कंपित हृदय से ही कालिदास ने अमरसिंह के साथ राजसभा में
प्रवेश किया. पहले वाला राजप्रासाद अब और भी अधिक विशाल हो गया था. यहीं तो
उन्होंने कुमारसेन के साथ राजशिष्ठाचार सीखा था. यहीं वे आश्चर्य चकित होते हुए हर
दालान में घूमे थे. आश्चर्य से हर वस्तु को देखते हुए वे केवल आनंदोद्गार,
आश्चर्योद्गार ही प्रकट कर रहे थे.
और उसी राजसभा में वे आज सन्मान से उपस्थित थे. यदि राजा भोज
हमारी ओर देखें तो क्या उन्हें स्मरण होगा उस मातृगुप्त का? यदि हुआ भी तो हम
आत्मविश्वास से कहेंगे कि हम सरस्वती के पुत्र, उज्जयिनी के निवासी राजकवि
कालिदास हैं. वे संभ्रमित होकर मौन हो जायेंगे, क्षणभर को विचार करेंगे. और
विद्योत्तमा, विद्वत्वती के नाम से परिचित हमारी
पूर्व पत्नी वेदवती. वह तो सर्वज्ञानी है. जब वह सूक्ष्म अवलोकन करेगी तब...
वे भीतर आये. राजा भोज ने सबका स्वागत किया. कालिदास का परिचय
देते हुए वे बोले, “विदिशा का अहोभाग्य, कि उज्जयिनी के पंडित अमरसिंह और राजकवि पधारे हैं.” उनका स्वागत
स्वीकार करते हुए कालिदास ने चारों ओर देखा, परन्तु विद्वत्वती नहीं दिखाई दी.
किससे पूछें और कैसे पूछें, यह विचार उनके मन में आया ही था, कि राजा भोज ने कहा, “हमारी कन्या विद्वत्वती अपनी
माता के साथ मातुल गृह गई है. इस सप्ताह वह अवश्य आयेगी. समस्त राजसभा को उसकी
अनुपस्थिति का अनुभव होगा, परन्तु जाना अपरिहार्य था. परन्तु
हमारे मंत्रीमंडल के राजपुरोहित पंडित कुबेर शास्त्री इस सभा को संबोधित करेंगे.”
कालिदास का मन शांत हुआ.
राजपुरोहित कुबेर शास्त्री ने सबका मन:पूर्वक स्वागत किया. और
उन्होंने आरम्भ किया,
“ ऋग्वेद की ऋचाओं से मनोभावना व्यक्त
करने वाली काव्य पंक्तियाँ लिखी गईं. उन ऋचाओं से मानवी भावनाओं को शब्द प्रदान
किये गए. सामवेद, अथर्ववेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद से योग्य ऋचाओं को संकलित करके उनका गीत गायन
आरम्भ हुआ. आगे चलकर ‘रामायण’ महाकाव्य रचा गया. उस पर आधारित
‘रघुवंशम्’ महाकाव्य की महाकवि कालिदास ने रचना की. काव्य निर्मिति होने के बाद
उसकी कौन सी काव्य पंक्तियाँ उत्तम हैं, गेय
हैं, यह
विचार आया. ऐसी गेय, छंदबद्ध काव्यनिर्मिति करने का
एक शास्त्र उत्पन्न हुआ. यह शास्त्र अधिकाधिक विकसित हुआ. प्रत्येक काल के अनुरूप,
परन्तु उसमें कुछ शाश्वत मूल्य अभिप्रेत थे और आज भी हैं.
काव्य जीवन
की आत्मा है, जो
शब्दों से व्यक्त होती है. कभी वाणी से सुसंबद्ध रूप में प्रकट होती है. मानवी
भावनाओं,
संवेदनाओं,
षड्रिपुओं का प्रकटीकरण, उनसे प्रकट हुई भावनाएँ, उनका
संप्रेषण,
उद्दीपन – यह सब प्रकट करने के लिए किसी अधोरेखित, तो किसी अलिखित आचार-विचार
संहिता का होना आवश्यक है, ऐसा हमारा विचार है.
उसी प्रकार,
काव्य प्रयोजन किसके लिए? आत्मानंद के लिए अथवा समाज के
आनंद के लिए? और
यदि आत्मानंद के लिए काव्यनिर्मिति की जाए तो उसे संप्रेषित क्यों किया जाता है?
क्या छंद
के बिना, छंद
मुक्त काव्य होना चाहिए? ऐसे कुछ प्रश्न हमारे सामने हैं, और
जिन्हें इन सब विचारों का अध्ययन करना है, वे काशी के सुप्रसिद्ध महापंडित
शेखर आप से संवाद करेंगे.
पंडित शेखर
दामोदर शास्त्री अपना उत्तरीय संभालते हुए उठे. उन्होंने कहा, “हम
स्वयँ कवि नहीं हैं, परन्तु काव्य हमें अत्यंत प्रिय
है. हम काव्य का अनुभव करते हैं. प्रात:काल गंगास्नान के लिए जाते हुए आकाश के
खिलते हुए रंग, उसमें से दमकती उष:प्रभा, कोई लावण्यवती
लज्जावती होकर पति के लिए प्रासाद का महाद्वार स्वयँ खोले, और
पंचारती से आरती न उतारते हुए नेत्रों से ही उसकी आरती करे – इसका अनुभव हमें होता
है. प्रात:काल नित्य, वही सब नित्य,
परन्तु वही पूर्वा और उष:प्रभा हमें नित्य नव नूतन दिखाई देती है, मन
को प्रसन्न करती है.
नित्य गंगा
और उसकी लहरें हमें चिरंतन प्रतीत होती हैं. कभी क्षणिक विचारों के समान वे किनारे
पर लुप्त होती प्रतीत होती हैं, कभी वे लहरें नादमय प्रतीत होती
हैं, तो
कभी एक दूसरे पर इतने वेग से प्रहार करती हैं, मानो दो सौदामिनियाँ एकत्रित
हों. होती है वही नित्य प्रवाहिनी गंगा. लोकमाता गंगा, परन्तु हमारा ही मन उसमें नित्य
नूतन रूप देखता है.
फिर मन में
विचार आया कि हम जो अनुभव करते हैं, उसे प्रकट नहीं कर पाते हैं.
संवेदनशील मन से काव्य सेवा करने, उत्तम काव्य की परिभाषा लिखने के
उद्देश्य से, या जो
विद्यमान शास्त्र समीक्षा ग्रन्थ हैं, क्या उसमें कुछ सुधार किये जा
सकते हैं? या छंदबद्ध काव्य के अतिरिक्त गद्य साहित्य भी काव्यात्मक हो सकता है
क्या? ऐसे प्रश्न मन में उठ रहे थे, इसीलिये इस सभा में आने का साहस
किया.
वस्तुत: यहाँ
सभी विद्वान हैं. प्रत्यक्ष महाराज भोज भी काव्य के मर्मज्ञ हैं. कुबेर शास्त्री
हैं. हम स्वयँ इस काव्य की रचना कर पायेंगे क्या, इस पर अद्याप विश्वास नहीं है,
क्योंकि हमने अब तक काव्य निर्मिती नहीं की है. वैसी अंत:प्रेरणा हुई तो थी, मगर
एक भी पंक्ति हमसे लिखी नहीं गई. इसलिए...”
“पंडित
शेखर दामोदर शास्त्री...” कालिदास अपना अभिमत देने के लिए तत्काल उठे,
यद्यपि उनका कथन पूरा नहीं हुआ था.
“आप काव्य
निर्मिति नहीं कर सकते, इससे व्यथित होने की आवश्यकता
नहीं है. आप निसर्ग के काव्य को अनुभव कर सकते हैं, परन्तु उसे शब्दों में प्रकट
नहीं कर सकते, विशेषत: छंदबद्ध काव्य आपको कठिन
प्रतीत होता है.
परन्तु
काव्यशास्त्र लिखने वाले को काव्य आस्वादक होना चाहिए, अन्यथा वह अन्य कवियों की
भावनाओं को नहीं समझ पायेगा.”
“कालिदास
जो कह रहे हैं, वह योग्य ही है. हम कोई काव्य
निर्मिति करे, और वह योग्य है अथवा योग्य,
सुन्दर है अथवा असुंदर, वह दोष विरहित है अथवा नहीं, यह
जानने वाले शास्त्रकार को आस्वादक समीक्षक होना चाहिए. जिसे काव्य की अनुभूति ही
नहीं,
जिसके मन में स्वर्ग विषयक कल्पना ही नहीं, अथवा धरती के निसर्ग के प्रति
आकर्षण नहीं, अथवा
जिसके पास सामाजिक समस्याओं को देखने की संवेदनशील दृष्टी और मन नहीं, वह
काव्य समीक्षाशास्त्र नहीं लिख पायेगा. पंडित शेखर दामोदर शास्त्री आप कवि वृत्ति
के हैं, अत:
साशंक न हों,” पंडित अमरसिंह ने कहा.
मध्याह्न
तक काव्य शास्त्र और काव्य निर्मिती के सन्दर्भ में अनेक उदाहरण दिए गए. उनमें से
आवश्यक बिंदु पंडित शेखर लिखते जा रहे थे. क्या काव्य को छंदबद्ध ही होना चाहिए?
क्या काव्य में उपमा, अलंकार,
उत्प्रेक्षा का होना आवश्यक है? और इस दृष्टि से सबने ‘रामायण’,
‘महाभारत’,
‘भगवद्गीता’ पर
अपना अपना मत प्रदर्शित किया. पंडित अमरसिंह ने कहा, “हम इनके ‘रघुवंशम्’ पर कल एक
आलेख प्रस्तुत करेंगे. अभी तो उसके लिए पर्याप्त समय देना पडेगा. क्योंकि,
पंडित शेखर दामोदर शास्त्री, यदि आप हमारे मित्र राजकवि
कालिदास के ही काव्य पर भाष्य करें ना, तो एक महान ग्रन्थ तैयार हो जाएगा.”
“अवश्य...अवश्य...आपने
हमें यह कल्पना दी, इसे भी विदिशा आने की फलश्रुति
ही कहना चाहिए.”
“मित्रवर्य,
पंडित अमरसिंह महोदय, कृपया ऐसा कुछ न करें.”
“नहीं, यहाँ
हम विशेषत: यह कहने वाले हैं कि आज यहाँ राजसभा में अनेक सुसंस्कृत नागरिक,
विद्वद्जन और शास्त्री-पंडितों का समावेश है. अत: वर्त्तमान काल की काव्य निर्मिति
पर कुछ कहना अप्रसांगिक न होगा, ऐसा हमारा विचार है. अर्थात् महाराज भोज जैसा आदेश
देंगे, उसी
के अनुसार हम...”
“पंडित
अमरसिंह, आप राजकवि के साहित्य का परिचय अवश्य करवाएं. पिछले कुछ समय से हम उनका
नाम निरंतर सुन रहे हैं. आज उन्हें देख भी लिया. अब उनके साहित्य का दालान हमारे
लिए भी खोलें...हमें प्रसन्नता होगी.”
मध्याह्न
हो गई थी. सबके साथ कालिदास भी भोजन कक्ष की ओर निकले थे. राजप्रासाद की वह भव्य
भोजनशाला. अनेक दासियाँ सुवर्ण की थालियों में अनेक प्रकार के व्यंजन लेकर आ रही
थीं. सम्राट चन्द्रगुप्त अपनी भोजनशाला में महारानी, अन्य रानियों और अन्य अतिथियों
के साथ भोजन करते हैं. यहाँ दासियाँ ही भोजन व्यवस्था करती हुई दिखाई दे रही थीं.
और एक
सप्ताह विद्वत्वती आने वाली नहीं थी. हर परिस्थिति में उससे मिलना ही है, यह
हेतु लेकर वे आये थे.
शाम को वे
वेत्रवती नदी के किनारे पर आये. मन में अचानक ही घनी होती हुई संध्या छायाएं घिर
आई थीं.
***
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