15
पद्मा नदी पर जलनौका में वह सुबह
रवी बाबू को प्रसन्न और अत्यधिक सुन्दर प्रतीत हुई. पूर्व दिशा में प्रकाशित उषा
का रंगमहल,
सुनहरे कदमों से प्रवेश कर रहे रविराज. पक्षियों द्वारा उत्पन्न ताल, और खिलते हुए फूलों का फेर
लगाते हुए उनका नृत्य,
जंगल से सीटी बजाती आ रही हवा,
सभी कुछ मोहक और सुन्दर था. यह सब सुखद और आल्हाददायक था, किसी से कहने का मन हो रहा
था. मगर वहाँ था ही कौन?
उन्हें याद आई यक्ष की.
रामगिरी पर अपनी प्रियतमा के विरह में पल पल गिनने वाला. उस यक्ष को शाप दिया गया
था. अब शाप देने जैसा भीषण ऐसा क्या हो गया था? अलकानगरी में कुबेर की पूजा के लिए नित्य खिले हुए
सहस्त्र कमल लाकर देना उसका नियम था. कितने ही साल...और एक दिन उसका विवाह हो गया.
विवाह की पहली रात,
वह जागता रहा था,
खिले हुए कमल तोड़ते हुए एक अर्धोन्मीलित कली तोड़ी गई. कुबेर ने कली को हाथ में
लिया और उसमें से एक भ्रमर ने उसके हाथ पर काटा. पहले की सारी सेवा भूलकर कुबेर ने
उस यक्ष को शाप दिया कि ‘जिस पत्नी के मोह में तू अपने कर्तव्य भूल गया है, एक वर्ष तक उसका वियोग सहन
कर.’
यक्ष क्या कहता! शाप भोगना
अनिवार्य था. अभी-अभी हुआ ब्याह,
और मिलन की पहली रात. ऐसी अवस्था में वह बाहर आया और विरह से व्याकुल होकर उसने
मेघ को दूत बनाकर अपनी विरह व्यथा पत्नी तक पहुंचे इसलिए सन्देश दिया. उसी काव्य
का हमने अपनी भाषा में अनुवाद किया.
हम भी वास्तव में यक्ष ही
हैं. अपनी छुटी से दूर रहने वाला यह यक्ष. उसने मेघ को दूत बनाया, हम पत्रों के माध्यम से अपनी
व्यथा पहुँचाते ही हैं. परन्तु यक्ष का विवाह हो चुका था, उसकी प्रतीक्षा करने वाली
उसकी पत्नी ही थी. यहाँ तो छुटी,
रथी,
बेला,
और कुसुमकोमल रेणुका भी है. हम पर कोई शाप नहीं है. परन्तु हमारे हिस्से में यह
एकाकी जीवन आया.
‘एकाकी कहाँ? हमारे पास है काव्यसखी, शब्द मोहिनी, सकलाकला कामिनी, गुणवती कामिनी. कितने विविध
स्वरूपों में वह हमारा मनोरंजन करती है. पल भर के लिए भी वह हमें नहीं छोड़ती.
आच्छादित कर देती है समूचे अस्तित्व को.
अपने ही मन को उन्होंने उत्तर
दिया था,
और आरंभ हो गया मौन सुख संवाद.
‘याद करो रोबी, तुम छोटे थे. तुम्हारा सेवक एक गोल
बनाकर,
उसमें तुम्हें बिठाकर निकल जाता. चाक से बने उस गोल की सीमा पार करना मुश्किल लगता
था. तब तुम मगन हो गए थे, मेरे ही कल्पना साम्राज्य में. सामने वाली खिड़की से
दिखाई देते तालाब, नारियल और ताड़ के पेड़ों के बीच से मैं ही तुम्हें
घुमाती थी ना?’
‘हाँ, सखी, हाँ. परन्तु अब हम छोटे नहीं हैं ना?’
‘चाहे तुम बड़े हो गए हो, और कादम्बरी तथा एना तुम्हारे सहवास
में आ चुकी हों, परन्तु मेरे दृढ़ आलिंगन से तुम मुक्त नहीं हो सकते.
रोबी,
मुक्त हो ही नहीं सकते.’
शब्द सखी मौन हो गयी तो रवी बाबू ने कहा,
‘हे शब्द सखी, तुम वचन दो कि हमें कभी भी नहीं
छोडोगी. क्योंकि शायद तुम्हारे बिना हमारी मति भष्ट हो जायेगी. वैसे तो तुम्हारे
साथ-साथ अब वेदना सखी भी हमारे मन में वास्तव्य करने आई है. कभी तुम हमारा मनोरंजन
करती हो,
कभी हमारी वेदना सखी ऐसी अवस्था में भी हमें सुख और आनंद देती है. वेदना में भी
आनंद है,
यह अनुभव उसीके कारण प्राप्त होता है, और हर क्षण अनुभव होता है कि वेदनाओं द्वारा रची गई कठोर
चट्टान पर ही सुख की, आनंद की इमारत खडी होती है. यदि यक्ष ने विरह की
अवस्था का वर्णन मेघ से न किया होता तो मेघदूत काव्य का निर्माण न हुआ होता. शायद, मिलन में व्यस्त क्रौंच
पक्षिणी को बाण न लगता, तो रामायण महाकाव्य की रचना न हुई होती. हे शब्द सखी
तुम हमारे आनंद के, विरह के, मिलन के और प्रकृति के सौन्दर्य में हमारे
अत्यंत निकट रहना. कभी भी, पल भर के लिए भी हमें छोड़कर न जाना. नहीं जाओगी ना?’
अब रवी बाबू के नेत्र भर आये थे. उन्होंने कलम उठाई और
मेज़ पर पड़े कागज़ लिए और आंसुओं से धुंधली आंखें लिए ही लिखना आरंभ किया,
बड़ो वेदनार मतो बेजेछो तुमि हे
आमार प्राणे ,
मन जे केमन करे, मने मने ताहा मनई जाने.
तोमार हृदह करे आछि निशिदिन धरे,
येथे थाकि आँखि भरे,
मुखेर पाने.
बड़ो आशा,
बड़ो तृषा, बड़ो अकिंचन तोमारि लागी,
बड़ो सुखे,
बड़ो दुखे, बड़ो अनुरागे रायेछि जागी.
ए जन्मेर मतो आर हए गेछे जा हबार,
भेसे गेछे मन प्राण मरण टाने.
लिखते
लिखते वे एक एक पंक्ति गाने लगे और असीम निराकार के गर्भ से हौले हौले साकार होने
लगी एक प्रतिमा! निराकार की प्रतिमा! घनघोर अन्धकार से तेजस्वी प्रकाश मार्ग पर ले
जाने वाली तेजोमयी प्रतिमा! नेत्रों की अश्रुधाराओं से प्रकट हुई इन्द्रधनुषी
प्रतिमा. वह भावावस्था उनके अस्तित्व को विस्मरण से परे ले गई थी.
बड़ी
देर के बाद वे उठे. सियालदह के आगे वाले गाँव में ही, परन्तु जंगल वाले भाग में उनका दुमंजिला घर था. वहां
आनंद और उसकी दादी रहते थे. वह घर छोड़कर वे देवेन्द्रनाथ के बोलपुर स्थित आश्रम
जैसे शान्तिनिकेतन में वास्तव्य के लिए आये थे. काफ़ी दिनों तक वे पद्मा नदी पर
स्थित अपनी जलनौका में ही रहे,
वहीं उन्होंने सारी व्यवस्था करवा ली थी.
आज
उन्हें उस भोले-भाले आनंद की याद आई. उनके मन में प्रश्न भी उठा कि क्या वह स्कूल
जाता है, और उनकी नज़रों के सामने सब्ज़ी बेचने वाले, खेतों में काम करने वाले, रेल्वेस्टेशन
पर न संभलने वाले बोझ को सिर पर ढोने वाले, और मच्छीमारी करने वाले सुकुमार बच्चे
खड़े हो गए. रवी बाबू अपनी वेदना से निकल कर इन मासूम बच्चों की वेदना से एकाकार हो
गए. मेरा भारत?
प्राचीन
काल में गुरुकुल होते थे, अनेक बच्चे वहां शिक्षा ग्रहण करने जाया करते थे.
एकेक गुरुकुल में दस हज़ार तक बच्चे भी होते थे. गुरुकुल एक ज्ञानपीठ ही था. शिक्षा
की पद्धति क्रमशः बदलती गई.
काल
परिवर्तित होता रहा,
शिक्षा व्यवस्था बदलती गई. मुसलमानों की, फिर अंग्रेजों की राज्यव्यवस्था आई, और शिक्षा व्यवस्था संकुचित होती गई. अंग्रेजों ने
स्कूल खोले. लडके लड़कियाँ पढ़ने लगे. उस शिक्षा में भारतीय संस्कृति, शास्त्र का कोई स्थान न था. वह था किताबी ज्ञान,
उसमें अनुभव न था. शिक्षा कमरे में संकुचित हो गई. वहां से शिक्षा प्राप्त कर
निकले विद्यार्थियों को सैंकड़ों भारतीयों के अज्ञान का अनुभव हुआ, और यह भी एहसास
हुआ कि हम परतंत्र हैं,
वही शिक्षा ग्रहण करते हैं जो अंग्रेज़ चाहते हैं.
मगर
आज रवी बाबू की आंखों के सामने सैकड़ों अज्ञानी, दरिद्री,
निर्धन भारतीय खड़े हो गए जो मन:पूर्वक अंग्रेज़ो की शरण में गए थे. हमारा मन कई बार
उदास होता है. ब्राह्मो समाज ने हिन्दू धर्म जागरण करते हुए रुढियों, परंपराओं को कालबाह्य कहते हुए नए विचार प्रस्तुत
किये, वे हमें अच्छे नहीं लगे.
अनेकों ने देश की स्वतंत्रता के लिए स्वयँ को समर्पित कर दिया, वो
मन को भाया था, परन्तु हाथ में बन्दूक
लेकर क्रान्ति करने की इच्छा नहीं हुई.
महात्माजी
अहिंसा के मार्ग से विरोध प्रदर्शित कर रहे हैं, वह भी हम नहीं कर पायेंगे. हमारा साहित्य
क्रांतिकारी नहीं है,
अंग्रेज़ी में नहीं है,
हमारे जीवन का प्रयोजन आखिर क्या है?
अनेक
बार लन्दन जा चुके हैं. वहां की सभ्यता, शिष्टाचार स्वातंत्र्य, कलाओं के विकास, व्यावसायिक
विकास, दुनिया में सारी जगहों पर राज्य करने की क्षमता-सामर्थ्य ने हमें प्रभावित
किया, परन्तु हम अपने भारतीयत्व
को, अपने भारत को नहीं भूल
सके. जीवन की हर सीढ़ी पर चढ़ते हुए हमें प्रभावित करने वाला कोई न कोई कारण था.
बचपन में ‘बाउल’
गाने वालों का प्रभाव था. ठाकुरबाड़ी में होने वाली चर्चाओं का और मनोरंजन का
प्रभाव था. यदि अपने सम्पूर्ण जीवन का पुनरावलोकन करें, तो सर्वाधिक प्रभाव रहा प्रकृति का. अगम्य, गूढ़ निराकार का, अध्यात्म का और संस्कृति का.
राजा
राममोहन रॉय, बंकिमचन्द्र का प्रभाव उनके मन पर था. राजा राममोहन रॉय ने सती प्रथा
बंद करवाई थी. क्या हम ऐसा कुछ कर सकते हैं? यह विचार एक बार फिर प्रबल हुआ.
सचमुच, भारत पर गुलामी की नौबत ही क्यों आई? यह मूल प्रश्न
था उनके सामने और उसके जवाब भी उन्होंने ढूंढ लिए थे. आदि शंकराचार्य द्वारा
हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान के लिए किये गए अथक प्रयत्नों के बारे में भी उन्होंने
जानकारी प्राप्त की थी.
संकुचित
हो रहा हिन्दू धर्म,
वेद-शास्त्र, पुराणों की संपत्ति केवल ब्राह्मणों के पास होने से उत्पन्न
कर्मकठोरता और जैन धर्म की सहज-सरल विचारधारा, बौद्ध धर्म की विचारधारा समाज को मान्य हो गई. रवी
बाबू को बौद्ध धर्म की प्रणाली मान्य हुई. इससे हिन्दू धर्म की कठोरता दूर हुई.
परन्तु
ऋषि मुनियों द्वारा अनुभूति से निर्माण किया गया अद्वितीय साहित्य, लोक संस्कृति,
जीवन का अलिखित संविधान,
ये सब क्या यूं ही लिखे गए थे? शाक्त,
गाणपत्य, सांख्य, शैव,
वैष्णव जैसी चाहे कितनी ही विचारधाराएँ हों, मगर उनके बीच परस्पर द्वेष न हो जिससे हिन्दू
संस्कृति का विराट दर्शन उन्हें होगा.
वे
विचारों में नग्न थे,
तभी पद्मनाभ आया था. जब वे जलनौका पर वास्तव्य करते तो पद्मनाभ का साथ होता. हर कम
वह प्रसन्नतापूर्वक करता. रवी बाबू ने एक दिन उससे पूछा,
“घर
में कौन कौन है रे?”
“कोई
नहीं.”
“मतलब?”
“माता-पिता
बचपन में ही गुज़र गए. जब थोड़ा सा बड़ा हुआ, तो पड़ोसियों पर बोझ न बनूँ, इसलिए मुझे काम पर लगा
दिया. झाडू लगाने का काम था. जिस अंग्रेज़ औरत के यहाँ काम करता था, उसके यहाँ एक दिन कप-प्लेट फूट गई, तो उसने काम से निकाल दिया. मगर मुझे उस औरत पर
गुस्सा नहीं आया,
क्योंकि उस औरत के पति के जूते साफ़ करते-करते मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला. मैंने
उसके मुंह से ‘भारत’
शब्द सुना. सुना कि भारत मेरा देश है. कभी-कभी मन में ‘देश’ की कल्पना करते हुए मैं पचास व्यक्तियों की आबादी
वाले गाँव को ही मेरा घर और देश समझता था. उस न देखे हुए भारत की कल्पना मैं मन ही
मन लम्बाई, चौडाई बढ़ा बढ़ाकर करता
रहा. अपने गाँव का सौ-सौ गुना करता रहा.”
“फिर
दिखाई दिया तुझे भारत? समझ में आया कितना बड़ा है?”
“कैसे
समझ में आयेगा बाबू मोशाय? फिर एक शिक्षिका के यहाँ नौकरी करने लगा. यूं ही उसके
बेटे से पूछा. उन्होंने मुझे भारत का नक्शा दिखाया. दुनिया के नक़्शे में भारत का
रूप, और उसमें सियालदह को न
देखकर मेरा मन उदास हो गया. हमने तो कलकत्ता भी नहीं देखा, हम किसी भी चीज़ की कल्पना भी नहीं कर सकते, यह एहसास
मन को दुखी कर गया. रवी बाबू,
क्या आपने देखा है भारत ?”
उसका
प्रश्न सुनकर रवी बाबू परेशान हो गए. संभ्रमित अर्जुन को श्रीकृष्ण ने
विश्व का, जन्म मृत्यु का विराट स्वरूप दिखाकर उसकी व्याकुलता को दूर किया. ‘टू बी
ऑर नॉट टू बी?’ जीना चाहिए या मरना? इस प्रश्न का उत्तर ‘कर्म करने के पश्चात्
मरना चाहिए’ – यह दिया. अब हम इस पद्मनाभ को भारत का शास्त्र संपन्न, वेद संपन्न, संस्कृति से सम्पूर्ण रूप और उसकी लम्बाई, चौडाई,
प्रकृति और पर्वतमालाएं,
नदियाँ इनका स्वरूप कैसे समझाएं,
समझ में नहीं आ रहा है. उन्हें विचारमग्न देखकर पद्मनाभ बोला,
“आप
इतना पढ़े लिखे हैं,
आप तो निश्चित ही बता सकते हैं ना?”
उसके
प्रश्न पर भी वे मौन ही रहे. उन्होंने स्वयं से ही प्रश्न किया, ‘देश-परदेश भ्रमण करते हुए मेरे हिस्से में भारत का
दर्शन आया ही कितना! परन्तु असली दर्शन हुआ, सियालदह के आसपास के गाँवों से. ये व्यथा, वेदना,
अज्ञान, दरिद्रता सम्पूर्ण भारत
के हर गाँव में होगी. उस दारिद्र्य के,
अज्ञान के विराट रूप की कल्पना ही हम कर सकते हैं.
“रवी
बाबू, क्या आपने अपना भारत देखा
है?”
“नहीं
देखा, पद्मनाभ हमने भारत देश. क्योंकि दस जन्म लेना पड़ेंगे भारत देश को देखने के
लिए.”
“इत्ता
बड़ा है भारत!? फिर वह अंग्रेज़ औरत,
सियालदह में आने वाले लोग अंग्रेज़ लोग भिन्न क्यों हैं?”
और
फिर रवी बाबू ने सारा इतिहास ही उसे सुनाया. शक, हूण, यवनों के आगमन से मुस्लिम और ब्रिटिश शासन आने
तक, और वह गुस्से से फूट कर बोला,
“हमारे
ऊपर आक्रमण करके उस पर अधिकारपूर्वक शासन करने वाले सभी अंग्रेज़ लोगों को मौत के
घाट उतार देना चाहिए.”
रवी
बाबू स्तब्ध रह गए. ऐसे वाक्य हमारे मुख से क्यों नहीं फूटते? हमारा खून क्यों
नहीं खौल उठता? सन् 1857 से ‘यूनियन जैक’ का राज शुरू हुआ, और वह आज तक चल रहा है. पुरुषों के साथ साथ महिलाएँ
भी वीरांगना होकर स्वतंत्रता को समर्पित
हैं. विदेश यात्रा करने के बाद बारबार एक ही विचार आ रहा था, ‘भारत स्वतन्त्र हो ऐसी सभी की इच्छा है, उसी
तरह विश्व का प्रत्येक देश अंग्रेजों की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए भीषण संघर्ष
कर रहा है. प्रत्येक देश के नागरिकों का आत्मसम्मान जागृत हो उठा है, और एक दिन जब
भारत स्वतन्त्र होगा तो सम्पूर्ण क्रान्ति से.’
आज
अंग्रेजों ने ‘स्टेट्स’ को स्वतन्त्र करके एक तरह से ‘द्वेष मूलक’ विचारों की
ही स्थापना की है. एकसंघ राज्य का अर्थ है जहां समता, बंधुत्व और राष्ट्रीयत्व. ‘नेशन’ शब्द संकुचित हो जाता है. भारत के लिए ‘भारत राष्ट्र’ यह व्यापक
शब्द होना चाहिए.
“रवी
बाबू, हमारे गाँव में इस बारे
में कोई नहीं जानता. अब मैं यह जानकारी सबको दूंगा. गाँव गाँव घूमकर यह जानकारी
दूंगा. बहुत सारी जानकारी दूंगा,
और सब एकत्रित होकर अंग्रेज़ों को कुचल देंगे, ऐसा सबसे कहते हुए एक संगठन
बनाऊंगा.”
रवी
बाबू ने कुछ नहीं कहा,
‘ऐसा न करना’, यह भी नहीं कहा. देश में
दो विचार धाराएं न केवल प्रवाहित हो रही हैं, बल्कि दृढ़ हो गई हैं. हाथ में शस्त्र लेने पर ही
स्वतंत्रता मिलेगी,
इस उद्देश्य से क्रांतिकारी संगठनाएं बनी थीं, तो महात्मा जी ने अहिंसा का मार्ग अपनाते हुए
सत्याग्रह और असहकार रूपी शास्त्र हाथ में लिए थे.
रवी
बाबू के सबसे बड़े भाई महात्मा गांधी के कट्टर समर्थक थे. फिर भी उन्होंने गांधी जी
के विचारों का समर्थन नहीं किया, बल्कि भारतीय नेताओं की मानसिकता पर प्रहार किया.
गुलामगिरी की मानसिकता पर प्रहार किया और कठोर शब्दों में लिखा था,
“
अंग्रेजों का विरोध करने वाले भारतीय नेताओं, क्या तुम्हें सचमुच विरोध करना है ? तुम अंग्रेजों
के इतने गुलाम और भक्त हो गए हो कि यदि तुम्हारे रास्ते में कोई अंग्रेज़ अधिकारी
आता है, तो तुम एक तरफ होकर उसे
सीने तक झुककर उसे ‘गुड मॉर्निंग’ कहते हो, ईश्वर का भक्त भी कभी इतना विनम्र न हुआ होगा. शायद
अंग्रेज़ तुम्हारे भगवान हैं. बंद करो ये सब. याद रखो कि तुम अपने ही देश में हो, और तुम इतने दीन हीन हो गए हो, इसीलिए वे इतना सिर चढ़ गए हैं, ये न भूलो. अपना
अभिमान, अपना अस्तित्व भूलो
नहीं.”
रवी
बाबू विचार कर रहे थे. शक,
हूण, यवन भारत पर आक्रमण करके आये. जब पोरस सिकंदर से युद्ध कर रहा था उस समय भारत
में अनेक छोटे-बड़े राज्य थे ही,
परन्तु सिकंदर का विशाल सैन्य बल देखकर एक भी राजा पोरस की सहायता के लिए नहीं
आया. अनेक सिकंदर की शरण में चले गए. आज वैसा ही हुआ है. एक संगठित भारत बनाने का
विचार जो सम्राट समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त ने किया, वह किसी ने नहीं किया. भारत संगठित नहीं है, यही है
आज की वास्तविक शोकांतिका. इसीलिये यद्यपि आज क्रान्ति के लिए सशस्त्र और
अहिंसात्मक विचारधाराएँ हैं,
फिर भी भारत स्वतन्त्र हो,
वह अखंड रहे यही सबकी इच्छा है और यही आज
का राष्ट्रधर्म है.
बीच
बीच में पूछताछ करने के लिए आने वाला पद्मनाभ आज भी आया था. उसे हमेशा की तरह कुछ
न कुछ पूछने की आदत थी.
“पद्मनाभ, क्या पूछना चाहते हो?”
“बाबूमोशाय
मुझे गाना सिखाएंगे? और लिखना सिखायेंगे?”
रवीबाबू
हंस पड़े.
“पद्मनाभ, ये दोनों चीज़ें आसानी से नहीं सीख सकते. उसके लिए
समय देना पड़ता है. मगर इतना कहता हूँ, कि तुझे अपना नाम लिखना सिखाऊंगा, और गाने की बात करूँ, तो नाव चलाते हुए बिना संकोच
जैसा आये, वैसा गाना गाते रहो.”
“आपके
रहते हुए नाव में मैं गाना गाऊँ ?”
“इसमें
हिचकिचाहट मत करो. आवाज़ खुली होने के लिए गाना ही पड़ता है. कोई हंसेगा, यह सोचकर अपने गीत को रोकना अच्छा नहीं है. नदी भी
पहले रुक-रुक कर चलते चलते एक गति में चलने लगती है.”
“आप
हँसेंगे तो नहीं?”
“बिल्कुल
नहीं. परन्तु तुम एक काम करो. जब मैं गाँव में जाऊंगा, तब तुम नौका किनारे पर लगाकर गाते रहो. थोड़ा बहुत
ठीक गाने के बाद हम तुम्हें आगे सिखाते रहेंगे.”
पद्मनाभ
खुशी खुशी बाहर गया और प्रसन्नता से ही गाने लगा. एकदम बेसुर, भयानक आवाज़ में; परन्तु रवी बाबू उसके आनंद को समझ
रहे थे. पद्मनाभ जैसे न जाने कितने लड़के होंगे, जो जवान होंगे और जिनके पास सैकड़ों इच्छाएं होंगी, जिनके पास पढ़ने-लिखने की तीव्र इच्छा होगी. ऐसे
बच्चों के लिए क्या किया जा सकता है? यदि उन्हें स्कूल भेजा जाये, तो उनकी मेहनत पर आज जो घर निर्भर है, उसका क्या होगा? शिक्षा और व्यवसाय को एक साथ कैसे
लाया जाए? बचपन में, जवानी में. आज के स्कूलों में मिलता है भविष्य के अर्थार्जन
का शिक्षण. परन्तु आज क्या?
कुछ
ही देर में पद्मनाभ फल लेकर आया और बोला,
“आज
हमें ईरई जाना है,
वहां ग्राम सभा है.”
“हाँ, तैयार होता हूँ. बाद में बताऊँगा.”
रवीबाबू
उठे. आज कम से कम तीन गाँवों में जाना था. घने जंगल से कुछ हटकर चालीस-पचास
झोपड़ियों वाले छोटे छोटे गाँव, वहाँ उनकी ज़मीनदारी थी. परन्तु पैदावार कैसे की जाए
यह प्रश्न उन्हें सता रहा था, जंगल के फल, मछली,
और अज्ञानपूर्वक की गई खेती – इससे क्या प्राप्त होगा?
जब
वे गाँव पहुंचे, तो देखा की ईरई गाँव अच्छा सा देहात था. शिक्षा का
नामोनिशान न था. सिर्फ ग्रामसभा के प्रमुख
को थोड़ा बहुत सामाजिक ज्ञान था,
क्योंकि वह कई जगहों पर घूमा था. उसने रवीबाबू के सामने गाँव की दैन्यावस्था का
वर्णन किया.
‘यहाँ
अनाज है, वस्त्रों की कमी है. आसरा
भी है. परन्तु किसी भी तरह की शिक्षा की व्यवस्था नहीं है. बच्चे आराम से बिना
वस्त्रों के घूमते हैं. थोड़ी समझ आने के बाद ही उन्हें कपड़े दिए जाते हैं. यहाँ
खेतों में धान पकता है,
परन्तु वह सड़ जाता है. अचानक आने वाले तूफ़ान से और नदी के बहाव से किनारा भी बह
जाता है.’ यह अनुभव रवीबाबू को हुआ.
सचमुच, सुधार हुए, तो
किसके लिए? बलपूर्वक कर की वसूली किसलिए? क्या कभी किसी ने इस गाँव की समस्याएँ सुनीं?’
उन्हें
देखने के लिए वह छोटा सा गाँव एकत्रित हुआ था. उन्होंने कहा,
“गाँव
की अवस्था देखकर हमारे मन में अत्यंत करुणा उत्पन्न हुई. हमें भी वेदना हुई. हमारे
भारत को स्वतंत्रता प्राप्त होगी,
इसकी आशा भी अभी नहीं कर सकते. शायद आप लोगों को मालूम भी नहीं होगा कि हमारे देश
पर विदेशियों का शासन है.
“खैर, वह जाने दो. खुद ही अपना विकास करना पड़ता है. यदि
नदी का किनारा ही बह जाये तो वहां श्रमदान करके पत्थरों का किनारा बनाया जा सकता
है. धान सड़ जाता है,
यह भी सही है, परन्तु उसके लिए बड़ा
पक्का घर बनाया जा सकता है. कपड़ों की ज़रुरत हर व्यक्ति को है, जिससे धूप, हवा,
सर्दी शरीर पर सीधे आक्रमण नहीं कर सकते. सभी कुछ आवश्यक है. इसके लिए सात-आठ लोग
हमारे पास आइये. क्या किया जा सकता है,
इस बारे में अवश्य विचार करेंगे.”
वहां
से निकलते समय उनका मन करुणा से भर गया था. ऐसे असंख्य गाँवों के बच्चों को शिक्षा
मिलनी चाहिए. यदि शिक्षा ही न हो तो उनके मन में विकास की कल्पनाएँ कहाँ से
आयेंगी? शिक्षा अत्यधिक महत्वपूर्ण है,
और शिक्षा प्राप्त करने के लिए आये हुए बच्चों को अन्न, वस्त्र,
और आश्रय चाहिए. इस पीढ़ी ने गरीबी और कठिनाइयों में जीवन गुज़ारा, अगली पीढ़ी को अपना और भारत का उत्कर्ष करना होगा.
अनेक
समस्याओं को मन ही मन सुलझाते हुए वे वापस अपनी जलनौका पर आये, जलनौका आज पद्मा नदी के प्रवाह से किनारे तक आई थी. पद्मनाभ
था साथ में.
“बाबूमोशाय, क्या आज बोलपुर जाना है?”
“हाँ, बाबा की कुटी में कुछ दिन विश्राम करूंगा. अच्छा, पद्मनाभ, क्या तुम्हें मालूम है कि हमारे बाबा इसी तरह सारे
गाँवों में घूमा करते थे?”
“आपके
बाबा? वे बहुत कम आये. वे बोलपुर अपनी कुटी में ढेर सारी किताबें लेकर जाते. हमारे
गाँवों का मन:पूर्वक निरीक्षण किया सिर्फ़ आपने. इससे पहले दुर्गाप्रसाद आया करते
थे, परन्तु छोटे छोटे देहातों
का दौरा आप ही कर रहे हैं.”
“अच्छा, तुम्हें आना है तो हमारे साथ आ सकते हो. मगर वहां
बात करने के लिए ख़ास कोई मिलेगा नहीं.”
“आता
हूँ मैं. वैसे मैं अकेला ही हूँ. किसी के आश्रय में, किसी की
मित्रता में दिन तो गुजारना हैं ना?”
“ऐसा
क्यों कहते हो, पद्मनाभ? जीवन को अर्थ
प्राप्त होता है प्रेम से. तुम शादी कर लो. बच्चों से संसार का आनंद प्राप्त होता
है.”
वह
खुलकर हंसा.
“बाबूमोशाय
अब तो मुझे जीवन की परीक्षा देते हुए भी डर लगता है.”
दोनों
बिना कुछ कहे बोलपुर की दिशा में चलते रहे.
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