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अभी
पूरी तरह सुबह भी नहीं हुई थी. रातभर रजनी के सहवास के बाद थकाहारा चन्द्रमा अब
सुख से निद्रावश हो गया था. खिलती हुई कलियों की हल्की सी गंध महसूस हो रही थी.
रजनीगन्धा की खुशबू अभी तक फ़ैली थी. रवीबाबू अपनी खिड़की से यह दृश्य देख रहे थे.
चराचर में भी कितनी प्रसन्नता होती है. ढल चुके दिन को रात जगमगा जाती है. समाप्त
हो रही रात को सुबह का आकर्षण होता है. सचमुच, यह निसर्ग-चक्र कितनी सुन्दरता से चलता रहता है. उस
निराकार शक्ति ने ऐसा कौन सा समय-पत्रक बनाया है, कि
हर चीज़ बिना रुके अपनी ही गति से चलती रहती है?
‘अगर
इस निराकार के व्यवस्थापन का ज्ञान होता तो?’ उन्होंने मन ही मन कहा और अपने आप ही हंसे और
उन्हें याद आया कि वे ‘चित्रांगद’
नाटक लिख रहे थे. शायद उसी चित्रांगद ने हमें जगाया होगा.
महाभारत
के आदिपर्व में वर्णित ‘चित्रांगद’
की कथा ने उन्हें मोहित किया था. मणिपुर के राजा चित्रवाहन की यह अनुपम सुन्दर
कन्या अपनी माँ जैसी थी. चित्रवाहन के पूर्वजों के समय से उनके कुलवंश में केवल एक
ही संतान संभव थी. चित्रवाहन के यहाँ कन्या ‘चित्रांगदा’ ने जन्म लिया. अर्जुन मणिपुर राज्य में आया. तब
चित्रांगदा को वह अत्यंत प्रिय हो गया. चित्रवाहन ने चित्रांगदा को पुत्र के समान
ही पाला था. हाथ में शस्त्र लेकर युद्ध के लिए तैयार किया था. अर्जुन ने उसका
प्रेम प्रस्ताव ठुकरा दिया. वह आत्महत्या करने निकली, तब चित्रवाहन ने कहा, ‘चित्रांगदा से विवाह करो अथवा युद्ध के लिए सज्ज हो
जाओ.’ अर्जुन संभ्रमित हो गया....बारह वर्षों के विजनवास में सैन्य कहाँ से आयेगा?
और उसने विवाह के लिए सहमति दे दी. मन में अपमानित चित्रांगदा विवाह के लिए सज्ज
तो हो गई, परन्तु उसने मन में एक प्रतिज्ञा की, ‘यदि मुझे पुत्र हुआ तो वह पिता को दे दूंगी और उसके
द्वारा अर्जुन का पराभव करूँगी. चित्रांगदा-अर्जुन का यह पुत्र बभ्रुवाहन शूरवीर के
रूप में प्रसिद्ध हुआ. रवीबाबू नाट्य रूप में ‘चित्रांगदा और अर्जुन’ की कथा लिख रहे थे. क्या कल रात को विचार करते हुए
प्रकट हुई नागकन्या उलूपी का समावेश इस नाटक में किया जाए? इस प्रश्न में उलझकर
उन्होंने लिखना रोक दिया था.
अब
उन्होंने मेज़ के पास जाकर फिर से चित्रांगदा लिखना आरंभ किया. उन्हें कहीं भी कोई
गलती करना और मिटाना अच्छा नहीं लगता था.
इसलिए कल के पृष्ठों को नए सिरे से लिखते हुए उन्होंने उस नृत्य नाटक को लिखने का
निश्चय किया. चित्रांगदा का पहला,
उत्सुक प्रेम, और द्रौपदी के प्रेम से
परिपूर्ण हुआ अर्जुन,
उनका प्रेम प्रकट करते हुए नाटक समाप्त किया, तब उन्होंने देखा कि पद्मनाभ पेड़ों को पानी दे रहा
था. दोपहर हो चुकी थी. उनकी मेज़ पर दूध और फल वैसे ही रखे थे. अभी तक स्नान भी
नहीं हुआ था. प्रातःकाल से दोपहर तक की शब्द समाधि अब समाप्त हुई थी. उन्होंने
खिड़की के पास जाकर पद्मनाभ को पुकारा. वह भागकर आया.
“अरे, कम से कम मुझे आवाज़ तो दी होती...”
“बाबूमोशाय
आप इतने मगन थे कि आवाज़ देने पर भी आपको पता नहीं चला. इतनी शीघ्रता से लिख रहे थे, कि मैं देखते हुए खडा ही रह गया. मगर आपका ध्यान
नहीं गया.”
“क्या
तुमने कुछ खाया?
और भोजन के लिए कुछ बनाया क्या? क्या घर में कुछ सामान था?”
“नहीं, घर में कुछ नहीं है.”
“फिर
दूध कहाँ से लाया?”
रास्ते
से जा रही गाय का. और फल तोड़े अपने ही पेड़ से. सुबह नदी से मछली लाया. अब समस्या है
चावल की, और मछली का शोरवा बनाने
के सामान की...”
रवीबाबू
को याद आया. सामान खराब न हो,
इसलिए जलनौका पर जाने से पहले रामसेवक को बुलाकर उसे दे दिया था.
“पद्मनाभ,
अरे तू प्रत्यक्ष ईश्वर है. तुझे किसी चीज़ की कमी कैसे हो सकती है? ये पैसे ले और
इस महीने का सारा सामान ले आ. तेरे और मेरे नाप की दो कमीजें भी लेता आ.”
पद्मनाभ
खुश हो गया और बोला,
“बाबूमोशाय, आप ही ने बताया ‘पद्मनाभ’
का अर्थ. मैं यदि ईश्वर भी हुआ,
तो भी मुझे भक्तों से ही मांगना पड़ता है ना? उसका कहाँ होता है कोई घर, रसोईघर? समस्या तो भक्तों के लिए...सही है ना?”
रवीबाबू
प्रसन्नतापूर्वक हंसे.
‘सचमुच, इनमें से कुछ फल तुम खाओ. फिर जाना.”
“अभी
पेड़ पर और फल हैं,
मैं ले लूंगा.”
“पद्मनाभ, तुम सचमुच में विवाह कर लो. विवाह के बाद यदि अकेले
भी रहे तो सबकी यादें मन को घेरे रहती हैं. अकेला नहीं छोड़तीं.”
“ये
सच भी हो सकता है. परन्तु मेरे पास एक भी पैसा नहीं. घर नहीं, कोई रिश्तेदार नहीं. ऐसी स्थिति में क्या मैं अकेला
ही अच्छा नहीं हूँ?”
हंसमुख
और प्रसन्न पद्मनाभ उदास हो गया था. रवीबाबू ने उसके कंधे पर हाथ रखा तो वह चौंक
गया. कोई उच्च शिक्षित और धनसम्राट व्यक्ति कंधे पर हाथ रखे...मतलब...कल्पना शक्ति
से परे...
“पद्मनाभ, तुमने यह विचार ही मन से निकाल दिया है. मगर अपने
चारों ओर देखो, प्रकृति में भी प्रेम के रूप तुम्हें दिखाई देंगे. वृक्षों का आधार
लेकर लताएं खड़ी रहती हैं. सारी नदियों को आस होती है सागर से मिलने की. चन्द्रमा
रजनी के साथ विश्राम करता है,
सूर्य के दाहक होते हुए भी संध्या उसे अपने भीतर समेट लेती है. धरती और आकाश का
मिलन चाहे न होता हो,
परन्तु मेघवर्षा में वह अपना प्रेम प्रकट करता है. यह सब तुमने देखा नहीं है क्या?”
“बाबूमोशाय, मगर पेट को चाहिए अन्न, प्रेम
बाद में, वही तो मेरे पास नहीं है.”
बोलते
बोलते वह व्यथित होकर कमरे से बाहर गया और उसका दाहक सत्य उनके मन में तीर की तरह
प्रवेश कर गया. दारिद्र्य से पीड़ित ग्रामवासियों की स्थिति उन्होंने देखी थी. अब, तुरंत तो इस बारे में वे कुछ कर नहीं सकते थे, परन्तु
पद्मनाभ जैसे एकाध युवक के जीवन को वे सहज ही सुखी कर सकते थे.
बेला, रथी,
रेणुका को सुखी देखकर सांसारिक सुख क्या होता है, परिवार
के लिए संघर्ष करने में कैसा सुख होता है, इसका उन्हें अनुभव था. अब उन्हें नवजात मीरा को
देखने जाना था और ‘चित्रांगदा’ नाटक का प्रयोग भी बैठकखाने में करना था. वे बहुत
प्रसन्न थे.
रात
को सोते समय उनके मन में विचार आया, असीमित विश्व, अपार प्रकृति के होते हुए भी प्रत्येक
व्यक्ति का प्रेम होता है अपने आप पर और अपने परिवार पर. उससे बाहर निकलना कितना
कठिन है. बाबा परिवार छोड़कर अकेले ही गंगा नदी पर जलनौका में रहते हैं. एक तरफ
अर्थार्जन का कोई साधन न होने के कारण अकेला पद्मनाभ और दूसरी ओर सब कुछ परिपूर्ण
होते हुए भी उसका त्याग करने वाले बाबा? एक की मजबूरी – दूसरे का मोहत्याग.
इसके
साथ ही मृणालिनी की याद आई. करीब ढाई महीने हो गए थे कलकत्ता से आये हुए. रोज़ आने
वाले अखबार से उन्हें देश की स्थिति का पता चल रहा था. जिससे अंग्रेज़ी भाषा के
अनेक विद्यार्थी तैयार हों, वह स्थिति उन्हें मान्य नहीं थी. अंग्रेजों की सरकार
का राज्य भारत ही नहीं,
अपितु सम्पूर्ण विश्व में फैला था. इसके लिए अंग्रेज़ी व्यवहार, अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान उन्हें आवश्यक था. इसके
अलावा सेना में भर्ती करते समय प्रयुक्त होने वाली भाषा, ऑर्डर का ज्ञान होना आवश्यक था. अंग्रेजों ने अपने
पैर दृढता से जमाये थे,
उनका पक्का विश्वास था कि अब यहाँ से कभी
भी वापस नहीं जायेंगे. कभी कभी भारतीयों द्वारा स्वतंत्रता के लिए किये गए
आन्दोलनों को कुचलने में वे कामयाब हो गए थे.
इतना
ही नहीं, बल्कि उन्होंने ‘राजद्रोह
क़ानून’ बनाकर, हर बात में राजद्रोह ढूंढकर भारतीयों को कष्ट देना
आरंभ कर दिया. इसी विषय पर उन्होंने ‘गोड़ाय गलद’ नाटक लिखा.
अब
ठाकुरबाड़ी पहुंचकर दो नाटकों के प्रयोग करने का निश्चय किया. उन्होंने सोचा कि अब
सारे भाई पहले की तरह एकत्रित नहीं होते थे. ज्योतिदा चित्रपटों में उलझा था, द्विजेनदा महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित थे.
सत्येनदा के पास ठाकुरबाड़ी की ज़िम्मेदारी थी, और साथ ही वे अंग्रेजों के क़ानून, और जो उन्होंने भारत में लागू किये थे, उनका अध्ययन कर रहे थे.
मगर
इस बार उन्होंने जानबूझ कर सत्येनदा को पत्र लिखा,
“बड़ो
दा, सत्येन दा...
दो-तीन
महीनों में हम ठाकुरबाड़ी आ रहे हैं. उस समय आप वहां रहें. आजकल बैठकखाने में पहले
जैसी ज़ोरशोर से चर्चा नहीं होती. परिवार के लोगों के साथ नाटक भी बहुत कम होते
हैं. देश में अहिंसा की और क्रान्ति की हवा चल रही है, परन्तु उसका ब्रिटिश सरकार पर कोई परिणाम नहीं हो
रहा है. इस पर भी विविध विचारों के लोगों को बुलाकर चर्चा की जा सकती है.
बैठकखाना
केवल आनंद का, मनोरंजन का केंद्र ही
नहीं, अपितु वर्तामानकालीन
विचारों के आदान प्रदान का केंद्र भी है, यह विचार बाबा ने ही बार बार रखा है. इन तीन महीनों
में सब को एकत्रित होना चाहिये. हमें ज्ञात है कि कादम्बरी भाभी के जाने के बाद
ठाकुर परिवार को गहरा आघात पहुंचा है. परन्तु भावी पीढ़ी का निर्माण करने के लिए हम
बाबा की उसी परम्परा को आगे बढाएं. इधर-उधर बिखरे हुओं को इकट्ठा करें. मैं दो
नाटक भी साथ ला रहा हूँ.
जब
मीरा का जन्म हुआ,
तो नंदिनी भाभी ने मृणालिनी के लिए बहुत कुछ किया, उसका स्मरण है हमें. कुछ ऋण ऐसे होते हैं, जिन्हें
कभी भी, किसी भी स्वरूप में नहीं
चुकाया जा सकता. यही सत्य है.
बडो
दा, मैं सबका ऋणी रहना चाहता
हूँ, क्योंकि भाई-बहनों के बीच सबसे छोटे होकर रहते हुए अब हम बड़े हो चुके हैं, इस
भावना को स्वीकार करना पड़ता है.
अच्छा, हम जल्दी ही आ रहे हैं.
आपका,
रोबी.”
पद्मनाभ
अन्दर आया तो उन्होंने लिखना रोक दिया. वह मिट्टी की एक सुन्दर गणेश मूर्ति लाया
था. डेढ़ बालिश्त के वह मूर्ति अत्यंत सुन्दर थी. आश्चर्यचकित होकर रवी बाबू देखते
ही रह गए.
“पद्मनाभ, क्या तुमने बनाई है यह मूर्ति?”
हाँ, मैंने और आनंद ने बनाई है. रामसेवक ने आज आनंद को
यहाँ छोड़ा, उसे आपसे मिलने की बहुत इच्छा
थी. परन्तु दोपहर को ही रामसेवक उसे ले गया. कल आएगा वो.”
मूर्ती
अप्रतिम थी.
“पद्मनाभ, यह मूर्ति अप्रतिम बन पड़ी है. इसमें कहीं भी कोई भी
कमी नहीं है. आनंद और तुम मिलकर काली माता की, दुर्गा देवी की मूर्तियाँ बनाओ.
मुझे दिखाओ.”
पद्मनाभ
को बहुत खुशी हो रही थी. उसके जाने के बाद रवी बाबू के मन में विचार आया कि पद्मनाभ
और आनंद, इन दो कलाकारों का सम्मान
करने का, उन्हें समाज में प्रस्तुत
करने का काम हम निश्चित रूप से कर सकते हैं, और हम निश्चित रूप से करेंगे.
परन्तु
गाँव-गाँव में ऐसे कितने ही संगीतकार,
गायक, नर्तक, मन में अनगिनत काव्य कल्पनाएँ करने वाले, ध्येयवादी
शिल्पकार, कलाकार होंगे, उनका
मार्गदर्शन करने वाले,
हर विषय के मार्गदर्शक होने चाहिए. तभी देश के नौजवान सम्मानपूर्वक जी सकेंगे.
आज
ऐसा कोई संगठन नहीं है. यदि ऐसा संगठन
होता तो अनेक कलाकारों को बाज़ार मिल जाता. भारत में बिखरा हुआ यह कलाज्ञान, जो आज मिट्टी के मोल हो रहा है, उसे समुचित न्याय मिलता. मन में विचार लेकर ही वे
कमरे से बाहर आये.
पद्मनाभ
मिट्टी तैयार कर रहा था,
उसमें सूखी घास भी शामिल थी. आज, थोड़ा सा प्रोत्साहन पाकर फ़ौरन काम में जुट गया
था.
अब
रवी बाबू के नेत्रों के सम्मुख प्रकट हुआ भारत पुरुष. सम्राट भारत. उसके अनेकों
हाथ. इन हाथों से वह एक ही समय में सारे वाद्य बजा रहा है, गा रहा है, नृत्य कर रहा है, कलाओं का निर्माण कर रहा है, नदियों को प्रवाहित कर
रहा है. हिमालय जैसी पर्वतमालाएं बना रहा है. सागर के गहरे पानी में जलसृष्टि का
निर्माण कर रहा है,
घने जंगलों में वनचर प्राणियों का निर्माण कर रहा है. सहस्त्र बाहुओं में वसुंधरा
भी समाई है. चन्द्रलोक,
सूर्यलोक और विराट शून्य आकाश भी. ये पद्मनाभ, आनंद एकरूप होकर उसके साथ सहकार्य
कर रहे हैं.
रवीबाबू
एकदम होश में आये. कितना विराट भारत पुरुष पल भर को ही देखा, परन्तु उसमें दुःख, दैन्य, अज्ञान नहीं था. थे तो उसके हाथ और हाथों से गढ़ा जा
रहा कार्य, इसी असीमित कार्य की अपेक्षा थी भारत को. वे मन ही मन हंसे. परतंत्र
भारत में भारत स्वतंत्रता से कौनसा कार्य कर सकता था? उन्होंने नेत्रों के सम्मुख
प्रकट हुए भारत के स्वरूप को हृदय में संजोकर सोचा, ‘जिसे जिसे आवश्यकता हो, उसे हर संभव सहायता करना है.’ उनके हाथ में केवल
इतना ही था.
वे
पद्मनाभ के पास गए. उसके हाथ कीचड़ से सने थे. वह अत्यंत एकाग्रता से मिट्टी मल रहा
था.
“पद्मनाभ,” वह चौंक गया, एकदम उठकर खड़ा हो गया.
“कुछ
चाहिए, बाबूमोशाय?”
“नहीं...नहीं...तू
अपना काम कर. अगले सप्ताह मैं कलकत्ता जा रहा हूँ. तुम्हें पत्र लिखूंगा.
पोस्टऑफिस में जाकर लेना तुम्हारे नाम का पत्र. उसके बाद दुर्गामाता की, कालीमाता की पांच-छह मूर्तियाँ लेकर कलकत्ता आना.
तुम कब आ रहे हो यह सूचित करना,
ताकि तुम्हारी मूर्तियों को देखने के लिए लोगों को घर बुलाऊंगा. मगर एक शर्त है, जब तुम्हारा काम अच्छी तरह चल निकले तो ब्याह करना.
अकेले नहीं रहना,
और अपने साथ चार-छह लोगों को भी यह कला सिखाना. समझ गए ना?”
“हाँ.
बाबू मोशाय...” उसकी आंखों से आनंदाश्रु बहने लगे. उन्हें पोंछते हुए गालों पर
कीचड़ लग गया. रवीबाबू हंस पड़े. वह भी दिल खोलकर हंसा.
धीरे
धीरे बहने वाला समीर हौले से गतिशील हो गया, और
देखते देखते ज़ोर ज़ोर से पेड़ों के पत्ते हिलाने लगा.
“तूफ़ान
का संकेत,” पद्मनाभ ने कहा, वे अपनी कुटी में आये. बेहद मज़बूत यह कुटी किसी भी
प्राकृतिक आपदा का सामना करने में समर्थ है. उसी तरह हमारे भारत को दुष्ट आक्रमणों
का सामना करते हुए मज़बूती से खड़े होना चाहिए.
वे
मन ही मन हंसे . ‘हमारे मन में कितने कमरे हैं, क्या मालूम! प्रकृति, प्रेम, मानवता, संस्कृति,
परंपरा, समाज और राष्ट्र ऐसी अनेक
बातें एक ही निराकार मन के असंख्य निराकार कमरों में समाई हुई हैं, यही सत्य है.
पद्मनाभ
का अंदाज़ सही था. हवा बदहवासी से चिंघाड़ रही थी. आकाश काला हो गया था, और देखते-देखते असमय ही मेघगर्जना के साथ बारिश शुरू
हो गई. रवीबाबू के मन में विचार आया, हमारा मन भी तो घिरा है चारों तरफ़ से – कविता से, कथा से,
पत्रों से, नाटकों से,
निबंधों से, अखबारों से – हम चारों ओर से अपने ही शब्दों से टकराते हैं. क्या इतना ढेर
सारा साहित्य वाचक प्रसन्नता से पढ़ते हैं?
‘न
भी पढ़ें, मगर हम लिखते हैं, तो अपनी खुशी के लिए. अपने साहित्य की किताबें भी हम
प्रकाशित करते हैं. वह भी अपनी खुशी के लिए, नाटक लिखते हैं, नाटकों के प्रयोग करते हैं, निर्देशन करते हैं, वह भी अपनी खुशी के लिए. सचमुच, यह सब हम अपनी ही खुशी के लिए करते आये हैं, मगर अब
हमें निश्चित ही अपने लेखन की दिशा को बदलना होगा. कार्य दिशा भी बदलनी होगी. आने
वाली हवा सब कुछ तहस नहस कर देगी,
उस उध्वस्त धरती को हमें संवारना होगा. पद्मनाभ, आनंद जैसे कलाकारों को प्रशिक्षण देना होगा. शब्दों
के माध्यम से उध्वस्त संसार के अनेकों चित्रों को समाज के सामने प्रस्तुत करना
होगा. हरेक को उसकी रूचि के अनुसार शिक्षा प्रदान करनी होगी.
हम
कोई अंग्रेज़ अधिकारी नहीं है,
परन्तु सत्य को सम्मुख रखकर,
निरंतर सत्य की खोज करना अब हमारे हाथ में है. महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक
‘मराठा’ और ‘केसरी’ के माध्यम से कर रहे हैं लोक जागृति. हमें अपने
शब्दों से यह जागृति फैलानी होगी. हमारे मन में दो घर हैं एक घर में हम
अधिकारपूर्वक रहते हैं. सब पर खूब प्रेम करते हैं, वह घर है ठाकुरबाड़ी का. इनमें
भी अनेक लोग खुली जगह में रहते हैं. मन के दूसरे घर में असंख्य ठूंसे गए हैं.
इन्हें एक तार में पिरोया है दुःख ने,
दरिद्रता ने. हृदय वीणा के दो तार एकत्र नहीं आते. ये दूसरा घर मन को तीव्र वेदना
पहुंचाता है.
‘ए
बार फिरो मोरे,’ वे मन ही मन विचार करते
हैं. कविता से कहते हैं,
‘हे कविता, यदि तुझमें सत्व-प्राण है
तो मेरे मन से बाहर आ और प्राणहीन हो रहे लोगों को प्राण दान दे. जो दुनिया मैंने
देखी है, उसमें अत्यंत दुःख है. वह
दारिद्र्य और अन्धकार से व्याप्त है. चारों तरफ़ से बंद है. उन्हें चाहिए प्रकाश, खुली साँस, उन्हें चाहिए बल, आरोग्य, आनंद, साहसपूर्ण इच्छा. इसलिए, हे कविता, तुम एक बार लेकर ही आओ, स्वर्ग से विश्वास का दान और सबको दो वह दान.’
अनेक
कविताएँ तैयार हो गईं थीं. उन्हें एकत्र किया, फिर से पढ़ा और उन एकत्रित कविताओं के संग्रह को नाम
दिया – ‘चित्रा’
और वे बारिश के थमने की प्रतीक्षा करते हुए खिड़की के निकट गए. बारिश के रुकने के
ज़रा भी आसार नहीं थे.
थका
हुआ मन, खड़े होने के कारण क्लांत
शरीर लिए वे पलंग पर लेट गए और मन ही मन लिखने लगे,
बड़ो वेदनार मतो बेजेछो तुमि हे
आमार प्राणे ,
मन जे केमन करे, मने मने ताहा मनई जाने.
तोमार हृदह करे आछि निशिदिन धरे,
येथे थाकि आँखि भरे,
मुखेर पाने.
बड़ो आशा,
बड़ो तृषा, बड़ो अकिंचन तोमारि लागी,
बड़ो सुखे,
बड़ो दुखे, बड़ो अनुरागे
रायेछि जागी.,
ए जन्मेर मतो आर हए गेछे जा हबार,
भेसे गेछे मन प्राण मरण टाने.
उनकी
आंखों से आषाढ़ मेघ बरसने लगे. विरह से उत्पन्न
व्याकुल अवस्था,
और झंझावात, गिरे हुए घर, उनमें मनुष्यों की दैन्यावस्था. इन्हीं में मन उलझा
था. कोई राह दिखाई नहीं देती थी. आसमान जैसी विशाल वेदनाओं में कहां कहां और कैसे
पैबंद लगायेंगे,
यह विचार उन्हें गहन अंधरे की तरफ़ ले गया.
अंग्रेजों
की अत्याचारी सरकार और स्वराज्य के लिए निष्फल हो रहे प्रयत्नों के बीच कुछ भी
नहीं हो सकता था. ज़मींदार होते भी वे समझ नहीं पा रहे थे, कि ऐसी जनता से पैसे किस तरह लें, कैसे उनसे अनुरोध
किया जाए, यह वे समझ नहीं पा रहे थे.
उन्हें
ऐसा प्रतीत हो रहा था कि चारों तरफ़ दुःख का महासागर है, उसमें से उनकी जलनौका जा रही है, मन में संवेदनाओं का तूफ़ान है, जलनौका मानो दिशाहीन होकर महासागर में भटक रही है.
‘हे
ईश्वर, तुम सृष्टि के निर्माता
और पालनहार हो, तुम सहृदय, दयावंत हो. फिर तुम्हें अपने ही अज्ञानी, दरिद्री पुत्रों का आक्रोश क्यों नहीं सुनाई देता?
क्या सत्ता और साम्राज्य के लिए लालायित इस ब्रिटिश शासन पर तुम वज्राघात नहीं कर
सकते?
तुम
तो अनेक बार अनेकों के लिए अपने वचन के लिए प्रतिबद्ध हो – ‘यदा यदाहि धर्मस्य...’
कहाँ खो गया तुम्हारा वचन?
या फिर तुम भी
यह सोचकर असहाय हो गए हो, कि
हर चीज़ हाथ से निकल चुकी है?
यह प्रार्थना मैं अपने लिए नहीं,
अपितु भारत में रहने वाले,
क्षुधापीड़ित, गुलामी के जाल में फंसे देशबंधुओं के लिए कर रहा हूँ. आओ, तुम स्वतंत्रता लेकर आओ. आओ तुम भारत का ध्येय बनकर, स्मरण रखो अपने वचन का, और जल्दी आओ. हमसे यह दैन्यावस्था देखी नहीं जाती.’
रात
गहराती जा रही थी. भटकी हुई नौका की तरह अभी भी विचार भटक रहे थे. उसे किनारा नहीं
मिल रहा था.
सही
में हम देश...देश कहते हैं,
परन्तु परतंत्रता के काल में देश बचा ही कहाँ है? चारा-छह सुशिक्षित हिन्दुओं ने
भी पाश्चात्य कल्पना स्वीकार करते हुए उसे मिट्टी में मिला दिया. जिनका जन्म इस
माटी में हुआ, भारत भूमि पर हुआ, उन्हीं लोगों ने स्वयँ को बेच दिया, किसलिए? पैसा और
मानसन्मान के लिए. स्वतंत्रता की खातिर चार-छः लोग संघर्ष कर रहे हैं, कैद में जा रहे हैं. सैंकड़ों अज्ञानी लोगों को इससे
कुछ लेना देना नहीं है. पेट की खातिर कुछ भी कमाकर खाना, बस,
ख़त्म हो गया जीवन. ‘संस्कृति’
को भी वे कैसे समझ पायेंगे?
अभी
कल-परसों ही तो वे पद्मनाभ के साथ एक छोटी सी बस्ती में गए थे. वहां शिक्षा तो
क्या, कपड़ों का भी नामोनिशान
नहीं था. पद्मनाभ को ही लज्जा का अनुभव हुआ. असल में तो इस बस्ती में जाने का
विचार भी नहीं किया था, इच्छामती से नौका में जाते हुए अचानक तूफ़ानी हवा शुरू हो
गई. तब पद्मनाभ ने नाव किनारे पर लगा दी और उसे रस्सी से दो पेड़ों के बीच बांध
दिया. तब, कुछ करना चाहिए यह सोचकर
वे पैदल चलते हुए जंगल की ओर मुड़े. वहां पगडंडी देखकर पद्मनाभ ने कहा, कि यहां निश्चित ही कोई बस्ती है. नदी का पानी लेने
के लिए लोग यहाँ आते होंगे. वे आगे चलते गए और बेचैन हो गए. सभी आदिमानव थे. कहीं
भी, किसी भी चीज़ का कोई
तालमेल नहीं. सौ-पचास लोग खुद ही अपनी चिंता करते हुए नारियल के पत्तों से बनाई
झोंपड़ी में रह रहे थे. पेड़ों के पत्ते लपेटे हुए कुछ स्त्रियाँ थीं, तो कुछ वैसी ही थीं. पुरुष भी वस्त्रहीन.
वे
पद्मनाभ और रवी बाबू की ओर देखते रहे. भाषा अबूझ. पद्मनाभ ने हाथों के इशारों से
कुछ कहा. उन्होंने फ़ौरन पेड़ के फल,
भुनी हुई मछलियाँ उनके सामने लाकर रखे.
“पद्मनाभ, इतने बड़े जंगल में किसी भी पशु-पक्षी की आवाज़ क्यों
नहीं है? पेड़ों पर चिड़िया-कौए क्यों नहीं हैं?”
उसने
टूटी-फूटी, उनकी भाषा में उनसे पूछा. तब कारण सुनकर रवी बाबू चकित रह गए. “यहाँ
चीटियाँ, चींटे, छिपकलियाँ...कुछ भी नहीं हैं. कुत्ते, गायें,
भैंसे नहीं. पेड़ों पर पक्षी नहीं. ज़िंदा रहने के लिए सभी कुछ मारकर ये लोग खा जाते
हैं. किसी भी गाँव से इनका कोई संपर्क नहीं. सिर्फ नदी में मछलियाँ हैं, पेड़ों के फल हैं. इसी पर गुज़ारा करते हैं. जंगल में
खूब भीतर-भीतर जाते हैं. कुछ भी उगाते नहीं हैं.”
रवीबाबू
सोच में पड़ गए थे. ‘ये भारत देश? ये आदिम जमात, संस्कृति से लेशमात्र का भी संबंध न रखने वाली. कहाँ
पश्चिम के विकसित देश, भारत के कुछ प्रमुख शहर. थोड़े बहुत विकसित गाँव, और
उनसे छोटे गाँव, और अब ये दृश्य!’
उन्हें
किसी भी तरह नींद नहीं आ रही थी. भारत को सुसंस्कृत बनाने के लिए सर्वप्रथम
सुशिक्षित भी होना चाहिए. इस बात का उन्हें प्रखरता से अनुभव हुआ. अपने बच्चों को
भी संस्कारों का ज्ञान होना चाहिए. प्रत्यक्ष रूप से उनका सहवास बहुत कम रहा.
हमारे पिता का भी अनुभव हमें कम ही मिला. वे किसी ऊंचे शिखर के समान दैदीप्यमान
थे. कभीकभार ही उनका साथ मिलता था. तब मन में आदर और भक्तिभाव होता. शायद हमारे
बच्चे भी ऐसा ही सोचते होंगे.
सोचते
सोचते उन्हें याद आया. उन्होंने मृणालिनी से कहा था, “ छुटी,
मैं सियालदह में बड़ा घर लेता हूँ. हम और हमारा परिवार वहां रह सकता है,” इस पर
उसने कहा था, “आपका और बच्चों का सहवास
रहे, ऐसा मुझे हमेशा लगता है;
परन्तु बच्चों का स्कूल,
उनकी शिक्षा सर्वप्रथम पालकों की ज़िम्मेदारी होती है, ऐसा आप ही ने तो मुझे बताया था.”
इस
पर रवी बाबू कुछ नहीं बोले थे. यह सच भी था. अर्थात्, शिक्षा,
चाहे वह अपने बच्चों की हो या अन्य भारतीय बच्चों की, सचमुच में आवश्यक है.
शिक्षा
के लिए और अपनी रूचि की शिक्षा के लिए कैसे कोई व्यवस्था की जाए? इस विचार में उनकी रात समाप्त होने को आई.
क्षितिज
पर चन्द्रमा स्थिर था. नए विचारों का नया तेज लेकर आने वाला सूर्य आज रवी बाबू के
लिए ठहरा हुआ था. इसी संधिकाल में उन्हें याद आई अपने पिता देवेन्द्रनाथ की और वे
दिल खोलकर हंसे.
नए
विचारों का सूर्य नया तेज लेकर प्रसन्नता पूर्वक पूरब से आ रहा था. उनका विचार अब निश्चित हो चुका था. बारिश रुकते
ही कलकत्ता जाना है,
यह निश्चय करके वे शांत मन से निद्रावश हो गए थे. नित्य का दिनक्रम आज बदल गया था.
रात
में किसी समय उनकी आंख खुली. लालटेन की मंद बत्ती को उन्होंने बड़ा किया और कमरे
में प्रकाश फ़ैल गया. परन्तु मन में बहुत अकेलापन था. वे मृणालिनी को पत्र लिखने
लगे,
“भई
छुटी,
यहाँ
तो बारिश थमने का नाम ही नहीं ले रही है. हम यहाँ अकेले हैं, और अकेले रहने में, सखी छुटी, सचमुच में आनंद है. बिखरा हुआ सामान नहीं, लोगों की भीड़भाड़ नहीं, चीखना-चिल्लाना नहीं, गुस्से से पैर पटकना नहीं. सब कुछ कितना शांत-शांत
होता है, और अभी यहां कोई आता-जाता
भी नहीं है. इसलिए खूब सारा समय मिलता है. सुबह और शाम को भोजन के बाद दो-दो आम
खाता हूँ. रात में सब्ज़ी और पूरी. बस,
इतना ही. कम खाना आरोग्य के लिए अच्छा ही है.
आखिर,
हमें कितनी चीज़ों की आवश्यकता होती है? उसके लिए निरंतर प्रयत्न भी करते हैं.
परन्तु ‘आराम’ शब्द के लिए अनेक कष्ट
करने में ही दिन व्यतीत होते जाते हैं. सामान्य चीज़ों को प्राप्त करने की भी चिंता
हमेशा रहती है.
मुझे
ऐसा लगता है कि बिना किसी आडम्बर के सीधा-सादा जीवन व्यतीत किया जाए. नहीं चाहिए
वह बैठकखाना, नहीं चाहिए वह दिखावटी
सजावट. रस्सी से बुनी हुई लकड़ी की खाट पर्याप्त है. उसके ऊपर मामूली बिस्तर.
शान्ति और समाधान हो, किसी से वाद-विवाद न हो, विरोध न हो, तो ऐसा लगता है कि जीवन जी लिया है.
सोचा
था कि इस बार सियालदह में बड़ा घर लेकर रहेंगे और बोलपुर, शान्तिनिकेतन में काम के
हिसाब से जाते रहेंगे. यही तो निश्चय किया था. अपने मन की कल्पना देवेन्द्रनाथ को
सुनाकर शान्तिनिकेतन को नए सिरे से,
नए स्वरूप में विद्या का आवास बनाएंगे. मन में तो बहुत कुछ था, मगर ये बारिश थी कि रुक ही नहीं रही थी और किसानों
के प्रश्न लेकर रामसेवक का आना जारी था, ऐसे समय में यहाँ से जाना उन्हें ही अनुचित प्रतीत
हो रहा था.
दिन
खिंचते गए, मन अधीर हो गया, फिर भी
वे निकल नहीं सकते थे. पहले वाले ज़मींदार शहर में नहीं रहते थे. वे गाँवों-गाँवों
में रहते थे. इसलिए किसान,
मज़दूर, बाढ़ की स्थिति, फ़सल की स्थिति का ज्ञान उन्हें हो जाता था. अँगरेज़
अधिकारी शहरों में रहते थे. दो-चार दिनों में सियालदह आकर वसूली किया करते. उनके
स्वागत का भार भी ग्रामवासियों पर पड़ता था. रवी बाबू आये और उन्होंने हर गाँव में
जाकर ग्रामवासियों का दुःख जाना. बारिश में ही जाकर उनकी समुचित व्यवस्था की,
बीमार लोगों को खुद आरोग्यशास्त्र का अध्ययन करके दवा देना आरंभ किया. कहीं कहीं
अनाज की व्यवस्था भी की. कहीं कहीं ये समझाया की पक्के घरों का निर्माण कैसे करें.
लोग धीरे धीरे उनकी बातों को सत्य मानकर उन पर विश्वास करने लगे.
बीच
बीच में वे मृणालिनी को पत्र में लिख देते, ‘अब हमने निश्चय कर लिया है, छुटी,
की जब तक तुम्हारा पत्र नहीं आता,
तब तक तुम्हें नहीं लिखेंगे. मगर क्या करें, यह विचार आता है, कि तुम निरंतर हमारी चिंता कर रही होगी. हम ही मूर्ख
हैं. हमें ऐसा लगता है,
कि अगर रोज़ तुम्हें पत्र नहीं लिखेंगे,
तो तुम बुरा मान जाओगी. अर्थात्,
हम अहंकारवश ऐसा सोचते हैं, क्योंकि औरों की गलतियाँ निकालना हमारा स्वभाव ही बन
गया है. हमारे ही कारण तुम्हें यह सब सहन करना पड़ता है. नसीब तुम्हारा! और क्या?!’
और
तुरंत अपराध का बोध होता है. ऐसा लिखकर दूर रहने वाली मृणालिनी का मन दुखाना नहीं
चाहिए था, और समय मिलते ही उन्होंने फ़ौरन उसे पत्र लिखा,
‘
भई छुटी,
कल
का दिन पुण्यतिथि के आयोजन के कारण खूब गड़बड़ी में बीता. इसलिए, सोचकर भी तुम्हें पत्र न लिख सके. दो दिनों के बाद
हम सियालदह पहुंचे. घर एकदम शांत-शांत और एकाकी प्रतीत हुआ. सोचा था, कि बहुत दिनों बाद घर पहुंचा हूँ, तो खूब आराम करूंगा. परन्तु मुझे सम्पूर्ण घर-परिवार
में रहने की आदत थी. अब यहां मौजूद सभी चीज़ों से तुम्हारी याद ताज़ा हो गई. फिर
आराम कहाँ से मिलेगा? चाहे कितना ही निश्चय करो, खाली घर में मन नहीं लग रहा था. जब हम थके हारे, सफ़र से वापस लौटते तो हंस कर हमारा स्वागत करने वाली, हमारी थकान दूर करने वाली, हमारी सेवा करने वाली, स्नेहपूर्वक हमारा ध्यान रखने वाली इस घर में कहाँ
से आयेगी? इस विचार से मन और ज़्यादा उदास हो गया. हमने किताब पढ़ने का प्रयत्न भी
किया, परन्तु वह व्यर्थ ही गया.
हम अपने बगीचे में टहलते रहे. लालटेन की लौ फिर से बढ़ाई और उस रोशनी में सब कुछ
वीरान और उदास प्रतीत होने लगा. आखिर में जल्दी खाना खा लिया और सीढियों से ऊपर
वाले कमरे में गए,
तो उस कमरे में ज़्यादा ही अकेलापन लगने लगा.
‘छुटी, यहाँ के अपने घर का पिछला आंगन अनेक सब्जियों से भर
गया है. मटर के पौधे ज़्यादा बढ़े नहीं हैं, मगर बाग़ में विविध प्रकार की सब्जियों
की बहार आई है. कितने सारे लाल कद्दू तोड कर रखे हैं. सोचता हूँ कि नौकर के हाथों
से सब्जी तुड़वाकर तुम्हें वहां भेज दूं. हाँ, तुमने जो गुलाब के पौधे दिए थे, वे
फूलों से लद गए हैं. यहाँ रंगबिरंगे फूलों से बाग़ में बहार आई है. अपने पीछे वाले पोखर
में काफ़ी पानी भर गया है...’
वे
लिखते ही जा रहे थे. मन की सारे भाव व्यक्त करने के लिए शब्द ही पर्याप्त नहीं हो
रहे थे. आखिर में उन्होंने मृणालिनी को लिखा,
‘यहाँ
से यदि कुछ मंगवाना हो तो बताना. अवश्य भेजूंगा. दही और मछली शीघ्र ही भेजता हूँ.
तुम्हारा
रवी
.’
रवी
बाबू अब शांत हो गए थे. परन्तु मन तेज़ी से भाग रहा था कलकत्ता की ओर. परन्तु अभी
हाल ही में उन्हें तेज़ी से इस बात का एहसास हो गया था कि कलकत्ते की भीड़भाड़ अब उनके
मन को सहन नहीं होगी. उस भीड़ में मिलकर छोटी छोटी बातों में भी दोष दिखाई देते
हैं. मन शिकायत करता है. सब के साथ रहते हुए कभी कभी अधिक तनाव के कारण हम बहस पर
उतर आते हैं. इसके अतिरिक्त ठाकुरबाड़ी में भी भीडभाड प्रतीत होती है. चारों ओर
आवाजों का कोलाहल बढ़ गया है. अब ठाकुरबाड़ी में परिवार बड़ा हो गया है, और शान्ति भंग हो गई है. जब मीरा का जन्म हुआ था, तभी उन्हें ऐसा लगता था कि अब मृणालिनी को सियालदह आ
जाना चाहिए. परन्तु रेणुका के जन्म के बाद मीरा का और फिर रथींद्र का जन्म हुआ और
घर पर ही शिक्षक बुलाकर अंग्रेज़ी,
बंगाली और संस्कृत की पढ़ाई हो गई थी. यदि मृणालिनी से यहाँ आने को कहें, तो वह हमेशा की तरह बच्चों की शिक्षा की ज़िम्मेदारी
उठा रही थी. और उसकी बात सही भी थी. ठाकुर परिवार में सभी उच्च शिक्षित, विद्वान व्यासंगी, और संगीत, नाट्य और लेखन कला में पारंगत थे. ठाकुर परिवार प्रसिद्ध
था. मृणालिनी इस बात को जानती थी. और अब वे भी स्वयं को भली प्रकार समझ गए थे. चाहे
कितना भी निश्चय कर लें,
कितना ही मन चाहे,
मगर अब वे कलकत्ता के भीड़ भाड़ वाले परिवार में नहीं रह सकते थे. यह पूरी तरह असंभव
था.
बाद
में उन्होंने कभी मृणालिनी को पत्र लिखा,
‘आकाश
में धीरे धीरे सर्वत्र अन्धेरा फ़ैल रहा है. मेघ अब संगठित हो रहे हैं. रिमझिम होने
लगी है. सारी खिड़कियाँ बंद करके ऊपर वाली मंजिल की खिड़की से बारिश देखते हुए
तुम्हें पत्र लिख रहा हूँ. ठाकुरबाड़ी की ऊपरी मंजिल की खिड़की से ऐसा दृश्य कभी
नहीं दिखेगा. चारों ओर फैले खेतों पर,
पेड़ों पर बरसने वाली ये बरखा कितनी सुन्दर, सुखदायी और स्नेहपूर्ण प्रतीत हो रही है.
‘बैठे
बैठे कालिदास के ‘मेघदूत’
काव्य पर लेख लिख रहा हूँ. चारों तरफ से घेरती हुई हरियाली को आच्छादित करने वाला आज का
दिन और घना अंधेरा यदि उसी तरह प्रकट कर सकता तो... हमने ‘मेघदूत’ से संदर्भित लेख में अनेक अलग बातें लिखी हैं. उस पर लिखते हुए, परन्तु प्रतिक्षण विस्तारित होने वाला मेघों का यह
सम्मलेन, वृक्षों की शाखों से झोंका लेती हुई ये वर्षा, आकाश और पृथ्वी का अन्धकार में हो रहा दृढ़ आलिंगन, ये सब हमारे शब्दों में वाचकों के लिए कैसे लिखें?’
उन्होंने पत्र को वैसा ही छोड़ा, उनके मन में विचार आया. प्रकृति में हर क्षण
मिलनोत्सव है. इस उत्सव में सहभागी होते हुए हमारा मन आनंद से पूरी तरह भर गया है.
परन्तु अपने अधीर मन को संयम की मर्यादा में रखा है.
शायद, हमारे हाथ से दिन भर के विविध अनुभवों से सहज, सुन्दर लेखन हो, ऐसा
तो नियती का विचार नहीं है? कालिदास के यक्ष तो हम हैं. यक्ष को कुबेर ने केवल एक
ही वर्ष पत्नी से दूर रहने का शाप दिया. हमें भी इसे शाप न समझते हुए प्रेरणा और
लेखन की, चिंतन की संधि ही समझना चाहिए.
मन को कितना भी समझाएं, फिर
भी अपना परिवार और वह सुख हमें पग पग पर याद दिलाता है परिवार और राष्ट्र के बारे
में विचार करने की. कितने ही प्रकार से मन में संवेदनाओं का जाल बुना गया है...हम
क्रांतिकारी नहीं हैं, चाहे कितना ही निश्चय कर लें, लोकमान्य तिलक जैसे तीव्र, ज़हरीले शब्द हम नहीं लिख सकते, जिन्हें शस्त्रों से काटा जाए. जितना कठोर हम लिख
सकते हैं, उससे सौ गुना कठोर वे लिखते हैं. अरविंद घोष, सावरकर, नरेंद्र दत्त,
अपनी-अपनी विचारधारों के साथ अपने अपने तरीके से राष्ट्र हित में कार्य कर रहे
हैं.
नरेंद्र दत्त अपना सारा परिवार छोड़कर, अविवाहित रहकर श्री रामकृष्ण परमहंस के आध्यात्मिक
विचारों से प्रभावित हुए. अरविंद घोष क्रांतिकारी संगठन में शामिल हुए. असल में तो
हम राष्ट्र का सर्वांगीण विचार कर रहे हैं. हम कला के उपासक हैं. स्वतन्त्र
राष्ट्र और परतंत्र भारत – यदि दोनों का विचार किया जाए तो यह समझ में आया कि भारत
के स्वतन्त्र हुए बिना किसी भी तरह की स्वतंत्रता मिलना संभव नहीं है, यह बात समझ
में आई.
असल में हमारे विचारों में प्रधान विचार है – कला की
उपासना, शिक्षा का प्रसार, दारिद्र्य का नाश. ये अभी संभव नहीं है. परन्तु
जितना संभव है, उतना तो हम कर ही सकते हैं.
रवी बाबूने निश्चय किया कि कलकत्ता में ठाकुरबाड़ी
पंहुचने पर दो निर्णय लेना है. परिवार को सियालदह ले जाना है. उससे पूर्व बेला और
रेणुका का विवाह करना है. वैसे रेणुका अभी छोटी है,
परन्तु कादम्बरी आठ वर्ष की आयु में ब्याह करके आई थी. मृणालिनी भी कोई ज़्यादा बड़ी
नहीं थी. उनके विवाह के बाद ही सियालदह वापस आना है.
दूसरी महत्वपूर्ण बात – जलनौका पर जाकर देवेंद्रनाथ
से मिलकर उनके सम्मुख अपने सारे विचार रखना है.
ये दोनों निर्णय लेकर रवी बाबू को काफी हल्का महसूस
हुआ, और उन्होंने प्रसन्नता से पद्मनाभ को बुलाया.
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