वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ।।
भिन्न प्रतीत होते हुए भी अर्थ और वाणी एक ही हैं.
बिलकुल वैसे ही जैसे शिवशंकर और पार्वती भिन्न प्रतीत होते हुए भी दोनों एकत्र हैं.
उन जगत्पिता को मैं वाणी और अर्थ की सिद्धता हेतु प्रणाम करता हूँ.
सूर्य के समान महा तेजस्वी वंश का वर्णन करने के लिए प्रवृत्त
मेरे जैसा अल्पमति कहाँ? उस महान वंश की ओर देखना घास ने पत्ते पर तैरते हुए सागर
तक पहुँचने जैसा दुष्कर कार्य है. फिर भी रघुवंश के महान राजाओं के बारे में लिखने
का साहस हम करने वाले हैं.
ब्रह्म मुहूर्त पर जागृत हुए कालिदास मध्य रात्रि को
प्रस्फुटित पंक्ति के कारण लिखने के लिए प्रवृत्त हुए. श्रीराम के इस तेजस्वी वंश
के बारे में क्या हम वास्तव में लिख पायेंगे? ऐसा संदेह मन में उत्पन्न हुआ, परन्तु
जिस प्रकार प्रगाढ़ निद्रा में ये दो पंक्तियाँ मन में सहज प्रकट हुईं, इसका
अर्थ यह दैवी संकेत ही है. कालिदास बड़ी देर चिंतित रहे, परन्तु मन में प्रकट हुई दो
पंक्तियाँ स्पष्ट, आशय संपन्न और सूचक थीं. भीतर से
प्रवृत्त कर रही थीं.
वे विचार कर रहे थे. अन्य साहित्य संपदा निश्चय किये
बिना ही प्रकट हुई थी. काश्मीर जाते हुए हमने बदलते ऋतू देखे और ‘ऋतुचक्र’ प्रकट
हुआ. प्रकृति के उस आविष्कार को हमने शब्दों में प्रकट किया और यह साक्षात्कार हुआ
कि हम कुछ लिख सकते हैं. नैसर्गिक प्रतिमाओं का वर्णन हम करते रहे. शायद कुछ
अतिशयोक्ति भी हो गई.
‘मालविकाग्निमित्र’ हमने सम्राट चन्द्रगुप्त के
आदेशानुसार लिखा और मन ही मन ज्ञात हुआ कि हम आदेशानुसार भी लिख सकते हैं.
‘विक्रमोर्वशीयम्’ लिखते समय हमारा मन प्रीति से
परिपूर्ण था. वही प्रीति हमने राजा विक्रम और गन्धर्व कन्या उर्वशी में देखी.
प्रभावती रानी को प्रथम पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और हमने ‘कुमारसंभवम्’ में
शिव-पार्वती की श्रृंगार कथा ही लिख डाली.
विदर्भ जाना पडा और एकेक करके कई मास बीत गए. मधुवंती
की याद तीव्रता से सताने लगी, तो हमने यक्ष और यक्षिणी के उत्कट
विरह के स्वरूप में उसे प्रस्तुत किया. ‘ऋतुचक्र’ और ‘मेघदूत’ ये
काल्पनिक रचनाएं वास्तव को ध्यान में रखते हुए लिखीं. हमारा साहित्य वास्तविक नायक
नायिकाओं के जीवन पर आधारित है. क्योंकि अत्यंत संवेदनशील मन में समय समय पर वैसी
घटनाएं घटित हुईं.
‘अभिज्ञान शाकुन्तलम’ लिखते समय मन में मधुवंती थी.
स्नेहल माता के रूप में प्रभावती थी. और वात्सल्यमय पिता सम्राट चन्द्रगुप्त के
समान हम भी थे. राजा दुष्यंत वास्तविक साहित्य में था ही.
परन्तु आज ‘रघुवंशम्’ की रचना सोच समझ कर ही कर रहे हैं.
यदि कोई कुलवंश स्वपराक्रम से संगठित हो, तो दीर्घ काल तक उत्तम राज्य
प्रशासन कर सकता है, इसका सर्वोत्तम उदाहरण है ‘रघुवंशम्’.
कुछ ही समय पूर्व था सातवाहन वंश. यह विश्व का एकमेव
वंश था जिसने चार सौ चालीस वर्षों तक राज्य किया. तैंतीस राजाओं ने इसे प्रवाहित
रखा. और इससे पूर्व ‘रघुवंश’ के आदर्श को उनतीस राजाओं ने
प्रवाहित रखा था. यदि वही आदर्श – आदर्श संघटन, एक धर्म, एक
प्रशासन, उत्तम कार्यमंडल, समृद्ध कोषागार, समृद्ध
कृषि, कला, साहित्य और संस्कृति हो तो एक अपने कुल के इतिहास का
निर्माण किया जा सकता है. सम्राट चन्द्रगुप्त का प्रशासन और अल्प काल ही महाराज
रुद्रसेन का आदर्श प्रशासन यदि ऐसे ही रहा तो दोनों कुल अपने कुल का आदर्श स्थापित
करेंगे, बिल्कुल रघुवंश के समान, इसमें संदेह नहीं है.
शक-हूण, यवन, कुषाणों को साहस भी नहीं होगा वक्र
दृष्टी से देखने का. इसके अतिरिक्त जैन, बौद्ध, और अन्य पंथ एकसंघ हिन्दू राष्ट्र
की ओर वक्र दृष्टि से देखने का साहस नहीं करेंगे.
जब हम सोच-समझ कर कोई उद्देश्य चुनते हैं, तो उस
सन्दर्भ में हम सामाजिक निरीक्षण, शास्त्राभ्यास, विविध कलाओं का आस्वाद लेते हैं.
यह स्वनिर्मिति की, काल्पनिक साहित्य की अपेक्षा अधिक
कठिन होता है. किसी पात्र के अन्तरंग का, बाह्यस्वरूप की चित्रण करते हुए
अत्यंत सूक्ष्मता से निरीक्षण करना पड़ता है, अन्यथा जन-प्रवाद उत्पन्न हो सकते
हैं.
परन्तु चरित्र-महाकाव्य का प्रवास सुखद होता है. हम
केवल पथिक नहीं होते. हमारे पास होती है अनुभूति की घिरनी, जिसमें
से एक-एक धागे के समान चरित्र गाथा खुलती जाती है. गंगा माता की हिमालय से
उत्पत्ति से लेकर उसके महासागर से मिलने तक सारे घुमावों का वर्णन करने जैसा है.
वैसे ही यह चरित्र गाथा ‘रघुवंशम्’ उत्तुंग अनुभवों से परिपूर्ण है. रोम-रोम से
बहते हुए चैतन्य जैसी है. लेखनी प्रवृत्त कर रही है लिखने के लिए और मन और वाणी
साथ दे रहे हैं. मन में जैसे आनंद-नगरी बस गई है.
कालिदास के मन में अतीव आनंद था. यदि काव्यलेखन का
प्रयोजन स्पष्ट हो तो दूरगामी मार्ग स्पष्ट और सुकर हो जाता है. इसका परिणाम
उन्हें दिखाई दिया. उन्हें लिखना आरम्भ किया. सात-आठ ही पंक्तियाँ लिखी होंगी.
उन्होंने उन पंक्तियों को फिर से पढ़ा और अतीव आनंद से बोले,
“हे महादेव, हे शिवशंकर, आज तुम
प्रत्यक्ष हमारे लिए भाग कर आये हो. तुम्हारा ही तो आह्वान किया था. और तुम
साक्षात प्रकट हो गए. तुम्हें कल्पना नहीं है, देवाधिदेव, आज हमारी
अतृप्त इच्छा पूर्ण हुई है. सब कुछ अनजाने में हुआ है, परन्तु घनघोर अरण्य में चलते हुए
मार्ग ही लुप्त हो जाए, और सौदामिनी के प्रकाश में चमक जाए, वैसा ही
हुआ है.
‘अस्ति कश्चिद् वाग्विशेष:’ इस पंक्ति का सघन अर्थ
प्राप्त हो गया है. ‘कुमारसंभवम्’ लिखते हुए प्रथम चरण की प्रथम
पंक्ति, जो हमने लिखी वह थी - अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः ।
प्रथम शब्द ‘अस्ति’
से प्रारम्भ हुआ.
‘कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः’ मेघदूतम्’ की प्रथम पंक्ति हम अनजाने में लिख गए
और अब ‘रघुवंशम्’ की प्रथम पंक्ति
‘वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ‘
विद्वत्वती ने हमसे जो प्रश्न पूछा था उसका उत्तर, हे ईश्वर तुम्हीं ने हमें दिया है.
देवाधिदेव, हम ऋणी हैं. जीवन के एक प्रदीर्घ काल तक हम उसी एक
प्रश्न से विचलित थे. अब तुम्हीं ने हमें मार्ग दिखाया है. अब यह महाकाव्य पूर्ण
करने के बाद हम उससे मिलने विदिशा जायेंगे. हे ईश्वर, उस समय भी तुम हमारे साथ ही रहना. प्रदीर्घ काल के
पश्चात उससे मिलने जा रहे हैं, तब तुम भी ज्येष्ठ व्यक्ति के नाते साथ में रहना.
अब वे उठे. शुचिर्भूत होकर सूर्योपासना करके आये. पीताम्बर के ऊपर हरित
उत्तरीय धारण किया, कंठ में रत्नमाला पहनी, कमर पर कटिबंध और बाहुओं पर बाजूबंद
पहने. मणिबंधों पर रत्न जडित कंकण पहने. उँगलियों में मुद्रिकाएं पहनीं. मस्तक पर
चन्दन से त्रिशूल अंकित किया. कृष्ण केशों के कारण उनका गौरवर्ण अधिक सुन्दर
प्रतीत हो रहा था. इस अनुपम रूप ने ही हमारा घात किया था. गोपालक होते हुए भी
राजसी तेज से युक्त हमारे मन को तीव्र व्यथा दी इसी अनुपम रूप ने. स्वर्गीय
सौन्दर्य है हमारा. राज पुरुष को भी नत मस्तक करे ऐसा. परन्तु आज दर्पण में अपना
रूप देखकर उन्हें अतीव आनंद हुआ था. देव मंदिर में जाकर उन्होंने शिव शंकर की
प्रार्थना की. अपने कक्ष में आकर वे कार्तिक में मृदु हुए सूर्य की किरणों में वे
आसन लेकर बैठे और लिखना आरंभ किया.
उन्होंने लिखा, ‘हम तो मंदबुद्धि हैं. संस्कृति के उपासक, जिन्हें शुद्ध फल की प्राप्ति हुई है, कर्मयोगी, समुद्र तक जिनकी राजसत्ता थी, ऐसे रघुवंशीय राजा-महाराजाओं का वर्णन महापंडित वाल्मिकी पहले ही कर चुके
हैं. फिर भी यह हमारा अल्पमति प्रयास है.’
फिर उनकी काव्य सरिता निर्मल शब्द जल लेकर प्रवाहित होती है. वेदों में
प्रणव के प्रथम स्वर के समान प्रथम राजा मनु हुए. इस मनुवंश में ‘दिलीप’ राजा
क्षीर सागर में चन्द्रमा के समान था. अत्यंत बलाढ्य, साहसी, सक्षम और क्षत्रिय धर्म ही उसकी वृत्ति थी. मनोहारी
रूप के समान उसकी बुद्धि भी प्रखर थी. वसुंधरा की स्निग्धता को जिसने अपने भीतर
आत्मसात कर लिया है, और फिर जलवर्षाव करने वाले सूर्य के समान वह कठोर
शासक और प्रजावत्सल राजा था.
राजा दिलीप तीव्र अध्ययन वृत्ति के थे, वैसी ही तीव्र उनकी स्मरण शक्ति थी. धनुष्य पर चढी
हुई आकर्ण प्रत्यंचा उनका परिचय देती है. राजा दिलीप विलक्षण थे.
प्रजापिता तो वह था ही, परन्तु उसने यज्ञों के लिए प्रजा से और देवताओं से
संपत्ति मांगकर विश्व कल्याण के लिए यज्ञ किये. ‘चौर्य’ शब्द भी उसके राज्य में
नहीं था. दिलीप राजा का कोई शत्रु नहीं था. सागर सीमा उसके राज्य की रक्षक थी.
सर्वत्र समृद्धि थी. उसके प्रासाद में अनेक रानियाँ थीं, परन्तु उसकी अत्यंत प्रिय रानी सुदक्षिणा के कोई संतान नहीं थी. अन्य
रानियों को भी पुत्र संतान नहीं थी. वंश-दीपक की आवश्यकता थी. इसलिए राजा दिलीप
रानी सुदक्षिणा के साथ अपने कुलगुरू वसिष्ठ के आश्रम में यह पूछने के लिए आये कि
कौन सा व्रत अथवा अनुष्ठान करने से पुत्र की प्राप्ति होगी. .
आश्रम अरण्य में था, प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण था. मंत्रोच्चारणों
के कारण वातावरण पवित्र था. ज्ञान संपादन करने वाले शिष्यों की शास्त्र वाणी से
समृद्ध था. वसिष्ठ योगी-वियोगी थे, समाज के लिए दीप स्तम्भ थे. जब राजा दिलीप ने उनसे
पूछा कि पुत्र प्राप्ति के लिए कौनसा व्रत करना चाहिए तो वसिष्ठ मुनि ने कहा,
“तुम्हारी व्यथा मैं जान गया हूँ. पितरों को सद्गति प्राप्त हो, कुलवंश हमेशा रहे, यह तुम्हारी कामना है. तुम्हारी स्थिति आज सूर्य के समान हो गई है, एक ओर अन्धकार, एक ओर प्रकाश. सब कुछ होते हुए भी
तुम व्यथित हो. कभी एक बार तुम कामधेनु को अनदेखा करके आगे चले गए थे. परन्तु अब
आश्रम में नंदिनी है. उसकी सेवा करो. वह जहाँ भी जाए, जहाँ बैठे, जहाँ खडी रहे - उसके संतुष्ट होने तक उसकी सेवा करो, छाया की तरह उसके
साथ रहो.
सुदक्षिणा व्रत साधना करेगी. वसिष्ठ
ऋषि ने उन्हें उनकी पर्ण कुटी दिखाई. अब उन्हें भूमि पर शयन करना और फलाहार लेना
था. यह एक तपस्या थी. दूसरे सर्ग से आरम्भ हुई गौ-सेवा.
दिन व्यतीत होते जा रहे थे. नित्य
क्रमानुसार नंदिनी वन में विचरण कर रही थी. राजा दिलीप दिन भर प्रहरी के तरह उसके
साथ रहते. शाम को, जब वे नंदिनी के साथ आश्रम लौटते तो सुदक्षिणा उसकी सेवा करती.
उसे खाद्य, जल अर्पण
करती, उसके लिए
तृण शैया बनाती. मन:पूर्वक उसकी स्वच्छता करती.
वन में अनेक बार वन्य श्वापदों से
संघर्ष करना पड़ता था. एक बार सिंह ने नंदिनी को जकड लिया. राजा दिलीप ने सिंह से
विनती की कि वह नंदिनी के बदले उसे खा ले. यह नंदिनी ही परिक्षा ले रही थी. वह
प्रसन्न हुई. वसिष्ठ मुनि की आज्ञानुसार राजा दिलीप सुदक्षिणा के साथ अयोध्या वापस
लौट आये.
तीसरे सर्ग के आरम्भ में रानी सुदक्षिणा
को शुभ संकेत प्राप्त हो गए थे. वह गर्भवती थी. उसके गर्भ लक्षण चक्रवर्ती सम्राट
के जैसे थे. यह भविष्यवाणी से भी ज्ञात हो गया था. वैभव संपन्न अयोध्यापति दिलीप
कोसल की राजकन्या सुदक्षिणा से उसकी इच्छा के बारे में पूछते, परन्तु वह ऐसे तृप्त थी, मानो सब कुछ प्राप्त हो गया हो.
और एक दिन मंगल पर्व पर, शुभ नक्षत्रों के समूह ने नवजात
शिशु का स्बागत किया. मंगल वाद्यों के बीच दसों दिशाओं में मन्त्र घोष गूँज उठा.
‘रघु’ का जन्म
हुआ. पुत्र सभी शास्त्रों का वेत्ता, परम विद्वान और शत्रुओं का दमन करने वाला हो, अत: लघु धातु के आशयानुसार उसका नाम ‘रघु’ रखा गया. यह सूर्यवंश में उत्पन्न रघुकुल का प्रजावत्सल राजा था.
राजा दिलीप का पुत्र रघु सूर्य का
तेज और ऊर्जा लेकर चन्द्रकला के समान प्रतिदिन बड़ा हो रहा था. राजा दिलीप ने ९९
अश्वमेध यज्ञ किये, सौवें अश्वमेध यज्ञ के अश्व के साथ उन्होंने रघु को भेजा.
युवराज रघु सेना सहित अश्व के साथ
जा रहा था कि अचानक यज्ञ का अश्व लुप्त हो गया. रघु चकित हो गया. कुछ भी समझ में
नहीं आ रहा था, तब रघु ने गो मूत्र से अपने नेत्र धोये और तब उसे प्रत्यक्ष इंद्र ही
यज्ञ के अश्व को ले जाते हुए दिखाई दिया. उसे भय था कि सौवां अश्वमेध यज्ञ सफल
होने पर उसका इन्द्रपद जाता रहेगा.
रघु ने इंद्र से कहा,
“हे इन्द्रदेव, आदर्श व्यक्ति को अपराध शोभा नहीं
देता. वेद मार्ग पर चलने वालों की यह संस्कृति नहीं. हम विश्वानन्द के लिए यज्ञ कर
रहे हैं. उसमें श्रेय का भाग आपका भी है. तुम ‘शतऋतू’ हो, परन्तु शत अश्वमेध यज्ञ करने की
सामर्थ्य राजा दिलीप में भी है.
अंत में युद्ध का आरम्भ हुआ. इंद्र की
पराजय के लक्षण देखते हुए रघु ने कहा,
‘हमारा अश्व वापस करो.”
“अश्व वापस नहीं होगा.”
“तब हमारे पिता को यज्ञ का वांछित
फल और श्रेय प्राप्त हो, ऐसी व्यवस्था करो,” इंद्र ने इसे मान लिया और सारथी मातलि के द्वारा यह सन्देश राजा दिलीप
को भेजा.
सौ अश्वमेध यज्ञ करने के बाद राजा
दिलीप निवृत्त हुए. राजा दिलीप ने सभी राज सूत्र विधि पूर्वक अपने पुत्र दिलीप को
सौंप दिए.
जैसे सूर्य अपने सभी गुण संध्या को
अर्पण करता है, वैसे ही राजा दिलीप ने अपने सभी गुण राजा रघु को दिए. राजा रघु का एक पद
सिंहासन पर तो दूसरा शत्रु समूह पर था. प्रत्यक्ष लक्ष्मी-सरस्वती राज्य सभा में
विराजमान थीं. पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश इन पाँच तत्वों से
सम्पूर्ण गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द, इन सबका उत्कर्ष रघु के निकट स्थित
हो गया. आदर्श राजा के रूप में रघु राजा प्रतिष्ठित हुआ.
कालिदास चौथा सर्ग लिख रहे थे.
उन्होंने निश्चय किया कि प्रात:काल में नित्य नियमपूर्वक पाँच सर्ग लिखेंगे. दिन
में यदि अन्य कार्यों से समय मिला तो, और नहीं मिला तो रात्रि में रामायण ग्रन्थ
से प्राप्त संकेत, अर्थ, जीवन पट और
उसकी सूक्ष्मता, रीति-नीति, समाज, शास्त्र का अध्ययन करेंगे. वैसे भी, किसी रचना का आरंभ करने के बाद उसके पूर्ण होने तक अन्य किसी
विषय के बारे में सोचना संभव नहीं है, किसी अन्य
विषय में रस भी नहीं है. परन्तु लेखन के लिए सर्वोत्तम समय है ब्रह्ममुहूर्त. निरभ्र
आकाश, शांत चन्द्रमा, शांत तारागण,
निपट शान्ति, निद्राधीन सर-सरिता, वृक्ष लता, समीर और – “को जागर्ति?” इस प्रश्न का
उत्तर देने वाले ब्रह्म वृन्द से एक हम. उन्हें प्रसन्नता का अनुभव हुआ.
कालिदास
ने रघु राजा का वर्णन किया. उनकी सेवा वृत्ति का, निष्काम
प्रवृत्ति का, प्रजाहित दक्ष और कर्तव्य निष्ठ
वृत्ति का वर्णन किया. देवताओं को भी अलभ्य ऐसे अलौकिक गुणों का वर्णन किया. सीमावर्ती
प्रदेश में शान्ति स्थापित करके, इष्ट देवताओं का आशीर्वाद लेकर राजा
रघु दिग्विजय के लिए निकला. सम्राट चन्द्रगुप्त को अपने सामने रखकर ही कालिदास ने
उसका वर्णन किया. चतुरंग सेना के साथ सम्राट को कूच करते हुए कालिदास अनेक बार देख
चुके थे.
राजा
रघु ने पूर्व में अपना साम्राज्य प्रस्थापित किया, सागरी द्वीपों
को भी राजमुद्रित किया. जब अपार संपत्ति लेकर राजा रघु अयोध्या वापस आया तो
देवताओं ने भी उस पर पुष्प वृष्टि की. उसका अतुलनीय शौर्य देखकर देवता गण प्रसन्न
हुए. उसके पश्चात उसने दक्षिण में कावेरी तक, दक्षिणाधिपति
पांड्य देश तक सर्वत्र विजयश्री प्राप्त की. सम्पूर्ण आर्यावर्त एक ही धर्मध्वजा
के नीचे संगठित हुआ.
कालिदास
ने प्रकृति वर्णन, शौर्य वर्णन करते समय बहुतायत से
अलंकारों का उपयोग किया. प्रत्येक काव्य पंक्ति में नई उपमा कैसे प्रकट होती है, इसका उन्हें ही आश्चर्य हो रहा था. पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण – सारी
सीमाएं रघु राजा के साम्राज्य से जुड गई थीं. प्रागज्योतिषपुर, कामरूप, कुबेर नगरी, काम्बोज, सिन्धु तट सभी एक छत्र तले आ गए थे.
सम्पूर्ण
आर्यावर्त पादाक्रांत करने के बाद राजा रघु अयोध्या वापस लौटा और उसने प्रचंड
‘विश्वजित’ नामक यज्ञ किया, अपार संपत्ति दान की
और राजा रघु निष्कांचन हो गया.
पांचवें
सर्ग में राजा रघु अत्यधिक धन समृद्ध कोषागार का स्वामी है, यह सुनकर ऋषि वरतन्तु का शिष्य कौत्स गुरुदक्षिणा के लिए दान
माँगने राजा रघु के पास आया. वस्तुत: वरतन्तु ऋषि ने कौत्स निष्कांचन है इसलिए
उससे गुरुदक्षिणा नहीं मांगी थी. परन्तु यह उसका अपमान है, ऐसा समझकर कौत्स ने वरतन्तु से पूछ ही लिया, और कौत्स के आग्रह
करने पर उन्होंने चौदह सहस्त्र स्वर्ण मुद्राएँ दान के रूप में मांग लीं. राजा रघु
तो निष्कांचन थे. कोषागार प्रजा की संपत्ति थी. कौत्स ने कहा, “यदि आप निष्कांचन हैं तो मैं किसी अन्य राजा के पास दान
माँगने जाऊंगा.”
“वत्स, तुम सर्वज्ञानी वरतन्तु ऋषि के यहाँ से आये हो और अत्यंत
प्रामाणिकता से गुरु दक्षिणा देना चाहते हो, अत: तुम्हें
विन्मुख भेजना हमें शोभा नहीं देता. हम तुम्हें चौदह सहस्त्र स्वर्ण मुद्राएँ
अवश्य देंगे. रघु राजा ने कुबेर पर
आक्रमण करके उसका धन लाने का निश्चय किया. परन्तु उसकी सामर्थ्य देखकर कुबेर ने
राजा रघु के कक्ष में रात्रि को ही असंख्य सुवर्ण मुद्राओं की वृष्टि की.
राजा ने कौत्स को सब कुछ दान में ले जाने की अनुमति
दी. परन्तु कौत्स ने केवल चौदह सहस्त्र मुद्राएँ ही गुरु के लिए लीं. जाते समय
कौत्स ने राजा रघु को पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया.
और आशीर्वाद का फल प्राप्त हुआ. राजा रघु को पुत्र
रत्न की प्राप्ति हुई, उसका नाम ‘अज’ रखा गया, विदर्भ
के राजा भोज की लावण्यवती कन्या इन्दुमति से उसका विवाह निश्चित हुआ.
कालिदास ने छठे सर्ग का शीर्षक लिखकर भोजपत्र एकत्र
किये, सेवक द्वारा रखे गए दुग्ध पात्र के दूध का प्राशन किया और वे राज सभा के
लिए निकले.
मार्ग में उन्हें एक वृद्ध स्त्री मिली, जो एक
युवक के साथ राजसभा की ओर जा रही थी. उन्हें देखते ही वह ठहर गई, “महोदय, आप
आयुर्वेद जानते हैं, आप भविष्य भी जानते हैं, यह ज्ञात
होने पर हम आपकी ओर ही आ रहे थे.
“हमें राजसभा...”
“वहाँ भी समस्या-समाधान होगा, यहाँ भी
आप वही करेंगे. फिर विलम्ब क्यों? सिर्फ राजसभा में आपकी उपस्थिति
महत्त्वपूर्ण है अथवा प्रत्यक्ष कार्य?” कालिदास मौन हो गए. उसने कहा,
“आप उस शिलाखंड पर बैठें. हमारी समस्या, मानें तो, क्षुद्र
है, मानें तो महत्वपूर्ण है.”
कोई उपाय न देखकर कालिदास शिलाखंड पर बैठ गए.
“श्रेष्ठी, मेरे पुत्र की हस्तरेखा देखकर इसका
भविष्य कथन करें.”
“हम हस्त सामुद्रिक जानते हैं,
परन्तु...”
“ ‘शास्त्राभ्यास किया है, परन्तु अद्याप अनुभव नहीं’,... यही
ना? अनुभव प्राप्त करने के लिए परिक्षा देना होती है. आज आप अपनी शास्त्र
परीक्षा दें.”
उस माता के सम्मुख कालिदास मौन हो गए. प्रश्न भी उसका
था, उत्तर भी उसीने दिया. और आदेश भी उसीका, कोई पर्याय नहीं था. उन्होंने उस
युवक का कोमल हाथ अपने हाथों में लिए और उनके भीतर का आयुर्वेद जागृत हो गया. साथ
ही उसकी मनोदशा का भी साक्षात्कार हो गया.
“देवी, हम एक शर्त पर भविष्य कथन करेंगे.”
“बताएँ, श्रेष्ठी.”
“इस युवक को एक मास हमारे साथ रहने दें, मान्य है?” उसने
स्वीकार किया.
“ऐसी क्या बात है?”
“हस्तरेखा देखने से तो इसका भविष्य अत्यंत उज्जवल जान
पड़ता है. राष्ट्र सेवा, राज सेवा के क्षेत्र में काम
करेगा. पत्नी गुणवती होगी, पुत्र शौर्यवान होगा. अब कुछ और न
पूछें, आप जा सकती हैं, देवी.”
निरुपाय होकर, वचनबद्ध होने के कारण उसे जाना
पडा. परन्तु मेरा निर्बल, मतिमंद और निर्बुद्ध पुत्र इतना सब
प्राप्त कर सकेगा क्या? उसके अन्य दो पुत्र सुदृढ़, सबल थे, उनके
विवाह भी हो चुके थे. साशंक मन से वह वापस गई.
“वत्स,” कालिदास ने उसे स्नेहपूर्वक अपने
पास बिठाया, प्रेम से उसके मस्तक पर हाथ फेरा, “तुम्हारा नाम
क्या है?”
“मेरे बहुत सारे नाम हैं, मूर्ख,,,महामूर्ख...शतमूर्ख,
अज्ञानी...” उन्हें बालक में भोलापन दिखाई दिया.
“हम तुम्हें बहुत अच्छा नाम देंगे,,,गणेश...शिवशंकर
का पुत्र, गणेश...”
उसने प्रसन्नता से तालियाँ बजाईं.
वे राजसभा की ओर निकले थे, उसे भी साथ लेकर चले.
आज अनेकों के अनेक प्रश्न, हास्यविनोद, व्यंग्य, सब समझ
में आने वाला था.
***
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