Wednesday, 6 August 2025

एकला चलो रे - 17

 17

 

उत्तर की ओर से आ रही वायुलहरियों से कलकत्ता शहर मानो ठिठुर गया था. सर्दियों की सुबह अभी भी कोहरे की चादर ओढ़े सो रही थी. रवीबाबू घोडागाडी से गंगा नदी के किनारे पर उतरे और जलनौका में वास्तव्य कर रहे देवेन्द्रनाथ से मिलने गए. परन्तु इस उम्र में इतनी सुबह उनके पास जाना उन्हें ठीक नहीं लग रहा था. मगर वापस जाना भी अच्छा नहीं लग रहा था. आखिरकार उन्होंने सोचा कि जलनौका में बैठकर उनके उठने की राह देखी जाए.

परन्तु उनके जलनौका पर पहुंचने से पहले ही उन्हें सूर्य देव की प्रार्थना करते देवेन्द्रनाथ दिखाई दिए. रवीबाबू हंसते हुए आगे गए और देवेन्द्रनाथ के चरणों पर साष्टांग दंडवत किया. वह अपनी एकाग्रता से बाहर आये.

“रोबी, तू ऐसे अचानक?”

हाँ, बाबा, कल ही वापस आया. आपको पत्र लिखा, उसके बाद हम आने ही वाले थे, परन्तु बिदा हो चुका मानसून वापस लौटा और महीनाभर सियालदह में ही जमा रहा. बेला भी नाराज़ थी.”

“बेला या छोटी बहू?”

रवीबाबू ने जवाब नहीं दिया.

“इतनी सुबह उठ जाते हैं?”

“हाँ, ध्यान हो गया. वेदों की कुछ ऋचाओं का पाठ भी हो गया। तब तक सूर्य देव आकाश में आते दिखे, इसलिए कमरे से बाहर आया.”

“आप सचमुच में महर्षि हैं.”

“हमारी बात छोडो, अपनी बात कहो. काफ़ी महीनों से ठाकुरबाड़ी नहीं आये. कुछ ही दिन पहले छोटी बहू मीरा और शमीन्द्र को लेकर आई थी. कभी कभी सत्येन, द्विजेन आकर प्रेम से हाल चाल पूछते हैं, और...”

“बाबा, आप घर चलें. अकेले रहते हैं, कुछ हो गया तो...”

“होने को क्या है? मृत्यु ही आयेगी ना? हमने सचमुच उसे आमंत्रण दिया है. छोटी बहू ने तुम्हारी प्रकाशित पुस्तकों का गट्ठर ही लाकर दिया है. अभी पढ़ना शुरू नहीं किया, मगर, कितना लिखते हो! हमें तो आश्चर्य होता है.”

“आपने क्या कुछ कम लिखा है? अगर आपके सम्पूर्ण जीवन का सार देखा जाए तो...”

“नहीं, नहीं...वो सब ना कहो. हमारे जीवन का सार है, तुम सब के कलागुणों में. कितना अथाह ज्ञान, अनुभूति, तुम सबने प्राप्त की है, कि ऐसा लगता है, मानो जीवन परिपूर्ण हो गया. आखिर, और क्या चाहिए?”

बोलते बोलते वे अत्यंत भावुक हो गए थे.  श्वेत दाढी, गर्दन पर झूलते सफ़ेद बाल, तेजस्वी आँखें और विशाल माथा. किसी ने रवी बाबू से कहा था, ‘पितृमुखी हो. बाल सफ़ेद होने पर बिल्कुल वैसे ही लगोगे.’ तब शारदा देवी ने कहा था,

“पितृमुखी पुत्र का जीवन भी पिता के ही समान होता है.” रवीबाबू ने वह विचार कब का मन से निकाल दिया था, कुछ समझ आने के बाद. यदि आप सत्कर्म भी करते हो तो भी मिट्टी से अंकुर फूटने और पंचामहाभूतों का  सामना करते हुए बड़ा होने का निश्चय करें, तो भी अदृश्य नियति जो करे, उसे स्वीकार करने के सिवा कोई  और पर्याय नहीं है.

हम पितृमुखी हैं, पिता को सबसे ज्यादा प्रिय हैं, उन्होंने इतने विश्वास से ज़मींदारी का उत्तरदायित्व सौंपा है और...’

“क्या सोच रहे हो, रोबी?”

“कुछ नहीं. सहज ही विचार आया सियालदह का. जीवन का विविधांगी अनुभव कभी भी ठाकुरबाड़ी में रहकर, विदेशों में  घूमकर भी प्राप्त न हुआ होता. हम इतना यथार्थ साहित्य निर्माण नहीं कर सकते थे. हम ऋणी हैं आपके.” उन्होंने हाथ जोड़े. उन जुड़े हुए हाथों को अपने हाथ में लेते हुए देवेन्द्रनाथ ने कहा,

“ रोबी, एक बात साथ है कि तुम पर हमारा नितान्त विश्वास है.”

इसके बाद उनके बीच राजकीय, सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक विषयों पर बातें होने लगीं. उनका सेवक फल और दूध लाया.

“रोबी, खाना खाकर ही जाओगे ना? हमारे यहाँ कुछ भी विशेष नहीं है, क्योंकि अब निवृत्त होने के बाद किसी भी चीज़ का मोह नहीं रखना चाहिये. इसलिए दो बार दूध-चावल खाते हैं. तुम्हारे लिए...”

“नहीं, नहीं, हमारे लिए भी यह ठीक है. हम कल सुबह जायेंगे. खूब सारी बातें करनी हैं.

आज की राष्ट्रस्थिति को देखते हुए भारत का दृश्य विदारक प्रतीत होता है. अंग्रेज़ अपनी सेना और शासन को अधिकाधिक दृढ़ करते जा रहे हैं. सियालदह की पद्मा नदी, उसकी उपनदी इच्छामती, और छोटे प्रवाहों से अनेक छोटे छोटे गाँवों में जाने पर नज़र आया घोर अज्ञान, प्रचंड दारिद्र्य, और दुनिया का ज्ञान तो क्या, सियालदह जैसा एक रेल्वेस्टेशन है, इसका भी उन्हें ज्ञान नहीं है. यह सब अज्ञान के कारण होता है. अल्पसंतुष्टता स्वीकार कर लेने से आगे कोई उद्देश्य ही नहीं है. बाज़ार क्या है – पता नहीं. ऐसे हरेक गाँव का यदि एक लड़का भी शिक्षा प्राप्त कर ले तो गाँव का उद्धार करेगा.”           

“तुम्हारी क्या कल्पना है, रोबी?

“मुझे विश्वास है कि मेरी कल्पना आपको पसंद आयेगी. बोलपुर में जो आपका शान्तिनिकेतन निवास है, वहां हम आजकल रहते हैं. कई बार सियालदह में, कई बार जलनौका में, बिल्कुल आप की तरह. आपके उस निवासस्थान में सुन्दर दुमंज़िला मकान है,. पहले, जब हम हिमालय गए थे, तो वह कुटी थी, आश्रम जैसी.”

“उसका क्या करना है, रोबी?” देवेन्द्रनाथ ने उत्सुकता से पूछा.

“हमारा विचार है, मतलब, हमारा स्वभाव हाथ में शस्त्र लेकर लड़ने वाले क्रांतिकारी जैसा नहीं है. ना ही हम लोकमान्य तिलक जैसे कठोर शब्दों में लिख सकते हैं. ना ही सावरकर के समान गुप्त रूप से यहां सन्देश भेज सकते हैं; परन्तु भारत को कुछ अंश तक सुशिक्षित जवान पीढ़ी दे सकते हैं.”

“फिर तुमने क्या करने का निश्चय किया है?”

तब उन्होंने बताया कि कैसे चारों तरफ़ अज्ञान का अन्धकार छाया हुआ है. “बाबा, वर्तमान में भारत के दो अथवा तीन प्रतिशत बच्चे विदेशों में शिक्षा ग्रहण करते हैं, पंद्रह से बीस प्रतिशत बच्चे भारत में शिक्षा ग्रहण करते हैं. संभ्रांत परिवारों की लड़कियाँ शिक्षा प्राप्त करती हैं. हमारी ठाकुरबाड़ी में आपने शिक्षा पर जितना ज़ोर दिया, वैसा बहुत कम होता है. हमारा विचार है, कि बोलपुर में स्थित हमारे शान्तिनिकेतन में एक आश्रम शाला आरंभ की जाए. जहां बच्चे रह सकें, जैसे प्राचीन काल में तपोवन के ऋषियों के आश्रम में रहा करते थे. प्राथमिक शिक्षा के साथ साथ अपनी रूचि की कला में प्रावीण्य प्राप्त करते थे. वैसी ही व्यवस्था भारत के लिए होना चाहिए. बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए यह सब आवश्यक है, ऐसा हमारा विचार है.”

“बहुत अच्छी कल्पना है. तुम्हारे कार्य के लिए हमारा आशीर्वाद है. जो भी है, आज तुम्हारे जैसे युवा देश के लिए कुछ अच्छा करना चाहते हैं, इसका हमें बहुत आनंद है.”

दोपहर के भोजन के बाद रवी बाबू ने एक बार फिर शिक्षण संस्था, अर्थात् आश्रम शाला खोलने का विचार प्रस्तुत किया, तब वे बोले,

“रोबी, हमें खुशी है, कि संस्कार और संस्कृति को प्रधानता देकर ठाकुरबाड़ी के बैठकखाने में जो चर्चाएँ हुईं, उनमें से तुम्हारा स्वभाव बनता गया, और सियालदह के अनुभव से वह पुष्ट होता गया. सचमुच, खुशी हुई.” वे कुछ देर रुके.

“तुम्हें बताता हूँ रोबी, ऐसा लगता ही नहीं, कि यहां हम अकेले हैं. अभी परसों जगदीशचन्द्र बोस आये थे. तुमसे उनकी अच्छी मैत्री है, और तुम दोनों के बीच पत्र व्यवहार है, ऐसा कह रहे थे. हमें अच्छा लगा. वे भौतिक शास्त्र, जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, रेडिओ विज्ञान के अभ्यासक है, और विज्ञान कथा लेखक हैं...इतना सब हम नहीं जानते थे.”

हाँ, बाबा, वे हमसे तीन-चार वर्ष ही छोटे हैं, परन्तु उनकी एक संशोधक की, कुछ सिद्ध करने की दृष्टि है. हमारे बैठकखाने में भी वे आये थे. इसके अतिरिक्त तीन-चार कार्यक्रमों में हम साथ थे.”

“भारत का अभिमान हैं जगदीशचंद्र बोस. बीच में एक बार नरेंद्र दत्त आया था. पाश्चात्य शिक्षा ग्रहण करने वाला यह युवक हमारे पास आया और उसने हमें अचरज में डालने वाला प्रश्न पूछा, ‘महर्षि, आपको आध्यात्मिक विषयों  का अनुभव अवश्य ही होगा! मैंने सहज ही एक प्रश्न अनेक व्यक्तियों से पूछा है, आपसे भी पूछता हूँ. आप इतनी साधना करते हैं, ध्यान करते हैं, तो क्या कभी आपने ईश्वर को देखा है?

“सचमुच अकल्पनीय था उसका यह प्रश्न. फिर आपने क्या उत्तर दिया?

“हमने कहा, हमने तो ईश्वर को नहीं देखा, परन्तु दक्षिणेश्वर में एक साधु पुरुष रहते हैं, वे रात-दिन काली माता की उपासना करते हैं, उन्हें देवी का साक्षात्कार होता है. उनका नाम है ‘श्री रामकृष्ण, उन्हें ‘परमहंस की उपाधि प्राप्त हुई है. वे तुम्हें ईश्वर के दर्शन करवाएंगे. परन्तु नरेंद्र, उच्च शिक्षा को छोड़कर ईश्वर के दर्शन की कल्पना तुम्हारे मन में आई कैसे? तुम्हारे पिता तो यहाँ हाईकोर्ट में जज हैं. क्या ‘ईश्वर-दर्शन’, ‘साक्षात्कार’ की कल्पना तुम्हें भ्रामक नहीं प्रतीत होती?

“आप भी तो साधना करते हैं ना महर्षि, आपको भी तो अनुभूति हुई होगी ना?”

नरेंद्र का प्रश्न सुनकर पल भर को हम भी संभ्रमित हो गए थे.  

“नरेंद्र, हम ईश्वर का ध्यान इसलिए नहीं करते हैं कि वह दिखाई दे. उससे साक्षात्कार का विचार भी हमने नहीं किया. हमें आनंद होता है, समाधान होता है, इतना ही है साधना का, ध्यान धारणा का उद्देश्य.

तब थोड़ा निराश होकर ही वह पाश्चात्य विद्याविभूषित युवक नरेंद्र दत्त हमारी जलनौका से गया, तो हमने सोचा कि उसने यह प्रश्न अनेक व्यक्तियों से पूछा होगा. शायद हरेक का उत्तर नकारात्मक रहा होगा.

इसके बाद वह श्री रामकृष्ण परमहंस के पास गया अथवा नहीं, यह ज्ञात नहीं हुआ. आयेगा किसी दिन.”

बड़ी देर तक किसी ने कुछ नहीं कहा. फिर रवी बाबू ही बोले,

“बाबा, हर व्यक्ति के विचार और राष्ट्र भावना अलग-अलग ही होगी ना? जब आप थे, तब हमारे बैठकखाने में जगदीशचंद्र बोस आये थे. तब उनसे प्रभावित होकर आपने कहा था, “रेडिओ और सूक्ष्म तरंग पर संशोधन करने वाला, सृष्टि की वृक्ष लताओं को सजीव मानने वाला यह भारत का पहला वैज्ञानिक है.” और आप उसके बारे में खूब उत्साह से बोले थे. आपने राजा राममोहन राय के बारे में भी कहा था.”

“जीवन में कभी भी, कोई भी अपराध न करने वाली बालिकाएं, युवतियां, प्रौढाएं या वृद्ध महिलाएं पति के साथ चिता में जीवंत मरण को अपना रही थीं. क्योंकि वह समाज की रीत ही थी. वह प्रथा राजा राममोहन राय ने अंग्रेज़ी शासनकाल में ही प्रयत्नपूर्वक बंद करवाई, बल्कि नियम ही बनवाया. यह सब आप हमें बताते थे. इसीलिए ना, कि हम सभी अपने-अपने क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करें?

“आप ही कह रहे कि सुभाषचन्द्र बोस युवावस्था में ही क्रांतिकारियों के संपर्क में आकर अपना एक सशस्त्र संगठन बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं...”

“अरे रोबी, तुम आखिर कहना क्या चाहते हो? तुम क्या करना चाहते हो?

रवीबाबू मन में विचारों को संगठित करके बोलने ही वाले थे, कि सत्येन्द्रनाथ देवेन्द्रनाथ से मिलने के लिए आए. रवीन्द्रनाथ को देखते ही वे बोले,

“अरे, रोबी, तुम यहाँ?”

“बाबा से मिलने आया था. अब तुम ही आ गए हो बड़ो दा, तो तुम्हें भी बताता हूँ.”

“कोई नई बात है क्या?”

रवी बाबू ने सारी परिस्थिति का वर्णन करते हुए कहा, “बड़ो दा, यह सब बताने के बाद आप भी इस स्थिति की केवल कल्पना ही कर सकते हैं. हमने इस स्थिति को अनुभव किया है और इस अनुभव से एक विचार मन में आया, कि ...” रवीबाबू  कुछ देर रुके,

“अरे बोल ना, रोबी, अपने मन की बात बता ना.” सत्येन्द्रनाथ ने कहा.

“बड़ो दा, बाबा, हमें वहां, अर्थात् बोलपुर में, बाबा का जो साधना केंद्र है, वहां एक स्कूल खोलना है और उस स्कूल में विद्यार्थियों के भोजन की, रहने की व्यवस्था करना है. शिक्षा और कला, शिक्षा और जीवन, कला और जीवन का मेल बिठाकर सप्त सुरों से जीवनसंगीत का निर्माण करना है. नृत्य, नाट्य, संगीत – हमारी इन कलाओं का उन्हें दान करना है. दान करने के बाद भी वे हमारे ही पास रहेंगी.”

“उत्तम कल्पना है. हमारी अनुमति है.” देवेन्द्रनाथ ने तुरंत कहा, तब ज़िंदगी भर वकील और जज रह चुके सत्येन्द्रनाथ बोले,

“रोबी, तुम्हारी कल्पना हमें भी मान्य है, परन्तु...”

“परन्तु क्या?”

“आज तक ये सारे ज़मींदारी के काम सौदामिनी के पति शारदाप्रसाद करते थे. उनकी मृत्यु के बाद बाबा ने यह काम तुम्हें सौंपा. तीन-चार सालों से तुम बहुत अच्छी तरह काम संभाल रहे हो. उस ज़मींदारी की आय से ठाकुरबाड़ी के अपने पूरे परिवार का खर्चा चलता है. नौकर चाकर, ऐशो आराम – ये सब ज़मीन्दारी की आय से ही जाता है. इसलिए...”

“इसलिए क्या, सत्येन?” देवेन्द्रनाथ ने पूछा.

“बाबा, एक योग्य और कानूनी विचार यह है कि रोबी यदि उस आय से आश्रम शाला चलाने वाला है, तो बाकी सारे भाई उसके खिलाफ़ हो जायेंगे. इसलिए, परिवार में वाद विवाद न हो, इसलिए द्विजेनदा, हेमेनदा, वीरेन, ज्योति, पुण्येंद्र, सोमेंद्र ये भाइयों के, और आपका – ऐसे हिस्से बनाएं. आपका भाग बड़ा हो, आप सौदामिनी, शरद्कुमारी, स्वर्णकुमारी को दे सकेंगे. जिससे रोबी अपने हिस्से की संपत्ति का अपनी मर्ज़ी से उपयोग कर सकता है, और बाकी लोग अपने अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी उठाएंगे और उसका ध्यान रखेंगे. जैसा आप करते आये हैं वैसे वह किसी एक की ज़िम्मेदारी नहीं रहेगी. परिवार एक साथ रहेगा और सुख से रहेगा.”

बड़ी देर तक देवेन्द्रनाथ ने कुछ नहीं कहा, असल में तो उन्हें मनःपूर्वक यह बंटवारा  पसंद नहीं था. इतने साल उन्होंने अपनी ही ज़िम्मेदारी पर परिवार को संभाला था. चचेरे भाईयों का भी अपने पुत्रों के ही समान ध्यान रखा था. पूरा परिवार एकत्र था और आनंदपूर्वक रहता था. बैठकखाना आज भी लोगों से सुसज्जित था. चचेरे भाई, उनके बच्चे आनंद से ठाकुरबाड़ी में रहते थे. ऐसे समय में बंटवारा करना उन्हें मान्य नहीं था.

सत्येन्द्रनाथ उनकी भावना को समझ गए थे.

“बाबा, आपकी भावना को हम समझते है, परन्तु इसके अलावा सचमुच कोई चारा नहीं है. जब आपने अपना ज्ञान, अपनी प्रतिष्ठा, अपने परिश्रम और संस्कार सभी कुछ सारे बच्चों में बांट दिए हैं तो संपत्ति का बंटवारा  करते हुए आपको दुःख क्यों होता है? मैं और द्विजेनदा तो हैं ही ना? आज तक हम सब कुछ संभालते ही आये हैं ना? द्विजेन की ओर से भी मैं वचन देता हूँ, कि हम सबको, अर्थात् पूरे परिवार को संभालेंगे! परन्तु बंटवारा  करना आवश्यक है.”

रवीबाबू को इस सब की कल्पना नहीं थी. वे शांत बैठे थे, उन्हें लग रहा था कि मैंने बेकार ही अपना विषय प्रस्तुत किया. उन्होंने कहा,

“बाबा, आपका शान्तिनिकेतन मेरे लिए पर्याप्त है.”

देवेन्द्रनाथ कुछ देर बाद उठे. जलनौका के डेक पर चलते हुए गए. दोनों बेचैन थे. दोनों सोच रहे थे कि बेकार ही यह विषय छेड़ा. कुछ देर बाद देवेन्द्रनाथ धीरे से अन्दर आये. आसन पर बैठे और उन्होंने आंखें बंद कर लीं. दोनों स्तब्ध थे.  दोनों के मन में विचार आया, की बेकार ही में सम्पत्ति का बंटवारा  नहीं करना चाहिए.

देवेन्द्रनाथ ने धीरे धीरे आंखें खोलीं. हमेशा की तरह प्रसन्न और शांत चित्त से बोले,
“सत्येन्द्र जो कुछ तुम कह रहे हो
, वह बिलकुल योग्य है. सबको ज्ञान बांटा, सबको संस्कार दिए, सबको संस्कृति का महत्त्व समझाया, राजकीय, सामाजिक, राष्ट्रीय विचारों से अवगत कराया. सभी कुछ किया, अब संपत्ति का मोह किसलिए? उसे भी तो बांटना ही पडेगा. कुछ कुछ मोह छूटते नहीं हैं, यही सत्य है. हम बड़े हैं, हम ही यह ज़िम्मेदारी उठा रहे हैं, हमारा मान-सम्मान होना चाहिए, यह भावना मन से जानी चाहिए. परन्तु यही होता है भावना का मोह. ऐसा लगता है, मानो हाथों से कोई चीज़ छूटी जा रही हो; परंतु सत्येन्द्र तूम जो कह रहे हो, वही उचित है. जो भी लिखना है, वह लिखकर दे.”

रवीबाबू और सत्येन्द्रनाथ भाव विह्वल हो गए थे. रवी बाबू ने सोचा, जो भी हो रहा है, योग्य ही है. शायद हमें भी मोह हुआ होता.

“रोबी, तुम्हारी आश्रम शाला वाली जगह तो तुम्हें अवश्य दूंगा. निश्चिन्त रहो. और, बाकी लोगों के हिस्से में जो संपत्ति आयेगी उसमें भी तुम्हारा हिस्सा होगा. तुम निश्चिन्त मन से अपना काम शुरू करो. हम भी आते,परन्तु अब यात्रा करना संभव नहीं है और फिर अनेक चीज़ों का मोह होगा.”

रवीबाबू उनके चरणों पर झुके, देवेन्द्रनाथ ने उनके मस्तक पर अपने दोनों हाथ रखे.

“तुम्हारे हाथ से ऐसा कुछ हो, जिससे जीवन सार्थक हो.”

“बाबा, हमें एक ही बात का दुःख है, - संपत्ति का बंटवारा. हमें संपत्ति का मोह नहीं है. हमें बस, शान्तिनिकेतन की वह दो-तीन बीघा ज़मीन दें, बाकी कुछ और नहीं.”

“तुम ज़मीन माँगने आये हो, रोबी. हमें ‘महाभारत; के पांडवों की याद आ गई. वास्तव में तो पांडवों का भी हस्तिनापुर साम्राज्य के भूभाग पर अधिकार था. परन्तु उसे नकार दिया गया, और हमारे बाद ठाकुरबाड़ी कुरुक्षेत्र न बन जाए, इसलिए हमने संपत्ति का बंटवारा करने का फैसला किया है. तुमने जो माँगा है, उसमें तुम्हारा उद्देश्य अच्छा ही है. अस्तु! सत्येन्द्र ने उचित ही कहा है और हम वैसा ही करने जा रहे हैं.”

सत्येन्द्र और रवीबाबू शांत थे.

“बाबा, एक बात और. मृणालिनी और बच्चों को लेकर सियालदह जाने का निश्चय किया है.”

“बिल्कुल योग्य निर्णय है.”

“इससे पूर्व हम बेला और रेणुका का विवाह संपन्न करना चाहते हैं. इसलिए आपके परिचितों में से सुयोग्य लड़कों के नाम सुझाएँ.”

“बेला का ठीक है, परन्तु रेणुका अभी छोटी है.”

“हमें मालूम है, परन्तु...”

“बाबा, रोबी जो कह रहा है, वह काल से थोड़ा हटकर है. हमारे परिवार में आने वाली बहुएँ लगभग आठ से तेरह वर्ष की ही रही हैं. अब बेला की आयु तो ठीक है. रेणुका थोड़ी छोटी है. परन्तु ठीक ही है. सियालदह में रहकर नई आश्रम शाला आरंभ करने पहले लड़कियों के विवाह करना है, निरंतर यह विचार तो नहीं होना चाहिए ना? फिर, ठाकुरबाड़ी में आज सभी एकत्रित हैं. सभी को प्रसन्नता होगी.”

रवीबाबू के मन में विचार आया, ‘सत्येनदा हमेशा हमारे सन्दर्भ में योग्य विचार करते आये हैं’. उन्होंने सत्येन्द्रनाथ की ओर देखा. वे आगे बोले,

“बेला का, रेणुका का विवाह करो, मगर रथी को हमारे पास ठाकुरबाड़ी में छोड़ना. उसकी शिक्षा की देखभाल हम करेंगे.”

रवीबाबू की आंखें भर आईं. सत्येन्द्रनाथ ने उनके कंधे पर हाथ रखा. रवीबाबू ने भावनातिरेक से उनका आलिंगन किया. यह देखकर देवेन्द्रनाथ के मन में आया,

‘ज्ञान का बंटवारा नहीं कर सकते, उसे दान में दे सकते हैं. परन्तु, ‘यह लो प्रेम!’ ऐसा कहकर दान नहीं कर सकते. ‘ये लो आदर कहकर नहीं दे सकते.’

दोनों देवेन्द्रनाथ से बिदा लेकर जलनौका से बाहर निकले तब देवेन्द्रनाथ उनकी आकृतियों को देख रहे थे.

 

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