Friday, 17 March 2023

Shubhangi - 67

 

 

अनेक दिनों के बाद आज कालिदास भोजपत्र लेकर लिखने बैठे थे. दसवें सर्ग में उन्होंने  राजा दशरथ के चारों बढ़ते हुए पुत्रों का वर्णन किया था.

‘राजा दशरथ के चार पुत्र अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की साक्षात प्रतिमाएं थे.’ वे सभी विद्याओं में पारंगत हो रहे थे.

और ग्यारहवां सर्ग आरम्भ हुआ गाधि पुत्र राजर्षि और योगी विश्वामित्र द्वारा विश्व कल्याण के लिए यज्ञ करने से. असुर विश्वामित्र के यज्ञ कार्य में अत्यंत उपद्रव डाल रहे थे, अत: वे अयोध्यापति दशरथ के पास आते हैं, और यज्ञ रक्षण के लिए उनसे श्रीराम और लक्ष्मण को देने की मांग करते हैं. कोई कुछ भी दान में मांगे – उसे विन्मुख नहीं भेजना है, रघुकुल की इस रीत का पालन करते हुए उन्होंने अपने अत्यंत प्रिय श्रीराम तथा लक्ष्मण को विश्वामित्र के स्वाधीन कर दिया. राजप्रासाद में जीवन व्यतीत करने वाले सुकोमल राजकुमारों श्रीराम और लक्ष्मण को अरण्य से जाते हुए विश्वामित्र ने ‘अतिबला इस दिव्य मन्त्र की दीक्षा दी.

 यज्ञ आरंभ होते ही असुर ऋषि मुनियों के कार्य में अनेक प्रकार से व्यत्यय डाल रहे थे. कभी प्रज्वलित अग्नि को ही बुझा देते थे. दोनों धनुर्धारी बंधुओं ने तब त्राटिका राक्षसी का वध किया, वायव्यास्त्र का प्रयोग करके त्राटिका पुत्र मारीच को सीमापार किया, दूसरे त्राटिका पुत्र का भी वध किया. अनेक असुरों का वध हुआ, अनेक असुर भयभीत होकर भाग गए, यज्ञ सफलतापूर्वक संपन्न हुआ.

विश्वामित्र के पास सन्देश आया था कि मिथिलाधिपति जनक ने अपनी कन्या का स्वयंवर निश्चित किया है. अनेक देशों के राजकुमारों को, महाराजाओं को निमंत्रित किया है. स्वयंवर में एक शर्त भी थी – शिवधनुष्य को अपने हाथों से उठाने की. रावणादि अनेक शक्तिशाली राजाओं के लिए यह असंभव सिद्ध हुआ, और क्षण भर में श्रीराम ने उस धनुष्य को उठा लिया, और उसे भंग भी कर दिया. परशुराम का वह धनुष राजा जनक के दालान में था. शिवधनुष्य भंग होते ही अत्यंत क्रोधित होकर परशुराम प्रकट हुए. परन्तु श्रीराम-लक्ष्मण की जोड़ी को देखकर वे चकित हो गए.

‘मैने इक्कीस बार पृथ्वी नि:क्षत्रिय की है, परन्तु हे श्रीराम, तुम्हारा क्षात्र तेज देखकर मैं विस्मित हूँ.’

‘आज तक परशुराम यह एक ही नाम सामर्थ्यवान था, हे श्रीराम, तुमने तो मुझे लज्जित कर दिया है!’  

 

 श्रीराम को अब राज सिंहासन सौंप देना चाहिए,” वृद्धावस्था को प्राप्त हुए राजा दशरथ कैकेयी से कह रहे थे. “अब उसका विवाह हो गया है. सुन्दर है, बलशाली है, वेदविद्या, अस्त्रविद्या में पारंगत है.”

राजा दशरथ बार बार कह रहे थे, परन्तु कैकेयी मना कर रही थी, और राज्याभिषेक के लिए एकत्रित की हुई सामग्री फेंक देती थी. वह अत्यंत क्रोधित थी. भरत और शत्रुघ्न की अनुपस्थिति में श्रीराम का राज्याभिषेक हो, यह उसे मान्य नहीं था. जब चारों पुत्रों का जन्म एक ही समय पर हुआ था तो फिर जन्म समय में केवल कुछ पलों का अवकाश होने से प्रिय कैकेयी के भरत को राजा दशरथ क्यों नकार रहे हैं?

अत्यंत क्रोधित कैकेयी ने दो वर मांगे. जब वह राजा दशरथ के साथ देव-दानव युद्ध में स्वर्ग गई थी, तो रण भूमि पर रथ के पहिये की कील निकल गई थी. तब कैकेयी ने अपने हाथ से रथचक्र का संतुलन बनाए रखा था. उस समय दशरथ द्वारा दिए गए दो वरदानों का उसे स्मरण हुआ. वह बोली,

 

तयोश्चतुर्दशैकेन रामं प्राव्राजयत्समाः ।

द्वितीयेन सुतस्यैच्छद्वैधव्यैकफलां श्रियम् ॥

 

श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास और भरत को राज्याभिषेक, ये दो वर थे जिनका उन्होंने वादा किया था, फिर रघुकुल की प्रतिष्ठा थी. शाप वाणी का प्रभाव भी तो था. श्रीराम के वन में जाने के दुःख में राजा दशरथ की मृत्यु हो गई. भरत ने  राज्य त्याग किया, श्रीराम, सीता, लक्षमण वन चले गए. चौदह वर्षों तक राजसिंहासन राजा के बिना शून्य था.

वनवास में श्रीराम ने दंडकारण्य में तपस्या करने वाले ऋषियों को असुरों के भय से मुक्त किया. विश्वामित्र के साथ मिथिला जाते हुए मार्ग में अहिल्या का उद्धार किया. लक्ष्मण ने दंडकारण्य में रावण की भगिनी शूर्पणखा की नासिका ही काट दी. परिणाम स्वरूप रावण संधि देखकर सीता का हरण करके ले गया.

बारहवां सर्ग चल रहा था. श्रीराम की कथा जनमानस में अंकित होने से नए नए प्रयोग करना संभव नहीं हो रहा था. वे कथा का विस्तार न करते हुए केवल घटनाओं की ओर निर्देश कर रहे थे. त्रिशिरा खर-दूषण का वध श्रीराम ने किया था. सीता को ढूँढते हुए वे आर्यावर्त के दक्षिण भाग में पहुंचे. वानर सेना उनके साथ हो गई, उन्हें हनुमान जैसा भक्त मिला, उसने लंका जाकर सीता का पता लगाया. रावण का वध हुआ, अनेक असुर मारे गए. विभीषण को राज्य देकर श्रीराम अयोध्या की ओर गए. चौदह वर्षों का वनवास समाप्त हो गया था. अयोध्या जाने से पूर्व सीता को अग्नि परिक्षा देने को कहा.

 

रघुपतिरपि जातवेदोविशुद्धां प्रगृह्य प्रियां

प्रियसुहृदि बिभीषणे संगमय्य श्रियं वैरिणः ।

रविसुतसहितेन तेनानुयातः ससौमित्रिणा

भुजविजितविमानरत्नाधिरूढः प्रतस्थे पुरीम् ॥

यहाँ बारहवां सर्ग समाप्त हो गया. श्रीराम की आदर्श जीवन गाथा यद्यपि सबको विदित थी, परन्तु कालिदास की कल्पना रम्यता और शब्द सौन्दर्य को संधि प्राप्त हुई थी.

पुष्पक विमान से श्रीराम-सीता, लक्षमण, विभीषण निकले थे. मार्ग में दिखाई दे रहे प्रत्येक स्थल का वर्णन श्रीराम कर रहे थे, और सीता के मन में रम्य स्मृतियाँ जागृत हो रही थीं. उनका विमान दण्डकारण्य तक पहुँच गया था. सीता ने कहा, हम जाते समय विदर्भ से होकर दण्डकारण्य में आये थे.

श्रीराम प्रसन्नता से हँसे.

अब रम्य जीवन के स्वप्न देखते हुए वे प्रथम भरत से नंदीग्राम में मिले और फिर सबने अयोध्या की ओर प्रस्थान किया.

सभी माताओं को, गुरुओं को, गुरुजनों को उन्होंने नमस्कार किया. राज्याभिषेक होने के पश्चात श्रीराम सिंहासन पर बैठे. चौदह वर्षों के उपरांत प्रजा को श्रीराम जैसा सत्यवचनी, एकपत्नी, एकवाणी, रण धुरंधर राजा प्राप्त हुआ था.

अब चौदहवां सर्ग लिखना आरम्भ किया और गणेश भीतर आया.

“तात, इस बेला में आप लेखन में व्यस्त रहते हैं. आने के बाद से ही सोच रहा था, कि पूछूंगा. आप क्या लिख रहे हैं, तात?

गणेश को देखते ही उन्हें कुछ दिन पूर्व के गणेश का स्मरण हुआ. अब वह समाज में सम्मिलित होने वाला युवक हो गया था. यद्यपि अभी तक वांछित आत्म विश्वास तो प्राप्त नहीं हुआ था, परन्तु उसमें पर्याप्त परिवर्तन हो गया था.

गणेश को पहले ही दिन महाकालेश्वर मंदिर में दिया था विश्वास. अब वह उस विश्वास को जीने लगा था, उसने स्वयँ ही आत्मविश्वास को प्राप्त किया था.

“वत्स, तुम्हें कुछ चाहिए?”

“आप जैसा लिखते हैं, मैं भी वैसा ही लिखना चाहता हूँ...”

“वत्स, ऐसी इच्छा का होना ही यह दर्शाता है कि तुमने बहुत कुछ प्राप्त कर लिया है. तुम भी हमारी तरह लिख सकोगे. अब तुम भी अच्छी तरह बोल सकते हो, पढ़ सकते हो, तुमने बहुत कुछ कंठस्थ कर लिया है. योग सामर्थ्य के कारण तुममें एकाग्रता भी आ गई है.”

कुछ देर के लिए वे मौन हो गए. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहना चाहिए.

‘क्या मैं लिख पाऊंगा?’ कालिदास विचार कर रहे थे. कुछ ही माह पूर्व यह निर्बल,  बोलने में झिझकने वाला, मानो उसमें कोई व्यंग हो, ऐसा असहाय युवक आत्म विश्वास और परिश्रम के फलस्वरूप यह प्रश्न सहजता से पूछ रहा है. मगर इसे क्या उत्तर दूं?

क्या यह कहूं कि निर्मिती इतनी आसान नहीं है. वह दैवी कृपा से ही संभव है. परन्तु परिश्रम से, अनुभव से, सहानुभूति की संवेदना से, अभ्यास से वह परिष्कृत, प्रगल्भ, और सुसंस्कृत होती है. विचारों से आचार समृद्ध होते हैं. आचारों से संस्कार प्रभावित होते हैं, और संस्कारों से एक अलिखित आचार संहिता का निर्माण होता है. वह है संस्कृति.

संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करने के लिए समाज मन की भूमिका को ध्यान में रखते हुए योग्य तथा अयोग्य की समझ आना चाहिए. हमारे पास जो शब्द है, वह सत्य ही है, इसका अनुभव भी समाज मन को देना पड़ता है. समाज और साहित्य, अर्थात मन है, देह है – देह में मन, और मन में देह. 

यह सब गणेश को कैसे बताएँ, यह प्रश्न कालिदास के सम्मुख था.

“तात, वाणी और वैखरी – सरस्वती के ये रूप मुझमें होंगे ना? क्या मैं शब्द और वाणी के बीच सेतु का निर्माण कर पाऊंगा? आप मुझे बताएँगे और मैं वह नहीं लिखूंगा, अपितु मन में ही जब ब्रह्म कमल खिलने लगेंगे, तब तो जो मैं लिखूंगा वह आत्मानद देने वाला होगा ना? और यदि आत्मानंद शुचिर्भूत हो तो समाज मन को भी उनकी अनुभूति होगी ना? मेरे मन की आनंद नगरी में वे भी मन की राह से ही आयेंगे ना? इस मन की नगरी में मेरे आनंद की कुटी होगी. प्रवेश द्वार पर सूर्या किरणों की नक्काशी होगी. आंगन में वृक्ष पल्लवों की रंगोली होगी.

और भीतर आनंद सरिता से भर कर लाये हुए जल कुंभ होंगे. आये हुए पथिक को मैं जल दूँगा. न होगा वहाँ कुबेर का धन, ना होगा द्वार पर इंद्र का ऐरावत, वहाँ होगा पक्षियों का संगीत, होगा मयूरों का नृत्य. भोजन के लिए वृक्ष दूत के साथ मीठे फल भेजेंगे. और किसान प्रेम से भोजन लायेंगे. यहाँ समीर भी स्वागत के लिए तत्पर होगा. तात! बताइये ना, आप नित्य क्या लिखते हैं? क्या मैं भी लिख सकूंगा?

अत्यंत भाव विभोर कालिदास उठे और उसे दृढ़ता से आलिंगन बद्ध किया. भरे हुए गले से बोले, “वत्स, तुझे सब कुछ प्राप्त हो गया है. तुम लिखो. जो मन में आये, लिखो. तुम्हारे साकार शब्द निराकार का प्रत्यक्ष रूप होंगे. महाकवि के रूप में हमें समाज में मान्यता हुई तो भी तुम्हारी गुणवत्ता हमसे श्रेष्ठ होगी. वत्स, जिस पल हमने अनजाने ही तुम्हें ‘गणेश कहा, उसी पल ईश्वर तुम्हारी सहायता के लिए आया है. परन्तु, वत्स, तुम तो सेना में जाने वाले थे...कवि और युद्ध...”

“तात, कवि के लिए युद्ध क्यों वर्ज्य है?

कालिदास पल भर को मौन हो गए. उन्हें स्मरण हुआ कि वे कभी भी युद्ध में नहीं गए थे.

“तात, जीवन संघर्ष काव्य है, तो मृत्यु मोक्ष काव्य है. चिरंतन की ओर जाने वाला वह काव्यमय, निश्चिन्त, संघर्ष रहित प्रवास है. मैं कुछ ही दिनों से युद्ध का प्रशिक्षण ले रहा हूँ. युद्ध, अर्थात् भाव, भावना, संवेदना समाप्त हो जाए, ऐसा स्थान नहीं है, अपितु चैतन्य, ऊर्जा. संकल्प. प्रयत्न, राष्ट्र भाव, ये सारी कल्पनाएँ मन में होती हैं. जीवन एक सौम्य युद्ध ही है ना?

कालिदास विस्मयचकित हो गए. एक मास पूरा होने के बाद उसकी माता उसे लेने के लिए आने वाली थी. तब गणेश ने व्याकुलता से कहा, “तात, मैं अपनी माता और अपने परिवार के पास तभी जाऊंगा, जब मैं कोई उत्तम कार्य करूंगा. कृपया मुझे वहाँ न भेजें.”

कालिदास ने उसकी माता को सन्देश भेजा, “माते, आपके पुत्र को, हम उसे गणेश कहते हैं, कुछ समय हमारे पास ही रहने दें. उसके यहाँ रहने से हमें प्रसन्नता होती है.”

और उसके बाद वह माता आई ही नहीं. शायद परिवार का एक विघ्न दूर हो गया, इसका उसे आनंद हुआ होगा. इस क्षण गणेश के विचार सुनकर उन्हें ऐसा लगा, कि उस माता ने व्यंग, उपहास और शब्द प्रहार से अपने पुत्र को असहाय बना दिया था. मानसिक रूप से दुर्बल बना दिया था.

“वत्स, तुम्हारे भीतर के गणेश को हमारा वंदन!” वह लज्जित हो गया. “परन्तु प्रसन्न मन से साहित्य निर्मिती करना, वत्स, अहंकारी न होना, और, इस बात पर विचार करो कि क्या साहित्य दीर्घकालीन होगा, ऐसा क्यों? हमारी साहित्य निर्मिती का प्रयोजन क्या है? शाश्वत मूल्य या वर्तमान समस्या, तत्कालिक उपाय अथवा दीर्घकालीन योजना – इस पर विचार करो.         

अस्तु! गणेश, तुम्हारे जैसा रत्न तुम्हारी माता के पास होते हुए वह उसका मूल्य नहीं समझ पाई. वैसे, अंत:प्रेरणा होना रत्न का प्रभाव है. उसे सुवर्ण मुद्रिका में कैसे जड़ना है, यह प्रयत्न तुम्हारा होगा.

कल्याणमस्तु, वत्स, सदा सुखी रहो!”

वे अपने कक्ष से बाहर आये. गणेश रेशमी वस्त्र में बंधे हुए हस्तलिखित लेकर उनके मोतियों जैसे अक्षरों पर हौले से हाथ फेर रहा था.

मध्याह्न के बाद प्रभावती ने सखियों के साथ द्यूत का आयोजन किया था और उसके लिए कालिदास को परीक्षक के रूप में आमंत्रित किया था. जिस द्यूत के कारण महाभारत हुआ, वही द्यूत इतने युगों के बाद आज भी खेला जाता है, जय-पराजय के कारण उसे खेलना छोड़ा तो नहीं जा सकता. यह सब द्वेष रहित क्रीडा, आनद, मनोरंजन के रूप में होना चाहिए. प्रभावती को नकार देना असंभव था. रुद्रसेन महाराज के निधन के बाद वह प्रथम बार अपने पुत्र प्रवरसेन के साथ आई थी. सम्राट चन्द्रगुप्त की प्रकृति अस्वस्थता के बारे में सुनकर.

रात को भोजन के बाद वे सम्राट चन्द्रगुप्त के कक्ष में गए. सम्राट मंचक पर लेटे थे. कालिदास को देखते ही बोले,

“कवि महोदय, आजकल आप कर क्या रहे हैं? पारिवारिक गृहस्थ के समान आप पिछले कुछ मास से व्यस्त हैं. किस काम में इतने व्यस्त हैं?

“ ‘रघुवंशम्’ महाकाव्य लिखना आरंभ किया है, यह हमने सात-आठ मास पूर्व ही आपको बताया था. लगातार नहीं लिखते. नित्य ब्रह्म मुहूर्त पर आरंभ करते हैं. इसके बाद कभी लिखना होता है, कभी नहीं भी होता.

परन्तु अब चौदहवें सर्ग का आरम्भ कर रहे हैं.”

उन्होंने गणेश की घटना बताई.

सम्राट चन्द्रगुप्त बोले,

“आपके संपर्क में जो आयेगा, वह कंचन ही हो जाएगा.”

“महाराज, यह विनोद तो नहीं है ना?

“नहीं, कालिदास, नहीं! अभी इस पल तक ज्वर ने हमें त्रस्त किया था, आप आये और ज्वर भाग गया. यह चमत्कार आपका है, कालिदास. यदि आपने ‘मेघदूतम्’ , शाकुंतलम्’, ‘रघुवंशम्’ इनमें से एक भी काव्य लिखा होता, तो भी आप अपने महाकाव्य के कारण युग-युग तक परिचित रहेंगे. अब तो आपने...हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि आप नवरत्नों की मालिका के एक बहुमूल्य रत्न हैं, और हमसे संलग्न हैं.”

कितना ही समय यूँ ही व्यतीत हो गया.

इसी तरह दिन व्यतीत हो रहे थे, अलग-अलग कारणों से.

मगर आज उन्होंने निश्चय ही कर लिया था, इसके लिए कारण भी वैसा ही था.

उस दिन कालिदास ने सहज ही गणेश से पूछ लिया,

“वत्स, तुम्हें विवाह करना है ना?

कालिदास ने सोचा कि वह मौन रहेगा, परन्तु उसने कहा,
“मैंने इस बारे में विचार किया है
, तात. मैं गौरवर्ण हूँ, तो वह श्यामला हो. ज्ञानवती, गुणवती, लज्जावती हो. भूतल पर ऐसी कोई अवश्य होगी मेरे लिए, परन्तु अद्याप मैंने अधिक कुछ प्राप्त नहीं किया है. पत्नी द्वारा मेरा धिक्कार न हो. वह मेरे गुणों का आदर करे. पति-पत्नी रथचक्रों जैसे समान होते हुए भी यदि पुरुष श्रेष्ठ और गुणवान न हो तो पत्नी उसे कभी स्वीकार नहीं करती.”

“अहो आश्चर्यम्! यह सारा ज्ञान तुम्हें किस बोधिवृक्ष के नीचे प्राप्त हुआ, वत्स?”

“जब आप, प्रत्यक्ष ज्ञानदाता...” पल भर के लिए कालिदास के दिल की धड़कन मानो थम गई, परन्तु गणेश ने ही आगे कहा,

“तात, आपने अपनी नाट्यकृतियों में, काव्य में जिन चरित्र नायकों को समाज के सम्मुख रहा है, वही मेरे भी आदर्श हैं.”

कालिदास ने गहरी सांस छोडी.

‘रघुवंशम्’ पूरा करने के बाद विद्वत्वती के पास जाना है यह निश्चय करके वे लिखने बैठे.

श्रीराम अयोध्या के राजसिंहासन पर विराजमान थे. राज्य में कोई भी दु:खी-कष्टी न रहे इसलिए प्रजाहितदक्ष श्रीराम स्वयँ प्रत्येक क्षण प्रयत्नशील रहते थे. एक बार उन्होंने अपने अत्यंत विश्वसनीय गुप्तचर भद्र से समाज की राय के बारे में पूछा तो पल भर के भद्र विचलित हो गया. परन्तु ‘नि:संकोच कथन करो,’ ऐसी राजाज्ञा प्राप्त होने पर उसने कहा,

‘रघुवंश में इतना सद्गुणी राजा है कि सभी समस्याओं के काले बादल छंट गए हैं, और सर्वत्र आनंद की किरणें हैं, परन्तु...’

“परन्तु क्या?

“परन्तु क्या असुर दशानन के राज्य में रही जानकी शुद्ध होंगी? – यह प्रश्न एक धोबी ने अपनी पत्नी से पूछा.

श्रीराम मौन हो गए. दो दिन विचार करने के बाद उन्होंने लक्ष्मण से कहा कि सीता को वन में छोड़ आये. लक्ष्मण को यह मान्य नहीं था. परन्तु लक्ष्मण सीता को लेकर वन में गया और उसे वहाँ छोड़ आया. श्रीराम ने कहा भी,

हमें ज्ञात है कि भूमिसुता सीता पवित्र है, परन्तु लोकापवाद के कारण हम उसका त्याग करते हैं. वह गर्भवती है. वनविहार के उसके मनोरथ को हे लक्ष्मण तुम पूर्ण करो. और उसका त्याग करके आओ,

 राजाज्ञा. राजादेश मानकर लक्ष्मण ने सीता को वन में छोड़ते हुए सत्य कथन किया, तब सीता ने कहा,

“श्रीराम ने रघुवंश की प्रतिमा को उज्वल किया है. उन्हें मेरा विनम्र वंदन.”

लक्ष्मण ने उसे वाल्मीकि के आश्रम का मार्ग दिखाया.

सर्ग समाप्त हो गया था.

कालिदास के मन में ढेरों प्रश्न खड़े हो गए.

‘श्रीराम प्रजाहित दक्ष राजा थे, तो उन्होने सीता को एक नागरिक के रूप में मान्यता क्यों नहीं दी? नागरिकों की सुरक्षा की चिंता तो उन्हें थी, परन्तु क्या उन्हें अपनी पत्नी की सुरक्षा की चिंता नहीं थी? क्या श्रीराम एक धोबी के प्रश्न का उतर देने में सक्षम नहीं थे? और पत्नी को वन में कहीं भी, किसी भी हालत में छोड़ दिया? वह गर्भवती है यह जानते हुए भी पति धर्म का पालन न करने वाले श्रीराम आदर्श राजा कैसे हुए? व्यक्तिगत सुख की अपेक्षा राष्ट्र सुख अधिक श्रेष्ठ है, यह तो योग्य है, परन्तु उसी राष्ट्र की एक स्त्री अपराधी नहीं, पतित नहीं, अभागी नहीं...जनक जैसे पिता और श्रीराम जैसे पति के होते हुए भी उसके भाग्य को ही बदलने का अधिकार किसने दिया? श्रीराम ने यह निर्णय आवेश में, क्रोध में नहीं लिया, बल्कि संयमपूर्वक जन हित के लिए यह निर्णय लिया. और जिसने चौदह वर्षों तक वन में उनका साथ दिया, उसे, अपनी पत्नी को सुरक्षापूर्वक अपने माता-पिता के पास या किसी आश्रम में पहुँचाने का पति और राजा के रूप में क्या श्रीराम का कर्तव्य नहीं था?

श्रीराम एकाकी, व्यथित रहे. उन्होंने लोकसेवा का आदर्श निर्माण किया. प्रजाहितदक्ष, पुरुषोत्तम, एक पत्नी, एकवचनी श्रीराम जनमानस में आदर्श भ्राता, आदर्श पुत्र, आदर्श दाता थे, परन्तु क्या वे आदर्श पति थे? ये और ऐसे अनेक प्रश्न कालिदास को सता रहे थे. अर्थात् वाल्मीकि द्वारा निर्मित श्रीराम का आदरणीय स्थान आदर्श के रूप में यावद्चन्द्रदिवाकरौ है. शायद कहीं भी ऐसा उदाहरण न मिलेगा कि समाज के एक व्यक्ति की खातिर प्रिय पत्नी का त्याग किया जाए. जनहित, जनकार्य को ही जीवन माना जाए.’            

कालिदास ने मन के विचारों को दूर किया और पन्द्रहवां सर्ग आरम्भ किया. वाल्मीकि द्वारा लिखित रामायण का यह अंतिम अध्याय था. श्रीराम के जीवन की शोकांतिका हो गई थी. श्रीराम को क्या प्राप्त हुआ था? रावण जैसे लंकाधिपति के यहाँ से सीता को अयोध्या लाने के बाद कुछ काल आनंद से बीता, परन्तु आगे के वर्ष? ये वर्ष श्रीराम ने कितने एकाकी व्यतीत किये? इस कल्पना से कालिदास का मन भर आया. श्रीराम योगी नहीं थे. सीता के साथ उन्होंने वनवास के कुछ वर्ष और अयोध्या में कुछ काल व्यतीत किया. वैवाहिक जीवन का आरम्भ हुआ ही था, कि अंत भी हो गया. किसी भी व्यक्ति के लिए यह असहनीय ही है.

उन्होंने हाथ में मयूर पंख की लेखनी ली. उस मयूर पंख में कितने सारे नयनरम्य रंग थे. श्रीराम के जीवन का वनवास ही मयूर पंख के समान था. सभी रंग एकत्रित. संमिश्र. सुन्दर. परन्तु श्रीराम के जीवन में शेष बची केवल स्मरण गाथा.

कालिदास को श्रीराम पर भी आश्चर्य हुआ. क्या उन्होंने कभी सीता की खोज-खबर लेने का प्रयत्न किया होगा? ‘उसे वन में छोड़ आओ,’ ...परन्तु अपनी उस गर्भवती पत्नी को किसी वन्य श्वापद ने अथवा किसी असुर ने मृत्यु के घाट उतार दिया हो तो? यद्यपि वह वन से परिचित थी, परन्तु वह गर्भवती, नि:शस्त्र भला कहाँ जा सकती थी?

श्रीराम ने लवणासुर का वध करने के लिए शत्रुघ्न को भेजा. वह यश सम्पादन करके वापस आया. उसके दो पुत्र शत्रुघाती और सुबाहू उसके साथ थे. उसने अपने पुत्रों को मथुरा और विदिशा देकर वहाँ का लोकपाल नियुक्त किया.

लक्ष्मण ने अपने पुत्रों, अंगद और चंद्रकेतु को कारापथ देश का लोकपाल पद दिया.

भरत ने अपने पुत्रो, तक्ष और पुष्कल को तक्षशिला और पुष्कलावती नगर दिए.

श्रीराम ने उन्हें राज्यपद ही प्रदान किया. मगर लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न अपने ज्येष्ठ बंधू के साथ अयोध्या में ही थे.

कालिदास पन्द्रहवां सर्ग लिख रहे थे. अश्वमेध यज्ञ करके जीवन के अंतिम कार्य को पूर्ण करने का श्रीराम ने निश्चय किया. यज्ञ के अश्व को दो कुमारों ने वन में प्रतिबंधित किया. सैनिक उन्हें बांधते, इससे पहले वाल्मीकि ने कहा, “ विश्वास रखें, हम उन्हें लेकर आयेंगे.” यज्ञवेदी के निकट सीता की सुवर्ण मूर्ती थी. सामने श्रीराम थे. वाल्मीकि ने उन सीतापुत्रों लव और कुश को काव्य में गुंफित राम कथा का गायन करने के लिए कहा. उन दोनों को यह कल्पना ही न थी कि श्रीराम उनके पिता हैं.    

गीत-रामायण सम्पूर्ण होने के बाद श्रीराम उठे. उन्होंने उन दोनों को अपने बाहुपाश में लिया. उन पर अश्रु धाराओं का अभिषेक किया.

“हे कुमारों, तुम कौन हो? कहाँ से हो? किसके साथ आये हो?

“राजन! प्रथम विनम्र प्रणाम स्वीकार करें. हम जानकी पुत्र लव और कुश, जनक कन्या सीता अर्थात जानकी के साथ ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में रहते हैं. वही हमारा निवास स्थान है. उन्होंने वाल्मीकि की ओर अंगुली निर्देश किया. वे आगे आये.

“श्रीराम, ये तुम्हारे पुत्र हैं. गर्भवती सीता हमारे आश्रम में आई थी. वेदविद्यासम्पन्न, धनुर्धारी ऐसे ये कुमार राजनीति शास्त्र के भी ज्ञाता हैं.”

“हमारी सीता...” श्रीराम त्वरित राजभवन की सीढियां उतर कर रथ में बैठे. वाल्मीकि सहित लव कुश भी वन में आये. श्रीराम को देखते ही सीता के नेत्रों से अश्रुधारा बह निकली.

श्रीराम ने कहा, “सीते, तुम पवित्र थीं, परन्तु लोक प्रवाद के कारण हमने तुम्हारा त्याग किया. इस वन में भी तुम पवित्र ही होगी, ऐसा हमें विश्वास है.”

कालिदास के मन में ये शब्द शूल के समान चुभ रहे थे. परन्तु यदि ऐसा था, तो वाल्मीकि रामायण में सत्य था. मगर सीता शांत और संयत थी. उसने कहा,

“यदि मैं काया, वाचा, मन से शुद्ध और पवित्र हूँ, तो धरती माता मुझे अपने उदर में लेगी.”

निमिष मात्र में धरती दुभंगित हो गई, और सीता अदृश्य हो गई. श्रीराम विलाप कर रहे थे. प्रजा जन अपने अश्रु रोकने में असमर्थ थे.

कालिदास श्रीराम की अवस्था समझ गए थे. नियती ही किसी के जीवन में मानसिक संघर्ष करने के लिए ऐसे क्षण उत्पन्न करती है. वही कारण होती है, वही घटनाक्रम निश्चित करती है, वही सुलझाती भी है. यहाँ भी नियती ने श्रीराम के मन के द्वंद्व को ही समाप्त कर दिया. ‘वह कहीं होगी, कहीं से उसके बारे में समाचार आयेगा,’ यह आशा ही समाप्त कर दी नियती ने.

किसी-किसी के जीवन में ऐसा क्यों होता है? हम इसका स्पष्टीकरण देते हैं, परन्तु उसका कोई अर्थ नहीं होता. अब श्रीराम का जीवन शून्य हो गया था. अब उनके जीवन में आत्मा ही नहीं थी. इस बीच लक्ष्मण के हाथ से अपराध हुआ और लक्ष्मण ने देहत्याग कर दिया था. सीता गई, प्रिय लक्ष्मण भी गया. श्रीराम अब पूरी तरह व्यथित हो गए. उन्होंने कुश को कुशावती का राज्य दिया और लव को शरावती का राज्य दिया.

 

तस्मिन्नात्मचतुर्भागे प्राङ्नाकमधितस्थुषि ।

राघवः शिथिलं तस्थौ भुवि धर्मस्त्रिपादिव ॥

श्रीराम के जीवन के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार भागों में से एक भाग लुप्त हो गया. अब श्रीराम ने स्वयँ को शरयू नदी में समर्पित करने का निश्चय किया, और वे शरयू के तीर पर गए. उनके पीछे प्रजा भी निकली. सब लोग नदी के प्रवाह में उतरे. ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो सहस्त्रों गोमाताएं एक ही जलाशय  में उतरी हों. श्रीराम के लिए स्वर्ग से विमान आया और श्रीराम मन्त्र सिद्धी से सब लोगों सहित शरयु को ही स्वर्ग ले गए.

राम कथा यहाँ पूर्ण हुई, परन्तु ‘रघुवंशम्’ को पूरा होना था.

कालिदास उठे. भोजपत्र वैसे ही थे. मध्याह्न हो गई थी. उनका भोजन करने का भी मन नहीं था. एक सत्शील, गुणसम्पन्न, सदाचारी व्यक्ति ऐसी मृत्यु को प्राप्त हो, इसका उन्हें अत्यंत दुःख था.

उसके बाद कई दिनों तक लिखने की इच्छा ही नहीं हुई. श्रीराम के जाने के बाद शून्यवत् हुई अयोध्या नगरी का दृश्य उनकी आंखों के सामने से नहीं जा रहा था. और ‘रघुवंशम्’ को पूर्ण करना था.

अब वे अयोध्या को पूर्ववत हुआ देखने के लिए उत्सुक थे.

कुशावती में कुश उत्तम प्रकार से शासन कर रहा था. एक रात्रि को उसके शयन कक्ष में अत्यंत तेजस्वी स्त्री ने प्रवेश किया. उसे आश्चर्य हुआ. प्रहरी के होते हुए कोई सुन्दर स्त्री कैसे भीतर प्रवेश कर सकती है! उसने पूछा, “कौन हो तुम?” उसने उत्तर दिया, “मैं अयोध्या नगरी हूँ. अब तेजोविहीन हूँ. श्रीराम के अपने तीन बंधुओं सहित स्वर्गारोहण करने से मैं अत्यंत व्यथित हूँ.”

कुश अयोध्या नगरी वापस आया. अयोध्या को पूर्व वैभव प्राप्त हुआ. उसका विवाह कुमुद्वती से हुआ. उनका पुत्र ‘अतिथि अत्यंत तेजस्वी था. ‘अतिथि सत्यप्रिय राजा के रूप में प्रसिद्ध हुआ.        

उसकी वाणी कभी भी असत्य नहीं हुई. जो दान दिया, सो दिया, ऐसी उसकी ख्याति थी. सत्रहवें सर्ग में कालिदास ने सर्वगुण संपन्न ‘अतिथि का पूरे मनोयोग से वर्णन किया है.

अद्याप ‘रघुवंशम्’ का अठारहवां अध्याय पूर्ण न होने से उन्होंने उस वंश के राजाओं की महानता का वर्णन किया. देखते-देखते चातुर्मास समाप्त हो गया था. अद्याप महाकाव्य पूर्ण नहीं हुआ था, और मन में विद्वत्वती थी. उसे ‘रघुवंशम्’ महाकाव्य दिखाने की तीव्र इच्छा हो रही थी. वे अधीरता से सर्ग पूरा होने की राह देख रहे थे. रघुवंश का अंतिम राजा था अग्निवर्ण. उसके बाद रघुकुल का अंत हो गया था. अभी बाईस राजाओं का उल्लेख करना था.

उन्होंने अठारहवां सर्ग लिखना आरंभ किया. ‘अतिथि राजा का निषध देश की राजकन्या से विवाह हुआ. उसने अपने पुत्र का नाम रखा ‘निषध. निषध का पुत्र हुआ ‘नल. अत्यंत सुन्दर और पराक्रमी के रूप में उसका वर्णन करते हुए एक बात की ओर कालिदास का ध्यान प्रमुखता से गया – रघुवंश का प्रत्येक राजा महापराक्रमी, रसिक, गुणज्ञ, प्रजाहितदक्ष, वीरबाहू, शस्त्र-अस्त्र विद्या प्रवीण और वेदविद्या में पारंगत होने से रघुवंश के अट्ठाईस राजा रामायण काल के द्वितीय राजा हुए. उनतीसवां – अग्निवर्ण अपवाद था. वह रघुवंश का कलंक तो था ही, परन्तु अंतिम बिंदु भी सिद्ध हुआ.

नल राजा का पुत्र ‘नभ श्रावण-मेघ के समान लोकप्रिय था. नल राजा ने अपने पुत्र को उत्तर कोसल का राज्य दिया. नभ के पुत्र पुण्डरीक का कार्यकाल भी उज्जवल था. उसका पुत्र ‘क्षेमधन्वा आगे चलकर राजा हुआ. उसका पुत्र ‘देवानीक प्रजावत्सल राजा था. उसका पुत्र – परमवीर ‘अहीनगु उसका पुत्र ‘पारियात्र जिसने राज्य विस्तार करके प्रजा को आनंद दिया. उसका भी उसीके समान पुत्र ‘शील हुआ. शील राजा का पुत्र था ‘उन्नाभ, जिसने देव-देवताओं को भी प्रसन्न किया. रघुकुल का नाम अखण्ड और अबाधित रखने वाले ये राजा रघुकुल के भूषण थे. उन्नाभ राजा का पुत्र था ‘वज्रनाभ और उसका पुत्र ‘शंखनाभ’ जिसने शिव की आराधना करके पुत्र प्राप्ति का वर मांगा, वह ‘विश्वसह, जिसे नीति परायण होने का लौकिक प्राप्त हुआ. ‘विश्वसह’ से ‘हिरण्यनाभ’ और ‘हिरण्यनाभ’ का तेजस्वी पुत्र हुआ कौसल. कौसल राजा ने अपने पुत्र का नाम ‘ब्रह्मिष्ठ रखा और उसे ब्रह्म विद्या में पारंगत किया. उसका पुत्र ‘पुत्र नाम से प्रसिद्ध हुआ. यही नामकरण ब्रह्मिष्ठ राजा ने किया था. उस पुत्र राजा का पुत्र हुआ ‘पुष्य और पुश्यराजा का पुत्र – ध्रुवसन्धि. उसने सभी देवताओं से संधि की. प्रजा और देवलोक का अंतर समाप्त किया. ध्रुवसंधि राजा का पुत्र सुदर्शन अब सिंहासन पर विराजमान हुआ. राजा सुदर्शन श्रीराम के समान सुन्दर, महादानी, अश्वमेध यज्ञ करने वाला, प्रजाहितदक्ष राजा था. परन्तु उसका राज्याभिषेक बाल्यावस्था में ही हुआ था. उसके सुकुमार पग सिंहासन पर बैठकर धरती को स्पर्श नहीं कर पाते थे, परन्तु बालवय में ही लिए गए उसके निर्णय अत्यंत योग्य सिद्ध होते थे.

नीलम रत्न चाहे आकार में लघु हो, परन्तु उसका तेज और प्रभाव कम नहीं होता. उसी प्रकार ‘सुदर्शन राजा की देहाकृति लघु होते हुए भी प्रजा उसे ‘महाराज बहुमान से ही संबोधित करती थी.                    

शरीर प्रकृति से निर्बल होते हुए भी सुदर्शन राजा के राज्य में कहीं भी न्यूनता नहीं थी. उपवर राजकन्याएं उससे विवाह करने के लिए उत्सुक थीं.

यहाँ अठारहवां सर्ग समाप्त हुआ. इस सर्ग में कालिदास ने केवल राजाओं की नामावली देते हुए उनके गुण विशेषणों के बारे में दो-दो पंक्तियाँ लिखी थीं. परन्तु याद करके लिखीं. सर्ग को पुनश्च पढ़ते हुए यह बात ध्यान में आई, परन्तु अब फिर से एक-एक राजा का वर्णन करने की उनकी इच्छा नहीं हुई. अंतिम सर्ग लिखने के बाद विदिशा जाना है, मन में यह निश्चय करने के बाद उन्हें विदिशा और विद्वत्वती के स्वप्न आने लगे थे. एक मन विदीर्ण था – वह स्वसामर्थ्य प्रकट करना चाहता था, एक मन विचलित था – जो कर रहे हैं वह योग्य है अथवा अयोग्य – इस संभ्रम में था.

अंत में उन्होंने मन को संयमित करके उन्नीसवां सर्ग लिखना आरंभ किया. और उनके मन में आया, ‘हमने रघुवंश का आरंभ लिखा यह उचित ही हुआ. मगर क्या उसके बाद सभी पराक्रमी राजाओं का वर्णन आवश्यक था? ऐसा मन में प्रश्न उठा. एक वंश के गौरवपूर्ण इतिहास का वर्णन करते हुए, उस वंश के पतन के लिए कारणीभूत राजा ‘अग्निवर्ण पर भी लिखना पडेगा, इस विचार से मन व्यथित हो रहा था. आरम्भ सूर्य प्रकाश से, तो अंत अमावस्या से...परन्तु अब राजा ‘अग्निवर्ण का अनवांछित वर्णन करना पडेगा.

उन्होंने भोजपत्र लिए, आसन पर बैठे, तभी सेवक ने प्रवेश किया,

“कालिदास महाराज, आपको महाराज चन्द्रगुप्त ने आमंत्रित किया है, और भोजनशाला में महाराज के साथ...”

यह उन्नीसवां सर्ग पूर्ण करके वे गणेश के साथ भोजन करने ही वाले थे. अब सम्राट चन्द्रगुप्त के यहाँ उन्हें जाना ही होगा. गणेश इस समय अश्वशाला में था, सेवक के साथ उन्होंने उसे सन्देश भेजा और वे राजप्रासाद की भोजनशाला की ओर चले.

आज महाराज ने अचानक आमंत्रित किया होगा. अनेक बार मंत्रीमंडल को हास्य विनोद में सहभागी होने के लिए भोजनशाला में बुलाया जाता. वैसा ही कोई कारण होगा. वे भोजनशाला पहुंचे. सम्राट चन्द्रगुप्त उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे. आज महारानी ध्रुवस्वामिनी एवँ अन्य रानियाँ वन भोजन के लिए गई थीं.                    

“महाराज, इस निमित्त से हमें भोजन के लिए आमंत्रित किया? आप क्यों नहीं गए वनभोजन के लिए?

“सभी राजस्त्रियाँ गई हैं वसंतोत्सव के लिए, और हमें भी कुछ विशेष कार्य करना था.” वे मौन हो गए. कालिदास सोच में पड गए.

“अब, पहले भोजन,” वे हमेशा की तरह बोले.

भोजनोत्तर तांबूल लेते हुए महाराज बोले,

“ कालिदास, सम्राट समुद्रगुप्त – हमारे पिताश्री ने एकसंघ राज्य निर्माण करने के लिए अपार परिश्रम किया. उस साम्राज्य को अधिक वृद्धिंगत करते हुए, काश्मीर से दक्षिणपथ, जगन्नाथपुरी, मध्यदेश, उत्तरदेश से राजस्थान और गांधार, कम्बोज और बाल्हिक तक हमने साम्राज्य विस्तार किया. हमारा प्रशासन उत्तम है आप सबके सहकार्य से.”

अभी भी कालिदास समझ नहीं पा रहे थे कि उनके विचार किस दिशा में जा रहे हैं.

“जलव्यापार को नियंत्रित करने के लिए पिताश्री द्वारा निर्मित राजधानी पाटलीपुत्र को हम उज्जयिनी लाये और मगध को उपराजधानी बनाया. शक-क्षत्रप, हूणों को सीमापार किया, परन्तु...”

“परन्तु क्या, महाराज?” कालिदास ने अत्यंत उत्सुकता से पूछा.

“अब तक हम संघर्ष करते हुए, युद्ध करते हुए, कर्तव्य करते हुए, राजशासन की परिपूर्ण कल्पना को यथार्थ बनाने के लिए प्रयत्न करते रहे. अब विश्राम चाहिए, शांत अरण्यवास की इच्छा होने लगी है, परन्तु युवराज कुमार अद्याप कुमार हैं.” कालिदास प्रसन्नता से हँसे.

“महाराज, आयु में उनसे केवल दो वर्ष बड़ी रानी प्रभावती दो बच्चों की माता हैं और उत्तम शासनकर्ता हैं. पिता को कभी भी ऐसा प्रतीत नहीं होगा कि उसका पुत्र आयु में श्रेष्ठ हो गया है. आखिर पिता ही तो श्रेष्ठ होता है ना? महाराज, क्या हम आपको एक सुझाव दे सकते हैं?

“इसीलिये तो आमंत्रित किया है.”

“वर्त्तमान में युवराज कुमार मगध में पाटलिपुत्र में हैं. मगध की सम्पूर्ण राज्य व्यवस्था उन्हें सौंप दें. आधा बोझ कम हो जाएगा. इसके अतिरिक्त मंत्रीमंडल में नई ऊर्जा के सहकारी नियुक्त करें. इससे वृद्ध सहकारियों पर बोझ कम हो जाएगा. मंत्रीमंडल के अतिरिक्त अन्य सहकारी हैं, उनसे मिलने वाली नित्य वार्ताओं का, नित्य घटनाओं का अति आवश्यक सन्देश ही आप तक पहुंचे. एक वार्ता विभाग हो. तत्काल निर्णय लेते समय आपकी अथवा मंत्रीमंडल की राय जानें. किसी एक विषय पर अनेक परामर्श न लेते हुए मार्गदर्शक सभा में निर्णय लें. इससे पल-पल पड़ने वाले तनाव कम होंगे.”

“अब हमें दक्षिणपथ जाना है.” 

“महाराज, प्रत्येक स्थान पर प्रत्यक्ष जाने की अब आपकी उम्र नहीं है. अनेक विश्वासपात्र मंत्री हैं. उन्हें भेजें, हम भी जा सकते हैं. आपका कार्यविस्तार अत्यंत विस्तीर्ण है, आधा युवराज कुमार देख सकते हैं. महाराज, एक बात पूछें?

सम्राट चन्द्रगुप्त हँसे, “दस पूछिए, कालिदास.” 

“जब महाराज रामगुप्त के राज्य में महाराज समुद्रगुप्त राजप्रासाद में ही थे, तब शकाधिपति से युद्ध किसने किया था? ध्रुवस्वामिनी महारानी की किसने रक्षा की? आपने ही ना? उस समय आपकी आयु कितनी थी? आप अयोध्या के प्रान्तपाल थे. राज्य पर शकों का आक्रमण होते ही आये थे ना भागकर? कल युवराज कुमार पूरे साम्राज्य को उत्तम रीति से संभालेंगे. पिता की इतनी स्नेहमयी दृष्टी से न देखें.”

उसी समय उनके मन में आया छह-आठ माह पूर्व आया हुआ गणेश. अश्वशाला में कार्य, और गुरू के पास अध्ययन. कुछ अभ्यास वे स्वयँ करवाते. कल तक जिससे कोइ संबंध तक नहीं था, वह गणेश कब अपना हो गया पता ही नहीं चला. प्रात:काल कंधे पर हाथ रखकर गहरी निद्रा से उसे जगाते हुए वह स्पर्श...स्नेह मन को इतना छू जाता है...और हम महाराज से युवराज कुमार को, जो उनके लिए अभी कुमार है,  कर्तव्य का बोध करवाने को कह रहे हैं... हम गलती तो नहीं कर रहे हैं? 

कालिदास ने कहा, “महाराज, हमें पुत्र नहीं, पुत्र प्रेम की कल्पना भी नहीं...हमारी बात का बुरा न मानें.”

“कालिदास, हम अपनी भूमिका से ही हमारे विचार रख रहे थे. उनके उत्तर हमें त्रयस्थ भावना से ही चाहिए थे. वे सब योग्य, अति योग्य थे. अभी हम पाटलिपुत्र ही जा रहे हैं.”

“महाराज, क्या अब हम अपना एक प्रश्न पूछें?

“उससे पहले एक बात कहना है. विदिशा में काव्य शास्त्र पर एक शास्त्रार्थ का आयोजन किया जा रहा है. हम चाहते हैं कि आप और अमरसिंह वहाँ जाएँ.”

“हाँ, हम अवश्य जायेंगे महाराज,” अत्यंत प्रसन्नता से कालिदास बोले.

“हमें ज्ञात था, कालिदास, इसीलिये हमने दूत के साथ दो नाम भेजे. ‘अस्ति कश्चिद् वाग्विशेष:’ का उत्तर अब आप दे सकेंगे. अनौपचारिक रूप से जाने की अपेक्षा सम्मानपूर्वक जाएँ. आप ‘कालिदास नाम से प्रसिद्ध हैं. उस समय के कुमार मातृगुप्त और आज के प्रौढ़ प्रगल्भ कालिदास का किसी को भी परिचय नहीं है. और परिचय होगा तो महाकाव्य के निर्माता और उत्तम नाटककार के रूप में ही होगा. हमें ज्ञात थी आपकी भूमिका.”

“महाराज....महाराज...” कालिदास भावविह्वल हो गए, उनका गला भर आया.

“हम सम्पूर्ण आर्यावर्त के हैं, परिवार के हैं, परन्तु हमारा अपना कौन है?” जब यह प्रश्न स्वयँ से पूछते हैं तो उत्तर मिलता है, “कालिदास!”

“अहो भाग्यम्, महाराज,” कालिदास सम्राट चन्द्रगुप्त के चरणों में झुक ही रहे थे कि उन्होंने कालिदास को अपने दृढ़ आलिंगन में ले लिया.

“जाकर आयें, हम भी अगले सप्ताह मगध के लिए प्रयाण करने वाले हैं.”

कालिदास वापस आये. अब वे सम्मानपूर्वक विदिशा जाने वाले थे. अब उन्होंने उत्साहपूर्वक उन्नीसवां सर्ग लिखना आरंभ किया, तभी गणेश आया.

“तात, मन की इच्छा पूर्ण होने जा रही है. सम्राट चन्द्रगुप्त के सारथी होने का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ. उनकी अश्वशाला में ईमानदारी से कार्य कर रहा था, एक दिन वे स्वयँ आये थे. तभी उन्होंने कहा, “तुम्हारी प्रामाणिक सेवा से हम प्रसन्न हैं.” परन्तु मैंने सोचा नहीं था कि मुझे ऐसा अवसर मिलेगा. अवसर का लाभ उठाते हुए मैंने कहा, “महाराज, मुझे सैन्य दल में जाना है, मुझे युद्ध भूमि पर जाना है.”

“अवश्य...अवश्य...हम सेनापति से कहते हैं.”

कालिदास को सम्राट के स्नेह का पुनःसाक्षात्कार हुआ. उन्होंने मन ही मन सम्राट को धन्यवाद दिया. गणेश जैसे आया था, वैसे ही चला गया. रात्रि का दूसरा प्रहर आरंभ हो चुका था. अब लिखें अथवा न लिखें?’ इस उधेड़बुन में उन्होंने सामने पीठे पर भोजपत्र रखे और लिखना आरंभ किया.

राजा सुदर्शन ने वृद्धावस्था प्राप्त होने के बाद अग्नि के समान तेजस्वी पुत्र अग्निवर्ण को राज्य सौंप कर वानप्रस्थाश्रम स्वीकार कर लिया. 

अग्निवर्ण कामुक प्रवृत्ति का था. इतना बड़ा साम्राज्य था. उत्तम मंत्रीमंडल था. मंत्रीमंडल के आधीन राज्यव्यवस्था करके अग्निवर्ण अपना जीवन मदिरा और मदिराक्षी में ही व्यतीत करने लगा. परिणाम स्वरूप राज्य शिथिल हो गया. नागरिक त्रस्त हो गए. समस्याएँ वृद्धिंगत होती रहीं.

कालिदास विचारमग्न हो गए. केवल एक नगरी को व्यवस्थित रखना हो, परिवार को सुस्थिति में रखना हो, अथवा परिवार को संगठित रखना हो तो एक कर्तृत्ववान व्यक्ति की आवश्यकता होती है. यहाँ तो आर्यावर्त में स्थित और अट्ठाईस पराक्रमी राजाओं द्वारा प्राप्त किया हुआ विशाल साम्राज्य था. कालिदास के नेत्रों के सामने आर्यावर्त का विशाल प्रदेश एक भव्य पुरुष के रूप में खडा था. प्रत्येक प्रांत के आसुरी लोग उसे क्षत-विक्षत कर रहे थे. वह भव्य, आर्यावर्त पुरुष हीन-दीन-असहाय हो गया था, क्योंकि उसकी आत्मा ही खो गई थी.

नित नई समस्याएँ उत्पन्न हो रही थीं, आक्रमण हो रहे थे, जिन्हें सहन करना उस महापुरुष के लिए अत्यंत कठिन हो गया था. रघुकुल का यह वंशज रति क्रीडा में इतना अधिक व्यस्त हो गया था कि अपने मंत्रियों से भी नहीं मिलता था. कभी-कभार त्रस्त होकर किसी रमणी के साथ अटारी के झरोखे से अपने चरणों के दर्शन देता था. उसके जीवन का प्रत्येक क्षण रमणी के साथ व्यतीत होता था. अन्य कोई विषय ही नहीं था, ‘विषय से विषयांतर करना उसका स्वभाव नहीं था. उसके प्रासाद में मदिरा और मदिराक्षी का ही आवागमन था.

राजा अग्निवर्ण को दर्पण में राजवस्त्रों में अपनी प्रतिमा देखने में कोई रूचि नहीं थी, बल्कि रति क्रीडा में रमणी के सहवास में हुए व्रणों की शोभा उसे सबसे प्रिय लगती थी.

कुछ काल तक मंत्रीमंडल राज्य शासन कर रहा था, परन्तु महत्वपूर्ण निर्णय लेना, उन्हें कार्यान्वित करना उनके बस की बात नहीं थी. वहाँ आवश्यकता थी राजा की. और राजा था मदनिकाओं के सहवास में. उसके दिन और रात केवल रंगशाला में व्यतीत हो रहे थे. रानियाँ तो नित्य की वस्तु थीं, मदनिका नित्य की न हो, इसलिए नित नई रमणी को बुलाया जाता था. उसकी दासी और सखी भी राजा के आकर्षण की पात्र होतीं,

आधा जीवन इसी में व्यतीत हो गया.          

राज्य की सुसूत्रता समाप्त हो गई. राज्य की सीमाएं क्षतिग्रस्त हो गईं. समस्याओं  का प्रमाण बढ़ने लगा. पीड़ित नागरिक गृह युद्ध के लिए प्रवृत्त हो गए. कुछ देशद्रोही हो गए.

रघुकुल के सूर्यास्त को अंकित करते हुए नियति पल भर को रुकी. बाल सूर्य, मध्याह्न का प्रौढ़-प्रगल्भ सूर्य और आषाढ़ के संध्याकालीन मेघों के पीछे छुपे सूर्य को उसीने तो अंकित किया था. रघुकुल का भाग्य इतना ही था. अयोध्या पर अब तक किसी ने आक्रमण नहीं किया था. निष्ठावंत राज्यकर्ता अभी भी राजसेवा में ईमानदारी से कार्य कर रहे थे.

अग्निवर्ण को पुत्र प्राप्ति तो नहीं हुई, बल्कि राजयक्ष्मा हो गया. इस वार्ता को भी मंत्रीमंडल ने गुप्त रखा. उसकी मृत्यु के पश्चात गुप्त रूप से उसका दहन कर दिया गया. और जिस रानी को गर्भ धारण करना संभव हुआ था, उस रानी का राज्याभिषेक किया गया.

इति श्री महाकविकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये

अग्निवर्णश्रृंगारौ नामैकोनविंश: सर्ग:

 

इति रघुवंशम् महाकाव्यम्

 

आगे वे समाप्तम् लिखना चाहते थे, परन्तु नहीं लिखा. शायद आगे कुछ लिखने का मन हो अभी तो समाप्त करना उचित नहीं है. अब तक वे ‘सर्ग समाप्त ऐसा लिखा करते थे, वैसा इस समय नहीं लिखा. उन्होंने बस यही लिखा कि उन्नीसवां सर्ग उनके द्वारा लिखा गया.

अधिक विचार न करते हुए उन्होंने भोजपत्रों को एकत्रित करके रेशमी वस्त्र में लपेटा और सामने ही स्थित देवी सरस्वती की प्रतिमा को मन:पूर्वक नमस्कार किया.

‘हे वाग्देवी, हे शब्दवती, वेदवती, संपूर्ण कलाकामिनी, हे गंधवती, सकलजन मोहिनी तुम्हें शतवार नमन. हे शब्दालंकार मंडित, अर्थगर्भ आशययुक्त वीणा वादिनी सरस्वती, चंपक, पारिजात, रजनीगन्धा, चहुँ ओर का गंध लेकर आई हुई तुम रसिका, सहजसुलभा फिर भी सघन, कठोर व्रतकामना, निश्चया, हे रूपमोहिनी, तुमने हमारे हृदय में वास किया, हमारी भावनाओं, संवेदनाओं को शब्द प्रदान किये, हम कृतार्थ हुए. इस प्रौढ़-प्रगल्भ अवस्था में हमारे शब्दों को ऊर्जा, आनंद, यौवन का परिमल दिया, हम धन्य हुए देवी सरस्वती, धन्य हुए देवी सरस्वती!’

उनके नेत्र प्रसन्नता से छलक उठे. पिछले सात-आठ माह से अनामिक प्रेरणा से वे लिख रहे थे, आकाश रंगों से परिपूर्ण था. अब पल भर को वह शून्य हुआ प्रतीत हुआ, परन्तु अगले ही पल मन अनामिक आनद से भर उठा. मन का आकाश कभी सूना होता ही नहीं है. वे मन ही मन प्रसन्नता से हँसे. आधी रात समाप्त होने को आई थी. वे मंचक पर लेटे. जी चाहा कि इस आनंद को इसी पल मधुवंती के साथ, सम्राट चन्द्रगुप्त के साथ बांट लें. परन्तु प्रथम किसके पास जाएँ, इस प्रश्न पर वे अटक गए थे. ब्रह्ममुहूर्त हो रहा था.

 

***

No comments:

Post a Comment

एकला चलो रे - 13

  13     अभी सुबह भी नहीं हुई थी.रवी बाबू पद्मा नदी के किनारे पर खड़े थे. अब समूचे आकाश में उजाला होने लगा था. केसरी रंग हल्के-हल्के पूरे...