14
सात-आठ महीने बाद वे
ठाकुरबाड़ी लौटे थे. छोटा रथींद्र और बेला उनके निकट भी नहीं आ रहे थे. तब वे उदास
हो गए. हमारे बाबा भी ऐसे ही कभी-कभार वापस लौटते, और हम उनके पास जाते तक नहीं थे. सबसे छोटे होने के
कारण द्विजेनदा,
सत्येनदा भी बाबा ही की तरह दूरस्थ प्रतीत होते, जहां तक संभव हो, हम उनके पास नहीं जाते थे.
‘मगर, अब हमें ही उनके पास जाना
चाहिए,’ उन्होंने मन में ठान लिया. वैसे भी कल रात को मृणालिनी ने कहा था,
“आप मुझे बच्चों के साथ
सियालदह क्यों नहीं ले जाते?”
“छुटी, क्या तुम ऐसा सोचती हो, कि मैं वहां बहुत मज़े में
हूँ?”
“इसीलिये तो कह रही हूँ, बच्चे साथ हों, तो दिन कब समाप्त हो जाता है, पता ही नहीं चलता.”
“परन्तु बच्चों का दिन कैसे
गुज़रेगा. तुम्हें कल्पना नहीं है,
छुटी, सियालदह बस्ती से चार-पांच मील दूर, जंगल के निकट अपना दुमंजिला घर है. मगर वहाँ न तो
पर्याप्त सेवक हैं,
ना ही ऐशोआराम. आसपास हैं मज़दूरों के घर. मेरे भोजन की व्यवस्था करने के लिए एक
वृद्ध स्त्री है. उसका पोता है आनंद. उसके साथ खेलने के लिए कोई नहीं है. उसका
स्कूल है बस्ती में,
वहां जाना असंभव है, इसलिए वह अकेला ही खेलता रहता है. ना पढाई-लिखाई, न ही कोई दोस्त...ऐसी स्थिति
में तुम लोगों को वहां ले जाकर क्या करूँ?”
“मुझे आदत है काम की, गाँव की, मैं निभा लूंगी वहाँ की माटी से, वहाँ
के लोगों से.”
रवीबाबू
ने कुछ नहीं कहा. उसे प्रत्यक्ष स्थिति के बारे में कैसे बताऊँ? आसपास के गाँवों के दुःख,
दारिद्र्य, अज्ञान और लोगों के हो रहे शोषण के बारे में कैसे
बताऊँ? वे समझ नहीं पा रहे थे.
पिछले तीन वर्षों से वे इसका
अनुभव ले रहे थे. परन्तु यहाँ आने पर वहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य, पद्मा नदी, उसके छोटे प्रवाह, नदी से जुड़े हुए गाँव, वहाँ के भोलेभाले और
आतिथ्यशील लोग,
यह सब उन गाँवों में जाने पर और वहां के लोगों से बातें करने पर समझ में आता है.
परन्तु मृणालिनी और बच्चे क्या करेंगे?
क्या रोज़ चार कोस चलकर सियालदह जायेंगे? यदि वहां के स्कूल में भी प्रवेश दें, तो क्या जाना-आना आसान है? सियालदह से बोलपुर पास है.
बस्ती से कुछ निकट है. फिर भी यहाँ जैसी सुख सुविधाएं वहां कहाँ से आयेंगी?
वे सोच रहे थे, और उनके मन में एक विचार
आया. वे जल्दी-जल्दी छज्जे से भीतर आए. मृणालिनी स्वयं उनके लिए दूध ला रही थी.
अपनी ही धुन में मगन रवी बाबू का उसे धक्का लगा और दूध का गिलास छलक गया.
“कमाल
करते हैं, आप भी! हमेशा अपनी ही धुन में रहते हैं. दिमाग में
हमेशा कोई नाटक या कविता ही रहती है. ख़ुद खोए-खोए रहते हो.”
“सही है,
छुटी,
मगर आज हम बच्चों के बारे में विचार कर रहे थे, और तुमसे कहने की लिए ही आ रहे थे.
एक बार सचमुच चलो सियालदह.”
“आपके वर्णन के अनुसार मेरा
दिही गाँव, हमारा छोटा सा घर,
वहां केवल बारिश में बहाने वाला एक झरना और चारों ओर की हरियाली याद आ गई. सोचा, कि ऐसे गाँव में जाने पर
मायके जैसा लगेगा. आप भी तो हैं. फिर यदि गाँव निकट ही है तो पढ़ाई भी हो जायेगी.
इतने बड़े परिवार में जब आप नहीं होते,
तो ऐसा लगता है,
मानो आकाश में चन्द्रमा ही नहीं है, अन्धेरा ही है. आप साथ में होते हो तो...”
रवीबाबू दिल खोलकर हंसे. “अब
हम पर भी कविता लिख सकोगी. अच्छा एक नाटक लिखा है, ‘मायेर खेला’, उसमें काम करोगी? आज से शुरू कर रहा हूँ. पहले वाचन – फिर प्रैक्टिस.
हमारे ही बैठकखाने में होगा.”
“ना बाबा, ना!” वो सब हमारे बस की बता
नहीं.”
“क्यों? सुन्दरी भाभी, नंदिनी भाभी भी तो नाटकों
में काम करती हैं. और कादम्बरी...” वे ‘भाभी’ शब्द न कह सके. वे एकदम मौन हो गए, और तभी सेवक ने आकर कहा कि
सत्येनदा ने बुलाया है,
और उन्हें लगा कि मुक्त हो गए हैं.
‘मृणालिनी सोचती है, वैसा सियालदह पहुंचना आसान
है,
मगर वहां रहना एकदम असंभव है. मगर उसे एक बार बोलपुर ज़रूर ले जाना है. बाबा ने
‘शान्तिनिकेतन’
नामक जो घर बनाया है,
वह उसे दिखाना चाहिए,
और मुझे भी बोलपुर जाकर ही रहना चाहिए,
जिससे पास भी रहेगा,
और बाबा के ‘शान्तिनिकेतन’
में मनःशान्ति भी मिलेगी.’ यह विचार करते हुए वे सत्येनदा के कमरे में पहुंचे.
वहां द्विजेनदा भी थे. उन दोनों को एक साथ देखकर रवी बाबू को प्रसन्नता हुई. उन
दोनों के सम्मुख वे हमेशा नम्र रहते थे.
“अरे, रोबी, हम लन्दन जा रहे हैं. तुम भी
चलो. क्योंकि सियालदह के काम समाप्त करके तुम आए हो. अब मुक्त मन से हमारे साथ
चलो. उतनी ही खुशी. क्योंकि सियालदह में छः-आठ महीने रहना, बीच बीच में यहां आकर काव्य, नाटक, राजकीय, सामाजिक कार्यों में
सहभागी होना,
तुम्हारे लिए संभव है. फिर भी पाश्चात्य देशों का समाज और स्वतंत्रता का विचार भी
तुम्हारे मन में रहना चाहिए. उस समय तुम विद्यार्थी के रूप में गए थे, अब ‘आदमी’ के रूप में उस
देश को देखो.
दोनों के प्रस्ताव से इनकार
करना संभव नहीं था. मगर,
इस बार छोटे रथींद्र से मिलने वे अभी अभी आये थे. दोनों को ‘हाँ’ कहकर वे निकले. जब मृणालिनी
ने पूछा,
तो रवी बाबू ने कहा,
“वास्तव में तो अब लन्दन, इंग्लैण्ड जाने का, मस्ती से
घूमने का,
गीत गाने का,
गाना सीखने का मन नहीं होता. मनुष्य संसार सुख से इतना मोहित हो जाता है कि उस
मोहजाल से मुक्त होने की अपेक्षा वह स्वयं ही उसे ओढ़ लेता है. उसे उसी कोष में
रहना अच्छा लगता है.”
“आखिर ऐसा क्या हुआ है?”
“तुम कह रही थीं कि सियालदह
आऊँगी,
और अब मुझे ही सत्येनदा लन्दन चलने को कह रहे हैं. उन्हें इनकार करना मेरे लिए
संभव नहीं है.”
“अवश्य जायें, कवि, लेखक नई प्रकृति, नए लोग, उनकी जीवन शैली को पढ़ सकते
हैं, उसका अनुभव कर सकते हैं. वैसे,
मैं भी साथ आती,
परन्तु रथी केवल दो वर्ष का है,
उसे साथ लेकर जाना संभव नहीं,
और उसे छोड़कर जाना अभी ठीक नहीं.”
और अगले तीन-चार महीने इस वास्तव्य
में बीत गए. पिछली बार स्कॉट परिवार से परिचय हुआ था, पढ़ाई थी,
मित्र थे. ऐसे समय में उन्हें मृणालिनी, बेला और रथी की याद आ रही थी. वे वापस लौटे अत्यंत
प्रसन्नता और आनंद और अधीरता से. इन तीन-चार महीनों में उन्हें बहुत अकेलापन महसूस
हो रहा था.
उस समय वे अपनी इच्छानुसार
लिख नहीं पाए थे. वापस आने के बाद राष्ट्रीय सभा के अधिवेशन में सहभागी हुए.
यद्यपि सभा का उद्देश्य था राष्ट्रीय एकता, परन्तु हर व्यक्ति के राष्ट्रीय एकता के बारे में
अलग-अलग विचार थे. देश स्वतन्त्र हो,
यह उनका स्वप्न था,
परन्तु अन्य देशों की यात्रा करने के बाद उनका ऐसा मत था की भारत की दरिद्र-रेखा
इतनी नीचे जा चुकी है कि उसे ऊपर उठाने के लिए समाज में उद्योग धंधों का विकास
होना चाहिए और भारत में ही उनका उपयोग होना चाहिए. सियालदह के आसपास के गाँवों में
जाने के बाद वहां के दारिद्र्य और घोर अज्ञान को देखकर वे बहुत व्यथित हो गए थे.
स्वतंत्रता से पूर्व अंग्रेज़ सरकार कुछ मानवता का प्रदर्शन करे यह उनकी अपेक्षा
थी.
वैसे ही, समाज के जो दो वर्ग हो गए
हैं – आर्थिक और शैक्षिक ये उन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था. कई बार वे गाँव के
स्कूल में किसी समारंभ में जाते,
तो वहाँ के विद्यार्थी अंग्रेज़ी में भाषण पढ़ते. एक बार उन्होंने पूछा,
“क्यों रे, यह भाषण तुझे किसने लिखकर
दिया है?
या तूने खुद ही लिखा है?”
“मास्टर जी ने लिखकर दिया, मैंने याद कर लिया. मेरे
बाबा बाबू हैं न,
कभी कभी वे भी लिखकर देते हैं.”
“क्या तुझे बंगाली नहीं आती?”
“मैं वही तो बोलता हूँ ना, सर!”
“फिर बंगाली में भाषण क्यों
नहीं लिखा?”
“हमारे मास्टर जी कहते हैं कि
अंग्रेज़ी में लिखने से अच्छा ‘इम्प्रेशन’ पड़ता है, इसके सिवाय...”
“इसके सिवाय क्या?”
“आप बहुत बड़े हैं, आप अंग्रेज़ी ही समझते हैं, इसके अलावा आप बहुत बड़े
ज़मीनदार हैं, अमीर हैं!” रवी बाबू हंस पड़े.
“क्या ये गलत है, सर?”
“हमने तुझसे किस भाषा में बात की? बंगाली में ही ना? क्या हमें
इसलिए बुलाया,
कि हम अमीर हैं,
ज़मीनदार हैं?”
“हाँ सर.”
रवी बाबू अनेक स्थानों पर बच्चों से, सामाजिक कार्यक्रमों में
लोगों से और घर के लोगों से भी ईमानदारी से कहते,
“आज कल के पढ़े लिखे बच्चे
अपने माता-पिता को भी अंग्रेज़ी में पत्र लिखने में अपनी शान समझते हैं. ये अंग्रेजों
से बंधा हुआ जीवन छोड़ो, और अंग्रेज़ी भाषा छोडो. अपनी भाषा में बोलो. बंगाली हमारी
मातृभाषा है. मृणालिनी तुम्हें बहुत अच्छी अंग्रेज़ी आती है. परन्तु आजकल
सभा-सम्मेलनों में जाने को मेरा दिल नहीं चाहता. क्योंकि किसी एक अंग्रेज़ अधिकारी
को ‘प्रेस्टीज’
की खातिर प्रमुख अतिथि के रूप में बुलाया जाता है. उसे यदि भाषण समझ में आ जाये तो
स्कूल-कॉलेज के शिक्षकों को ऐसा लगता है मानो स्वर्ग मिल गया हो. मुझे यह सब अच्छा
नहीं लगता. शब्द और संवेदनाएं तो हमारी; परन्तु उन्हें प्रकट करते हैं अंग्रेज़ी
में...”
“आप ठीक कह रहे हैं, परन्तु
आज समाज में यही मान्य है,
आप कहाँ कहाँ उसे रोकेंगे?”
“जहां तक संभव हो, रोकूंगा. हर बार जहां जाऊंगा, वहां कहूंगा, लेख लिखूंगा, जितना संभव
होगा,
करूँगा.”
मृणालिनी ने कुछ नहीं कहा.
उसके मन में कब से यह इच्छा थी कि विद्यार्थियों को घर बुलाकर उन्हें बंगाली, संस्कृत और अंग्रेज़ी पढाए.
उसने यूं ही कहा,
“अंग्रेज़ी को हम आज तो नकार
नहीं सकते.”
“और अगर आज हमने उसे पूरी तरह
स्वीकार कर लिया तो कल भारत में अंग्रेज़ी भारतीयों की सांस में इतनी समा जायेगी, कि वही उनका श्वास बन
जायेगी.”
“सुनिये तो, आपके संताप को मैं समझ सकती
हूँ, परन्तु वह अंतरराष्ट्रीय,
विश्व भाषा है. उसके बिना काम नहीं चल सकता, ये सही है ना?”
रवी बाबू ने कुछ नहीं कहा. कम
से कम आज की परिस्थिति में अंग्रेज़ी के बिना काम नहीं चल सकता इसका एहसास उन्हें
हुआ. फिर भी उन्होंने कहा,
“छुटी, हम अपने घर में सोच
समझ कर बंगाली भाषा का प्रयोग करते हैं. उसी तरह हर सुशिक्षित घर में होना चाहिए.
क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता?”
“लगता है, ना. परन्तु आज शिक्षा
अंग्रेज़ी माध्यम से दी जाती है. उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाना पड़ता है, वहां भी पढ़ाई अंग्रेज़ी में
ही होती है.”
इस अंग्रेज़ी पर कुछ और बोलने
से पहले रवी बाबू ने वह विषय ही बदल दिया. उन्हें हर पल अंग्रेजों के अधिकार पर, उनकी प्रभुता पर क्रोध आ रहा
था. उनसे सामंजस्य बनाना कठिन होता जा रहा था.
उन्हें याद आया, वर्षा ऋतु आरंभ हो गयी थी, और उसी समय एक नौजवान
अंग्रेज़ अधिकारी सियालदह आया था. इसलिए रिवाज़ के अनुसार उन्होंने उसे भोजन पर
बुलाया,
“नहीं, मैं न आ सकूंगा. मुझे जंगली
सुअर के शिकार के लिए जाना है.”
“जंगली सुअर की शिकार? मतलब, आप आ ही नहीं सकते!” रवीबाबू
ने जैसे मजबूरी में कहा; मगर मन ही मन उन्हें खुशी हो रही थी.
परन्तु अगले दिन अचानक जोरदार
बारिश शुरू हो गई,
और मजबूरन रवी बाबू ने उस नौजवान अंग्रेज़ अधिकारी को सन्देश भेजा, ‘ऐसी तेज़ बारिश
में आप जंगल में न जाएँ. जान को खतरा हो सकता है. ऐसे समय में अतिथि के रूप में
आये आपकी फ़िक्र करना हमारा कर्तव्य है. आप मेरे यहाँ रहने के लिए आइये.’
और उसके लिए कमरे की व्यवस्था
करते हुए उन्हें जो कुछ करना पड़ा,
उसका सूक्ष्म और विनोदपूर्ण वर्णन उन्होंने मृणालिनी को भेजा था.
इस समय भी उस अंग्रेज़ अधिकारी
के लिए की गई दौड़-धूप की याद आई और उन्हें स्वयं पर ही आश्चर्य हुआ, ‘आखिर हमने भी
आतिथ्य प्रथा के वश होकर उस अंग्रेज़ अधिकारी की जान को खतरे में नहीं डाला, यह जितना सच है, उतना ही सच यह भी है, कि वह स्वयं अपनी व्यवस्था
कर सकता था. कभी कभी रोम-रोम में बसी हुई भारतीय संस्कृति इच्छा न होते हुए भी
हमसे यह करवा लेती है,
यही सच है.’
फिर उन्होंने रात को पत्र
लिखा,
और सब कुछ विनोदपूर्ण ढंग से लिखा. उन्हें अपने उस पत्र की याद आई जिसमें इस सबका
मजेदार वर्णन किया था,
और वे मन ही मन हँसे. शब्दों के किन्हीं भी अलंकारों का प्रयोग किये बिना, कविता मुक्तता से वन में
विचरती रहे,
ऐसा था वह मुक्त पत्र. न केवल वही पत्र, बल्कि अनेकों ऐसे पत्र थे. केवल भावनाएं प्रदर्शित
करते हुए,
किसी भी रचना छंद को न मानने वाले, अकृत्रिम परन्तु भावनामय पत्र. ये पत्र हमारे
जीवन का आधार हो गए,
मानो कल्पवृक्ष की स्नेहल छाया हो.
क्योंकि राजवैभव से दूर एकाकी
सियालदह के गाँव में हम स्नेह ढूंढ रहे थे. विचारों में बारबार आने वाले लोगों को
प्रसन्न करने की धुन थी. हम उनके साथ हैं, ऐसा समझकर हम पत्रों के
माध्यम से उनसे बातें करते. प्रकृति के विराट दर्शन से प्रभावित मन में शब्दों का
झरना निरंतर प्रवाहित होता रहता. व्यथा वेदनाओं का बांध टूटकर बहता रहता. उस समय
पुकारा था कविता ने और दिया था साथ. कभी शब्द तीव्र गति से प्रभावित होते, कभी अनिवार दुःख देखकर मौन
भी हो जाते. नाटकों से संवादी हुए,
और पत्रों से झरझर बहते शब्द स्नेह वर्षा में भिगो जाते. पता ही नहीं चला कि हम
अकेले हैं.
बही खातों की रकमों की
जोड़-बाकी करते हुए साहित्य का ‘जोड़’ हो रहा था और दु:खों को ‘भाग’ दिया जा रहा था
और प्राप्त हुए आनंद का ‘गुणा’
हो रहा था. यदि इंसान सोच ही ले,
तो आनंद कहीं भी प्राप्त हो सकता है. सृष्टी की प्रत्येक वस्तु में आनंद का झरना
अविरल बहता रहता है,
यही सत्य है.
उन्हें याद आया, कि एक बार वे
सभी महिलाओं को साथ लेकर दार्जिलिंग गए थे. बुआएं, मामियां, परिवार की महिलाएं, उनके बच्चे भी. उनके बीच
रवीन्द्रनाथ, रवी बाबू, अकेले पुरुष थे. सारे बक्से रेल के डिब्बे की बेंच के नीचे
रखे थे. इसलिए जब भी किसी को किसी चीज़ की ज़रुरत होती, और वह होती ही रहती थी, तो निरंतर पुकार होती, “रोबी,
वो बक्सा खोलकर दाईं ओर वाली कपड़ों की गठरी दे,’ या कोई और किसी और बक्से से किसी अन्य चीज़ की मांग
करता. पूरी यात्रा के दौरान खिड़की के पास बैठकर प्रकृति का अवलोकन करने का मौक़ा ही
नहीं मिल पाया था. आज अकेले ही सफ़र करते हुए, उस समय की गड़बड़ी को याद करके ऐसा लगा, मानो सभी साथ हैं.
कलकत्ता से सियालदह जाते हुए
सांस छोड़ते हुए पहुँची गाडी मन को प्रसन्न कर रही थी. आज उससे भी कई गुना अधिक
प्रसन्नता थी. आज वे विदेश से लौट रहे थे, और अधीरता से जोड़ासान्को की ठाकुरबाड़ी
पहुँचने की राह देख रहे थे. वे ठाकुरबाड़ी पहुंचे, और बिना सूचना के, बिना कहे मृणालिनी ही द्वार पर आई. विदेश से उन्होंने
‘सकुशल पहुँच गया हूँ और शीघ्र ही वापस आऊँगा’, ऐसा पत्र लिखते हुए यह भी जोड़ दिया, “छुटी, उस समय तुम्हें छोड़कर जाने
का मन नहीं था. उन्हीं दिनों तो सियालदह से ठाकुरबाड़ी लौटा था. शायद महिनाभर ही
हुआ था, परन्तु सत्येनदा और द्विजेनदा को ‘ना’ कहना असंभव था. मुझे वे पिता जैसे प्रतीत होते हैं.
कोई उपाय नहीं था,
छुटी, मगर तुम गुस्सा करने वाली महिलाओं जैसी नहीं हो. आता हूँ, जल्दी ही.”
ऐसा लिखा था, परन्तु उस समय दोनों ने
यूरोपीय देशों का विस्तृत अवलोकन करने का निश्चय ही कर लिया था, इसलिए निरंतर सात महीने वे
घूम ही रहे थे. पत्र लिखने की भी फुर्सत नहीं थी, मन ठाकुरबाड़ी में था.
आज गर्भभार से बोझिल मृणालिनी
को देखकर उन्हें अत्यंत प्रसन्नता हुई और इतने दिनों तक मृणालिनी ने बताया ही नहीं, इसका कुछ दुःख भी हुआ. वे
केवल मुस्कुराए. वह भी प्रसन्नता से हंसी. उन्होंने आँखों से ही पूछा, “कब?”
उसने उत्तर दिया, “अगले महीने.”
और रेणुका का जन्म हुआ.
नक्षत्र जैसी रेणुका आई और वे खुशी से फूले नहीं समाए.
एक ही महीना वह उसे ले सके, फिर वापस सियालदह के लिए
निकले तो मृणालिनी ने कहा,
“मैंने ही कहा था कि आपके साथ
सियालदह चलूँगी, मगर अब रेणुका को लेकर जाना संभव ही नहीं है. अगली बार अवश्य
आऊँगी. आप बीच बीच में आते रहें. बस,
वही मुलाक़ात...”
रवीबाबू ने कुछ नहीं कहा.
‘जल्दी आऊँगा,”
उन्होंने मृणालिनी के सिर पर हाथ रखकर कहा. रेणुका एक महीने की थी. वह क्या समझ
सकती थी?
और छह वर्ष की बेला अब उनके पीछे पीछे घूमती थी. चार वर्ष का रथीन्द्र भी ‘बाबा’,
‘बाबा’
कहते हुए उनके चारों ओर डोलता रहता. ऐसे समय में बाबा ने यह वसूली का काम मुझे ही
क्यों सौंपा,
यह प्रश्न उनके मन में उठा और मन ने ही फ़ौरन जवाब भी दिया,
‘इतनी सुन्दर प्रकृति, सुन्दर अरण्य, पद्मा, इच्छामती नदी, उसमें जलनौका का अनुभव हमें
कैसे होता. मज़दूरों के अनेक प्रश्नों के समाधान खोजते हुए मन कैसे द्रवित हुआ होता, भीषण दरिद्रता और अज्ञान से झांकती
मानवता का दर्शन कैसे हुआ होता,
बाबा ने सचमुच हमारे संवेदनशील मन को जागृत करने और उनकी समस्याएँ समाज के सामने
रखने,
या फिर,
‘रोबी, ये जो कुछ तुम देखते हो ना,
उससे कहीं अधिक विस्तृत,
अनभिज्ञ, अपार विश्व है,
उसे तुम देखो जिससे जीवन की गंभीरता समझ में आयेगी,’ कहीं इसी उद्देश्य से तो मुझे
वहां नहीं भेजा?’
शायद एकाकी जीवन में चिंतन
तथा अन्य बातों का सूक्ष्म निरीक्षण संभव है, दूर रहने पर स्नेह का, परिवार का आकर्षण अधिक महसूस
होता है. कहीं ऐसा तो सूचित करना नहीं चाहते थे?
शायद नदियाँ, अरण्य, फूल पौधे, वृक्ष
लताओं का गुणगान करते हुए जीवन में अध्यात्म आये, निराकार ईश्वर की गूढ़ता के महत्त्व का आभास हो, लौकिक से पारलौकिक की ओर
मुड़ें,
कहीं ऐसा तो उनके मन में नहीं था. आज देश में अंग्रेज़ों की पकड़ मज़बूत होने के साथ
स्वराज्य तथा विदेशी राज्य के बीच अंतर का मुझे अनुभव हो, क्या वे ऐसा चाहते थे?
अनेक विचारों के बीच एक बात
उनके मन में आई,
चाहे जो भी हो,
यह यात्रा मेरे लिए निश्चित रूप से सुखदाई है. हो जाते हैं कभी कभी क्लेश, जैसे अचानक सुबह सुबह आकाश
में मेघ छा जाएं. परन्तु उसके बाद सब कुछ स्वच्छ, सुन्दर, निरभ्र हो जाता है, मन का आकाश
भी.
और उन्होंने इस बात पर गौर
किया कि अकेले रहने से मन कुछ ज़्यादा ही विचार करने लगा है. पहली बार ही वे कविता
लिखते-लिखते कथा की ओर मुड़े. अब तक घटना प्रधान और क्लिष्ट शैली की कथाओं के स्थान
पर अत्यंत सरल शब्दों में और आम लोगों को समझ में आयें ऐसी कथाएँ लिखने लगे.
‘पोस्टमास्टर’,
‘गिन्नी’,
‘व्यवधान’,
‘तारा प्रसन्नेर कीर्ति’ आदि
कहानियाँ जो जनमानस को अपनी ही प्रतीत हों, उन्होंने लिखीं. इन्हें लिखते हुए स्वयँ उन्हें भी
प्रसन्नता का अनुभव हुआ था. कविता समाप्त नहीं हुई थी, वह भी हर मोड़ पर जनमानस को समृद्ध कर रही थी. जब
कविता संग्रह ‘मानसी’
प्रकाशित हुआ तो उनके मन में विचार आया,
‘केवल कविता मेरे मन में
अलकनंदा से आरंभ होकर ऋषीकेश तक पहुंचते पहुंचते नवयौवना हो जाती है, वह तो हमारी
कविता-कामिनी है.
परन्तु नाटकों के पात्र हमसे
संवाद साधते हैं. कथा के पात्र निकट आकर अपनी कथा, व्यथा और जीवन के अनुभव सुनाते हैं. काल्पनिक जगत से
वास्तविकता का बोध देते हैं. कविता की शब्द मर्यादा यहाँ समाप्त हो जाती है, व्यथा मानो शब्दों के अंकुर
से आच्छादित हो जाती है.
वे प्रसन्न थे, अपने आप में खो गए थे.
मृणालिनी छोटी रेणुका को लेकर
उन्हें बिदा करने आई थी,
उनका मन भर आया.
“छुटी, इन छोटे बच्चों को और
तुम्हें छोड़कर सियालदह जाते समय हमें अतीव दुःख होता है, और यह कहते हुए याद आती
है हमारे बाबा की. हम उनकी चौदहवीं संतान. इतने वर्षों तक वे बाहर ही रहे. उनका
सहवास अभी-अभी प्राप्त हुआ, हमारे बड़े होने के बाद. इतनी संपत्ति, इतनी बड़ी
ठाकुरबाड़ी,
इतने सारे नौकर चाकर – सबका अनुभव हमने लिया, परन्तु बाबा का परिश्रम, उनका एकाकी जीवन हम अब समझ
रहे हैं. अब उसका एहसास हो रहा है. हमारी माँ को क्या मिला? शायद ठाकुर परिवार की
प्रत्येक स्त्री के हिस्से में ऐसा ही जीवन आया है. इसलिए तुम दुखी न होना, प्रसन्न रहना और बच्चों की
ओर ध्यान देना. बेला को तुम शिक्षक रखकर पढ़ा रही हो, इसके लिए तुम्हारी तारीफ़ ही करनी चाहिए.”
वे खुद ही बोल रहे थे.
मृणालिनी दिल खोलकर हंसी.
“हंसी क्यों? क्या हमने कुछ गलत कह दिया?”
“ना, बाबूमोशाय ना. मैं इसलिए
हंसी कि ये कहकर आप स्वयं को ही तो स्पष्टीकरण नहीं दे रहे हैं? इसके अतिरिक्त कथा, कविता, लेख, निबंध लिखने वाले लेखक से, एक संवेदनशील लेखक के मुख से
गलत बात कैसे निकलेगी?
ठाकुर परिवार की स्त्रियाँ अब
अपना मनोरंजन अपने आप ही कर सकती हैं इतना शैक्षणिक स्तर हम सबने ही बढाया है.
इसके अतिरिक्त बच्चों को खुद संभालने में, बेला की पढाई देखने में मेरा समय फुर्र से उड़ जाता
है.”
“मतलब, हमारी याद आती ही नहीं है,
यही ना?
हम यूं ही सोच रहे थे,
छुटी अकेली है,
उसे हमारी याद आती होगी. मन ही मन वह दुखी होगी...”
“आपने ऐसा सोचा कैसे? बैठक खाने में आज भी चर्चाएँ
होती हैं,
महफिलें होती हैं. समाज का आईना वहां दिखाया जाता है. काव्य, शास्त्र, विनोद वहां होता है. बच्चों
को संभालने में समय बीत जाता है,
इसका अर्थ यह नहीं की आपकी याद ही नहीं आती. बेला, रेणुका,
रथी – आप ही की तो यादें हैं. इस सबके बीच आपको यह शिकायत है, की मैं पत्र नहीं लिखती.
क्या पत्र लिखने का अर्थ याद आना होता है?”
“नहीं छुटी, नहीं. परन्तु
वहां जाने के बाद कभी-कभी मन इतना भर आता है, कि हम अत्यंत भावुकता से लम्बे-लम्बे पत्र लिखते रहते
हैं. आजकल हम भी जलनौका पर वास्तव्य कर रहे हैं.
रात की नि:स्तब्ध पद्मा नदी, अँधेरे में डूबी हुई प्रकृति,
कभी नक्षत्रों से दमकता आकाश,
इनमें तुम्हें ढूँढता हूँ, बच्चों को देखता हूँ. पद्मा नदी की जलनौका की भीषण
खामोशी हमारे पूरे शरीर को लपेट लेती है, इस तरह कि...उनका मन भर आया, आंखों में अश्रु भर आये.
मृणालिनी ने उनके हाथों में
रेणुका को थमाया,
और उसने स्नेहपूर्वक रवी बाबू के कन्धों पर हाथ रखे.
“सचमुच, मेरी आने की इच्छा है.”
“मैं समझता हूँ, परन्तु
यद्यपि तुम छोटी बहू हो,
फिर भी सबको प्रसन्न रखने की ज़िम्मेदारी तुम्हारी है. साथ ही तीन बच्चों को
संभालने की ज़िम्मेदारी सेवकों को न सौंपते हुए तुमने स्वयं पर ली है, इसलिए तुम्हारा आना संभव
नहीं है. यह तुम स्वयं भी जानती हो.”
मृणालिनी ने कुछ नहीं कहा.
उसे याद आया,
एक बार नंदिनी भाभी ने कहा था,
“स्वतंत्रता के लिए कितने ही
वीर पुरुषों ने स्वयँ को समर्पित कर दिया. झांसी की रानी ने अपने नन्हे बालक को
औरों के पास सौंपकर वीर मृत्यु का वरण किया. हमारे पति देस में, परदेस में हैं. कम
से कम उन्हें देखने का,
बारबार उनसे मिलने का सौभाग्य तो हमें प्राप्त है!”
उसने कहा,
“बस, ज़रा जल्दी जल्दी आया करें.”
“अभी फिलहाल तो ऐसा संभव नहीं
है. वहां जाने के बाद,
एकाध महीने में बारिश आरंभ हो जायेगी. तब, सारे काम बारिश की अनुमति से! परन्तु जल्दी आने का प्रयत्न
अवश्य करूंगा.”
“अब, आप ऐसा वचन ही दें!”
“क्यों, विश्वास नहीं
है?”
“विश्वास होने से क्या लाभ? आपकी शब्द सखी आपके पास बैठी
रहती है ना! सबसे ज़्यादा वो ही प्रिय है आपको.”
“सच है. एकाकीपन में वही
हमारी सखी है. अन्यथा हमारी अवस्था विकट हो गई होती.”
रेणुका को उसके हाथों में
देते हुए मृणालिनी के कंधे पर हाथ रखकर उन्होंने उससे बिदा ली और पीछे मुड़कर न
देखते हुए वे ठाकुरबाड़ी से बाहर निकले.
********
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