Saturday, 18 March 2023

Shubhangi - 68

 

 

 

 

 आकाशमध्य को जा रहा रजनीकान्त पल भर को स्थिर हुआ. आज उसके साथ रोहिणी नहीं थी. उसके तेज में अन्य नक्षत्र भी लुप्त हो गए थे. कालिदास अभी भी जागृत थे. आज उनकी भी ऐसी ही स्थिति थी, उन्होंने अत्यंत एकाकीपन का अनुभव हो रहा था.

राजा भोज की सभा में शास्त्रार्थ का आयोजन था. वस्तुत: शास्त्रार्थ नहीं था, परन्तु काव्य निर्मिती, काव्य प्रयोजन, उसमें उपलब्ध प्रतिमाओं का स्थान, ऐसी एक शास्त्रग्रन्थ के लिए सकल समीक्षा जिन्हें अपेक्षित थी, वे काशी के पंडित शेखर उपस्थित थे. इसके अतिरिक्त दक्षिणपथ के स्वामी रामेश्वर, पंडित सर्वेश्वर, पंडित गोविंदप्रसाद, पंडित अमर सिंह ऐसे दस विद्वानों के बीच महाकवि कालिदास भी उपस्थित थे.

प्रात:काल विदिशा नगरी के राजपथ पर प्रवेश करते हुए उनके मन में अनामिक स्पंदन हो रहे थे. हृदयगति बढ़ गई थी. शरीर काँप रहा था. मन में भय, अधीरता, उत्सुकता, मान, अवमान – ऐसी अनेक भावनाएँ उठ रही थीं.

‘कैसी दिखती होगी वह? इस शास्त्रार्थ में वह भी उपस्थित होगी ही. वह तो उसका प्रिय विषय है. ऐसे शास्त्रार्थ में ही असत्य का षडयंत्र रच कर हमने उसका विश्वासघात किया था. उसी का दंड हमें मिला.

कभी कभी असत्य से सत्य प्रगट होता है. दुःख से सुख का मार्ग मिलता है. अन्धकार को सूर्यप्रकाश का मार्ग दिखाई दे, ऐसा ही हुआ था. उसके हमें सीमापार करने के बाद विपुल संपत्ति के समान प्रचंड ज्ञान संपदा हमें प्राप्त हुई.’

कालिदास मन ही मन हँसे. कहाँ गोपालक, देह पर मांगे हुए राजवस्त्र धारण करने वाला मातृगुप्त और आज का महाकवि कालिदास. विद्वत्वती ने हमें भले ही सीमा पार किया हो, परन्तु प्रत्येक व्यक्ति ने हर जगह हमें स्नेह ही दिया. सरस्वती देवी, मधुवंती और ज्येष्ठ बंधु के समान स्नेह करने वाले सम्राट चन्द्रगुप्त, रानी प्रभावती, युवराज कुमार...सभी ने स्नेह दिया.             

उन्हें इस क्षण सम्राट चन्द्रगुप्त का स्मरण हो आया. अस्वस्थ होते हुए भी मगध की शासन व्यवस्था को प्रत्यक्ष रूप से जानने के लिए निकले थे. इससे पूर्व उन्हें राजसभा में आमंत्रित करने के लिए सेवक को भेजा. उन्हें आश्चर्य हुआ, वे नित्य ही राजसभा में उपस्थित रहते थे, चाहे कार्य हो अथवा न हो. यह उनका नित्य नियम था. वस्तुत: उनके पास आश्रम व्यवस्था, कन्याश्रम, वृद्धाश्रम. अनाथाश्रम ऐसे सारे आश्रमों का उत्तरदायित्व था. वे अपना काम पूर्ण करते ही थे, फिर भी विशेष आमंत्रण आने से वे आश्चर्य चकित थे.

जैसे ही उन्होंने राजसभा में प्रवेश किया, मंगलवाद्य बजने लगे. उन पर पुष्पवृष्टि हुई. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था, कि क्या यह स्वागत उनके लिए है, अथवा सम्राट के लिए, और गलती से हो रहा है...परन्तु दालान में प्रवेश करते ही ‘महाकवि कालिदास की जय हो!’ के उत्स्फूर्त नारों से राजसभा गूँज उठी.

कालिदास कुछ भी समझ नहीं पा रहे थे. संभ्रमित अवस्था में ही उनके ध्यान में आया कि नियत समय से पूर्व ही राजसभा सम्पूर्ण है. प्रत्यक्ष सम्राट चन्द्रगुप्त भी राजदंड लिए सिंहासन पर उपस्थित हैं. मगर यह स्वागत किसलिए? वे और अधिक उलझन में पड़ गए.

“सुस्वागतम् कालिदास महोदय!” सम्राट चन्द्रगुप्त राजदंड रखकर उठे, उत्तरीय संभालते हुए सिंहासन की चार सीढियां उतर कर उन्होंने सेवक को संकेत किया,

और कुछ ही क्षणों में आयोजन के अनुसार सेवक राजवस्त्र, अलंकार, सुवर्ण मुद्रा लेकर आये. सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा,

“कालिदास महोदय के राजसभा में प्रवेश को आज पच्चीस वर्ष पूरे हो रहे हैं. इस अवधि में इन्होने जो महाकाव्य निर्मिती और नाट्य निर्मिती की है, उसके उपलक्ष्य में हम आज तक उनके लिए ‘महाकवि संबोधन का प्रयोग करते थे. उसमें थोड़ा सा शरारत का भाव भी था. परन्तु बाद में हमें आकलन हुआ कि कला और कलाकृति वही निर्माण कर सकता है, जो सरस्वती पुत्र हो, वाणी और वैखरी की उपासना करता हो, जिसके पास औरों से अलग दृष्टी हो.

कालिदास ने ‘रघुवंशम्’ जैसे महाकाव्य की रचना की, ‘कुमारसंभवम्’ जैसी महान रचना का निर्माण किया, शृंगार से महकता हुआ उत्कट भावकाव्य ‘मेघदूतम्‘ लिखा, ‘ऋतुसंहार’ जैसा निसर्गकाव्य लिखा. अनेक नाट्य कृतियाँ भी उन्होंने लिखी हैं.

भारतीय साहित्य के इतिहास के सुवर्ण पृष्ठों में उनका नाम होगा, इतना महान कार्य उन्होंने किया है. उनके कारण हमारा कालखंड भी धन्य होने वाला है. आज हम ऐसे गुणसम्पन्न. वेद, उपनिषद्, ज्योतिष, आयुर्वेद और भरत मुनि की नाट्य संहिता के प्रगाढ़ अभ्यासक, चौसठ कलाओं के ज्ञानी, रसज्ञ और सर्वाधिक लोकप्रतिष्ठित, लोकप्रिय महाकवि को ‘राजकवि कालिदास की उपाधि से सम्मानित करने जा रहे हैं. हम उन्हें सुवर्ण मुद्रा, दस गाँव, प्रासाद उन्हें प्रदान करने वाले हैं, इसमें ‘उपाधि पत्र भी सम्मिलित है.

“कालिदास, हमें आप पर गर्व है. उज्जयिनी में आपका लोकमान्य स्थान देखकर हम भी प्रसन्न हैं. इसका कारण है आपकी मधुर वाणी, द्वेषरहित आदरभाव, सामंजस्य, विनय – इन गुणों से आप नगर जनों में प्रिय हैं. आपके चातुर्य की अनेक घटनाएं लोकमानस में प्रिय हैं.

हमें स्मरण है, जब हमने आपको कुंतल प्रदेश भेजा था, ताकि हमारे और कुंतलराज के बीच परस्पर संबंध सौहार्द्रपूर्ण हो जाएं.

अनेक वर्षों से उनके साथ संबध सुहृद नहीं थे. हमारे प्रति उनके मन में जो द्वेष था, वह आपको देखकर और भी उफ़न आया. उन्होंने कालिदास का स्वागत तो किया नहीं, ऊपर से आसन भी नहीं दिया और धरती पर बैठने के लिए कहा. यह एक राज्यमंत्री का भयानक अपमान था. परन्तु कालिदास ने कहा,

“जिस धरती पर मेरू जैसा पर्वत है, जिस पर शिवशंकर का निवास है, इस धरती पर सप्त सागरों का निवास है. इसी धरती पर अनेक राजा-महाराजा हैं. उस प्रतिष्ठित धरती पर हमें आसनस्थ करने के लिए हम आपके ऋणी हैं.”

इस घटना ने कुंतलेश्वर को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने कालिदास को वहीं वास्तव्य करने की विनती की. कालिदास वहाँ तीन मास थे. उस समय लोकमानस में उन्होंने कुंतलेश्वर की महानता इस प्रकार प्रचारित की, कि कुंतलेश्वर ने सामंजस्य करते हुए हमें पत्र लिखा,

‘जिस राज्य में कालिदास जैसे मंत्री हैं, उस राजा चन्द्रगुप्त के शौर्य और सामर्थ्य का आर्यावर्त के अनेक राजाओं ने रणभूमि पर अनुभव किया है, परन्तु अनेक विद्वानों में से एक विद्वान कालिदास को हमने अनेक पहलुओं से जाना है. और ऐसे गुणवान मंत्रियों को संगठित रखने वाला राजा चन्द्रगुप्त बौद्धिक दृष्टी से समृद्ध है, यह अनुभव हुआ. युद्ध तलवार से जीते जाते है, समाज बुद्धि से संगठित रहता है. कभी कभी शब्द भी तलवार हो जाते हैं. अत: अब हमारे परस्पर संबंध दृढ़ हों, ऐसी हमारी प्रामाणिक इच्छा है.’

इस अवसर पर सम्राट चन्द्रगुप्त ने इस पत्र को पढ़ कर सुनाया, तो राज्यसभा करतल ध्वनि से गूँज उठी.

“कालिदास की चातुर्य कथाएँ अनेक हैं, परन्तु हमें प्रिय है उनकी संयमित वृत्ति, एकनिष्ठता, संधी की प्रतीक्षा करते हुए धारण की हुई तपस्या वृत्ति. और...”

कालिदास समझ गए कि उनकी बात का उद्देश्य. यह बात विद्वत्वती के सन्दर्भ में उन्होंने कही थी. ऐसा राजा कभी-कभार ही धरती पर जन्म लेता है. भूमाता भी उस पर अत्यधिक स्नेह करती है.

सम्राट चन्द्रगुप्त अपनी बात कह रहे थे,

“कालिदास, आपको इस बात की कल्पना नहीं है कि आपको ‘राजकवि की उपाधि देने का सुझाव अमर सिंह ने दिया था, और राजसभा में अनेक मंत्री है, नवरत्न भी हैं, ऐसे में आपको यह उपाधि प्रदान करने पर अनेकों का रोष संभव है, अत: राज पुरोहित ने सुझाव दिया कि हम एक मंजूषा में ‘हां अथवा ‘ना दर्शाती हुई पुर्जियां एकत्रित करें. और, आपको आश्चर्य होगा, कालिदास कि राज्यसभा के एक सौ पाँच सदस्यों ने पुर्जियां डालीं. आप उस दिन नहीं थे. सभी पुर्जियों पर ‘हाँ लिखा था. एक सौ पाँच सदस्यों और मंत्रीगणों ने एकमुख से यह निर्णय दिया था. और आज का दिन आया...

“राजसभा राजकीय घटनाओं, स्थानीय समस्याओं, युद्धजन्य समस्याओं, विकास कार्यों, राज्यविकास संबंधी समस्याओं से परिपूर्ण रहती है, परन्तु एक सक्षम राजा को भी राजकीय, सामाजिक समस्याओं को सुलझाते हुए सहृदयता, सात्विकता, संवेदना, दया, क्षमा, संयम, शान्ति, विवेक, शौर्य, सामर्थ्य की आवश्यकता होती है यह हमें कालिदास के ‘रघुवंशम् को पढ़ने से ज्ञात हुआ. राजा दिलीप से लेकर रघुवंश के अट्ठाईस राजा स्वपराक्रम से, विद्वत्ता से, रसिकता से, कलाओं को प्रोत्साहित करने वाले गुणग्राही राजा थे. उनतीसवां राजा ‘अग्निवर्ण मदिरा-मदिराक्षी में डूब गया और सम्पूर्ण रघुकुल का विनाश हो गया. कालिदास ने ‘रघुवंशम्’ के माध्यम से केवल हमें ही नहीं, अपितु अखिल आर्यावर्त के राजाओं को यह वस्तुपाठ ही दिया है. पराक्रम जितना ही संयम, सामर्थ्य जितनी ही विजय होनी चाहिए यह पाठ भी हमें मिला. युवराज कुमार साम्प्रत यहाँ नहीं हैं, परन्तु हम विशेषत: पढ़ने के लिए यह ग्रन्थ उन्हें देंगे.”

“ ‘रघुवंशम्’ महाकाव्य लिखकर कालिदास ने हमें प्रतिष्ठित किया है. इतिहास कभी भी कालिदास, उज्जयिनी और विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त को विस्मृत नहीं होने देगा – यह हमारा सौभाग्य है.

“ अस्तु! आज हमारे राजमंत्री, नवरत्नों में से एक रत्न महाकवि कालिदास को एक स्वतन्त्र रथ भी प्रदान करते हैं. उनके बारे में हम अविराम बोल सकते हैं, परन्तु अब शब्दों को विश्राम देते हैं.”

कालिदास का मन भर आया था. नेत्रों से अश्रुधारा कृतार्थ होकर अविरत बह रही थी, वे सम्राट चन्द्रगुप्त के चरणों में नतमस्तक होते इससे पहले ही सम्राट ने अपने विशाल और शक्तिशाली बाहुओं में भरकर उन्हें हृदय से लगा लिया. कालिदास को ज्येष्ठ बंधू के स्नेह का अनुभव हुआ. स्पर्श से भी सहस्त्रो शब्दों का अर्थबोध होता है, इसका अनुभव उन्हें हुआ. और हमने योग्य ही किया, यह अनुभव सम्राट चन्द्रगुप्त को हुआ, वे हौले से बोले, “मित्र, हम राजसिंहासन के सम्राट हैं, आप जनमानस के   हृदय पर राज्य करने वाले अनभिषिक्त सम्राट हैं.  अपनी शब्द साधना से ऋषि कुल से भी आप संबंधित हैं. हमारे लिए वन्दनीय हैं.”

अब कालिदास स्वयँ को रोक नहीं पाए. एक गोपालक कभी सन्मान पात्र होगा, ऐसा शायद प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण ने भी न सोचा होगा. वही भाग्य हमें सम्राट चन्द्रगुप्त ने प्रदान किया. शायद नियती की यही इच्छा होगी. शायद विदिशा के शास्त्रार्थ के लिए नामांकित करते हुए विद्वत्वती को भी हमारा सन्मान ज्ञात हो, ‘राजकवि’ की उपाधि के सामने वह भी पल भर को नत मस्तक हो जाए, ऐसा उन्होंने निश्चित ही सोचा होगा.

“कालिदास, अपने इन आनंदाश्रुओं को उत्तरीय से पोंछे और अमरसिंह के साथ अपने रथ में विदिशा के लिए प्रस्थान करें. हमारा मगध जाना आवश्यक है.”

राजसभा ने, विद्वद्जनों ने, नागरिकों ने उनका जयघोष किया. अब सम्राट चन्द्रगुप्त के नेत्र भी भर आये थे. इस आनन्दोत्सव में युवराज कुमार को भी उपस्थित रहना चाहिए था, यह विचार मन को छू गया.

 

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