह शुद्ध हो जाती है, अतः...”
मधुवंती के
नेत्र आषाढ़ मेघ होकर बरसने लगे. तब कालिदास ने उसे अपने पास बिठाया, उसका सांत्वन करते हुए बोले,
“हे
चारुगात्री, तुम गंगा
जैसी पवित्र हो. देह का भोग और मन का आनंद – इनके बीच का अन्तर तुम्हें ज्ञात है.
हे लावण्यलतिके, तुम्हारी देह के लावण्य को किसी का स्पर्श हुआ होगा, परन्तु तुम्हारे पवित्र मनमंदिर में किसकी प्रतिमा है, बताऊँ?”
“क्या सोचते
हैं, आर्य? किसकी प्रतिमा हमारे मन मंदिर में हो सकती है?”
“विश्वास है, मन में प्रतिमा, प्रतिमा पर
श्रद्धा और विश्वास रखे बिना जीवन को अर्थ नहीं प्राप्त होता.”
वह पूछना
चाहती थी, ‘आपके मन में किसकी प्रतिमा है, जिस पर आपकी श्रद्धा है, जिस पर आप नितांत स्नेह करते हैं?’ परन्तु वह मौन रही. कालिदास ही बोलते रहे और उन्होंने
सहज ही कहा,
“ प्रत्येक
स्त्री के मन में एक श्रीकृष्ण ही होता है, उसी तरह राधा भी प्रत्येक पुरुष के हृदय में होती है.
अस्तु! परन्तु तुम्हारे जीवन में, मन में हमारी ही प्रतिमा चित्रबद्ध करके उस
प्रतिमा पर अनन्य प्रीती करती हो ना?”
उसने
लज्जापूर्वक दोनों हाथों से अपना मुखमंडल ढांक लिया. उन्होंने उसका मुख अपनी ओर
किया. वह ऐसी प्रतीत हो रही थी, मानो लज्जित,
अर्धोन्मीलित कलिका पर ओस की बूँदें बिखरी हों.
“हे, रूपगंधा! हमने सत्य कहा ना?”
वह कुछ नहीं
बोली. उसका मन और रोम-रोम पुलकित हो उठा.
“सत्य है, आर्य! आप आए, और मन मंदिर में आपकी ही प्रतिमा विराजमान हो गई, और...”
“केवल
प्रतिमा पूजन? हम तो यहाँ
सगुण, साकार, सारी संवेदनाएं लिए हैं, मालूम है ना?”
“आर्य, मंदिर में दीप प्रज्वलित करके आती हूँ,” उसने कहा और भोजपत्र उठाये.
“क्या लिख
रही थीं? प्रेम पत्र?”
“मैं
रुक्मिणी नहीं हूँ आर्य, कोई भी श्रीकृष्ण आकर मुझे शिशुपाल के चंगुल से छुडाने वाला नहीं है. मैं
गणिका हूँ.”
कालिदास मौन
रहे. उसी ने विषय बदलने के उद्देश्य से कहा,
“ऋग्वेद काल
में समाज सेवा करने वाली स्त्रियों सन्दर्भ में पढ़ रही थी. अनेक स्थानों पर ‘नेतृ’
शब्द का प्रयोग हुआ है. शायद वे राजकीय नेतृत्व न करती हों, परन्तु हो सकता है कि समाज सेवा में उनका सहभाग रहा हो.
ऐसे अनेक सन्दर्भ ऋग्वेद में उषा के सन्दर्भ में मिलते हैं.”
“सत्य है.
ऋग्वेद काल में ज्ञान-विज्ञान, कृषि, धन, नीति, संस्कृति, शास्त्र-निर्मिती, जनहित, मांगल्य, अहिंसा आदि अनेक विषयों पर विचार किया गया है. राजसभा
के अमरसिंह ने अपने ‘अमरकोष’ में भूमि के बारह प्रकारों का उल्लेख किया है.
वराहमिहिर ने अपनी ‘बृहत्संहिता’ में वर्षा ऋतु का आगमन, वातावरण स्थिति, पृथ्वी,
सागर, आकाश स्थिति का वर्णन किया है.”
“महाराज ने
राजसभा के रत्नों का चुनाव अत्यंत कुशलता से किया है, उनमें से एक आप हैं, आर्य!”
“वास्तव में
रत्न होने ले लायक कार्य अद्याप हुआ नहीं है. शायद उन्होंने हमारा भविष्य पूछकर
हमारे हाथों से कोई कवित्व प्रकट होगा, इस पर विश्वास कर लिया हो.”
मधुवंती
उठी. उनका हाथ पकड़ा कर बोली, “आज हमारे मंदिर में चलें.”
वह उन्हें
मंदिर में लेकर आई. मन ही मन बोली, ‘न हो विवाह, कोई बात
नहीं, परन्तु इस
जन्म में इनके सहवास का लाभ प्राप्त हो! यदि अगला जन्म हो, तो दासी के रूप में उनका सहवास प्राप्त हो.’
मंदिर में
श्रीकृष्ण के साथ राधा विराजमान थीं. चन्दन की सुगंध फ़ैली थी. दीप मालिकाओं से
मंदिर जगमगा रहा था. ‘अगर वास्तव में अगला जन्म हो, तो हमें पत्नी के रूप में मधुवंती चाहिए,’ कालिदास मन ही मन कह रहे थे.
“चलो, सखी, आज हम नौका विहार को चलें!”
“आर्य, फिर कभी, दूर जायेंगे. मुझे हिमालय जाना है. मुझे समुद्र मार्ग से दूर तक जाना है.
हम जायेंगे. चलेंगे ना?”
उन्होंने
उसके मनोभावों को पढ़ लिया. कालिदास जैसे सुप्रसिद्ध व्यक्ति का गणिका के साथ नौका
विहार करना योग्य नहीं था. रात्रि के अन्धकार में, तन मन को ऊर्जा प्रदान करने वाली, परन्तु समाज में वह गणिका ही थी, सर्वश्रेष्ठ, विद्वत्वती होते हुए भी.
वे हँस कर
बोले, “अवश्य, मधुवंती! अब हमें काश्मीर जाना है. हमारे साथ कुछ
मंत्री, अधिकारी
हैं. हम जायेंगे. अवश्य!”
उन्होंने
उसके हाथ का बना भोजन प्रसन्नता से, भरपेट खाया और मन ही मन बोले, “पत्नी, गृहिणी, माता, सहचरी, और अनेकरूपा ऐसी ब्रह्मदेव की रचना – स्त्री सदा वात्सल्यमयी माता ही रहती
है. हम भोजन से तृप्त हो गए, इसका समाधान उसके नेत्रों में है.’ वह अकारण हंसी. वे भी हँसे.
“हे वत्सले, तुम्हें प्रणाम! सभी पदार्थ उत्तम थे! मन तृप्त हो
गया.”
“आगे कुछ न
कहें... हमें ज्ञात है.” उन्हें त्रयोदशगुणी ताम्बूल देते हुए वह सलज्ज हंसी.
“मैंने कहा, मधुवंती देवी, चन्द्रमा का प्रकाश सारे चराचर विश्व पर फैला है. देह कम्पित करने वाला
कार्तिक मास भी है. ऐसे समय इस वातावरण का आनद उठाने के लिए क्या आप हमारे साथ
उपवन के हिंडोले पर चलेंगी? हिम ऋतू की देह कम्पित करने वाली इस रात्रि का हम वहाँ से वापस आने के बाद
स्वागत करेंगे!”
उसकी देह पर
कार्तिक की शीत लहरों के कारण रोमांच उठ रहे थे. फिर भी वह उनके साथ चल रही थी.
उन्होंने अपने बाहुओं से उसे घेरा था, फिर भी वह कंपित हो रही थी. जब वे वापस आये तो वह बोली,
“हमारा पूरा
शरीर की कंपित हो रहा है, आर्य. रोम-रोम सुन्न हो गया है. हमारे शब्द भी मौन हो चले हैं.”
:हे चारुते...”
आगे उन्होंने कुछ नहीं कहा, उन्होंने उसे शैया पर बिठाया. अब उनके रोम-रोम में मधुवंती फूलने वाली थी.
गवाक्ष के
निकट मधुमालती की लता गुलाबी, शुभ्र पत्तों से हँस रही
थी. उन्होंने गवाक्ष के पर बंद कर दिए.
और मधुमालती
के गंध में मधुवंती का रसरंग महक उठा.
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